प्रश्नकर्ता: ध्यान में होने का क्या अर्थ है? ध्यान में हम कब होते हैं? कब समझा जाए कि हम ध्यान में हैं?
आचार्य प्रशांत: ध्यान में ना होना अपना एहसास ख़ुद करा देता है। फिर आप उसको नाम किसी भी तरह का दे सकते हो। चाहे विचार बोल लो, चाहे बेचैनी बोल लो, चाहे तलाश बोल लो, पर ये पक्का है कि कुछ रहेगा जिसे नाम देने की ज़रुरत रहेगी। देखिए, मैंने बात करी ध्यान में ‘ना’ होने की। ध्यान में कुछ विशेष नहीं है, ध्यान में कुछ भी ख़ास नहीं है। एहसास हमेशा उन अवस्थाओं का होगा जो ध्यान की नहीं हैं और वो अलग-अलग तरह के एहसास देंगी।
ध्यान तो सहजता है, उसका क्या अनुभव!
कई शब्द प्रयोग किए जा सकते हैं और किए गए हैं, पारम्परिक रूप से। उनका संबंध ध्यान के साथ बैठाया गया है–शांति, मौन, आनंद, मुक्ति–ये सारी बातें। पर ये भी सब इशारे हैं। ध्यान अपने-आप में कुछ है ही नहीं, ये इशारे भी कुछ दूर तक जा कर ख़त्म हो जाते हैं। उसके ऊपर जो कुछ है, वो है। ध्यान एक खाली जगह है। ध्यान का अपना कोई अनुभव नहीं होगा।
ऐसे समझ लीजिए कि जब बेचैनी ना हो, जब अधूरापन ना हो, जब खोज की कोई ज़रुरत ना पड़े, जब पाने की इच्छाएँ बिलकुल हिला ना रही हों, तो ध्यान की अवस्था है। और ध्यान की वो अवस्था, ना बाहर से लाई जाती है, ना वो वस्तुगत रूप से कुछ है कि कहा जा सके कि ‘ये ध्यान है’। वो लगातार मौजूद ही रहती है। जब मन प्रस्तुत होता है उसमें डूबने के लिए, तो मन की बेचैनियाँ हट जाती हैं, बस इतना ही, और उसमें कुछ विशेष नहीं।
प्र: तो मन ध्यान में होता है? मन जाता है ध्यान में फिर?
आचार्य: मन ही ध्यान में होता है। आप जिसको कहेंगे कि, "मैं ध्यान में हूँ", तो मन ही तो ध्यान में जाता है।
प्र: मन को अनुशासित नहीं करना पड़ेगा फिर? या मन को फ़ोर्स नहीं करना पड़ेगा फिर ध्यान के लिए? मन तो मन ही है।
आचार्य: देखिए ध्यान शब्द का प्रयोग दो तरीके से किया जाता है, एक तो ये है कि किसी वस्तु का ध्यान करना, जैसे आप कहते हो न कि "ध्यान करो कि चाभी कहाँ रख दी!" कई लोग जो मेडिटेशन करते हैं, वो भी यही करते हैं कि कोई चित्र ले लिया, या कोई ध्वनि ले ली, उस पर ध्यान कर रहे हैं। तो वहाँ पर हमेशा एक ‘वस्तु’ है जो ध्यान का केंद्र है।
अभी तक मैंने ध्यान की जो बात की है, वो इस ध्यान की बात नहीं की है। आप कह रहे हो कि मन को अनुशासन देना पड़ेगा, अगर किसी वस्तु पर ले आना है तो निश्चित रूप से मन को एक प्रकार की व्यवस्था देनी पड़ेगी, जोर-ज़बरदस्ती भी करनी पड़ सकती है, या प्रलोभन देना पड़ सकता है। वो ध्यान कम है, एकाग्रता ज़्यादा है।
मैं जिस ध्यान की बात कर रहा हूँ वो थोड़ी दूसरी चीज़ है। वो ये है कि मन पूरे तरीके से मुक्त है, जो करना चाहे करे, पर वो जो भी कर रहा है, उसके पार्श्व में ध्यान है। चलते-फिरते, उठते-बैठते ध्यान है। फ़र्क नहीं पड़ता है कि वो किसी वस्तु पर केंद्रित है कि नहीं है, किसी विचार को सोच रहा है कि नहीं सोच रहा है, ध्यान लगातार बना हुआ है। और इस कारण, केंद्रीय रूप से, बहुत ही गहरे रूप से वो ‘स्वस्थ’ है। उसको कोई अनिश्चय नहीं है जीवन में, बड़ी चिंताएँ नहीं हैं, छोटे-छोटे खेल हो सकता है खेल रहा हो, पर कोई अस्तित्वगत यक्ष प्रश्न नहीं सामने खड़े हैं, "मेरा क्या होगा?"
