'गीता सबके लिए नहीं है', ऐसा क्यों कहते हैं कृष्ण? || आचार्य प्रशांत, भगवद् गीता पर (2019)

Acharya Prashant

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'गीता सबके लिए नहीं है', ऐसा क्यों कहते हैं कृष्ण? || आचार्य प्रशांत, भगवद् गीता पर (2019)

आचार्य प्रशांत : केतन हैं, गीता के पाँचवे अध्याय से अट्ठारवाँ श्लोक उद्दृत किया है। श्लोक कहता है-

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनी | शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिन: ||

“वे ज्ञानीजन विद्या और विनययुक्त ब्राह्मण में तथा गौ, हाथी, कुत्ते और चाण्डाल में भी समदर्शी ही होते हैं।”

भगवद्गीता,अध्याय ५,श्लोक १८

और फिर अट्ठारवें अध्याय का सड़सठवॉ श्लोक है-

इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन | न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति||

“तुझे यह गीता का रहस्यमय उपदेश किसी भी काल में न तो तपरहित मनुष्य से कहना चाहिए, न भक्ति-रहित से और न बिना सुनने की इच्छा वाले से ही कहना चाहिए,तथा जो मुझमें दोषदृष्टि रखता है, उससे तो कभी भी नहीं कहना चाहिए।”

भगवद्गीता,अध्याय १८, श्लोक ६७

तो दो अलग-अलग अध्यायों से दो श्लोक उद्दृत करे हैं। पहला श्लोक कहता है कि ज्ञानीजन, विद्या विनाययुक्त ब्राह्मण में, और गौ, हाथी, कुत्ते, चाण्डाल में भी समदर्शी ही होते हैं। तो जो पहला श्लोक है वो प्रतीत हो रहा है कि भेद को मिटा रहा है। वो कह रहा है कि चाहे विद्या विनययुक्त ब्राह्मण हो और चाहे गाय, हाथी, कुत्ता, चाण्डाल कुछ हो इन सबके प्रति समदर्शी ही रहते हैं ज्ञानीजन। तो जैसे भेद मिटाए जा रहे हों, कोई भेद नहीं है।और दूसरा जो श्लोक है- वो भेद करता हुआ प्रतीत होता है। पहले श्लोक में भेद को मिथ्या बताया गया, और दूसरे श्लोक में कृष्ण ही जैसे अर्जुन से कह रहे हो कि अर्जुन भेद करना, ज़रूर भेद करना। क्या भेद करना? कि जो लोग तपरहित हों, भक्तिरहित हों, सत्य के प्रति अनिक्छुक हों और कृष्ण में दोष दृष्टि रखते हों उनसे गीता का उपदेश कभी मत कहना अर्जुन भेद करना, भेद करना।

तो केतन ने यही सवाल रखा है कि आचार्य जी ये क्या बात है? एक ओर तो समदर्शिता सिखा रहे हैं अर्जुन को कृष्ण, कि समदर्शी रहो; एक जैसा देखो, सबको एक जैसा देखो। विद्या विनययुक्त ब्राह्मण हो, और चाहे कुत्ता हो, चाण्डाल हो, इन सबको कैसे देखो? एक जैसा, भेद मत करो।

और दूसरी ओर, एक दूसरे अध्याय में अर्जुन को कह रहे हैं कृष्ण कि अर्जुन, भेद करना बिलकुल, जिनमें तप न हो, भक्ति न हो और मेरे प्रति श्रद्धा न हो उनसे गीता का ये उपदेश बिलकुल भी मत कहना। तो अब ये इनको यहाँ पर विरोधाभास दिखा है, वही पूछ रहे हैं। हाँ, यही पूछा है कि एक तरफ श्री कृष्ण कहते हैं कि सब में समदर्शी रहो, और दूसरी तरफ कहते है कि जो दोषदृष्टि रखता है उसको ये उपदेश नहीं कहना चाहिए| यह दो बातें अलग-अलग मुझे विचलित कर रही हैं, कृपया मार्गदर्शन करें।

कहाँ कहा गया है कि समदर्शी रहो? और उस समदर्शिता का अर्थ क्या है? अर्थ इतना ही है कि जो कुछ भी तुमको दिखाई देता है, जो कुछ भी चल रहा फिर रहा है, जिस भी चीज़ का अनुभव हो सकता है, जो कुछ भी आ रहा है जा रहा है, वो सब प्रकृति मात्र है। भले ही कितनी विविधता दिखाई देती हो उसमें, कितने भेद दिखाई देते हों उसमें, पर है वो सब कुछ प्रकृति के भीतर ही।

