ज़ेंन के अनुसार ध्यान कैसे करें?

Acharya Prashant

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ज़ेंन के अनुसार ध्यान कैसे करें?

आचार्य प्रशांत: देखते हैं दुनिया को; उसमें पहली डुएलिटी (द्वैत) तो पैदा होने के साथ ही आ जाती है। पहली डुएलिटी है कि — ये मैं हूँ और ये रहा संसार, और ये दोनों अलग-अलग हैं। पैदा होने के कुछ ही समय बाद शरीर का बोध आ जाता है, और फिर वो और गहरा, और गहरा ही होता जाता है। मैं हूँ-संसार है, मैं हूँ-संसार है। दोनों अलग-अलग हैं, दोनों साथ-साथ हैं। दोनों अलग-अलग हैं और दोनों साथ-साथ हैं। उसी द्वैत को और आगे बढ़ाती है — ‘भाषा’। भाषा कहती है! दो संसार है — ‘एक वस्तुओं का, एक विचारों का।’ तो मेरे सामने ये बोतल रखी हो सकती है, ये अपनेआप में एक ऑब्जेक्ट (वस्तु) है, और एक मन है जिसमें उस ऑब्जेक्ट की एक छवि है। तो द्वैत निर्मित हो गया, देयर इज़ इन ऑब्जेक्ट एंड देयर इज़ इन इमेज (एक वस्तु है और एक छवि है)। एक है वर्ल्ड ऑफ़ सेंसेस (इन्द्रियों का जगत), और एक है वर्ल्ड ऑफ़ आइडियाज़ (विचारों का जगत)। वर्ल्ड ऑफ़ सेंसेज़ वो है! ‘जो यहाँ दिख रहा है, जिसको आप छू सकते हैं, पकड़ सकते हैं, देख सकते हैं।’ और वर्ल्ड ऑफ़ आइडियाज़ वो है! ‘जो इसकी छवि मन में निर्मित हो रही है।’

एक द्वैत पहले से ही था, एक द्वैत भाषा ने जोड़ दिया। और अभी उम्र कुछ भी नहीं हुई है हमारी। फिर हम थोड़ा और आगे बढ़ते हैं, तो एक तीसरा द्वैत और जुड़ जाता है― ‘वो है धर्म का।’ ऑर्गेनाइज़्ड रिलीजन (संगठित धर्म) कि एक ये दुनिया है, और एक कोई इससे पार की दुनिया है। एक कोई क्रिएटर (निर्माता) है, एक कोई क्रिएशन (निर्माण) है। एक है वर्ल्ड ऑफ़ सफरिंग (दुख की दुनिया), और एक है वर्ल्ड ऑफ़ ब्लिस (सुख की दुनिया)। बहुत ज़्यादा समय बीतता नहीं है, और द्वैत में हमारी ट्रेनिंग बिलकुल पक्की हो जाती है। एकदम गहराई से द्वैत बैठ जाता है, और वो सत्य ही लगने लगता है। कि ऐसा ही तो है, ऐसा ही तो हैं, हाँ ठीक है। नतीजा ये होता है― ‘कि जीवन भर कुछ भी वो नहीं रह जाता, जो वो है।’ बस वो अपने विपरीत-का-विपरीत बनकर रह जाता है।

द्वैत में जीने का अर्थ; ये होता है कि ‘मैं डायरेक्ट ऑब्जर्वेशन (प्रत्यक्ष अवलोकन) अब नहीं कर सकता।’ मैं किसी भी वस्तु को, व्यक्ति को, संसार को, जीवन को सिर्फ़ उसके विपरीत-के-विपरीत के रूप में जानता हूँ। एक तुलनात्मक रूप में जानता हूँ। मैं कुछ भी देखता हूँ, तो मैं उसको नहीं देखता। मैं उसको, उसके ओपोज़िट (विपरीत) के ओपोज़िट के रूप में देखता हूँ।

