माया को कैसे ठगें? || आचार्य प्रशांत, गुरु कबीर पर (2017)

Acharya Prashant

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माया को कैसे ठगें? || आचार्य प्रशांत, गुरु कबीर पर (2017)

कबीर माया मोहिनी माहि मिलै न हाथ। मन उतारी झूठ करुँ लागी डौलै साथ।।

~ कबीर साहब

आचार्य प्रशांत: जब फरीद की बात कर रहे थे तो क्या बोला था फरीद ने, "जो तू मेरा होय रहे, सब जग तेरा होय।" "जो तू मेरा होय रहे, सब जग तेरा होय।"

बिलकुल वही बात यहाँ भी है कि जब तक उसके पीछे भागोगे, तुम्हें नहीं मिलेगी। जब अपने हो जाओगे, या फरीद की भाषा में होगा, तो उसके हो जाओगे, तब वही सब जिसके पीछे-पीछे भाग रहे थे, अब वो तुम्हारे पीछे भागेगा।

तुम्हारे पीछे भागने से अर्थ ये नहीं है कि बहुत सारा रुपया पैसा मिल जाएगा। ‘पीछे भागेगा' से अर्थ ये है कि पहले वो मालिक था, तुम नौकर थे। अब तुम मालिक होगे, वो तुम्हें डॉमिनेट नहीं कर पाएगा। "कबीर माया मोहिनी" – मोहिनी मतलब जो आकर्षित करे। "माँगी मिले न हाथ" जिसने माँगा वो खाली हाथ ही गया। जो जितना माँगता रहता है, उसे उतना ही कम मिलता है। जितना माँगा जाता है, उतना ही कम मिलता है।

तृष्णा का स्वभाव ही यही है। एम्बिशन का स्वभाव ही यही है, ठीक है?

ऑब्जेक्ट ऑफ चेज़ जिसके पीछे जा रहे हैं – वस्तु, वो बदल सकती है। व्यक्ति – जिसके पीछे जा रहे हैं, वो बदल सकता है, लेकिन ‘पीछे जाना’ कभी नहीं बदलता। है न? कुछ-न-कुछ है जिसके पीछे जाना ज़रूर है।

माया क्या है? क्या है माया?

माया को समझना होगा ध्यान से, इससे पहले कि हम और कोई दोहा उठायें क्योंकि माया शब्द का बहुत बार प्रयोग होगा। माया का अर्थ ये नहीं है कि कुछ छोड़ देना है या कुछ ऐसा है जो आपको नुकसान पहुँचाने के लिए तुला हुआ है।

माया का अर्थ इतना ही है कि जो जैसा है, उसको वैसा न जानना। जो जो है, उसको वो न जानना माया है।

जो कुछ भी जैसा है, उसको वैसा ही न जानना – इसी को माया कहते हैं। जो कुछ भी जैसा है। अभी आप दोहा पढ़ रहे हैं, इस दोहे को वास्तविकता से नहीं समझा, तो ये हो गया माया का काम। था कुछ, जाना कुछ। माया का अर्थ है – है कुछ, जाना कुछ और। क्या अर्थ हुआ इसका सीधे-सीधे? कि जिस भी स्थिति को, वस्तु को व्यक्ति को, समय को, समझा नहीं गया, उसी समय माया का काम हो गया।

तो माया क्या है मूलतः? लिख लीजिए – माया है नासमझी। माया हुई नासमझी, और कुछ नहीं है माया। आदमी के मन के पास समझने की शक्ति है, पर नासमझी का फैलाव है। पोटेंशियल तो है समझ का, पर जो चारों-तरफ़ फैला हुआ है, वो नासमझी ही है। इसी का नाम माया है। ठीक है?

और अगर समझ की सम्भावना नहीं होती, तो फिर माया जैसी कोई चीज़ हो भी नहीं सकती थी। ठीक है न? फिर कहता कौन कि वो माया है? जो समझदार है, वही तो माया को माया जान सकता है न?

तो माया का अर्थ है कि समझ की सम्भावना होते हुए भी मैं नासमझ हूँ, बस यही माया है, और कुछ नहीं है माया। कोई जादू का खेल नहीं है माया, किसी ने कोई जाल नहीं फैला रखा है, किसी ने कसम नहीं उठा रखी है कि आपको धोखे में रखना है। आप नासमझ हैं, इसी का नाम माया है। हम नासमझ हैं, इसी का नाम माया है। ठीक है?

निश्चित रूप से नासमझी में आप जो कुछ माँग रहे हैं, वो आपको मिलेगा कैसे? क्योंकि नासमझी में आप जिस चीज को जो समझ के माँग रहे हैं, वो ऐसी है ही नहीं।

तो बड़ी सीधी सी बात कही कबीर ने कि "कबीर माया मोहिनी, माँगे मिले न हाथ।" कैसे होगा? खूब नशा चढ़ा हुआ है और आपको सामने दिखाई दे रहा है कि दो बढ़िया सेब लटक रहे हैं, और आप उसके पीछे गये लेने। कैसे मिलेंगे? हैं ही नहीं। या कुछ और था? गेंद लटक रही थी, या अंगूर हो सकते हैं, या हो सकता है कुछ भी न हो। आपको लग रहा है या कुछ ऐसा हो जो ज़हरीला हो, पर लग क्या रहा है? कि सेब है या कुछ ऐसा हो कि जिसको खा लिया। तो भूख और बढ़ जाएगी और प्यास और बढ़ जाएगी। यही अर्थ है माया का।

उसका न मिलना कष्टकर है और उसका मिलना और भी ज़्यादा कष्टकर है। नहीं मिलती तो अफ़सोस होता है, और मिल जाती है तो बढ़ जाती है।

प्रश्नकर्ता: सर, क्या ये वही है जो अभी फेसबुक पर डाला था – ”या अल्लाह डू नॉट व्हॉट आइ वॉन्ट, गिव मी व्हाट आइ नीड”।