यहाँ पर ये सीख देना चाह रहे हैं, वो बिलकुल एक अलग अध्याय है, पाँचवा ही अध्याय है वो, वहाँ पर क्या सीख देना चाह रहे हैं अर्जुन को कृष्ण? वहाँ पर अनेकता में एकता की सीख देना चाह रहे हैं। वो कह रहे हैं, देखो ये सब अलग-अलग दिखता है।दुनिया का अर्थ ही है वैविध्य। पहाड़ अलग है, नदी अलग है, आदमी अलग है, औरत अलग है, दिन अलग है, रात अलग है, सब कुछ यहाँ अलग-अलग ही हैन। दुनिया माने? अलग-अलग वस्तुएँ, अलग-अलग पदार्थ, सब रंग अलग-अलग हैं, सब पल अलग-अलग हैं। समय का मतलब ही है भेद, जो अभी है, वो थोड़ी देर में नहीं रहेगा; सब अलग हो जाता है, दूसरा हो जाता है, बदल जाता है। और यही जो विविधता है, यही आदमी को बरगलाए रहती है।

हमें लगता है सब अलग-अलग वास्तव में है। हमें लगता है कि कुर्सी और मेज़ अलग-अलग है, हमें लगता है दिन और रात अलग-अलग हैं, हमें लगता है सुख और दुःख अलग-अलग हैं, हमें लगता है मिटती और आसमान अलग-अलग हैं, हमें लगता है पर्वत और पर्वत से उतरती नदी अलग-अलग हैं।

यहाँ पर जो समझने की बात कह रहे हैं कृष्ण, वो ये है कि यह सब जो अलग-अलग दिखता है, इसमें एक मूलभूत एकता है। वो जो एकता है वो किसकी है? वो आत्मा की नहीं एकता है। किसकी एकता है? प्रकृति की। येसब कुछ अलग-अलग दिखते भी किसके क्षेत्र में आता है? प्रकृति के क्षेत्र में आता है।

एक क्षेत्र है, एक तल है प्रकृति का, जिसमें यह सब कुछ समाये हुए हैं। तो भले ये अलग है, और ये अलग है, और ये अलग है, और ये अलग है(चीज़ों की तरफ दर्शाते हुए), लेकिन तल एक ही है, क्या तल है? प्रकृति का।

उसी तल पर तुमको एक ब्राह्मण का शरीर भी दिखाई देता है, उसी तल पर तुमको ब्राह्मण के सब गुण दिखाई देते हैं। उसी तल पर तुमको सब दिखाई देता है जो जड़-चेतन है, जंगम-स्थावर है। सब विभिन्नताएँ तुमको दिखाई देती हैं, लेकिन तल एक ही है, प्रकृति का। तो जब कह रहे हैं इनको एक जानना, इनके प्रति एक दृष्टि रखना, समदर्शिता रखना, तो समदर्शिता यही है, कि ये जो हो रहा है, सब है तो प्रकृति के भीतर ही न।

क्यों आवश्यक है यह समदर्शिता? ताकि ये जो कुछ भी हो रहा है उसको तुम परमात्मा का दर्ज़ा न दे दो, न उसे तुम इतना ऊँचा समझ लो कि उसे ही परमात्मा मानना शुरू कर दिया, न उसे तुम इतना नीचा समझ लो कि उसे तुम परमात्मा का विपरीत कुछ जान लो। न वो बहुत ऊँचा है, न वो बहुत नीचा है, हालाँकि वो अनुभव कुछ ऐसा ही देता है, प्रतीत कुछ ऐसा ही होता है।

दुनिया को तुम देखो तो उसमें तुम्हें बहुत कुछ ऐसा नज़र आता है जो बहुत-बहुत तुमको लगेगा कि शीर्ष चीज़ है, ऊँची से ऊँची, सुन्दर से सुन्दर। और दुनिया को देखो तो उसमें तुम्हें दिखाई देगा बहुत कुछ ऐसा है जो बिलकुल कुत्सित है, गर्हित है, विकृत है, नारकीय है। तो भीतर से बड़ी इच्छा उठती है कि कह दें कि यहीं तो है, स्वर्ग भी यहीं है, नर्क भी यहीं है।