जिसका अर्थ ये है कि मैं कुछ भी देखता हूँ, तो उसको देखते ही मेरे मन में एक शब्द ज़रूर आता है। ध्यान दीजिएगा इसको; क्योंकि ये हमारे साथ हर समय हो रहा है, इसीलिए इसको पकड़ पाना बहुत मुश्किल है। इसी का नाम है — कांसेप्ट मेकिंग (अवधारणा निर्माण) और ‘कांसेप्ट मेकिंग’ द्वैत में ही चलता है। मैं संसार को देखता हूँ, तो उसमें लगातार मुझे ये अहसास बना रहता है, कि मैं किसी ऐसी एनटीटी (वस्तु) को देख रहा हूँ जो मैं नहीं हूँ। जो मैं नहीं हूँ और देखने वाला मैं हूँ। बड़ी साधारण सी बात है, ऐसा हर समय हो ही रहा है हमारे साथ। इसमें अभी तक हमने कुछ ऐसा नहीं कह दिया है, जो बड़ा गोपनीय हो। मैं काले को देखता हूँ तो तुरन्त सफ़ेद की छवि उभरकर आती है, और सफ़ेद की छवि न उभरे तो मैं काले को देख ही नहीं पाऊँगा।

अब ये बड़ी विचित्र स्थिति हो जाती है― जिसमें एक मेक बिलीव वर्ल्ड (अपनी मान्यताओं का संसार) में हम रहना शुरू कर देते हैं। जिसमें कुछ भी सीधा नहीं है, डायरेक्ट नहीं है। जिसमें जो कुछ है वो कॉन्सेप्चुअल (सैद्धान्तिक) है। कॉन्सेप्ट क्या है? कॉन्सेप्ट का अर्थ है— ‘कुछ ऐसा जो किसी दूसरे कॉन्सेप्ट पर निर्भर करता हो अपने होने के लिए।’

मैं आपसे कहूँ कि बताइए सफ़ेद क्या है? तो आप नहीं बता पाएँगे बिना काले का सहारा लिये। मैं आपसे कहूँ अच्छा क्या है? तो आप नहीं बता पाएँगे बिना बुरे का सहारा लिये। इसी का नाम है-*कांसेप्ट मेकिंग*। मैं आपसे कहूँ पुरुष क्या है? तो आप नहीं बता पाएँगे बिना स्त्री शब्द का इस्तेमाल किए। ठंडा क्या है? नहीं बता पाएँगे बिना गर्म का इस्तेमाल किए। इसी का नाम है *कॉन्सेप्ट मेकिंग*। और इसको ध्यान से देखेंगे; तो ये बड़ी दयनीय स्थिति है। क्योंकि अगर आपसे पूछा जाये कि काला क्या है तो आप नहीं बता पाएँगे बिना सफ़ेद का इस्तेमाल किये। और कहा जाये कि स्त्री क्या है, तो नहीं बता पाएँगे बिना पुरुष शब्द का इस्तेमाल किये। ‘अ' क्या है? जो ‘ब’ नहीं, ‘ब’ क्या है? जो ‘अ ’नहीं और दोनों क्या हैं ये हम जानते नहीं। तो ये बड़ी दयनीय स्थिति है, क्योंकि इसका अर्थ है कि हम कुछ नहीं जानते।

जीवन को सीधे-सीधे, सहज रूप से अनुभव करने की हमारी क्षमता उम्र के साथ उत्तरोत्तर कम होती जाती है। ‘धर्म’ उसी क्षमता को वापस पाने का नाम है। ज़ेन, अपने आप में कोई धर्म नहीं है, ज़ेन सिर्फ़ ध्यान है। और जिस भी धर्म में ज़ेन न हो, वो धर्म, धर्म नहीं है। क्योंकि धर्म का अर्थ ही है― ‘अपने आप को वापस पाना’ जो कि ज़ेन है। तो आप किसी भी पंथ के, किसी भी विचारधारा के, किसी भी धर्म के मानने वाले हों, अगर आपका धर्म वास्तविक है, तो वो ज़ेन ही होगा। क्योंकि वास्तव में ज़ेन ही धर्म है, क्योंकि ध्यान ही धर्म है। और जिस धर्म में ज़ेन का कुछ अंश नहीं है, वो धर्म फिर मुर्दा है। ज़ेन का अर्थ है — ‘ध्यान’। ज़ेन का अर्थ है — ‘अपनेआप को वापस पाना।’

