प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मैं आपको पिछले नौ महीने से सुन रहा हूँ और प्रतिदिन आपसे एक वंडरमेंट मुझे महसूस होता है। ऐसा लगता है कि जैसे कुछ नया। आज पहली बार आपके सामने इतने करीब से बैठा हूँ। तो जो आपसे मिला उसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।
मेरा प्रश्न आचार्य जी यह है कि अनुकंपा और ग्रेस, ये क्या होती है? क्योंकि मैं अगर अपने जीवन को देखूँ तो ये सारे ग्रंथ या जितनी भी गीता, भगवद्गीता हैं या कबीर जी के दोहे, ये सारा जितना भी ज्ञान है ये हमारे सामने भी था। बचपन से हमने भी नाम तो सुना ही था, पढ़े नहीं थे तो। कभी-कभी ये सामने भी आए तो हमने इनको देखा भी, पढ़ा भी। पहले तो इनके प्रति कोई जिज्ञासा ही पैदा नहीं हुई और जिज्ञासा पैदा हुई भी तो जो उनकी टीकाएँ लिखी हुई थी, कभी इतना साहस ही नहीं हुआ कि इसके अलावा भी कुछ व्यवहारिक इनका अर्थ हो सकता है।
तो जब आपको मैंने पहली बार सुना और सोचा कि, जो ग्रंथ हैं इनका इतना व्यवहारिक अर्थ हो सकता है हमारे लिए। तो ये एक प्रश्न मेरे अंदर आता है कि आप कहते हैं कि आप में कोई विशेषता नहीं है, आप हमारे जैसे ही हैं।
तो जब उस समय में हमारे सामने ये ग्रंथ आए और हमें तो शायद ज़िन्दगी ने ज़्यादा ही ठोकरें दी हैं। आपके सामने तो प्रलोभन भी खूब आए हैं जीवन में। क्योंकि आपको तो जीवन ने ज़्यादा ही — मतलब एक अपॉर्चुनिटी ज़्यादा दी है। परंतु फिर भी आप इसको देख पाए। ऐसा क्या मतलब हम में ऐसा क्या — ये ग्रेस नहीं है तो फिर क्या है? विशेषता नहीं है तो क्या है?
आचार्य प्रशांत: आप मुझे विशेष बोल रहे हैं। आप एक अन्य दृष्टि से देखेंगे तो आप बहुत विशेष हैं। पिछले एक साल में ही — वीडियो पहले देखा होगा आपने?
प्रश्नकर्ता: यस सर।
आचार्य प्रशांत: 95% लोग वीडियो ही देख के आते हैं, 99 शायद। पिछले एक साल में करीब 20 करोड़ से ज़्यादा अलग-अलग लोग हैं और 20 करोड़ मैं एकदम न्यूनतम नंबर ले रहा हूँ। और सब आप जितने भी प्लेटफॉर्म्स हैं सब मिला दें तो शायद वो संख्या 30-40 करोड़ के आसपास हो। पिछले एक साल में ही 30-40 करोड़ अलग-अलग लोगों ने, व्यक्तियों ने मेरी बात को सुना है —यूनिक व्यूअर्स।
उसमें से कितने लोग हैं जो गीता में आ गए? कितने आ गए? इस वक्त गीता समागम में हमारे साथ कितने 4000 लोग हैं? उतने भी नहीं है। 3500 लोग हैं, तो 35 करोड़ ले लो मोटा आंकड़ा। 35 करोड़ में 3500 कितना हो गया? यूपीएससी सिलेक्शन रेट से कम है ज़्यादा है?
श्रोता: कम है।
आचार्य प्रशांत: तो मेरा यूपीएससी ज़्यादा बड़ा है या आपका यहाँ पे होना ज़्यादा बड़ा है? मेरी विशेषता अगर ये है कि यूपीएससी और आपकी विशेषता है कि आप यहाँ मौजूद हो तो विशेष कौन है? मैं कि आप?
