मूल बातें: तन, मन, आत्मा || आचार्य प्रशांत, वेदांत पर (2020)

Acharya Prashant

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मूल बातें: तन, मन, आत्मा || आचार्य प्रशांत, वेदांत पर (2020)

आचार्य प्रशांत: आत्मा है, और आत्मा का विस्तार है। आत्मा बिंदु-मात्र है, सूक्ष्मतम; और जैसे-जैसे विस्तार हो जाता है उस बिंदु का, वैसे-वैसे स्थूलता बढ़ती जाती है।

तो जिसको हम शरीर कहते हैं और जिसको हम मन कहते हैं, वो वास्तव में एक ही विस्तार के दो नाम हैं; वो एक ही विस्तार की दो सीमाएँ हैं, दो हदें हैं, डिग्रीज़ हैं। विस्तार अगर कम हुआ है, न्यून हुआ है, तो हम शरीर को नाम दे देते हैं मन, और विस्तार अधिक हो गया है तो हम नाम दे देते हैं शरीर; और विस्तार जब अतिशय हो जाता है तो हम नाम दे देते हैं संसार।

इन तीनों को एक साझा नाम दिया जा सकता है - देह, शरीर। मन, शरीर, संसार - तीनों को एक साझा नाम दिया जा सकता है। और वो साझा नाम बहुत जगह पर दिया भी जाता है; कभी वो साझा नाम होता है शरीर, और कभी वो साझा नाम होता है मन। चाहो तो कह दो कि दो ही हैं - मन और आत्मा; और चाहो तो कह दो कि दो ही हैं - शरीर और आत्मा।

तो शरीर की स्थूलता का कम होना अब देखो क्या अर्थ ले लेता है। दो ही हैं, शरीर और आत्मा, और शरीर सूक्ष्म-से-सूक्ष्म भी हो सकता है और अतिशय स्थूल भी हो सकता है। तुम्हारे लिए क्या अच्छा है, शरीर कैसा रहे? सूक्ष्म-से-सूक्ष्म। क्योंकि शरीर जितना सूक्ष्म होता जाएगा, उतना तुम कहाँ पहुँचते जाओगे? आत्मा के निकट।

(हाथ की तर्जनी उँगली की ओर इशारा करते हुए) आत्मा को ऐसे अगर एक केंद्र-बिंदु मानो, अब यहाँ से विस्तार होना ऐसे शुरू हुआ है। जितना तुम दूर हो इस केंद्रीय बिंदु से, उतना ज़्यादा विस्तार कैसा हो गया है? स्थूल।

जैसे तुम किसी शांत, स्थिर तालाब में एक पत्थर डाल दो तो लहरें उठती हैं न? और लहर जितनी दूर जाती जाती है, उतना ही घेरा बढ़ता जा रहा है, केंद्र से दूरी भी बढ़ती जा रही है; और जो उसमें उतार-चढ़ाव हैं, तमाम तरह के विक्षेप हैं, वो भी बढ़ते जा रहे हैं। और एक बिंदु तो ऐसा आता है जब दूर जाते-जाते जो लहर है गोल, वो विलुप्त ही हो जाती है; वो किसमें मिल जाती है? पूरे तालाब में मिल जाती है।

माने तुम अगर आत्मा से बहुत दूर हो गए, तो फिर तुम्हारी कोई आत्मिक हस्ती बचती ही नहीं, तुम पूरे तरीके से संसार के हो जाते हो।

समझ में आ रही है बात?

तो तुम्हारे लिए यही अच्छा है कि तुम उस बिंदु के पास-से-पास रहो। शरीर की स्थूलता का कम होना माने तुम अब एक सूक्ष्म जीवन बिता रहे हो, तुम्हारा शरीर सूक्ष्म हो गया है, स्थूल शरीर से तुम्हारा तादात्म्य कम-से-कम हो गया है; तुम्हारा लेना-देना अब सूक्ष्म शरीर से है, मन से है। जितना तुम सूक्ष्म शरीर होते जा रहे हो, उतना तुम्हारे लिए शुभ है, तुम आत्मा की निकटता पाते जा रहे हो।

वैसे ही निरोग होना। अब, निरोग होना काया के सन्दर्भ में भी कहा जा सकता है, लेकिन काया के रोग से कहीं ज़्यादा हमें दुख देता है मन का रोग। और मन का रोग क्या है? मन जितना है, उतना ज़्यादा उसका होना ही उसका रोग है। तो ये नहीं पूछना चाहिए कि मन का रोग क्या है; मन अपना रोग स्वयं है, मन की हस्ती ही उसका रोग है।

तो निरोग होने का क्या मतलब हो गया? कि ये जो विस्तार है मन का, ये विस्तार संकुचित होता जा रहा है, तुम्हें पूरी दुनिया से अब लेना-देना कम-से-कम होता जा रहा है। तुम्हारा ध्येय, तुम्हारा केंद्र अब एक है - वो जिसका कोई नाम नहीं, वो जिसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता, वो जो बस बिंदु-भर है।

समझ में आ रही है बात?