ध्यान में! आप समझते भर हैं कुछ विशेष करना नहीं होता। जो कुछ करा जा रहा होता है, उसको समझना भर होता है, कि चल क्या रहा है? नया कुछ करने का नाम नहीं है ध्यान। इसलिए ज़ेन में पद्धतियों पर बहुत ज़ोर नहीं है। कुछ हैं इनकी भी पर बहुत ज़ोर नहीं है। क्योंकि उसके केन्द्र में तो एक बड़ी साधारण सी चीज़ बैठी हुई है-ध्यान, *अटेंशन*। ज़ेन निकला ही है संस्कृत शब्द— ‘ध्यान’ से। जो ज़ेन शब्द भी है वो ध्यान से ही आया है।

ज़ेन के बारे में एक बड़ी मज़ेदार बात कही गयी है। कि समझ की शुरुआत भी ज़ेन से होती है, और वो खत्म भी ज़ेन पर होती है। शुरुआत; ज़ेन से इसलिए क्योंकि जब तक थोड़ा भी ध्यान न हो, तब तक यात्रा शुरू ही नहीं होगी। जब आप ध्यान देते हैं-देखते हैं कि द्वैत है, द्वेष है, पीड़ा है तब जानने की यात्रा शुरू होती है। और यात्रा खत्म कहाँ होती है? ‘ध्यान पर ही’। उसके अतिरिक्त और कुछ है भी नहीं।

चूँकि हम द्वैत के संसार में रहते हैं, और द्वैत को ही जानते हैं। इसीलिए हमारे लिए बड़ा आसान होता है, भाषा रूप में कही गयी किसी भी बात को पकड़ लेना— भाषा द्वैतात्मक है। पहली चीज़ आज हमने यही कही, दो दुनिया खड़ी करती है वो, ‘एक बाहर, एक मन में।’ ज़ेन का काम है— ‘द्वैत को काटना।’ जेन का काम है, कंसेप्चुलाइज़ेशन (सैद्धान्तिकरण) से आगे जाना। इसलिए ज़ेन भाषा का बहुत ज़्यादा इस्तेमाल नहीं करता, या भाषा का इस्तेमाल करता भी है तो बड़े विचित्र तरीकों से।

ज़ेंन, जिन तरीकों का इस्तेमाल करता है उनको आज हम देखेंगे। शुरुआत में अटपटे लगेंगे। और जैसे-जैसे आप देखते जाएँगे, जैसे-जैसे विचार शून्य होते जाएँगे, वैसे-वैसे पाएँगे कि मामला सीधा है बिलकुल। इसमें कुछ इतना टेढ़ा नहीं है। शुरू में, अटपटे लगेंगे भी तो सिर्फ़ इसलिए क्योंकि हम उनको एनालाइज़ (विश्लेषण) करने की कोशिश कर रहे होंगे। हम उनको अपने रोज़मर्रा के मन से देखने की कोशिश कर रहे होंगे। वहाँ पर ऐसा ही लगेगा कि ये बातें अटपटी हैं। इसका कोई अर्थ नहीं, अनर्गल है बिलकुल। फिर जैसे-जैसे देखते जायेंगे, वैसे-वैसे बात स्पष्ट होती जाएगी।

"ऐम्पटी हैंडिड आइ गो एण्ड येट द स्पेड इज़ इन माइ हैंड्स, आइ वॉक ऑन फुट एण्ड येट ऑन द बैक ऑफ ऐन ऑक्स, आइ ऐम राइडिंग वैन आइ पास ओवर द ब्रिज द वॉटर फ़्लो इट नॉट बट द ब्रिज डैट फ़्लो"

("मैं खाली हाथ जाता हूँ और फिर भी कुदाल मेरे हाथ में है, मैं पैदल चलता हूँ और फिर भी बैल की पीठ पर, मैं सवारी करता हूँ, जब मैं पुल के प्रवाह से गुज़रता हूँ, पानी नहीं बहता है लेकिन पुल बहता है")

