निर्मलता की गहरी अभिलाषा ही तुम्हें निर्मल करती है || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

Acharya Prashant

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निर्मलता की गहरी अभिलाषा ही तुम्हें निर्मल करती है || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

साबुन बिचारा क्या करे, गांठे राखे मोय । जल सों अरसा परस नहि, क्यों कर ऊजल होय । । ~ संत कबीर

वक्ता: अच्छा-सा एक प्रतीक प्रयोग किया है कबीर ने। साबुन क्या कर सकता है, अगर तुम उसको कहीं गाँठ बाँध कर रख दो? साबुन – साफ़ करने वाली वस्तु, में बड़ी संभावना होती है स्वच्छ कर देने की, मैल को धो देने की। परन्तु उसके लिए उसको कुछ अनुकूल स्थितियाँ चाहिए। अच्छे से अच्छा साबुन, गहरी से गहरी जिसकी सम्भावना हो, वो भी अनुपयोगी हो जाएगा, कोई काम नहीं दे पाएगा, यदि वो प्रयोग में उतारा ही ना जाए।

कबीर के यहाँ वो साबुन है, ‘राम’ नाम, सत्संग, संतों के वचन – तीनों एक ही बात हैं। ‘राम’ नाम, सत्संग, संतों के वचन, क्योंकि संत, ‘राम’ नाम के अलावा और कुछ बोलते ही नहीं। और सत्संग का भी अर्थ यही है कि – राम के साथ हो लिए। पर ये साबुन तुम्हारे किस काम आएगा, तुम्हारे जो मन की मैली चादर है – ये भी कबीर का ही एक प्रतीक है, तो उसका ही इस्तेमाल कर रहा हूँ – तुम्हारी जो ये मन की मैली चादर है, उसको किस प्रकार धोएगा, यदि तुम इस साबुन को पानी के ही स्पर्श में ना आने दो? तुम्हारी चादर कैसे उजली होगी, यदि यह साबुन पानी के ही स्पर्श में ना आए?

तो तीन चीज़ें हो गयीं – साबुन, पानी, और वस्त्र जो मलिन है, पर जिसे साफ़ होना है। ‘साबुन’ क्या है, स्पष्ट है? ‘वस्त्र’ क्या है, वो भी स्पष्ट है? जल है ध्यान तुम्हारा, जल है तुम्हारी श्रद्धा। संत का वचन है, पर जब तक वो तुम्हारी श्रद्धा से नहीं मिलेगा, जब तक वो तुम्हारे ध्यान से नहीं मिलेगा, वो तुम्हारे मन के मल को, मन की मैली चादर को, मलिन वस्त्र को, साफ़ नहीं कर सकता। तो साबुन की अपनी बड़ी क़ीमत है, अपनी बड़ी ताकत है, लेकिन वो भी बलहीन है, यदि तुम उस पर ध्यान ना दो।

याद करेंगे तो याद आएगा, इसी पर कबीर का एक दोहा और है,

“गुरु बिचारा क्या करे, शब्द ना लागे अंग। कहे कबीर मैली चादर, कहे कबीर काली चादर कैसे चाढ़े रंग।”

‘शब्द’ तो आ रहा है, वही साबुन है। जो ‘शब्द’ आप तक आ रहा है, वही ‘शब्द’ क्या है? साबुन है, जिसमें ये ताकत है कि वो मन को साफ़ कर दे। पर उस ‘शब्द’ को तुम श्रद्धापूर्वक ग्रहण भी कर रहे हो क्या? उस ‘शब्द’ पर पूर्ण ध्यान भी दे रहे हो क्या? या तुम्हारे भीतर उस ‘शब्द’ के प्रति मात्र उपेक्षा है? और उपेक्षा से भी आगे, या तुम्हारे भीतर उस ‘शब्द’ के सामने एक दीवार खड़ी हुई है?