आचार्य: ये जो वॉन्ट है, वॉन्ट के पीछे एक धारणा छुपी होती है कि मुझमें कुछ कमी है। जिसमें कोई कमी नहीं, उसके जीवन में वॉन्ट क्यों आयेगी? बात को समझिएगा। वॉन्ट के पीछे, हर वॉन्ट के पीछे क्या धारणा है? उन्होंने अभी कहा कि ’या अल्लाह, गिव मी व्हाट आइ नीड, नॉट व्हॉट आइ वॉन्ट’ , उसको थोड़ा समझ रहें हैं।

वॉन्ट के पीछे भाव क्या छुपा रहता है? कुछ कम है, वरना माँगोगे क्यों? अब अगर कुछ कम हो ही न, और लग रहा हो कुछ कम है, तो ये क्या हुई? माया। तो ये माया ही है। बिलकुल ठीक कहा कि ये बात बिलकुल माया की ओर ही संकेत करती है। क्योंकि कमी है ही न; कमी हो ही न, लेकिन लग बार-बार ये रहा है कि बहुत कमी है, तो नतीज़ा क्या होगा? नतीजा क्या होगा? आप कुछ ऐसा काम कर रहे हैं जिसकी आवश्यकता ही नहीं थी।

जॉर्ज गुरजिएफ ने बड़ी ज़बरदस्त बात कही थी, उन्होंने सिन की परिभाषा दी थी – सिन इज़ दैट ह्विच इज़ अननेसेसरी। जो अनावश्यक है, वही सिन (पाप) है। यही माया है कि आवश्यकता नहीं है फिर भी उसके पीछे दौड़ रहे हो। इट इज नॉट नेसेसरी दैट यू रन आफ्टर इट, यट यू आर चेजिंग इट। यही माया है। यही नासमझी है।

अब अगर हम ईमानदार हो, तो अपनी ज़िन्दगी की ओर देखें और बिलकुल साफ-साफ़ पूछें अपनेआप से कि कितनी ऐसी चीजों के पीछे हम भाग रहे हैं, कितने ऐसे सपनों के पीछे हम भाग रहे हैं जो वास्तव में आवश्यक नहीं हैं।

अगर यहाँ गुरजिएफ बैठे होते, तो सीधे यही कहते कि देख लो कि क्या ज़रूरी है और क्या नहीं। और जो ग़ैर-ज़रूरी है, उसको ज़िन्दगी से हटा दो। और कुछ करना ही नहीं है। वो कहते हैं कि जो कुछ गै़र-ज़रूरी है, उसको ज़िन्दगी से हटा दो, इसके अलावा और कुछ नहीं करना है। सब बढ़िया हो जाएगा।

श्रोता: और शायद नासमझी इतनी ज़्यादा है कि जो गै़र-ज़रूरी है, उसको भी ज़रुरी होने का पूरा-पूरा प्रमाण देने लग जाते हैं।

आचार्य: उसी को, बस उसी को। और जो वास्तव में ज़रूरी है, जो मिला ही हुआ है, इस पूरी प्रक्रिया में वो ग़ायब हो जाता है। ग़ायब हो जाता मतलब चैतन्य मन के सामने से हट जाता है। होते हुए भी लगता है कि है नहीं। अपना एहसास नहीं कराता है। रह जाती है सिर्फ़ बेचैनी।

तो माया का क्या अर्थ हुआ? ’आइ वॉन्ट’ और हर वॉन्ट के पीछे नासमझी छुपी हुई है, इस बात को ध्यान रखना।

श्रोता: वही उदाहरण है कि मेरी जेब में रखा हुआ है ऑलरेडी जो मेरी ज़रूरत है, और मैंने कोहराम मचा दिया कि कहाँ है ,कहाँ है।

आचार्य: और कबीर इस बात को बार-बार बोलते हैं, बार-बार। कभी वे कहते हैं कि तू कितनी बेवकूफ है गोद में तेरे बच्चा है और पूरे गाँव में ढिंढोरा पीट रही है। कभी इस प्रतीक का इस्तेमाल करते हैं कि बच्चा गोद में है और तू पूरे गाँव में ढिंढोरा पीट रही है कि मेरा बच्चा खो गया है। कभी वो कस्तूरी मृग का उदाहरण लेते हैं कि "कस्तूरी कुंडल बसे, मृग खोजे बन माही।" कभी कुछ और, कभी कुछ और।

कभी कहते हैं कि “हमारा यार है हममें, हमन को बेकरारी क्या।" वॉन्ट का सवाल ही नहीं उठता। कुछ बाहर हो, तो न उसे खोजा जाए। "हमन है इश्क मस्ताना, हमें दुनिया से यारी क्या" – हमारा यार है हममें।

और वहाँ भी माया की ओर इशारा कर रहे हैं कि जो बिछड़े हैं, वही दर-दर भटकते हैं; जो बिछड़े हैं प्यारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते। बात लगातार वही है कि तुम जो कुछ पाना चाहते हो, सवाल ये मत पूछो कि उसको कैसे पाऊँ। हमारे सवाल हमेशा ये होते हैं – ‘मुझे जो पाना है, वो तो पाना ही है। मेरी मदद करने के लिए मुझे ये बता दो कि कैसे पाऊँ?’

गिव मी ए मेथड और मुझे तरीक़ा बता दो, रास्ता बता दो। और फिर सवाल घूम-फिरकर किस बात पर आ जाता है? हाऊ टू? सिर्फ टेकनीक बता दो, तरीक़ा बता दो। और हर तरीक़े के साथ दिक्कत यही है। हर तरीक़ा किसी-न-किसी लक्ष्य तक जाएगा और वो लक्ष्य किस मन से निकलकर आ रहा है? नासमझी से।

तो आपको तरीक़ा बतायें, या आपसे ये कहें कि जान लो कि जहाँ जा रहे हो...?