35 करोड़ लोगों में 3500 हैं। उन 3500 में से भी यहाँ 35 बैठे होंगे। सब के सब कहते भी नहीं कि सामने आकर बात करनी है, ऑनलाइन से संतुष्ट रहते हैं। अच्छी बात है। मैं भी नहीं चाहता, बढ़िया है। हाँ, माने कौन झंझट करे।
परसेंटाइल कितनी निकली भाई बताओ? 35 करोड़ में 3500 कितना हुआ?
श्रोता: एक लाख।
आचार्य प्रशांत: तो लाखों में एक हो आप।
प्रश्नकर्ता: पर सर हमें तो स्वार्थ दिख रहा है, आपसे।
आचार्य प्रशांत: मुझे भी दिख रहा था ना स्वार्थ। मैं भी वही करना चाहता था जो मेरे लिए उपयुक्त हो, सर्वोच्च हो। वही तो अपना-अपने प्रति धर्म होता है कि पाँच दिशाएँ दिख रही हैं। उसी पे तो चलोगे जो ठीक लग रही है।
प्रश्नकर्ता: सर हमें तो आपका जो ज्ञान है वो प्रिपयर्ड मिल रहा है।
आचार्य प्रशांत: ये मैं आपको जो दे रहा हूँ इन्होंने (किताब की ओर इंगित करते हुए) जो मुझे दिया है कोई तुलना नहीं है ना। ये भी तो प्रिपेयर्ड ज्ञान ही है, मुझे मिल रहा है। मुझे भी प्रिपेयर्ड मिल रहा है।
प्रश्नकर्ता: जो व्यवहारिक आप कर पाए मतलब आप इसका अर्थ निकाल पाए, वो हम तो सोच ही नहीं पाते इस बातों को कभी।
आचार्य प्रशांत: देखिए आप जो साबित करना चाह रहे हैं मानूँगा तो मैं, है नहीं।
प्रश्नकर्ता: सर 108 करोड़ अभी हैं पूरे उसमें, पर अभी हिंदुस्तान में देख लीजिए 145 करोड़ हम हैं। उनमें से कितने आचार्य प्रशांत बन गए?
आचार्य प्रशांत: आचार्य प्रशांत कैसे बन जाते अगर आप सामने नहीं बैठे होते। मैं तो प्रशांत हूँ, आचार्य तो आपकी तरफ से हूँ। मैं कौन हूँ? मैं तो प्रशांत हूँ। बैंक में जाता हूँ तो वहाँ मैं आचार्य प्रशांत थोड़ी हो जाता हूँ। मैं तो प्रशांत हूँ। आचार्य तो मुझे आपने बना रखा है। वो तो आपका श्रेय है ना कि आप देख पा रहे हो कि कहीं से लाभ है तो वहाँ से आप लाभ ले रहे हो। जिस दिन आप नहीं रहोगे उस दिन आचार्य भी नहीं रहेगा।
ये सब कुछ नहीं रखा है इन बातों में, इन बातों से नुकसान ये है जिस वजह से मैं इनको मना करता हूँ। आप कहीं ना कहीं अपने आप को फिर ये समझा लोगे कि जो अनुकंपा होती है, वो विशेष चीज़ होती है — किसी को मिली है, किसी को नहीं मिली है। तो फिर हमें हमारे कर्म से बचने का बहाना मिल जाता है। क्या बोलकर? — उनको मिली है ग्रेस, हमको थोड़ी मिली है। उनको मिली है, हमको थोड़ी मिली है।
कहीं ग्रेस -व्रेस कुछ नहीं होती है, सबको मेहनत ही करनी पड़ती है। और ये मिलना भी कुछ नहीं होता, मिलने से ऐसा लगता है कि मिल गया। क्या मिलना होता है? ये बैठे हैं संस्था से आप किनसे संपर्क में हैं अगर कभी ऐसी फुर्सत में उनसे बात हो। हालाँकि उन लोगों को फुर्सत होती नहीं है पर कभी किसी तरह बात हो पाए तो बताएँगे ना, क्या मिल गया है। लगातार-लगातार, लगातार संघर्ष है ही। वही होता है।
