आप दुनिया को बर्बाद होने से कैसे रोक सकते हैं

PrashantAdvait Foundation

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आप दुनिया को बर्बाद होने से कैसे रोक सकते हैं

प्रश्न: आचार्य जी, हम पूर्णता के भाव तक कैसे पहुँचे?

आचार्य प्रशांत: पूर्णता के भाव तक पहुँचे कैसे, शुरुआत यहाँ से करते हैं। पूर्णता कोई भाव है ही नहीं, तो उस तक पहुँचने का भी कोई प्रश्न नहीं है।

आप (प्रश्नकर्ता) कहते हैं कि आपने मेरा लिखा पढ़ा है, थोड़ा दोबारा पढ़िए, मुझे नहीं लगता कि मैंने कभी भी कहा है कि पहुँचना होता है। मेरी सारी देशना तो इस पहुँचने की कयामत के खिलाफ़ रही है। क्योंकि आपको लगातार समाज से, शिक्षा से, धर्म से, गुरूओं से सीख यही मिलती रही है कि कुछ हासिल करना है।

समाज कहता रहा है कि पद या रुतबा हासिल करना है, घर कहता रहा है कि स्थायित्व हासिल करना है, परम्परा का निर्वाह करना है और धर्म ने भी हासिल करना ही सिखाया है। धर्म ने कहा है, ‘निर्वाण या मोक्ष हासिल करना है, पूर्णता या आनन्द हासिल करना है।’ वो सारी बातें एक ही हैं। लगातार, लगातार यही कहता आया हूँ कि ये हासिल करने के पीछे जो भावना है वही हम सबकी रुग्णता है, वही बीमारी है हमारी।

आपने कहा, ‘भाव।’ पूर्णता कोई भाव नहीं। भाव तो जो भी होता है वो अभाव का ही होता है, इस बात को ध्यान से समझ लीजिएगा। हममें से अभी कितने लोगों को अपने पेट का भाव आ रहा है? नहीं आ रहा न? न कोई खयाल, न भाव, न विचार, कुछ नहीं। हाँ, पेट खाली हो, भूख लगी हो, तो ज़रूर भाव उठेगा, कहाँ से कुछ पा जाएँ, कहाँ चले जाएँ, सत्र का अन्त कब होगा, इत्यादि, इत्यादि।

आप जब स्वस्थ होते हैं, आप जब ठीक होते हैं तो भाव वगैरह उठते ही नहीं, एक निरी शून्यता रहती है, एक कोरा खालीपन रहता है। एक बात बताइए, आपके जीवन में जो कुछ ठीक है आप उसके विषय में सोचते रहते हैं या आपके जीवन में जो कुछ गड़बड़ है आप उसके विषय में सोचते रहते हैं? आप किस विषय में सोचते रहेंगे?

श्रोता: जो गड़बड़ होता है।

आचार्य प्रशांत: तो सोच की प्रकृति को पकड़िए। सोच का और अभाव का, सोच का और अपूर्णता का बड़ा गहरा नाता है। जो कुछ ठीक है वो कभी विचार का, भावना का विषय बनेगा ही नहीं। जो कुछ ठीक है उसकी पहचान ही यही है कि आपको उसके बारे में कुछ सोचने, कहने, सुनने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी, क्यों? क्योंकि वो ठीक है।

पूर्णता कोई भाव नहीं हो सकती, पूर्णता तो एक अनुपस्थिति है। जो कुछ भी पूर्ण है आपके जीवन में — पूर्ण से अर्थ है वो जो स्वस्थ है, वो जिसको अब और किसी प्रगति की ज़रूरत नहीं है, वो जिसके बारे में आपको कुछ और करना नहीं। जो कुछ भी पूर्ण है आपके जीवन में उसका आपको विचार आएगा ही नहीं, आना भी नहीं चाहिए। पूर्णता को अगर आपने विचार बना लिया, तो पूर्णता बीमारी बन गयी।

दुर्भाग्य से आध्यात्मिकता के नाम पर हमें यही सिखाया गया है — विचारों और धारणाओं को मन पर लाद देना, और कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि आपके विचार का, धारणा का विषय क्या है। आपके विचार का अगर विषय है ‘तरक्की’, तो तरक्की बोझ है आपके लिए। आपके विचार का अगर विषय है कोई लड़ाई–झगड़ा, फ़साद, तो वो बोझ है आपके लिए। आपके विचार का अगर विषय है क्रोध या कामवासना, तो वो बोझ है आपके लिए। और अगर आपके विचार का विषय है ईश्वर और भगवत्प्राप्ति, तो वो भी बोझ है आपके लिए।