श्रोता: वहाँ जाना ज़रूरी नहीं है।

आचार्य: बहुत बढ़िया! तुमने पहले ही लक्ष्य बना रखे हैं। और फिर तुम कहीं चले जाते हो। तुम्हारी पूरी तलाश, जब लोग कहते हैं कि आय एम अ सीकर, मैं तलाश में हूँ। तो तलाश भी किस बात की होती है? तलाश ये होती है कि मेरी कामनाओं की पूर्ति हो जाए। वो तलाश कभी इस बात की नहीं होती है कि कामनाएँ कामना होने लायक़ है भी कि नहीं हैं। तलाश कभी ये नहीं होती है।

और अगर वास्तव में कोई आपको ऐसा मिल जाए, जो आपको ये कहे कि तुम जो कर रहे हो, मूलभूत रूप से गड़बड़ है, नासमझी है, तो आप चिढ़ जाएँगे। हम सब चिढ़ ही जाएँगे। हम कहेंगे ‘मुझे जो चाहिए, वो मुझे दे सकते हो अगर, तो बात करो और बहुत ज्ञान न बघारो’। ऐसा ही होगा न?

मन से उतार करके, मन से उतार करके उसको एक बार रख दिया, बिलकुल ज़मीन पर, अब वो मेरे पीछे-पीछे दौड़ेगी, अब वो अनुचरी है, अब मालकिन नहीं है। सिर पर बैठाया तो पूरे मन पर कब्ज़ा कर लेगी; सिर से उतार दिया, मन से उतार दिया तो बिलकुल सीधे-सीधे कहें, तो औकात में आ जाएगी।

तो ये दुनिया भी तभी तक भारी पड़ती है हम पर — हममें से जितने लोग ये कई बार महसूस करते हैं कि उनके समाज के सताये हुए हैं, परिस्थितियों के सताये हुए हैं, परिस्थितियाँ भी हम पर हावी तभी तक हो पाती हैं — जब तक उन परिस्थितियों में हमारा कोई-न-कोई लोभ छुपा हुआ है, नहीं तो कोई परिस्थिति आपको कभी परेशान नहीं कर सकती।

याद रखिएगा, अगर आप पाते हैं कि ज़िन्दगी में ज़ंजीरें हैं, तो ज़ंजीरें आपकी अपनी ही बनायी हुई हैं। कोई नहीं है जो आपको ग़ुलाम बना सके, सिवाय आपके अपने लोभ के।

अगर आप पाते हैं कि कोई आपके साथ अत्याचार कर लेता है, तो निश्चित रूप से कोई लोभ होगा जिसकी वजह से आप अभी भी उसके साथ रुके हुए हैं, नहीं तो आप कब के मुक्त हो गये होते। आप पाते हैं कि आपके दोस्त-यार, सगे-सम्बन्धी, पति-पत्नी इनसे कड़वाहट है सम्बन्धों में, लेकिन फिर भी आप उन्हीं के साथ लगे हुए हैं, तो कुछ मिलता होगा आपको उनसे, किसी बात की अपेक्षा होगी।

ये अपेक्षाएँ ही हैं जो ज़ंजीरें बनी हुई हैं, और कुछ नहीं है। आप अगर ठान ही लें कि मुक्त होना है। एंड यू प्रोवाइड योर कंसेंट। विदाउट योर कंसेंट, नो एट्रोसिटी कैन कम टू यू। तो हमारे मन में ग्लानि का जितना भी भाव है कि मुझे विक्टिम बनाया गया, मेरे साथ ये बुरा और वो बुरा। ये सब जितने भी भाव हैं, उनमें अगर हमें मज़े ही लूटने हैं तो अलग बात है।

पर अगर हम सीरियस हैं, अगर हम वाक़ई चाहते हैं कि ये सब ख़त्म हो, बहुत हो गया नाटक, तो हमें पूछना पड़ेगा कि ये दुख बाहर से आ रहा है या मैंने ही उसको मैनुफेक्चर कर रखा है? प्लांट मेरे भीतर ही बैठा हुआ है, उस फैक्ट्री का मालिक मैं ही हूँ जहाँ से ये सब निकल रहा है। जिस दिन चाहूँ, उसे बंद कर दूँ। पर मेरे स्वार्थ जुड़े हुए हैं। मैं खुद नहीं बंद करना चाहता।

देखिए, एक हद तक उनके साथ सिम्पेथाइज किया जा सकता है जो लोग कहते हैं कि मुझे ये समस्या है, ये है। कुछ हो नहीं रहा, दुख है, लेकिन एक हद के बाद दुख प्रकट करना भी बड़ी बेईमानी बन जाता है। न सिर्फ़ सिम्पेथी गेन करना, सच को देखने से बचना।

कबीर ने जहाँ पर लिख रखा है, ठीक है उनकी भाषा आज की नहीं है, हिंदी नहीं है। एक हद तक हमें समझ में न आये तो, पर ठीक है कि चलो, अनुवाद उपस्थित होना चाहिए या कि कोई बात कही गयी है उसमें कुछ चीज़ कंसेप्चुअल हो सकती है, कोई शब्द ऐसा हो सकता है जो ऑलमोस्ट टेक्निकल हो, तो वो आकर के बता दे।

पर आप बताइए, आपको कैसा लगेगा कि हम एक ही दोहा उठाएँ, उस पर एक घंटे तक चर्चा करते रहें, उसके बाद भी हम में से कोई एक हो जो कहे, 'नहीं, मुझे समझ में आ ही नहीं रहा। नहीं, कैसे? नहीं, करना कैसे है? तो इसका अर्थ ये नहीं है कि वो बेचारा बड़ा मंदबुद्धि है। उसकी बुद्धि के साथ नहीं समस्या, उसकी नीयत के साथ समस्या है। ऐसा नहीं कि समझ में आ नहीं रहा, वो समझना चाह नहीं रहा।

