माया की स्तुति में रत मन सत्य की निंदा करेगा ही || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

Acharya Prashant

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माया की स्तुति में रत मन सत्य की निंदा करेगा ही || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

जो कोई निन्दै साधु को , संकट आवै सोय।

नरक जाय जन्मे मरै , मुक्ति कबहू न होय।।

~ कबीर

वक्ता : *(दोहा पढ़ते हुए)*“जो कोई निन्दै साधु को, संकट आवै सोय। नरक जाय जन्मे मरै, मुक्ति कबहू न होय।”

साधु माने कौन है? तुम साधु से जब सम्प्रक्त होते हो तो साधु के कपड़े से सम्प्रक्त होते हो। चलो, साधु मान लो, एक देह धारी भी है, तो साधु की देह से चिपक जाते हो।

साधु क्या है?

श्रोता १ : व्यक्ति

वक्ता : तो कोई न भी हो, तो भी साधु है। साधु की निंदा मतलब यह नहीं है कि किसी व्यक्ति की निंदा हो रही है। साधु की निंदा इसलिए बुरी नहीं है कि साधु का नाम था रामदीन, और तुमने रामदीन की निंदा कर दी। साधु की निंदा करने का मतलब है उसकी (परम की) निंदा करना। कबीर उसकी (परम की) ओर इशारा कर रहे हैं।

तुम जब साधु को सम्मान देते हो, तो किसी आदमी को सम्मान नहीं देते हो। भारत ने कहा, “झुको, पाँव छुओ, सम्मान दिखाओ।” वो सम्मान तुम किसको दिखा रहे हो? तुम साधु के झुककर पाँव छू रहे हो तो उसके नाखून को सम्मान दे रहे हो क्योंकि छुआ तो तुमने उसका नाखून ही है न। आप ध्यान दीजियेगा, आप जब पाँव छूते हो, तो आप क्या छू रहे हो? उसका नाखून छू रहे हो। अब नाखून को सम्मान दे रहे हो आप? अच्छा, पाँव को दे रहे हो? देह को दे रहे हो? व्यक्ति को दे रहे हो? विचारों को दे रहे हो? किसको दे रहे हो सम्मान?

सम्मान बहुत आवश्यक है। सम्मान दिया जाना चाहिए। क्योंकि जिसको सम्मान दे रहे हो, वो माध्यम है, वो अभिव्यक्ति है। उसके माध्यम से तुम्हारा सम्मान, तुम्हारा सन्देश वहाँ तक पहुँचेगा, जिससे वो जुड़ा हुआ है, जिसका ‘वो’ पैगम्बर है। वर्ना साधु की निंदा में कोई दिक्कत नहीं है। करो जितनी निंदा करनी है।

साधु को क्या फ़र्क पड़ना है। खूब करो निंदा। क्या जाता है। उससे कह दो, “तू भी आकर अपनी निंदा कर।” वो भी तुम्हारे साथ है- “तुम थक गये हो, तो हम भी कर देते हैं।” उसका कुछ नहीं जायेगा। पर अगर कोई सत्य में स्थित है और तुम उसकी निंदा कर रहे हो, तो तुम निंदा किसकी कर रहे हो? तुम सत्य की निंदा कर रहे हो। बात को समझो। जो अस्तित्व के साथ है, तुम उसके विरोध में खड़े हो, तो तुम किसके विरोध में खड़े हो?

अस्तित्व के।

हारोगे!

“जो कोई निन्दै साधु को, संकट आवै सोय।”

इसको यह न समझिएगा कि हँसा, निंदा करी, इसलिए संकट आया। संकट आ चुका था इसलिए निंदा करी। संकट पहले आया था। निंदा बाद में हुई। संकट नहीं आया होता, तो निंदा कहाँ से फूटती?

मूसा की एक बड़ी मज़ेदार, छोटी कहानी है, कि एक दिन चिल्लाते हैं कि “या अल्लाह तुझे कहाँ ढूँढ़ें।” तो कहते हैं उधर से अल्लाह का जवाब आता है कि, “मैं तुझे अगर मिल ही न चुका होता, तो तू मुझे ढूँढने क्या निकलता? मैं ही तो तेरे भीतर बैठा हूँ, जो तुझे यह सदबुद्धि दे रहा है कि मुझे ढूँढ़। तो तू क्या पागलों की तरह चिल्ला रहा है कि या अल्लाह मैं तुझे कहाँ ढूँढूं। मैं तुझे मिल ही चुका हूँ। इसी कारण तो तू मुझे ढूँढने निकल रहा है।”

द सर्च बिगिंस अपॉन अटेंमैन्ट

जब मिल चुका होता है, तब यात्रा शुरू होती है। इसी तरीके से जब खो दते हो, तब निंदा शुरू होती है। निंदा करने के कारण संकट नहीं आएगा। तुम पर संकट छाया हुआ है इसलिए तुम्हारे मुँह से साधु की निंदा निकलती है। वो सिर्फ़ इस बात का लक्षण है कि तुम्हारे जीवन में संकट ही संकट होंगे। साधु के प्रति, सत्य के प्रति, तुम्हारे मन में यदि घृणा है, यदि हिंसा है, दूरी है, तो यह इस बात का प्रमाण है कि तुम्हारे जीवन में संकट ही छाया होगा।

अपने आसपास ऐसे लोगों को देखना, जो साधु निंदा में हमेशा तत्पर रहते हैं, तो उन पर दया करना, बिचारों पर। करुणा के पात्र हैं। उनके जीवन में बड़ा गहरा संकट होगा। और यह प्रमाण भर है उस संकट का कि वो सत्य के विपरीत खड़े होंगे। उनको बड़ा आनंद आएगा; गाली देंगे खुले-आम। गाली देने से पाप नहीं लग गया कि कबीर आकर कह रहे हैं कि *‘नर्क* *जाए ,* जन्मे मरे *’*। गाली देने से नहीं पाप लग गया। उन्होंने गाली न भी दी होती, तो भी उनका हष्र यही होता। क्योंकि संकट तो पहले ही आया हुआ है न।

मन तो पहले ही विक्रत है।

मन में कीड़े-मकौड़े कुलबुला रहे हैं।

यही तो नर्क है।

और क्या नर्क है?

नर्क कोई स्थान है?

नर्क कोई स्थान नहीं है।

नर्क एक मनोदशा है।

**“नरक जाय जन्मे मरै ”**

‘जन्मे मरै’ का क्या अर्थ है? कि मन में संकल्प, विकल्प उठते ही रहते हैं, उठते ही रहते हैं। यही जन्म-मरण है। कभी इधर, कभी उधर फँसे हुए हैं। चल रही है चक्की और बीच में पिस रहे हैं। यही नर्क है।

मैं फिर कह रहा हूँ। यह नर्क इन्हें इस कारण नहीं मिला है कि इन्होंने साधु को गाली दे दी। क्योंकि उन्हें यह नर्क मिला हुआ है, तो इस कारण है यह गाली। या यूँ कह लो कि इसका लक्षण है गाली। इसका लक्षण भर है गाली। साधु कोई श्राप नहीं दे देता है कि “तूने मुझे गाली दी, अब तू नर्क जाएगा।” न। गलत मत समझ लेना कि गाली देने से साधु नाराज हो जाएगा और उस कारण हम नर्क में जायेंगे। तुम नर्क में हो। और क्या है नर्क! गाली देना ही तो नर्क है।

~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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