पैराडोक्स (विरोधाभास) का तरीका है ये, यहाँ कुछ कहा नहीं जा रहा है। यहाँ पर बस भाषा को इस्तेमाल करा जा रहा है, भाषा को ही काटने के लिए। भाषा मन में द्वैत बैठाती है। खाली हाथ जा रहा हूँ मैं, फिर भी स्पेड , फावड़ा मेरे हाथ में है। खाली हाथ जाना ध्यान दीजिइगा थोड़ा इसको; खाली हाथ जाना भी एक कांसेप्ट है। और कुछ पकड़ रखा है मैंने; ये भी एक कॉन्सेप्ट है। जो जानें भर, कि ये जो कुछ दिखाई दे रहा है, जो कुछ जिसे एक नाम दिया जा सकता है, वो मन का क्रिएशन भर है। वो उसको किसी भी रियलिटी (सत्य) के रूप में मानने से इनकार कर देगा। वो उसको सत्य नहीं कहेगा। परसेप्शन कह सकता है, सत्य नहीं कहेगा। ये अपने-ये हमारे हाथ में है, ये (वस्तु) दिखाई दे रही है। इसके दिखाई देने की प्रक्रिया ये है- कि कुछ है, जो उसको ये आकार दे रहा है। आकार देने वाला ही आकार न दे, तो ये इस रूप में हो नहीं सकती। अभी हमने कहा था कि ठंडा क्या है? जो गर्म नहीं। गर्म क्या है? जो ठंडा नहीं। ठंडे का होना गर्म पर निर्भर करता है। गर्म का होना ठंडे पर निर्भर करता है। इसका होना मन पर निर्भर करता है, मन का होना इस पर निर्भर करता है।

जहाँ कहीं भी द्वैत है-वहाँ सच नहीं हो सकता। जहाँ कहीं भी डुअलिटी है-वहाँ सच नहीं हो सकता। सच― द्वैत को समझने में तो हो सकता है, द्वैत में नहीं हो सकता। अब ये हाथ में कप है, या हाथ में फावड़ा है कोई फ़र्क नहीं पड़ता। प्रक्रिया दोनों में एक ही चल रही है कि जहाँ कुछ नहीं है, वहाँ पर मन यूँ जता रहा है कि जैसे कुछ है। क्यों? क्योंकि उसने स्वयं ही प्रोजेक्ट कर रखा है। है कुछ नहीं पर जता यूँ रहा है जैसे कुछ है। जैसे कि यहीं पर, ठीक यहीं पर, एक प्रोजेक्टर हो जो हवा को ही स्क्रीन बनाकर प्रोजेक्ट कर सकता हो। जो खाली आकाश को ही स्क्रीन बनाकर के प्रोजेक्ट कर सकता हो। तो जहाँ कुछ नहीं है वहाँ पर भी प्रतीत ऐसा होगा कि जैसे कुछ है। इमेजेज़ (छवियाँ ) आती-जाती रहेंगी। जैसे लेज़र शोज़ होते है देखे होंगें! जहाँ कुछ नहीं है वहाँ भी ऐसा लगता है, जैसे कुछ है। इमेजेज़ आती-जाती रहती हैं। अब एक जगह है, एक स्पेस है, उसमें अभी इमेज नहीं है और फिर आई, और फिर गयी और फिर आई। और अलग-अलग तरीके की इमेजेज़ आ-जा रही हैं। अब क्या फ़र्क पड़ता है? कि थोड़ी देर के लिए उसमें इमेज है और थोड़ी देर नहीं है। स्थिति लगातार एक ही रही है। ध्यान दीजिएगा! समझिएगा इस बात को; कि जहाँ कुछ नहीं है, वहाँ कुछ होने का एहसास कराया जा रहा है। *एंप्टी हैंडेड आइ गो एंड येट देर स्पेर इन माइ हैंड*। जहाँ कुछ नहीं है, वहाँ भी कुछ होने का अहसास हो रहा है — यही बौद्धिक बात है, शून्यता की।

ज़ेन, ताओइज़्म से बहुत कुछ लेता है। खासतौर पर प्रकृति का डायरेक्ट ऑब्जर्वेशन। और लाओत्सु के बड़े प्रसिद्ध शब्द हैं कि —

कुछ नहीं से दस हजार चीजें निकल आती हैं।

टेन थाउज़ेंड थिंग्स स्प्रिंग फ्रॉम नथिंग

कुछ नहीं है और वो कुछ नहीं, ऐसा प्रतीत कराता है जैसे पता नहीं क्या-क्या हो?