तो इसीलिए शुरू में दो-चार सवाल आये हैं, तो उनके उत्तर दिये जा सकते हैं, पर अगर कोई प्रश्न के साथ ही बँधा पड़ा है तो समझ लीजिए कि वो चाल खेल रहा है। उसको प्रश्न में कुछ-न-कुछ मन चाहा, उसे उत्तर मनचाहा चाहिए या फिर वो उत्तर तक जाना ही नहीं चाहता, समाधान तक जाना ही नहीं चाहता।

मामला इतना पेचीदा कभी है ही नहीं कि उसके लिए बहुत कुछ करा जाए। मामला इतना पेचीदा है ही नहीं। अगर हमारे लिए शास्त्र इतने ही ज़रूरी होते, तो फिर हमें शास्त्रों के साथ पैदा होना चाहिए था। सीधी-सादी साधारण, ईमानदार लिविंग के लिए इतना कुछ करना ही नहीं पड़ता है कि बड़े कर्म करे जा रहे हैं, बड़ी यात्राएँ करी जा रही हैं, बड़े ग्रंथ पढ़े जा रहे हैं, बड़ी चर्चाएँ करी जा रही हैं।

अगर ये इतने ही अपरिहार्य होते, तो गर्भ से हम हाथों में गीता नहीं तो लेकर पैदा होते, कि भई आप फेफड़े लेकर पैदा होते हो, आप दिल लेकर पैदा होते हो, आप गीता भी लेकर पैदा होते कि इसके बिना जियोगे कैसे?

बुल्लेशाह जब गये नायाशा क़ादरी के पास, तो बैठे हुए थे। वो अपनी पौधों की गुड़ाई कर रहे थे, बाग़वानी कर रहे थे।

तो ये खड़े हो गये जाकर, तो बोलते हैं ‘क्या चाहिए?’

तो बोलते हैं कि रब को पाना है।

तो उसमें क्या मुश्किल है? जैसे एक पौधा उठाकर यहाँ से यहाँ लगाया, बस ऐसे ही रब मिल जाता है। यहाँ से उखाड़ा और वहाँ पर लगाया। बस यही है, मिल गया रब।

तो इतना ही सहज है। उसको कॉम्प्लीकेट करने का काम हमारा है। मामला अपनेआप में बहुत सहज है। उनके गुरु ने बात कही, बिलकुल सीधी थी कि तुझे पाना है, तो तू इतना क्या नाटक कर रहा है कि पता नहीं कितना बड़ा काम करना है कि रब नू पाना है। ये पौधा यहाँ से उखाड़ और यहाँ पर लगा। और इतना ही साधारण है पा लेना उसको।

आशय उनका ये था कि तूने अभी मन को जो मिट्टी दे रखी है, उस मिट्टी से उसको हटा और एक दूसरी मिट्टी में लगा। पर उस आदमी की सहजता देखिए कि इसमें इतना मुश्किल है क्या? मुश्किलें तूने पैदा कर रखी है, मुश्किलें तूने अर्जित करी हैं, वरना काम अपनेआप में बड़ा साधारण है।

"माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय। भगता के पीछे फिरै सन्मुख भागे सोय।।" इन दोनों का ही स्वभाव एक सा होता है। सत्य से दोनों बचते हैं। दोनों का स्वभाव बिलकुल एक सा है कि सत्य जिधर होगा, प्रकाश जिधर होगा, दोनों उसके विपरीत खड़ी होंगी, और अगर तुम उनसे भागने लगो, तो तुम जहाँ जाओगे, तुम्हारे साथ रहेंगे। तुम मुझसे भाग नहीं सकते।

आज तक कोई अपनी छाया से भाग नहीं पाया। जहाँ जाओगे, पछिया लेगी और जो सन्मुख ही है, जो सहज ही है, जो सत्य ही है, जो उपलब्धि ही है, प्रस्तुत है उससे दोनों डरेंगें। माया छाया एक सी बिरला जाने कोय। आसानी से ये बात समझ में नहीं आती कि इतना सहज है। कोई बिरला ही समझ पाता है। "भगता के पीछे फिरै" – भागोगे तो भाग नहीं पाओगे। जहाँ हो, वहीं ठहर जाओ। बस आँखें खोल लो। क्योंकि भागोगे, तो पछियाएँगे। भागो! कहाँ जाओगे भाग करके? जहाँ भी जाओगे, छाया तो रहेगी साथ।

जहाँ भी जाओगे, मन तो रहेगा साथ। और जब तक मन साथ है, तो माया कैसे दूर हो गयी? तो भागकर के उससे मुक्ति नहीं मिल सकती।

जो सन्मुख ही है, जो सामने है, उसको देख लो। और हमारी पूरी ज़िन्दगी की त्रासदी यही है कि हम उसके पीछे जा रहे हैं जो है नहीं, पर लगता है कि है, या कि हो सकता है।

उसी का नाम है एम्बिशन , उसी का नाम है फ्यूचर। उसी का नाम है फ्यूचर। ‘भविष्य से मुक्ति’ से बड़ी और कोई मुक्ति है नहीं। मुक्तियों में मुक्ति है भविष्य से मुक्ति। और जो सन्मुख ही है, उसी सत्य का नाम है वर्तमान। और सत्य कहीं है नहीं, सन्मुख है। इसका मतलब ये नहीं है कि आप मेरे सामने बैठे हैं, तो आप कह सकते हैं या मेरे सामने या कुंदन के सामने मैं बैठा हूँ, तो मैं सन्मुख हूँ।

जो मन में रहता है, वो कभी वर्तमान नहीं होता। जो मन में रहता है, क्या कभी वर्तमान के बारे में मन में क्या कुछ हो सकता है? मन में जो भी होता है वो विचार होता है। वर्तमान में जीवन होता है।