हम बोलते ही इसलिए हैं क्योंकि हमारे भीतर कड़वाहट और खटास भरी हुई है। जो साधक है, जो योगी है, जो ज्ञानी है, वो अकेला ऐसा है जो बोलता इसलिए है ताकि वो कड़वाहट और खटास कम हो। बाकी लोग बोलते इसलिए हैं ताकि वो अपनी कड़वाहट और खटास को और अभिव्यक्ति दे सकें, और ज़्यादा प्रसारित कर सकें।

कबीर साहब का याद है, "ऐसी बानी बोलिये, मन का आपा खोय, औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होय।" अब ये शीतल करने का क्या मतलब हुआ? यहाँ (उपनिषद्) मिलती-जुलती बात है - स्वर की मधुरता। वहाँ कहा जा रहा है: वाणी ऐसी जो दूसरों को शीतल करें।

अब आवाज़ तो आवाज़ है, आवाज़ में मधु कहाँ से आ गया, मिठास? और आवाज़ में शीतलता कहाँ से आ गयी? आवाज़ का कोई तापमान तो होता नहीं, कि शीतलता होगी! इसी तरीक़े से आवाज़ का कोई स्वाद तो होता नहीं, कि कड़वी या मधुर होगी!

तो आशय क्या है, इशारा क्या है? इशारा दोनों बातों का एक ही तरफ़ है, कि हम आमतौर पर जो भी अपनी अभिव्यक्ति करते हैं, वो अभिव्यक्ति वैसी ही होती है जैसी कोई विषाणु से संक्रमित आदमी साँस लेता हो, उच्छ्वास लेता हो। उसने कुछ अभिव्यक्त किया न? क्या करा? एक्सप्रेस (अभिव्यक्त) करा न। एक्सप्रेस क्या करा, किस चीज़ की अभिव्यक्ति दी उसने? उसने साँस छोड़ी है। और साँस के साथ उसने क्या छोड़ दिया है? विषाणु छोड़ दिया है।

हम ज़्यादातर जो कुछ भी दुनिया में छोड़ते हैं, दुनिया में प्रसारित करते हैं, वो ऐसा ही होता है, कि हमारे भीतर विषाणु था, तो लो, अब तुम भी लो। ‘और तुमको हमने विषाणु दे दिया है, उससे ऐसा नहीं कि हमें कोई लाभ हो गया हो। हमारी बीमारी जस-की-तस है, लेकिन तुम और बीमार हो गए।‘ ये आम आदमी का काम है।

आम संसारी ऐसे ही जीता है, उसकी एक-एक गतिविधि दुनिया को बीमार करने के लिए ही होती है। वो किसी को देख भी ले, तो जैसे समझ लो उसने रोग फैलाया। बात कर ले, (तो) उसकी हस्ती ही ऐसी है कि दूसरे बीमार हो जाएँगे। ऐसा नहीं है कि वो चाहकर के या योजना बनाकर ही दूसरों को संक्रमित करता है; वो है ही ऐसा कि उसके होने-भर से संक्रमण की लहरें चारों दिशाओं में फैलती हैं।

बात समझ में आ रही है?

योगी दूसरा होता है। उससे जो कुछ अभिव्यक्त होता है, उससे जो कुछ प्रसारित होता है, वो दूसरों की बीमारी को कम करता है। कसैलापन तो दुनिया में पहले ही बहुत फैला हुआ है, ज्ञानी का जीवन उस कसैलेपन को कम करता है। कैसे? ठीक वैसे ही जैसे आम संसारी, जो रोगी है, वो संक्रमण फैलाता है। हमने कहा कि वो संक्रमण फैलाता है बिना जाने, उसकी हस्ती ही बीमारी का वाहक बनती है।