“ऐम्पटी हैंडिड आइ गो एण्ड येट द स्पेड इज़ इन माइ हैंड्स”

है कुछ नहीं पर लग रहा है कि पता नहीं क्या क्या चल रहा है? बिलकुल कुछ भी नहीं है। ज़ेन फ़कीर जितना हँसते हैं, उतना किसी और मिस्टिक (रहस्यवादी ) परम्परा के फ़कीर नहीं हँसते।

क्रिश्चियनिटी में तो ज़ोर सारा सफरिंग (दुख) पर है, ‘तो वहाँ पर तो आप रिपेन्ट करें, रोएँ , प्रायश्चित, सफरिंग।’ एक हिन्दू योगी होगा― वो बड़ा गहन, गम्भीर होगा, ज्ञानी होगा। एक सूफ़ी होगा, उसका सिर हमेशा झुका होगा, उसकी आँखें प्रेम से भरी हुई होंगी। पर एक ज़ेन फ़कीर हमेशा मौज में होगा, वो इन तीनों को ही देख के कह रहा होगा! कि कहाँ है प्रेम? कहाँ है ज्ञान? और कहाँ है पीड़ा? वो हँस रहा होगा। वो हँस रहा होगा, वो कह रहा होगा, ‘ये तीनों भी जो तुम पकड़कर बैठे हो, ये कॉन्सेप्ट ही हैं। इनको भी कैसे तुम सत्य मान रहे हो। ये भी शून्य ही हैं। कैसे सीरियसली ले लिया है इनको? कैसे सीरियसली ले लिया, ‘तुम्हारे हाथ में चाहे फावड़ा हो, चाहे चाय हो और चाहे हीरे-मोती हो।’ ये है ही नहीं वास्तविक तौर पर, तो सीरियस होने का सवाल ही नहीं पैदा होता। जब कुछ है ही नहीं, तो किस बारे में सीरियस होना है? जब कुछ है ही नहीं, तो सीरियस किस बारे में होना है?’

समझ रहे हैं?

जब कुछ है ही नहीं तो किस बारे में सीरियस होना है? ज़ेन नाम है कल्पनाओं को, कांसेप्ट्स को, जड़ से उखाड़ देने का। कि जिसको तुम समझ रहे हो कि है, वो मात्र तुम्हारी कल्पना है। और जिसको सत्य जानना है ‘उसे कल्पना को गम्भीरता से लेना छोड़ना पड़ेगा।’ जिसे सत्य जानना हो, उसे कल्पना को ही सत्य मानना छोड़ना पड़ेगा। जब तक आप कल्पना को ही सत्य मान रहे हैं, तब तक काम चलेगा नहीं। तो हो हाथ में कुछ भी, दिखाई दे कुछ भी ये अहसास लगातार बना रहे― कि वास्तविक तौर पर ये है नहीं। हाँ, काम-चलाऊ तौर पर ठीक है, पर वास्तविक रूप में ये है नहीं। व्यवहारिक सत्य हो सकता है, परमार्थिक तौर पर तो शून्य ही है।

आइ वॉक ऑन फुट एण्ड येट ऑन द बैक ऑफ ऐन ऑक्स, आइ ऐम राइडिंग.