जीवन विचार नहीं है। जीवन वास्तविक है, विचार काल्पनिक है।

तो मन में जो कुछ होता है, वो कभी वर्तमान का नहीं हो सकता। वर्तमान के बारे में आप कोशिश करिए अभी, विचार कर पाएँगे क्या? हुआ जा सकता है, जिया जा सकता है, सोचा नहीं जा सकता। लेकिन जो एक खुफ़िया गड़बड़ है, जो पेंच है इसमें, वो ये है कि हम मानते ही तब हैं कि हम जान गये, जब हम उसको विचार रूप में जान लेते हैं।

हम किसी भी बात को ये स्वीकार ही नहीं करेंगे कि हमें पता है, यदि उसके बारे में हमें कोई विचार न हो। यही गड़बड़ है।

सारी खोज का कारण ही यही है कि मेरे पास है, पर मुझे उसका विचार नहीं है; तो मुझे क्या लगता है? कि मेरे पास नहीं है। हमने विचार के होने को होने के साथ जोड़ दिया है। हाँ, हमने विचार के होने को होने के साथ जोड़ दिया है कि कुछ भी मेरे पास तभी है जब मुझे उसका विचार है। और अगर मुझे विचार नहीं है, तो है ही नहीं।

अगर मुझे विचार नहीं है, तो वो है ही नहीं। ये क़रीब-क़रीब वैसी ही बात है कि आपका मॉनिटर ख़राब हो और वो डिस्प्ले न कर रहा हो, तो आप कहेंगे मेरी सीपीयू में कुछ है नहीं।

मन ख़राब है, मन नहीं रीड कर सकता। मन सीमित है। वहाँ पर जो उसमें स्टोर्ड है फाइल , वो मन के आगे की है। मन उसको नहीं रीड कर पाएगा। जब नहीं रीड करेगा, तो डिसप्ले भी नहीं कर रहा। पर जब डिस्प्ले नहीं करता, तो हम उससे क्या अर्थ निकालते हैं? कि वो फाइल सिस्टम पर है ही नहीं। मन नहीं रीड कर रहा, इससे ये आशय बिलकुल भी नहीं है कि वो है नहीं।

हमारी सारी तलाश इस बात की है कि हम मानसिक रूप से जान जाएँ, मन जान जाए।

और 'मन जान जाए' का अर्थ क्या है? कि विचार आ जाए, हम उसे विचार में क़ैद कर लें। जब हम विचार में क़ैद कर लें, तो हम ये फिर मान लेंगे कि हमें पता है और विचार में क़ैद नहीं हो रहा, तो हम ये मानने को तैयार नहीं हो रहे कि हमें पता है।

अब ये बड़ी मज़ेदार बात है। पता जितने लोग बैठे हैं सबको है। लेकिन सबका दावा लगातार ये है कि हम खोज रहे हैं। पता सबको है लेकिन सबका दावा ये है कि हम खोज रहे हैं। आपका सवाल ये होना चाहिए कि ‘पता है तो फिर हम यहाँ कर क्या रहे हैं?’ हम अपनेआप को यही समझा रहे हैं कि हमें पता है। और कुछ नहीं कर रहे हैं। आप यहाँ खोजने के लिए नहीं बैठे हैं, आप यहाँ ये जानने के लिए बैठे हैं कि खोजने के लिए कुछ है ही नहीं।

यहाँ कोई खोज नहीं चल रही है। यहाँ खोज की व्यर्थता देखी जा रही है। ये दोनों बड़ी अलग-अलग चीज़ें हैं। यहाँ कोई सीकिंग नहीं हो रही है। कह सकते हैं। ये दोनों बड़ी अलग-अलग बातें हैं कि मुझे पाना है। अब सत्य को पाना है या नया मोबाइल पाना है, इन दोनों बातों में कोई ज़्यादा अन्तर नहीं है क्योंकि पाना तो दोनों को ही है।

तो विचार नहीं है उसके बारे में, तो ये मत मान लीजिए कि वो है नहीं। विचार तब आएगा जब वो मन की भाषा में हो, जब मन के चैतन्य अनुभव में हो। उसके बिना विचार नहीं आएगा। पर विचार का न आना इस बात का बिलकुल भी प्रमाण नहीं है, हमारा तर्क ग़लत है। हमारा जो मूल तर्क है, वो तर्क ही ग़लत है। और उस तर्क के ग़लत होने में हमारी पूरी परवरिश का और शिक्षा का बहुत बड़ा हाथ है।

हमसे जब भी पूछा गया है कि ‘क्या तुम्हें कुछ पता है?’ इसका अर्थ ही ये रहा है कि क्या ये तुम्हारी स्मृति में है? आपकी परीक्षा हुई है। आपसे पूछा गया कि क्या तुमको पता है? उसका अर्थ क्या है? क्या ये तुम्हें याद है? अब याद होने का मतलब कि क्या तुम्हारे अतीत में है ये? तो उसका निष्कर्ष हमने ये निकाला है ऐसी परीक्षाएँ लगातार दे-देकर के, और ऐसे लोगों से लगातार मिल-मिलकर, कि पता होने का अर्थ ही है अतीत में होना, स्मृति में होना। और अगर अतीत में नहीं है, और स्मृति में नहीं है, तो इसका मतलब?