“जो मन से न उतरे, माया कहिए सोय।” जो कुछ भी आपके मन में चल रहा है चक्र की भाँति, वही माया है। आपने पूर्णता को भी मन में बैठा लिया, कि ये वो भाव है जिस तक पहुँचना है, और आप जुट गये, आप लग गये। कि क्या कर रहे हो आज-कल, क्या धन्धा है? क्या पेशा है? तो आपने कहा, ‘मेरा पेशा निर्वाण।’ तो आप किसी भी दूसरे पेशेवर आदमी से ज़रा भी अलग नहीं हो। चोर का पेशा है चोरी, सिपाही का पेशा है चोरी को रोकना, आपने भी एक पेशा बना लिया है। चोर जाता है कुछ हासिल करने के लिए, आप भी कुछ हासिल करने के लिए निकल पड़े हो।

मैं फिर कह रहा हूँ — फ़र्क नहीं पड़ता आप क्या हासिल करने निकले हो, हासिल करने के पीछे जो अपूर्णता की भावना है वही रुग्णता है। और भावना सदा अपूर्णता की होगी, पूर्णता कोई भाव नहीं हो सकता। दोहरा रहा हूँ, आपकी सुविधा के लिए — भावना सदा अपूर्णता की होगी। कुछ तकलीफ़ है, कुछ बीमारी है, कुछ कसर है, कुछ रह गया है, भावना हमेशा वो होगी, पूर्णता कोई भाव नहीं होगा।

फिर पूर्णता क्या है? पूर्णता ये है कि जितना कुछ आपने नाहक ही पकड़ रखा है, जितना कुछ आप मन में लिए फिरते हो, ज़रा गौर से उसको जाँच तो लो, ज़रा ध्यान से उसको देख तो लो और फिर पूछ लो अपनेआप से, ‘ये न भी रहे तो हो क्या जाना है?’ और दूसरी बात, ‘इसको मन में धारण किये-किये मैंने कर क्या डाला?’

आप पाओगे कि निन्यानवे प्रतिशत सामग्री जो मन में घूमती रहती है, नाहक ही घूमती रहती है। उसका सिर्फ़ एक प्रयोजन है, वो प्रयोजन है आपको ये आश्वासन दिलाये रखना कि आप उपयोगी हो, कि जैसे आपके पास कोई उद्देश्य है। मन में जो कुछ भी होता है वो आपको एक उद्देश्य देता है न? क्योंकि मन में क्या होता है हमेशा? कोई कमी। अगर कमी है मन में, तो उद्देश्य मिल गया, क्या उद्देश्य मिल गया है? कमी को भरना है, पूरा करना है। तो जीने का बहाना मिल गया। जीने के लिए कोई ठिकाना मिल गया। कुछ करना है। देखा है आपने, आप कितने बेचैन रहते हैं जब करने को कुछ नहीं होता।

वास्तव में जीवन में करने को कुछ है नहीं, इसीलिए हमने जीवन में नाहक ही उद्देश्य भर रखे हैं। भरे तो इसलिए थे कि ऊब रहे थे, कुछ तो है करने को, कर डालेंगे। और फिर एक बिन्दु आया जब भूल ही गये कि ये तो यूँही थे, समय काटने का बहाना, मटरगश्ती थे, टाइम पास थे। आप गम्भीर हो गये, आपने अपनी पहचान को बाँध लिया उन सब चीज़ों के साथ जो मन में यूँही व्यर्थ कभी भरी थीं। आपने जाँचना ही छोड़ दिया कि इनकी कुछ सार्थकता है, कोई उपयोगिता है, मैं अपना जीवन किसको दिये दे रहा हूँ?

मैं अगर सौ, पाँच-सौ, हज़ार रुपये का भी निवेश करता हूँ, इन्वेस्टमेंट करता हूँ, तो मैं जाँचता हूँ कि कहाँ लगा रहा हूँ। आप शेयर खरीदते हो, आप म्यूचुअल फन्ड खरीदते हो, आप किसी को उधार देते हो, आप पहले परखते हो कि जहाँ अपने पाँच-सौ रुपये भी लगा रहा हूँ वहाँ वो डूब तो नहीं जाएँगे, निवेश में सार्थकता है? कुछ सुरक्षा है? और आप ये देखते ही नहीं कि आप अपना इकलौता और बहुमूल्य जीवन जहाँ लगा रहे हो वहाँ कोई सार्थकता है।

किसके पीछे अपने घण्टे, अपने दिन, अपने माह, अपने साल लगाये ही जा रहे हो, लगाये ही जा रहे हो। पैसा तो हो सकता है कि गँवाकर दोबारा भी अर्जित कर लो, ये जो उम्र गँवाते जा रहे हो, इसको गँवाकर के दोबारा अर्जित कर लोगे?