तुम किसी को जब संक्रमित करते हो, तो ऐसा थोड़े कि उसको दौड़ाकर के और पकड़कर के उसके मुँह में फूँक मारते हो तो ही वो संक्रमित होता है! ऐसा करना पड़ता है क्या, कि किसी को संक्रमित करने के लिए पहले दौड़ाओ, फिर ज़मीन पर गिरा दो, फिर उसके मुँह में कोहनी डाल दो, जब उसका मुँह खुल जाए तो उसके मुँह में साँस लो, तो उसको संक्रमण लगेगा? तुमको कई बार पता भी नहीं होता।

जानते हो न, जो कोरोना महामारी है, इसके शायद आधे से ज़्यादा मरीज़ ऐसे हैं जिनमें कोई लक्षण अभिव्यक्त ही नहीं होते, एसिम्प्टोमैटिक हैं; वो फिर भी बीमारी फैला रहे हैं। वैसे ही हमलोग होते हैं, (हम) जानते-बूझते नहीं फैलाते हैं; हम हैं ही ऐसे कि हम चाहें-न-चाहें, दूसरों को बीमार कर देते हैं। उसी तरीके से, योगी हो ही ऐसा जाता है कि वो चाहे-न-चाहे, वो दूसरों को ठीक कर देता है, जैसे कि उसकी हस्ती से ही दवा का प्रसार होता हो।

अब ज़रा तुम भेद देखना दो चित्रों में! आम संसारी किसी का बहुत भला चाहता है, बहुत किसी से कहता है कि प्रेम करता हूँ, और गले मिल रहा है, और मीठी-मीठी बातें कर रहा है गले मिलकर, बहुत मीठी बातें कर रहा है; उसके लिए अपनी तरफ़ से बहुत सुन्दर भावना रख रहा है, हित चाह रहा है उसका, तो भी उसने उसको क्या कर दिया? संक्रमित कर दिया।

और दूसरी ओर योगी को लो। वो तुम्हारे सामने खड़ा है और तुमको डाँट रहा है, और डाँटे ही जा रहा है, लेकिन फिर भी उसकी हस्ती ऐसी है कि तुम ठीक हो गए।

विरोधाभास देखो - संसारी जब तुम्हारा भला भी चाहता है तो करता बुरा ही है, और योगी जब तुम्हें लगे कि तुम्हारा बुरा कर रहा है, तो भी वो तुम्हारा भला ही कर जाता है। योगी चाहे भी, कि तुम्हारा बुरा करेगा, तो भी उसमें तुम्हारी भलाई ही है; संसारी चाहे भी, कि तुम्हारा भला करेगा, तो उसमें तुम्हारी बुराई ही है।

बात समझ में आ रही है?

हम आमतौर पर कहते हैं कि याद रखो कि तुम शरीर नहीं हो, है न? हम कहते हैं कि आम आदमी का पहला तादात्म्य शरीर से होता है। वहाँ पर भी कई तल हैं। तुम अगर ये भी याद रख लो कि तुम शरीर ही हो, तो भी बच जाओगे खाते वक़्त। खाते वक़्त अगर तुम ये भी कह दो कि मैं पेट हूँ, तो बच जाओगे। हम तो इससे भी ज़्यादा गिरे हुए स्तर पर जीते हैं कि मैं शरीर हूँ।

अगर आपको ये याद रह जाए कि आप शरीर हो, तो क्या आप कभी अपने शरीर के साथ दुर्व्यवहार करोगे? बोलो! अगर आपको लगातार ये स्मरण रहे कि आप शरीर हो, तो आप नशा करोगे, ड्रग्स लोगे? आप घटिया खाना खाओगे? आप अपना वज़न बहुत बढ़ने दोगे, या कम होने दोगे?

हमें ये भी नहीं याद रहता कि हम शरीर हैं, हम शरीर के भी किंचित हिस्सों तक सिमटकर रह जाते हैं। तो खाते वक़्त वो कौन-सा हिस्सा है जिससे हमारा पूरा तादात्म्य हो जाता है? वो है ज़बान। इसी तरीके से, कामवासना के पलों में सिर्फ़ जननेन्द्रियों तक हमारा शरीरभाव सीमित हो जाता है, हमें ये भी नहीं याद रहता कि हम पूरे शरीर हैं।

चलो यही मान लो कि तुम शरीर हो, तो पूरे शरीर हो ये तो याद रखो! बाकी शरीर की चाहे दुर्गति हो रही हो, लेकिन शरीर के एक हिस्से पर चेतना बिलकुल घनीभूत होकर बैठ जाती है।

समझ में आ रही है बात?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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