दो ही प्रकार के लोग होते हैं। एक – जो कहते हैं, “क्या क़ीमत है इसकी, छोड़ो ना।” वो उस ‘शब्द’ का तिरस्कार कर रहे हैं, वो उपेक्षा कर रहे हैं। और दूसरे – जो खड़े ही हो जाते हैं विरोध में, “हम नहीं मानते, ये बातें ही बेकार की हैं। जिस स्रोत से ये बातें आ रही हैं, वो और भी व्यर्थ है।” वहाँ बड़ा अभाव है श्रद्धा का। अब ऊँचे से ऊँचा वचन, तुम्हारे काम नहीं आ पाएगा, साफ़ से साफ़ बात तुम्हें साफ़ नहीं कर पाएगी। अमृत तुम तक आएगा, और तुम्हारे अहंकार की दीवार से टकरा-टकरा कर लौट जाएगा।

स्पष्टता की, आनंद की, बारिश हो रही होगी, और तुम कोरे के कोरे खड़े होगे। प्रेम की नदी तुम्हारे सामने बह रही होगी, और तुम उतरने से इनकार कर दोगे। ‘साबुन’ तुम्हारे हाथों में होगा, और तुम गंदे, मैले-कुचैले घूम रहे होगे। क्योंकि जल नहीं दिया तुमने उस साबुन को, प्रयोग नहीं किया तुमने।

‘शब्द’ तो संत दे सकता है तुमको, श्रवण तक तो वो तुम्हें ले आएगा, मनन तुम्हें ही करना है, निधिध्यासन तुम्हें ही करना है। वो तो इतना ही कर सकता है कि तुम्हें एक अनुकूल वातावरण दे दे, ‘राम’ नाम तुम्हारे कानों तक पहुँचा दे, पर आगे की यात्रा तो तुम्हारी है न।

क्या करे संत, यदि ‘शब्द’ ना लागे अंग? वही कह रहे हैं यहाँ पर, “क्यों कर ऊजर होए?” कैसे उजला हो कपड़ा? अरे, साबुन दिया उसने, ज़रा जल का प्रयोग करो, ज़रा घिसो, ज़रा अपनी भी ताकत लगाओ। साफ़ से साफ़ साबुन भी कहता है कि, “थोड़ा बल दो उसको, फिर साफ़ हो जाओगे।” कुछ करते हो ऐसा? संत तो ‘शब्द’ दिए देते हैं, कबीर तो तुमसे कहे देते हैं, उसके बाद जाकर तुम उस साबुन को घिसोगे भी? कुछ श्रुति-सुमिरन होगा?

तो ये सबकुछ जो यहाँ मिल रहा है, यहाँ जाने के बाद फ़िर? साबुन तो दे दिया गया, उसका प्रयोग किया पूरे सप्ताह? नहीं किया। तो क्या नतीजा? अगले सप्ताह फिर आ जाओगे गंधाता मुँह ले के। हाथ में है कबीरवाणी – सबसे ज़्यादा ताक़त का साबुन। और चेहरा कैसा है? और फ़िर कोई पूछेगा, “मुँह ऐसा क्यों है तुम्हारा?” तो कहोगे, “ये साबुन किसी काम का नहीं।” वो कहे, “तुमने प्रयोग किया?” तो कहोगे, “हाँ किया। ये देखिये, ये साबुन है, और ये मुँह है, और घिसा।”

“पानी कहाँ है?” साबुन मुँह पर घिसने से, मुँह नहीं साफ़ हो जाएगा, चोट और लग जाएगी और साबुन गन्दा हो जाएगा, और यही होगा। शक्ल तुम्हारी एक दम ही धूल धूसरित हो, उस पर तुम साबुन मल लो, तो साबुन और गन्दा हो जाता है। पानी कहाँ है? क्या है पानी?

ध्यान। ध्यान दिया? ‘उसके’ साथ थोड़ा लगे? अपनी कोशिश की? वो जल है, उसके बिना कोई सम्भावना नहीं है।

~ ‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं ।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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