आप अगर कहना भी चाहते हो कि ग्रेस कुछ होता है तो कह दीजिए ग्रेस इज़ द अनएक्पेक्टेड विंडफॉल फ्रॉम डेडिकेटेड एफर्ट। अनएक्पेक्टेड माने — निष्काम। एक्सपेक्टेशन नहीं थी, मिल गया। उसलिए नहीं करा था संघर्ष पर हो गया और उसके होने से संघर्ष रुक नहीं गया। संघर्ष तो वैसे ही चलता रहेगा बल्कि हो सकता है और बढ़ ही जाए, क्योंकि और जिम्मेदारी आ गई।
तो मैं तो यहाँ तक कह रहा हूँ कि जिसको आप ग्रेस बोल रहे हो वो भी अकस्मात नहीं होता, वो भी किसी और पे आश्रित नहीं होता।
वेदांत किसी और को बिल्कुल अनुमति ही नहीं देता आपके जीवन के निर्धारण में, सब आपका चुनाव है।
अनुकंपा भी एक तरह से आपका अपना चुनाव है, अनुकंपा को आप आमंत्रित करते हो अपनी मेहनत के द्वारा। तो सीधे-सीधे यही कह दो ना एफर्ट इज़ ग्रेस। मेरा प्रयास ही अनुकंपा है, प्रयास अनुकंपा क्यों है? क्योंकि जब निष्काम प्रयास करा जाता है तो उससे अनपेक्षित परिणाम आते हैं — अनएक्पेक्टेड। उसको ही आप अनुकंपा बोल दो, बोलो इतना तो चाहा भी नहीं था ये क्या आ गया। लेकिन जो आ गया वो ऐसा नहीं है कि मिल गया तो अब निकलो यहाँ से। नहीं-नहीं, आ भी गया तो अब हम इसके लिए थोड़ी कर रहे। इसके लिए कर रहे होते तो ये मिल जाता तो हम रुक जाते, पर इसके लिए तो कर नहीं रहे थे। तो ये मिल गया, अच्छी बात है, देख लिया हाँ बढ़िया — चलो भैया, आगे बढ़ो।
आप जा रहे हो ऊपर शिखर तक और रास्ते में कितने तरह के नजारे होते हैं? ट्रैकिंग करी कभी? अरे कहीं तो चढ़े होंगे केदारनाथ चढ़े होंगे, पहाड़ों पे गए होंगे और चढ़े हैं? कोई एक जगह बनाई होगी, वहाँ पहुँचना है और वहाँ पहुँचने के रास्ते में कितने अच्छे-अच्छे लुभावने मनोहर दृश्य आते हैं। वहाँ रुक जाते हो क्या? — हाँ, पल भर को सांस लेने को, हुआ तो एक तस्वीर ले ली, किसी चट्टान पर बैठ गए पानी पी लिया और फिर क्या करते हो? फिर आगे बढ़ जाते हो।
तो ये होता है, हमने तो माँगा था वहाँ पहुँचना है। रास्ते में ये जो मिल गया इसको बोलते हैं अनुकंपा। लेकिन वो अनुकंपा ऐसी नहीं चीज़ होती है कि वो आपको वहीं पर रोक ले। क्योंकि अनुकंपा के लिए थोड़ी आपने काम करा था। आप अपना आगे बढ़ते ही रहते हो, बढ़ते ही रहते हो। जो अनुकंपा के लिए काम करेंगे उनको अनुकंपा मिलेगी नहीं। अनुकंपा की बात ही यही है वो अनपेक्षित चीज़ होती है। आपको जब जैसे पाती हो कि ये अपने प्रयास में लीन है तो कोई चुपके से आपको कुछ — उसके लिए वो जो पुराना उदाहरण है कई बार दे चुका हूँ, बड़ा मुझे प्रिय है। फिर से दूँ?