लग सकता है, हमको कि अपने पाँव पर चल रहे हैं, इस ज़मीन पर चल रहे हैं। और जो कुछ दिखाई दे रहा है उस पूरे वातावरण में, हमारी सारी गति हो रही है। लेकिन हमारी स्थिति सिर्फ़ उस बच्चे जैसी है! ‘जो एक ट्रेन में सवार है और बहुत ज़ोर से दौड़ रहा है क्योंकि जल्दी पहुँचना चाहता है।’ एक ट्रेन में सवार है और बोगी के भीतर दौड़ लगा रहा है क्योंकि वो जल्दी पहुँच जाना चाहता है। ‘औक्स’ से अभिप्राय है यहाँ पर! जो बडी महत्त शून्यता है, जिसको हिन्दू ब्रह्म कहेंगे, जिसको लाओत्सु ताओ कहेगा।

समझ रहे हैं?

ज़ेन, बहुत अनसेटलिंग (बेचैन) है। परम्परागत धर्म हमारी रूढ़ियों को और मज़बूत करते हैं, पुष्ट करते हैं। हमको जीने के सहारे देते हैं। ज़ेन सारे सहारे छीन लेता है। ज़ेन कुछ भी नहीं छोड़ता, तब तक काटता रहता है, जब तक कुछ भी न बचे। गुरु पर ज़ेन में भी बड़ा ज़ोर है; लेकिन जब आखिरी स्थिति आती है तो ज़ेन– ‘गुरु को भी काट देता है।’ एक ज़ेन फ़कीर कहा करता था! अपने शिष्यों से कि जब उस बुद्ध का नाम लेना तो उसके बाद जाकर मुँह साफ़ करना, कुल्ला कर लेना। इतना गन्दा नाम है उसका कि जब उसका नाम लेना, तो उसके बाद मुँह साफ़ करना।

कोई सहारा नहीं, कोई कॉन्सेप्ट नहीं जीने के लिए, बस जीना, बस जीना। उसके बारे में कोई विचार नहीं, उसका कोई नाम नहीं। बस सहज जीवन, जो अभी है। उसके अतिरिक्त और कुछ नहीं। न कोई स्वर्ग, न नर्क, न पाप, न पुण्य, अच्छा नहीं, बुरा नहीं, ये नहीं, वो नहीं। बस जो है, सो है।

सत्य के नाम पर आप जितनी धारणाएँ बनाकर बैठे हों― कि ऐसा है, ज़ेन उसको एकदम काट-कूटकर बराबर कर देगा। जैसा हमने शुरू में ही कहा-सभी धर्मों का निचोड़ है ये। क्योंकि आखिरी बात होती है इस बात की स्पष्ट अनुभूति कि — मैं सिर्फ़ बोध हूँ, चैतन्य हूँ और ज़ेन वही है। तो आप किसी भी रास्ते से चलेंगें-आखिरकार पहुँचना आपको ज़ेन तक ही है। कोई रास्ता उठा लीजिए अन्त में आपको आना ज़ेन तक ही है। और जो रास्ता ज़ेन तक नहीं आ रहा, वो रास्ता कहीं नहीं जा रहा। वो रास्ता फिर किसी और बड़े द्वैत के जंगल में ही ले जा रहा है आपको। जहाँ पर आप और ज़्यादा कॉन्सेप्ट्स में ही फँस रहे हैं। मन हल्का होने की जगह और भारी हो गया है।

वैन आइ पास ओवर द ब्रिज द वॉटर फ़्लो इट नॉट बट द ब्रिज डैट फ़्लो.