न, यहाँ भेद निश्चित रूप से हैं और यहाँ अनुभवों में ज़मीन-असमान के अंतर भी हैं, पर वो सब अंतर मामूली हैं। यहाँ तुम्हें मिल जाए कुछ बहुत सुन्दर, बहुत ऊँचा तो भी उसको परमात्मा का स्थान मत दे देना, उसको सत्य मत मान लेना। और यहाँ तुमको मिल जाए कुछ बहुत ही कुत्सित, एकदम ही निकृष्ट, तो भी उसको इतना महत्त्व मत दे देना कि वो ही तुम्हारे लिए केंद्रीय वस्तु बन जाए।

न यहाँ कुछ इतना ऊँचा है, इतना सुन्दर है कि उसको तुम अपने मन के केंद्र पर बैठा लो। न यहाँ कुछ इतना गिरा हुआ है कि तुम उसको अपने मन के केंद्र पर बैठा लो। यहाँ तो जो कुछ है किसके दायरे में हैं? प्रकृति के दायरे में।

तो जो पाँचवे अध्याय में तुम उपदेश पढ़ रहे हो, केतन, उसका कुल अभिप्राय ये है, प्रकृति की एकता का उपदेश है वो।

अब आते हैं अट्ठारवें अध्याय के सड़सठवें श्लोक में। भूलना नहीं कि ये पूरी गीता के आख़िरी कुछ श्लोकों में से है। अट्ठारवें अध्याय का सड़सठवां श्लोक है, ये बिलकुल आख़िरी कुछ बातें हैं जो अब श्री कृष्ण अर्जुन से कह रहें हैं। अभी भी जो वो कह रहें हैं अर्जुन से, वो यही है, कि कौन है प्रकृति के अंतर्गत जो इस उपदेश को सुनने का अधिकारी है!

भेद वो कर रहे हैं, पर वो सारे भेद अभी भी किसके भीतर के भेद हैं? प्रकृति के ही भीतर के। वो कह रहे हैं, “देखो, जिन लोगों में तुम ये-ये गुण पाओ उनसे यह गीता का उपदेश कह देना, जिनमें ये गुण न पाओ उनसे गीता का उपदेश कहना ही मत। और गुण उन्होंने बता दिए, तप होना चाहिए, जिज्ञासा होनी चाहिए, भक्ति होनी चाहिए, श्रद्धा होनी चाहिए यह सब अगर पाओ तो उनसे गीता का उपदेश कहना, नहीं तो मत कहना।

जिन गुणों को अनिवार्य बता रहे हैं श्री कृष्ण वो गुण भी प्रकति के भीतर के ही हैं। एक तरह की सात्विकता को अनिवार्य बता रहे हैं श्री कृष्ण। कह रहे हैं कि जिसमें ये सात्विकता पाओ, वही अधिकारी है गीता ज्ञान सुनने का। बाकियों को अगर तुमने कहा, तो वो बेचारे तो पहले से ही उलझे हुए थे, यह गीता का उपदेश उन्हें और भारी पड़ेगा। पक्षपात नहीं कर रहे हैं श्री कृष्ण, ये उनकी करुणा है कि कह रहे हैं जो अभी तैयार नहीं है गीता को सुनने को, उसपर गीता थोप मत देना। क्योंकि तुम उसको अगर गीता थमा दोगे तो वो गीता का बड़ा दुरूपयोग करेगा, वो गीता को तलवार बनाकर अपनी ही गर्दन काट लेगा। तो यह करुणा है कृष्ण की, कि कह रहे हैं कि उसको ही बताना वो सब बातें अर्जुन जो मैंने अभी तुम्हें बताई, जो इन बातों के लिए तैयार हो, योग्य हो, अधिकारी हो गया हो।

जिसने अभी वो योग्यता नहीं तैयार की, उसको तुम यह सब बातें बताओगे तो उसे भारी पड़ेंगी। बात समझ में आ रही है।

तो कुल जो मामला है ऐसा है, प्रकृति है जो त्रिगुणात्मक है, प्रकृति का एक तल है, वो पूरा तल बना हुआ है तीन गुणों से। तो वहाँ भीतर भेद हैं, निश्चित रूप से भेद हैं, तीनों गुण ही एक दूसरे से अलग हैं, भेद तो यहीं हो गया।

प्रकृति के उस तल पर तुम क्या-क्या पाते हो? परा प्रकृति और अपरा प्रकृति। एक वो प्रकृति जिसको तुम देखते हो उसको कह देतें हैं अपरा प्रकृति। एक वो प्रकृति जो देखती है, जो दृष्टा है, उसको तुम कह देते हो परा प्रकृति। पर ये दोनों किसमें आ गए? प्रकृति के ही विशाल क्षेत्र में और फ़िर इस क्षेत्र से हटकर है, क्षेत्रज्ञ। तो भेद हैं, पर कहाँ भेद करना है कहाँ नहीं करना है! ये अच्छे से समझ में आनी चाहिए बात।