तो इस सम्भावना को ही ख़त्म कर दिया गया है कि मुझे पता हो सकता है बिना अतीत में हुए। तो परवरिश ने और शिक्षा ने ये भूल कर दी है कि अब हम उसको खोजने निकल पड़े हैं जिसको खोजने की कोई आवश्यकता ही नहीं है। ये काम हमारी शिक्षा का है जो कि ज्ञान के नाम पर स्मृति चैक करती रहती है बार-बार। इंटेलिजेंस के नाम पर एनलिटिकल पॉवर चेक करती रहती है। और जो ये सामान्य कल्चर है, इसका भी है। जब आप बोलते हो कि कोई बहुत जानकार आदमी है, तो आप सिर्फ़ इतना ही कह रहे होते हो कि उसके पास स्मृतियों का बड़ा भण्डार है।

तो जो पॉपुलर कल्चर है, उसमें भी ज्ञानी, जानकार, नॉलेजेबल उसको ही बोलते हैं, जो इतना बड़ा डेटा रखकर बैठा हो। वही है ज्ञानी। तो मन ने हमारे बढ़िया निष्कर्ष निकाल लिया है कि आप भी फिर अगर विचार में क़ैद करके शब्दों में व्यक्त कर सकते हो, तो तो आप जानते हो, नहीं तो आप नहीं जानते। इसी का नाम माया है।

श्रोता: हर फ़ैमिली में या ग्रुप में भी सबसे ज़्यादा वरीयता उसे दी जाती है उसके पास हर टॉपिक पर कुछ-न-कुछ बोलने के लिए हो।

आचार्य: मज़े की बात ये है कि वो बोल रहा है तो कहाँ से? निश्चित रूप से पढ़ रखा है उसने, और अगर आपको कभी कोई ऐसा मिल जाए जो कुछ ऐसा बोल रहा हो जो उसने पहले से पढ़ नहीं रखा, तो पता है आप क्या करेंगे? आप कहेंगे, 'तू फेंक रहा है।' क्यों? 'क्योंकि तुझे पता तो है नहीं, तूने पहले पढ़ नहीं रखा, तो तू फेंक ही रहा होगा।' भई, तू बिना किताब पढ़े उस किताब के बारे में बता रहा है, इसका मतलब तू मुझे धोखा दे रहा है। ये हमारा तर्क जाएगा। आप इस तर्क का बेहूदापन देख रहे हैं?

वो तुमसे कहेगा, 'तू तुक्का मार रहा है, तुझे कैसे पता?' और पहला सवाल ही पूछते हैं हम किसी से या कि जिसको पता हो, या कि जो बिना स्मृति का इस्तेमाल किए बता रहा हो – ‘तुझे कैसे पता’? तुझे कैसे पता? क्योंकि हमारे मन में ये बात बैठा दी गयी है कि पता होने का कोई-न-कोई तरीक़ा होना चाहिए, ‘कैसा-पन’ होना चाहिए, उसी का नाम मेथड है, उसी का नाम टेकनीक है। और उसी का नतीजा है कि आप क्लास रूम में जाएँ चाहे किसी से मिलें, बहुत जल्दी बात घूम-फिरकर 'हाउ टू’ पर आ जाती है। कैसे? क्योंकि हमने आज तक जाना ही यही है कि हमें जो कुछ मिला है, वो कुछ-न-कुछ करके मिला है, उसके पीछे कोई, कैसे, हमेशा मौजूद रहा है।

तो बिना ‘कैसे’ के भी कुछ मिला हुआ हो सकता है? पहले ही इसकी तो सम्भावना ही नहीं है हमारी दृष्टि में।

कबीर माया पापिनी, लोभ भुलाया लोग। पूरी किनहुं न भोगिया, इसका यही वियोग।।

किस चक्कर में बैठे हो, पूरा आज तक कोई नहीं भोग पाया। सब अपनी-अपनी कहानियाँ अधूरी छोड़कर ही मरघट पहुँचते हैं। पूरी किसी की कहानी नहीं हुई आज तक।

कबीर माया पापिनी, लोभ भुलाया लोग। पूरी किनहुं न भोगिया, इसका यही वियोग।

वियोग हम सबकी नियति है। योग माने पा जाना, पूरा हो जाना, एक हो जाना। वियोग में ही मरना पड़ेगा। वी ऑल डाई इन द मिडिल ऑफ अवर स्टोरीज। कोई दिन ऐसा नहीं आयेगा, जिस दिन तुम्हारा भोग पूरा हो जाए कि अब भोग पूरा हो गया, स्टेशन आ गया, अब उतर जाओ।

तो "कबीर माया पापिनी, लोभ भुलाया लोग।" लोभ में ही सब चूके जा रहे हैं। सबकी एक भूल का एक ही नाम है, क्या? पाना है, लोभ। पाना है, पाना है; लेकिन पा आज तक कोई नहीं पाया। अब मज़ेदार बात ये है कि ये बात विचार रूप में भी हम सबको पता है, लेकिन उस पता होने से कुछ होता नहीं। इससे आपको विचार की इम्पोटेंसी दिखाई देगी। विचार रूप में हममें से कौन है, जो नहीं जानता कि मौत खड़ी है सामने। कौन नहीं जानता?

किसी के पास दस साल बचे होंगे और जो हममे से बहुत जिएगा, वो तीस साल और जिएगा। जो हममें से बहुत जिएगा, तीस-चालीस साल और जी लेगा। इससे ज़्यादा किसी के पास ज़िन्दगी है नहीं। और जिसका नंबर लगना होगा कल भी लग सकता है, अभी भी लग सकता है।

हम चारों तरफ़, कबीर कहते है न? "साधो ये मुर्दों का गाँव।" जितने लोग जी रहे हैं, उससे आधा गाँव में लोग दफ़न है। तो "साधो ये मुर्दों का गाँव।"

लेकिन विचार रूप में ये बात पता होने से भी हमारे जीवन में कोई क्रांति तो नहीं आ जाती। तो देखिए विचार कितना असहाय होता है। विचार रूप में हमको सारे सत्य पता है। विचार रूप में गीता कंठस्थ है। विचार से क्या हो जाएगा? विचार से क्या हो जाएगा? विचार रूप में तो हमें सब कुछ पता है। यहाँ जितने बैठे हैं, सब विद्वान हैं। कौन नहीं है? काम ही हमारा पूरा विद्वत्ता का है। विचार रूप में तो हम सब विद्वान है। विचार बड़ी लचर, बिलकुल अपाहिज, पंगू चीज़ है वो। कुछ आपको दे नहीं पाएगी। वो ख़ुद आप पर निर्भर है, आपको क्या दे पाएगी? आपको क्या दे पाएगी वो?