कबीर साहब कह गये हैं, “हीरा जनम अमोल था कौड़ी बदले जाय।”

"हीरा जनम अमोल था कौड़ी बदले जाय।" जाँचा है कि इस अनमोल जीवन को कहाँ लगाये दे रहे हो, कहाँ इसकी बदली कर ली, कहाँ आदान–प्रदान हो गया, दे दिया ज़िन्दगी और बदले में क्या हासिल किया?

मन में वही चलता है जिसको आप महत्व देते हो। आप उसी विषय के प्रति गम्भीर हो सकते हो जिससे आपने अपनी पहचान जोड़ ली हो। जिस किसी भी चीज़ को, मुद्दे को आपने कह ही दिया कि गैर ज़रूरी है, महत्वहीन है, वो तो वैसे भी मन में रहेगा ही नहीं, क्योंकि आपने कह ही दिया है कि बेकार की बात है हटाओ, हट गयी।

मैं निवेदन करता हूँ आपसे कि उन सब चीज़ों को गौर से देखें जिन्हें आप अपने जीवन का रस, अपने जीवन का अमृत, अपने जीवन का उद्देश्य कहते हो, माया वहीं छुपी हुई है और कहीं नहीं है। जो कुछ भी हमने कीमती माना है, वहीं पर हमने अपनेआप को लुटाया है। और ध्यान रखना, कीमती हमने सिर्फ़ माना है, कभी समझा नहीं, जाना नहीं। मान यूँ लिया है कि कहीं से सुन लिया, मान यूँ लिया है कि सबको करते देख लिया। तो ऐसे ही कही–सुनी पर यकीन कर बैठे। हमें लगा सब कर रहे हैं, तो चीज़ आवश्यक ही होगी, ज़रूरी ही होगी। बात कीमती ही होगी, क्योंकि सब मानते हैं।

जो कुछ भी तुमने कीमती माना, वही मन में अड्डा करके बैठ गया, क्योंकि तुमने कह दिया कीमती है। अब कीमती है तो मन में अड्डा करेगा ही न? अब वही विचारों में घूमेगा, उसी के इर्द–गिर्द भावना बनेगी। बचो उससे जो तुम्हें महत्वपूर्ण लगता हो, चाहे वो तुम्हारा ईश्वर ही क्यों न हो। बचो उससे जो मन से न उतरता हो, चाहे वो तुम्हारा प्रेमी ही क्यों न हो। बचो उससे जो तुम्हारे लिए बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी है, चाहे उसका पाठ तुम्हें बहुत पूज्य लोगों ने ही क्यों न पढ़ाया हो।

शुद्ध मन ही आत्मा है और आत्मा से ऊँचा कुछ नहीं। तुम्हारे सारे आदर्श तुम्हारी दृष्टि में ऊँचे होंगे; अस्तित्व की दृष्टि में, सत्य की दृष्टि में मात्र एक चीज़ ऊँची है — मन का हल्कापन। और अगर आपके मन का हल्कापन गँवा दिया, तो आपने वो सबसे अमूल्य निधि गँवा दी जो परमात्मा ने आपको दी थी। जब मैं कह रहा हूँ परमात्मा, तो उसको आत्मा ही पढ़ें।

कोई आदर्श, कोई पाठ, कोई संस्कार आपको बचाने नहीं आएगा अगर आपने अपने मन को बोझिल कर लिया है तो। साफ़ मन से बड़ी कोई सम्पदा नहीं और मलिन मन से बड़ा कोई अभिशाप नहीं। मन को सफ़ाई से अर्थ इतना ही होता है कि मन पर आदर्शों को, भावनाओं को, विचारों को, स्मृतियों को, उद्देश्यों को जमने न दें, कुछ भी जमने न दें। क्या उतारना है मन से, इसकी कसौटी बस इतनी सी है कि देख लें कि क्या है मन में जो चलता रहता है।

मैं फिर सावधान किये देता हूँ — जो कुछ भी मन में चलता रहता है, वो इसीलिए चलता रहा है क्योंकि वो आपको अच्छा लगता है। क्योंकि वहाँ आप कोई कीमत, कोई वैल्यू देखते हैं अन्यथा वो मन में चलेगा ही नहीं। तो मुश्किल होगा ज़रा, आप कहेंगे, ‘ये चीज़ तो मन में चल ही इसलिए रही है क्योंकि इससे मेरा हित जुड़ा हुआ है।’