श्रोता: यस सर।
आचार्य प्रशांत: कि वो छोटू है और उसको चाहिए ये बड़ा वाला चॉकलेट और उसका बिल्कुल दिल आ गया है ये चीज़ तो चाहिए ही है। अब वो ज़्यादा समझता नहीं अर्थशास्त्र। तो उसने क्या करा? अब उसने पैसे जोड़ने शुरू करे हैं। वो जो इतना बड़ा वाला चॉकलेट है, हो सकता है वो आयातित चॉकलेट हो। 2000 का है, डब्बा है इतना भारी मोटा ₹000 का। अब छोटू बोल रहा है वो चाहिए। इसको बताया जाता है यह तो देखो उनको ही मिलता है जो पूरी मेहनत करते हैं। बोलता है कोई बात नहीं मैं भी मेहनत करूँगा। बोले देखो ऐसे नहीं कि बस जाकर के माँग लिया, वहाँ पर जाकर के दाम चुकाओ तब लेके आना।
यही तरीका होता है दुकान का, दाम चुकाओ चीज़ उठाओ। बोलता है ठीक है हम भी दाम चुकाएँगे। अब ज़्यादा लेकिन वो समझता नहीं दो हज़ार, हज़ार क्या, उसको तो गिनती भी इतनी आती है — 1, 2, 3, 4, 5 इतनी उसकी बुद्धि है। मान लो 5 साल का है तो क्या करता है? — वो अपनी गुलक़ बनाता है। और गुलक़ में वो छ: महीने तक रुपया, पाँच रूपया ऐसे-ऐसे करके अपना वो करता है, और ऐसे करके अपनी गुलक़ भर लेता है। और 6 महीने के अथक प्रयास के बाद वो पूरा अपना गुलक़ ले जाता है, वहाँ दुकानदार के सामने फोड़ देता है। और एकदम कहता है देखो अब वो दो और दुकानदार कहता है — है कितना, तू तो गिन भी नहीं पाता ठीक से। वो गिनता है तो वो निकलते हैं रुपए 164। कुल कितना निकला — 164 वो भी 6 महीने की मेहनत से।
दुकानदार देखता है उसका मुँह देखता है, उसकी मेहनत देखता है, देखता है उसकी गुलक़ पूरी भर गई थी और देखता है अब वो कैसे ऐसे खड़ा हुआ है। कह रहा जितना ये अधिकतम कर सकता था इसने कर ही दिया है, ना जाने कहाँ-कहाँ से एक रुपए, पाँच रुपए डाला होगा। दुकानदार कहता है ठीक है, ठीक। तुमने दे दिए पैसे — ये लो चॉकलेट और उसको दे देता है चला जाता है। ये ग्रेस है। अब बताइए ये कोई आशीर्वाद है, वरदान है, चमत्कार है या सीधे-सीधे प्रयास है?
श्रोतागण: प्रयास।
आचार्य प्रशांत: तो अगर ये एक किसी का वरदान भी है, तोहफ़ा है, उपहार है, भेंट है, जो भी आप बोलना चाहो अनुकंपा, तो वो भी आपको कैसे मिल रहा है? आपके पूरे प्रयास से मिल रहा है। तो मैं क्यों सोचूँ कि कौन आ कर के मुझे वरद हस्त करेगा और ऐसे दे देगा। मैं तो यही देखूँगा ना कि मुझे क्या करना है — प्रयास, तो एफर्ट इज़ ग्रेस। आप अपना काम करो और उस काम से कई बार कुछ नहीं निकलता कई बार बहुत कुछ निकल जाता है। जब कुछ नहीं भी निकले तो भी काम?