ट्रेन के ही उदाहरण पर वापस आते हैं, जो लोग कभी बोगी में बैठे हों, सभी बैठे होंगे। उन्होंने देखा होगा, कि कई बार ये कहना मुश्किल हो जाता है। अगर आपकी ट्रेन खड़ी है स्टेशन पर और बगल में एक दूसरी ट्रेन चलती दिखायी दे। कहना मुश्किल हो जाता है! कि आपकी ट्रेन चल रही है, या सामने वाले की। आप ये कह ही इसीलिए पाते हैं कि आपकी ट्रेन चल रही है; क्योंकि आप तुलना कर पाते हैं, किसी ठहरी हुई चीज़ से। तुलना न कर पाएँ तो यकीन मानिए आप नहीं कह पाएँगे, कि आपकी ट्रेन चल रही है। इस वक्त हम जितने यहाँ बैठे हुए हैं, हम हज़ारों किलोमीटर प्रति सेकेंड की गति से यात्रा कर रहे हैं। पर हमें प्रतीत नहीं हो रहा क्योंकि हम सब यात्रा कर रहे हैं, तो तुलना करने के लिए कुछ नहीं है। द्वैत धोखा दे रहा है हमको। तुलना करके हमको ऐसा लग रहा है, कि हम सब यहाँ पर स्थिर बैठे हैं। यही अगर सब स्थिर हो और कोई एक हज़ारों किलोमीटर प्रति सेकेंड की स्पीड से घूमने लग जाए, तो बिलकुल स्पष्ट हो जाएगा। मान लीजिए! पारस यहाँ पर। तो बिलकुल स्पष्ट हो जाएगा, कि वो स्पष्टता भी धोखा होगी, क्योंकि घूम तो हम सब अभी भी रहे हैं। अब कितना अजीब लग रहा है न चाय गिर नहीं रही। इतनी गति है और चाय गिर नहीं रही, और गिर इसलिए नहीं रही है क्योंकि उसके नीचे की ट्रे भी उतनी ही गति से घूम रही है।

याद आता है हम लोगों ने जब ऋषिकेश में थे, तो राफ्टिंग कर रहे थे। राफ्टिंग के दौरान राफ़्ट जो राम-झूला है, लक्ष्मण-झूला है, इसके पास से गुज़रता है। और अगर आप नीचे बहते पानी को बिलकुल छोड़ दें, और सिर्फ़ झूले की ओर ध्यान दें। और देखते रहे एक-टक झूले को, तो आपको यही लगेगा कि झूला चल रहा है, झूला चल रहा है। आप स्थिर हो जाएँ, आप नहीं चला रहे हैं, आप सिर्फ़ बैठे हैं, आपको ऐसा लगेगा झूला चल रहा है। कौन कह सकता है कि पानी बह रहा है, या पुल बह रहा है? और हमारे सारे सत्य ऐसे ही हैं। हमारे सारे सत्य ऐसे ही हैं, द्वैत पर आधारित। पानी बह रहा है, ये कहना सिर्फ़ हमारे लिए सुविधाजनक है, कंविनियेंट है। क्योंकि हमें ये मानना पसन्द है कि हम ठहरे हुए हैं। सिर्फ़ पसन्दगी की बात है, इसमें और कुछ नहीं है। सत्य इसमें कहीं नहीं है, सिर्फ़ कनवीनियंस है, सुविधा है।

सिर्फ़ सुविधा है और अहंकार है बहुत बड़ा। कितना आसान लगता है हमें ये कहना कि समय आगे बढ़ रहा है, समय बीत गया। जैसे हम कहते हैं न कि पानी बह गया, वैसे ही हम कहते हैं समय बीत गया। अब मज़े की बात ये है कि समय कभी बीतता नहीं, क्योंकि समय तो सदा से है और सदा से रहेगा। उसके बीतने का प्रश्न नहीं उठता। बह समय नहीं रहा है, बह हम रहे हैं। पर हमें ये कहने में बड़ी सुविधा प्रतीत होती है कि समय बह गया। यार पता ही नहीं चला समय बह गया। समय बहकर कहाँ गया? पर बड़ी सुविधा है और गहरा अहंकार है कि मैं तो स्थिर हूँ, मैं केन्द्र पर हूँ। अहंकार यही करता है न अपने आप को केन्द्र पर बैठाता है, मैं केन्द्र पर हूँ, मैं स्थिर हूँ और समय निकल गया सामने से। समय कहीं नहीं निकल गया। उम्र नहीं बीतती, हम बीत जाते हैं। पर कोई आएगा और आपसे बड़ी गम्भीरता से कहेगा कि समय बहुत बीत गया। और हम उस बात को बिलकुल सत्य की तरह स्वीकार कर लेंगे। बिना जाँच-पड़ताल किए कि वास्तव में हो क्या रहा है? ज़ेन इन सब झूठों को जड़ से उखाड़ता है। ज़ेन कहता है कैसी बातें कर रहे हो?

YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=WLSAVrvz70Y

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