मैं आपसे कह रहा हूँ, ‘अगर वो मन में चल रही है, तो अहित पहले ही हो गया, अब हित क्या जुड़ेगा। जो कुछ भी आपके मन में हो रहा है उसने हो-होकर अहित तो पहले ही कर डाला, अब हित कब होगा।‘ अहित का उदाहरण जानना चाहते हैं? आप में से अगर कोई ऐसा है जिसके मन में अभी कुछ भी घूम रहा है, तो वो इस सत्र में शामिल ही नहीं है, लो हो गया अहित। मन में जब भी कुछ घूमेगा, वो आपको जीवन से काट देगा, लो हो गया अहित। और मन में वो घूम इसलिए रहा है कि भविष्य में कभी हित करा देगा। भविष्य में क्या हित कराएगा, प्रतिपल तो अहित करा रहा है।

जो कुछ भी मन में सवार है वो आपकी आँखें बन्द कर देता है, आपकी बुद्धि क्षीण कर देता है, आपके कानों को सुनने से महरूम कर देता है। आप जी ही नहीं रहे होते, जब मन अपने ही बनाये पिंजड़े में चक्र काट रहा होता है। जीने का अर्थ ही है कि मन खुले। मन अगर खुला नहीं है, तो बस वो एक यन्त्र है। फिर वो गति तो बहुत करता है, पर उसकी गति विक्षिप्तता की गति होती है, पागल की गति होती है।

जैसे ये पँखा ऊपर टँगा हुआ है न? आप इसे चला दें, गति बहुत करेगा। और गति करके अगर ये सोचता है कि कहीं पहुँच जाएगा, तो पहुँचेगा कहीं नहीं, क्योंकि ये अपनी ही धुरी का गुलाम है। पँखा अपनी ही धुरी का गुलाम है। मन भी ठीक इसी तरीके से अपनी ही भावनाओं का, विचारों का गुलाम हो जाता है।

बचें अपने ही आप को प्रोत्साहन देने से अन्यथा आपको लगेगा कि आप बहुत कुछ कर रहे हैं, जैसे पँखा करता है। पर आप कुछ नहीं कर रहे होंगे, बस इसकी तरह छत पर टँगे हुए होंगे। आपसे यदि लाभ हो भी रहा होगा, तो दूसरों को।

ध्यान रखिएगा कि पँखा जब आपको शीतल कर रहा होता है तब खुद गर्म हो रहा होता है। तो लाभ तो दे रहा होता है, पर दूसरों को। आपकी ज़िन्दगी हो सकता है किसी और के स्वार्थ के काम आ रही हो, पर आपके लिए तो व्यर्थ ही जा रही होगी, ठीक है?

प्रश्नकर्ता: सो इज़ दिस नॉट द पर्पज़ ऑफ़ लाइफ़ टू बेनीफिट अदर्स? (तो क्या दूसरों की भलाई करना जीवन का उद्देश्य नहीं है?)

आचार्य प्रशांत: हाउ कैन यू बेनीफिट अदर्स व्हैन यू डू नॉट नो व्हाट यॉर ओन बेनीफिट इज़ (जब आप नहीं जानते कि आपका अपना लाभ क्या है, तो आप दूसरों को कैसे लाभ पहुँचा सकते हैं)? मैं दूसरों को वो कैसे दूँगा जो स्वयं मुझे प्राप्त नहीं है। मैं नहीं जानता दृष्टि क्या है, मैं दूसरों को स्पष्ट देखने में मदद कैसे कर पाऊँगा? जो मेरे पास है ही नहीं, वो मेरे माध्यम से बँटेगा कैसे?

दूसरों को देने का एक ही तरीका होता है — स्वयं पा लो। और तुम जब पा लेते हो, तो उसके बाद बाँटने की आवश्यकता रह ही नहीं जाती, क्योंकि सूरज को उद्देश्य करके नहीं बाँटना पड़ता। वो अगर सूरज है, तो रोशनी उससे स्वमेव बँटती है। क्योंकि हवा को उद्देश्य करके तुम्हें शीतलता नहीं देनी पड़ती। अगर वो हवा है, तो तुम्हें शीतल करेगी-ही-करेगी।