श्रोतागण: करना है।
आचार्य प्रशांत: और कई बार 164 की मेहनत से 2000 निकल जाता है तो भी काम?
श्रोतागण: करना है।
आचार्य प्रशांत: बस यही है। छोटू का क्या काम? छोटू का काम है मेहनत कर। और छोटू को अब हम शास्त्र में क्या नाम देंगे? — अहंकार। चॉकलेट को क्या नाम देंगे?
श्रोतागण: आत्मा।
आचार्य प्रशांत: आत्मा बस। आप मेहनत करते रहो कोई और बाहर नहीं है जो आकर के किसी को वरदान दिया करता हो, अगर आपको वरदान देना है तो स्वयं को दीजिए। ऐसे (सिर में हाथ रखते हुए) अपने आप को कहा करिए ऐसे। किससे वरदान माँगोगे, ये जगत कौन है? — मिथ्या है ये। यहाँ किससे कहोगे कि आ के अनुकंपा बरसाओ हमारे ऊपर। कौन है यहाँ पर? तो अगर हमें ब्लेस भी करना है तो हम ही स्वयं को कर सकते हैं। और स्वयं को जो आशीर्वाद दिया जाता है उसको क्या बोलते हैं? एक ही नाम होता है उसका निष्काम प्रयास और कुछ नहीं। ठीक है?
मैंने भी प्रयास करा है, आप भी करते चलें। सब विशिष्ट हैं अपने-अपने तरीके से। उस राह पर जो चल पड़ा वो विशिष्ट ही है, फिर उसमें यह नहीं देखते कौन आगे राह में कौन पीछे है। जितने हैं सब एक से हैं सब हमसफर है, आगे पीछे वाला कोई वो नहीं है।
कभी ऐसा बोलते हो? गाड़ी जा रही है तो अरे ड्राइवर आगे निकल गया, गाड़ी माने ट्रेन। ट्रेन में ऐसे बोलते हो क्या? कि वो आगे निकल गया हम पीछे रह गए, एक ही गाड़ी है कभी ऐसे बोला है? B1 सबसे आगे लगा हुआ है मान लो और आपका है B20 लंबी वाली होती है गाड़ियाँ, तो आप ऐसे बोलते हो B1 वाले तो ज़िन्दगी में आगे निकल गए या कि वो जो लोको पायलट है वो सबसे आगे निकल गया — ऐसे बोलते हो क्या? सब एक साथ हैं और एक दूसरे के बिना आगे-पीछे वो जा भी नहीं सकते। आप आगे नहीं बढ़ोगे मैं भी आगे नहीं जा पाऊँगा। ड्राइवर आगे निकल सकता है अकेले? अकेले अगर ड्राइवर निकल गया तो बड़ी दुर्घटना हो जाएगी।
दुर्घटनाओं में ऐसा होता है इंजन भाग गया तो, ऐसे सब एक साथ हैं। कोई आगे पीछे वाली बात नहीं है। मैं अपनी मेहनत कर रहा हूँ। अपनी मेहनत करिए और इसमें किसी भी तरह का कोई पारलौकिक रहस्य नहीं है। इसमें किसी भी तरह का कोई रहस्यमयी कोण नहीं है। कहीं किसी अलौकिक देवी देवता का कोई वरदान नहीं है, कुछ नहीं है। सीधी साधी ईमानदार मजदूरी की बात है।
मैंने मेहनत करी है आप भी करो, और इस एक धारणा से हमेशा दूर रहिएगा कि ये तो किस्मत का प्रतिभा का या प्रारब्ध का खेल होता है।
इसमें बात ना प्रतिभा की है ना प्रारब्ध की है बात प्रयास की है। प्रतिभा भी लिख के काट दो। प्रारब्ध भी लिख के काट दो। प्रयास लिख के उस पे टिक लगा दो। ठीक है?
प्रश्नकर्ता: थैंक यू सर।