क्षेत्रक्षेत्रज्ञ से अलग है। वो विभाग करना सीखो। प्रकृति का क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ से अलग है। क्षेत्रज्ञ माने, जो न दृश्य है, न दृष्टा है, जो दृश्य दृष्टा दोनों का साक्षी है। क्योंकि दृश्य और दृष्टा दोनों कहाँ आ गये? प्रकृति के ही भीतर आ गये। दृश्य भी प्रकृति में, दृष्टा भी प्रकृति में, ज्ञेय पदार्थ भी प्रकृति में और ज्ञाता, बुद्धि और अहंकार भी प्रकृति में। तो यह सब प्रकृति के भीतर का खेल है, और इस तल से अलग हैक्षेत्रज्ञ।

उस क्षेत्रज्ञ के भीतर कोई भेद नहीं है, वहाँ कोई भेद नहीं है। प्रकृति में भेद ही भेद हैं। पर ये सब जो भेद गुण रखने वाली वस्तुएँ हैं, इन सब में एकता क्या है? यह सब प्राकृतिक हैं,-- ये एकता है इनमें। यह समझ में आ गयी बात?

ज्ञानी वो है जो जनता है, कहाँ भेद देखना है और कहाँ भेद नहीं देखना । समझ में आ रही है बात।

विवेक इसी का नाम है, सही जगह भेद देख पाना। विवेकी वो है जो भेद बस वहाँ देखता है जहाँ भेद है, अविवेकी वो है जो वहाँ भेद देख लेता है जहाँ कोई भेद ही नहीं है। अविवेकी को उदहारण के लिए, सुख और दुख में बड़ा भेद दिखाई देगा। वो कहेगा सुख और दुख तो अलग-अलग चीजें हैं ही न। जो सुख और दुख में भेद करे वो अविवेकी, जो सुख-दुख और आनंद में भेद करे, वो विवेकी। भेद दोनों कर रहे हैं, पर जो विवेकी है उसको सही जगह पर भेद करना आता है। अविवेकी भी भेद करता है लेकिन गलत जगह भेद कर देता है। समझ में आ रही है बात। स्पष्ट हो तो कहिए, नहीं तो और बढ़ा जाये इसपर। स्पष्ट!

प्र: जो ज्ञानमार्ग है,उसमें जो बात हुई है विवेक की?

आचार्य: यही है, इसमें कदम-कदम पर विवेक का ही प्रयोग करना पड़ता है। क्या सार क्या असार, क्या नित्य, क्या अनित्य। बहुत सम्भावना होती है कि तुम्हें प्रकृति के भीतर का कुछ सताने लगे, परेशान करने लगे, तुम्हें मिथ्या दिखने लगे प्रकृति के भीतर का कुछ। तो तुम जो चीज़ मिथ्या लग रही है, उसके विपरीत पर जाकर बैठ जाओ।समझ में आ रही है बात। उदहारण के लिए, कहीं तुमने मन लगाया और वहाँ धोखा खाया, चोट खायी, तो तुम राग से उठ करके कहाँ बैठ जाते हो? द्वेष पर। ये विवेकी का काम नहीं हो सकता| विवेकी क्या बोलेगा? राग और द्वेष तो?एक हैं, क्योंकि दोनों किस तल पर हैं? प्रकृति के तल पर।

ज्ञानमार्ग यही बताता है कि क्या एक है क्या एक नहीं है। ज्ञानी समझ जाएगा, कहेगा 'अरे, अंतर क्या है? पहले मैं रागी था अब द्वेषी हो गया हूँ।' रहा तो पहले ही जैसा न!

ज्ञान मार्ग का अर्थ होता है, वो सब कुछ जो अनित्य है उसको एक तरफ कर दो, माने प्रकृति के पूरे क्षेत्र को एक तरफ कर दो और तुम वहाँ जाकर बैठ जाओ जहाँ नित्यता है, जहाँ सार है, जहाँ सत्य है। इसीलिए ज्ञान मार्ग नेति-नेति का मार्ग है। यही विवेक है, यही भेद है, जो कुछ झूठा है उसको हटाते चलो, नेति-नेति करते चलो।

YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=T-uB3f-Dqe8

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