आप वो हो जाइए जो आप सदा से हैं। आप वो होने से बाज आइए जो आपने तय कर रखा है कि आपको होना है, फिर आपके माध्यम से पूरी दुनिया का कल्याण अपनेआप हो जाएगा। लेकिन अगर आपने दुनिया के कल्याण को लक्ष्य बना लिया, तो आप सबसे पहले अपने को तबाह करेंगे, और अपने माध्यम से दुनिया को भी तबाह करेंगे।

दुनिया की बर्बादी के ज़्यादातर ज़िम्मेदार वो लोग हैं जो समाज कल्याण पर निकले हुए हैं। और दुनिया को अगर किसी ने थाम रखा है, अगर किसी के माध्यम से शान्ति है दुनिया में, तो उनके माध्यम से जो कहते हैं कि दुनिया तो बाद की बात है, दुनिया तो मेरा अपना प्रक्षेपण है, पहले मैं स्वस्थ हो जाऊँ, पहले मैं शान्त और स्थिर हो जाऊँ। और अगर मैं हो गया शान्त और स्थिर, तो मेरे माध्यम से शान्ति विस्तीर्ण होगी ही, होनी ही है।

एक ज्ञानीजन की, एक बोधी की, एक सन्त की उपस्थिति ऐसी होती है कि उसको कुछ करना नहीं पड़ता। उसके होने मात्र से उसके आभा क्षेत्र में शान्ति फैल जाती है। वो कुछ करेगा नहीं, वो बस उपस्थित है और उसके होने भर से सब ठीक हो जाता है। आप ऐसे हो जाइए, होने में और करने में अन्तर है। हमारा करने पर बहुत ज़ोर रहता है, होने पर ध्यान नहीं रहता। बल्कि हमारा खयाल तो कुछ ऐसा रहता है कि हों हम भले ही कुछ और, पर कर कुछ और जाएँगे।

हों भले ही हम डरपोक, पर दिखा जाएँगे साहस, कैसे कर लोगे? हों भले ही हम प्रेम से खाली, पर लुटा जाएँगे प्रेम, कैसे कर लोगे? हों भले ही हम द्वन्द्वों और संघर्षों से भरे हुए, पर दिखा जाएँगे शीतलता, कैसे कर लोगे? स्वाँग कर सकते हो अधिक-से-अधिक, पर स्वाँग में हकीकत तो कुछ होती नहीं, उससे पेट तो किसी का भरता नहीं।

आप पाइए और फिर जो आपको देगा वो ये भी स्पष्ट कर देगा कि आपके माध्यम से फैलना कैसे है। हर फूल के तरीके अलग होते हैं, रंग अलग होता है, आकार अलग होता है, खुशबू अलग होती है, जीवन अलग होता है। सबकुछ अलग होता है, बस एक चीज़ साझी होती है, और वो ये होती है कि उसे खिलना है। आप खिलिए, फिर आपकी जो खुशबू है वो क्यों फैलनी है, कैसे फैलनी है, किसको पहुँचनी है, उसकी चिन्ता छोड़िए, वो अपनेआप होता है। वो किसी और का सिरदर्द है, वो देख लेगा, वो सम्भाल लेगा।

आप वो करिए जो आपका कर्तव्य है। और आपका कर्तव्य है — वैसे ही रहे आना जैसे आप हो। आपका कर्तव्य है कि अपनी चादर को गन्दा न होने दें। आपका कर्तव्य ये नहीं है कि अपनी चादर को और सजाएँ, सँवारे, रंगे और सुशोभित करें। आपका कर्तव्य ये है कि उस पर पहले ही जितने दाग, धब्बे और छींटे पड़ गये हैं उनको बस किसी प्रकार से साफ़ कर दें, उसको वैसा ही कर दें जैसी वो थी।

"चदरिया झीनी रे झीनी।"

जीवन में तरक्की के लिए लालायित मत रहिए, तरक्की शब्द ही झूठा है, तरक्की जैसा कुछ नहीं होता। प्रगति से बड़ा छल कोई और नहीं। आप वापस लौटिए, अपने मूल की तरफ़ वापस जाइए। और अगर प्रगति शब्द आपको इतना ही लुभाता है, तो इस वापस जाने को कहिए प्रगति। तरक्की आपने तब की जब आपने पुनः अपनी बच्चे जैसी निर्मलता प्राप्त कर ली। तरक्की आपने तब की जब आप पुनः धारणाओं से और संस्कारों से वैसे ही मुक्त हो गये जैसे जन्म के समय थे, जैसे जन्म से पहले थे।

समझ रहे हो?

YouTube Link: https://youtu.be/9mSU6PjpNbk?si=xm7TiYqgx9JOtUvt

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