विचार रूप में सत्य – पहली बात, क़ैद नहीं होता। जो क़ैद होता है, वो सत्य की एक बड़ी धुंधली सी छवि होती है। और वो छवि किसी काम की होती नहीं विशेष। सिवाय इसके कि जो आँखें खोल ही रहा है बस, उसको एक सहारा मिलता है कि छवि है, तो शायद सत्य भी होगा। छवि है, तो शायद सत्य भी होगा।

बुद्ध से एक बार किसी ने पूछा कि कुछ होता है निर्वाण? तो चुप रहे कुछ देर फिर कहते हैं, 'निर्वाण भले न होता हो, पर निर्वाण की कहानी पता हो, ये बहुत ज़रूरी है।' निर्वाण के बारे में सुना हो, ये बहुत ज़रूरी है। निर्वाण होता है, कि नहीं होता है, इस बारे में तुमसे कुछ नहीं बोलूँगा। पर ये बहुत बहुत ज़रूरी है कि सब ने निर्वाण का नाम सुन रखा हो। और कितनी ज़बरदस्त बात कही है उन्होंने!

उन्होंने कहा, 'निर्वाण तुम मुझसे पूछ क्या रहे हो जब तुम्हें मिला नहीं है? तो तुम्हें पता ही नहीं तुम किस बारे में पूछ रहे हो। अगर मैं कह भी दूँ कुछ होता है, तो तुम क्या जान जाओगे कि क्या होता है? और मैं कहता हूँ नहीं होता, तो तुम क्या जान जाओगे कि क्या नहीं होता? तो बुद्ध फालतू की बातों के जवाब देते ही नहीं थे। कहतें हैं न, सम पीपल डोंट सफर फूल्स, चुप।

लेकिन जो बोला उन्होंने, वो बात एक उपाय थी कि होता हो कि न होता हो, उसका नाम सुनना बड़ा ज़रूरी है ताकि कुछ चमके, कि ऐसा भी कुछ है क्या?

कबीर माया पापिनी, हरि सो करै हराम। मुख कदियाली कुबुधि की, कहा न देगी राम।।

मुँह में घुसकर बैठ जाती है; जो मीठा हो सकता था, वो कड़वा हो जाता है। बुद्धि की कुबुद्धि कर देती है। अच्छा, इसमें भी हम समझेंगे कि कुबुद्धि क्या और सुबुद्धि क्या है। इनको लेंगे। राम का नाम नहीं लेने देती। सारी बुद्धि जो है, ‘मति’, इंटेलिजेंस , उसमें भी कुछ सत्य नहीं है। वो भी बस द्वैत के चक्र का हिस्सा ही है। ठीक है न?

अतीत से आयी और अब अतीत की ओर देखती है। है वो भी द्वैतात्मक, लेकिन उसी में एक सुबुद्धि भी होती है जो ये नहीं जानती कि इस चक्र से बाहर क्या है, पर इतना जानती है कि ये चक्र है, ये सुबुद्धि है। यहाँ तक का काम बुद्धि कर सकती है कि चक्र के बाहर का तो मुझे नहीं पता, मुझे ये तो नहीं पता कि कहाँ जाना है, पर ये पता है कि यहाँ नहीं रहना है। ये पता है कि यहाँ नहीं रहना है।

फिर कबीर के शब्दों में गये, तो "ये देश बेगाना" कबीर का गीत है।

साधो ये देश बेगाना। ये संसार कागज की पुड़िया बूंद पड़े घुल जाना ये संसार काँटों की झाड़ी उलझ उलझ मर जाना। रहना नहीं, देश बेगाना।।

उसी में आगे वो कहते हैं कि "ये संसार कागज़ की पुड़िया, बूंद पड़े घुल जाना। ये संसार काँटों की झाड़ी, उलझ उलझ मर जाना। रहना नहीं देश बेगाना।" ये सुबुद्धि है। "रहना नहीं, देश बेगाना।" "ये संसार काँटों की झाड़ी, उलझ-उलझ मर जाना।" इतना दिख गया है कि यहाँ काँटे-ही-काँटे हैं। अब काँटे कहाँ नहीं हैं, इसका मुझे नहीं पता। ये मुझे अभी नहीं पता कि काँटे, कहीं ऐसी जगह है कि नहीं होते हैं, क्या है? ये है, वो।

पर अभी जो तथ्य है सफरिंग का, उससे मैं नहीं भाग रहा हूँ। मैं ठीक-ठीक देख रहा हूँ कि काँटे ही काँटे हैं, सफरिंग ही सफरिंग है। समझ रहे हैं? ये हुई सुबुद्धि। और माया क्या है? कुबुद्धि। उसमें क्या होता है? कुबुद्धि में क्या होगा? काँटे। कितना सुख है बंधन में!

कोई नहीं बुराई है। जो अभी वहाँ पर उस स्थिति में है, उसको वैसे ही रहने देना चाहिए, कुछ नहीं कहना चाहिए। आपमें अगर बहुत करुणा उठ रही हो, तो अलग बात है। नहीं तो सिर फुटवाने वाली बात है, और कुछ नहीं होगा। उसका इतना ही है। देखिए! होगा क्या, अगर कोई कहे कि आय एम वैरी हैप्पी द वे आय एम तो उसकी मदद करने का एक ही तरीक़ा है, उसको उसका दुख दिखाना पड़ेगा। उसको दुखी करना पड़ेगा।

उसको दुखी करोगे, तो वो आपको भी दुखी करने की कोशिश करेगा। तो इतनी अगर करुणा हो कि आपको कोई दुखी करने की कोशिश करे, आप इस बात को झेल जाओ, तभी उसमें उतरिए। बहुत आसान है कोई बोले कि मैं बहुत खुश हूँ। मैं बहुत खुश हूँ और जैसा चल रहा है, सब कुछ ठीक है। उसको ये दिखाना कि तुम कितने दुखी हो, बहुत आसान है।

एक छोटा सा प्रयोग चाहिए, अभी उसको दिख जाएगा। रोना-वोना शुरू कर देगा। कुछ नहीं, उसके दोस्त को बुलाइए साइड में, कहिए कि उसको जाकर कोने में बोलो कि घर से फोन आया है, पापा मर गये। और ये बहुत बड़ा लगता हो, तो उसको साइड में बुलाइए और बोलिए कि फोन आया है कि प्रमोशन होना था, नहीं हुआ। तुम कितने नाज़ुक जगह पर खड़े हुए हो! और तुम कह रहे हो, जो चल रहा है ठीक है। स्टूडेंट? बोले कि ये है, बुलाइए उसके दोस्त को धीरे से, और बोल दियो कि तेरा न एडमिट कार्ड ब्लॉक कर दिया गया है और फिर जो हवाइयाँ उड़े चेहरे पर उसके! ये है तुम्हारा सुख।

लेकिन जब आप ये करेंगे, तो चिढ़ेगा, पूरी तरह चिढ़ेगा। तो इसीलिए कह रहा हूँ कि आपने अगर बहुत ताकत हो, बड़ी एनर्जी हो, तो ही इस प्रक्रिया में उतरिएगा, नहीं तो कहिए, 'ठीक है जाओ, अभी ऐश करो।'

माया तो ठगनी भई, ठगत फिरे सब देश। जा ठग ने ठगनी ठगी,ता ठग को आदेश।।

ये बहुत पसंद है मुझे व्यक्तिगत रूप से – ठगा जा सकता है इस ठगनी को भी। बात अहंकार की ही है, पर मज़ेदार है। कि ठगनी ने बड़ी भसड मचा रखी है, पर इसको भी ठगा जा सकता है। आण दो। "जा ठग ने ठगनी ठगी।"

हम फरीद की जब बात कर रहे थे, उन्होंने भी कहा था उसको, फरीद ने ‘ठग’ लिखा था, ठगों का ठग है, कि वो ठगों का ठग है। और फरीद ने वो बात कबीर से क़रीब चार-सौ-साल, पाँच-सौ-साल पहले कही थी। चार-सौ-साल। ठगों का ठग है जो सबको ठगता फिरता हो, वो है जो उसको ठगता है। तो उसको भी ठगा जा सकता है।

उसी ठग की बात फरीद ने करी थी और उसी की बात कबीर कर रहे हैं कि ये सब जो हो रहा है, देखिए, इसको समझिएगा। ये बहुत लाइफ़ पॉजिटिव संदेश है। एक निष्कर्ष मन ये भी निकाल सकता है जल्दी से, कि हम सब कंडेम्ड हैं ख़त्म होने के लिए, ठगे जाने के लिए, सफरिंग के लिए, एक मूर्खतापूर्ण ज़िन्दगी जीने के लिए। कोई विकल्प नहीं है। कबीर हमसे ये कह रहे हैं विकल्प बिलकुल है। फरीद हमसे कह रहे हैं विकल्प है, बिलकुल है, पूरा-पूरा है।

तुम्हारी नियति नहीं है ठगे जाते रहना लगातार। बोले, 'होश में आ जाओ यू विल बी ऑन द टॉप ऑफ द वर्ल्ड' ठगे जा रहे हैं अपनेआप से। ये तुम्हारी मूर्खता है कि तुम ठगे जा रहे हो, किसी और का षडयंत्र नहीं है। तो कबीर बार बार बोलते हैं कि "एक सिंहासन चढ़ चले, एक बांध ज़ंजीर।"

आया है सो जाएगा, राजा रंक फकीर। एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बांध जंजीर।।

तो सिंहासन चढ़कर भी जाया जा सकता है, ये सम्भव है। तुम्हारी नियति नहीं है कुछ ले जाते रहना। जीवन को शाह की तरह, राजा की तरह भी जिया जा सकता है – "जिनको कुछ न चाहिए, वो शाहन के शाह।"

तो जीवन को बादशाहत में भी जिया जा सकता है। जीवन को बादशाहत में भी जिया जा सकता है और ये बात सब ने कही है। किसी ने ऐसा नहीं कहा है कि तुम्हारा अगर ऐसा होता ही कि सबकुछ संन्यास भोग की कला है। हाँ, संन्यास भोग की कला है, संतों के शब्दों में; बुद्ध के शब्दों में, दुख से मुक्ति सम्भव है।

बुद्ध का पूरा कहना ही यही था कि दुख ये है और दुख से मुक्ति सम्भव है। सुख की बात भले नहीं कही लेकिन दुख से मुक्ति सम्भव है। उन्होंने ज़रूर कहा था। लेकिन देखिए, विनम्रता! "जा ठग ने ठगनी ठगी, ता ठग को आदेश।" हम इसे पढ़ते हैं, तो हमारे भीतर अहंकार उठता है और कबीर कह रहे हैं, 'मैं उस ठग के सामने सिर झुका रहा हूँ, जो इस ठगनी को भी ठग लेता है।'

द इंस्ट्रूमेंट इज परफेक्ट। ये एक मेथड ही है जो उन्होंने निकाला है। और बड़ा परफेक्ट मेथड निकाला है कि ठगनी को ठग भी लूँगा, लेकिन उस ठगने के फल स्वरूप जो अहंकार उठ सकता है, उसकी भी दवाई पहले ही कर ली है कि विनम्र भी रहूँगा। विनम्र भी रहूँगा, अपने भीतर ये भाव नहीं आने दूँगा कि मैं तो बड़ा होशियार हूँ मैंने माया पर भी।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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