ध्यान में होने का ये अर्थ बिलकुल नहीं है कि मन अपने सारे क्रिया-कलाप छोड़ देगा। मन द्वैत में जीता है और ध्यान में भी मन द्वैत में ही जियेगा।
ध्यान बड़ी मज़ेदार चीज़ है; ध्यान का अर्थ है कि द्वैत-अद्वैत मिल गए। मन है द्वैत में, और वो ध्यान के अद्वैत में डूबा हुआ है। फिर, जो साधारण है वही असाधारण हो जाता है। जो लौकिक है वही दैवीय हो जाता है। जो रोज़मर्रा का है वही परम हो जाता है।
मन अभी भी वही करेगा जो मन को करना है। क्या करेगा? विचारेगा, देखेगा, इंद्रियों से अनुभव इकट्ठे करेगा; सुनेगा, सुन कर जवाब देगा; चलेगा, खाएगा, पियेगा। पर ये सब कुछ एक डूबी हुई अवस्था में हो रहा होगा। जैसे एक आदमी अपने रोज़मर्रा के सारे काम कर रहा हो और साथ-ही-साथ हल्के-हल्के कुछ गुनगुना रहा हो। सारे काम कर रहा है पर गुनगुनाहट रुक नहीं रही है। ऐसा है ध्यान। अब ख़ास क्या लगेंगे? वो जो सारे काम कर रहा है ख़ास तो वो ही लगेंगे। और वो गुनगुनाहट इतनी सूक्ष्म है कि ना सुनाई पड़ेगी और ना ही स्वयं उस व्यक्ति को उसका कोई एहसास होगा।
वो खिलौने बना रहा है, और गुनगुनाहट चल रही है, आप उससे पूछिए "अभी क्या कर रहे हो?" तो वो क्या बोलेगा? "मैं खिलौने बना रहा हूँ"–ये थोड़े ही बोलेगा कि गुनगुना रहा हूँ, और ये गुनगुनाहट सूक्ष्म, सूक्ष्म, और बिलकुल अतिसूक्ष्म हो जाए तो समझिए वही ध्यान है। बन रहे हैं खिलौने पर मन बँधा हुआ है उसी खूँटे से। खूँटे से बँधा हुआ है और घूम रहा है उसके चारों ओर, खिलौने बना रहा है, चल रहा, फिर रहा है, सो भी रहा है, पर केंद्र से अपने जुड़ा हुआ है। भाग नहीं सकता कहीं, भागने की इच्छा ही नहीं है। प्रेम में जुड़ा हुआ है। ये है ध्यान। तो कैसे उसको कहें कि ‘कुछ है’। बाकी सब को आप कह दीजिए कि ‘कुछ है’।
खाना बन रहा है–एक रस है जो बर्तन में उबल रहा है और एक रस है जिसमें मन डूबा हुआ है। कैसे कहें कि ‘ध्यान कुछ है’। किस रस की आप बात करेंगे? किस रस की मन को जानकारी भी होगी? प्रत्यक्ष रूप से मन को उसकी जानकारी होगी जो बर्तन में उबल रहा है। जिस रस में मन खुद डूबा हुआ है, इसका उसे कहाँ पता चलना है?
ये ज़रूर हो जाएगा कि वो सारे शब्द जिनकी अभी थोड़ी देर पहले हमने बात की थी, उनका ख़याल आने लग जाएगा। मन से आप पूछिए कि क्या है–तो कुछ ऐसा सा कहेगा कि मूड अच्छा है, या कहेगा कि शांति है, या कहेगा कि बड़ा निर्भार हूँ, बड़ी मुक्ति है। पर ये सब भी बस इशारे ही हैं–ऐसा-ऐसा लग रहा है; और वो भी तब कहेगा कि जब आप बहुत ज़ोर दे कर के पूछ ही लो–‘कुछ लग रहा है क्या खास? क्या लग रहा है?’ तो फिर मुड़ेगा इधर-उधर, तहकीकात करेगा, कोई विशेष शब्द पाएगा नहीं तो इस तरह का कुछ कामचलाऊ बोल देगा।
तो क्या कहें कि क्या है ध्यान? हाँ, आपको ध्यान की वो सस्ती वाली परिभाषा लेनी है तो बहुत आसान है, कि आँखें बंद करो और ध्यान में बैठ जाओ। ये थोड़े ही ध्यान है। ये तो आप कुछ कर रहे हो। ये थोड़े ही ध्यान है।
कर-कर के ‘ना करना’ नहीं होता। करने-करने में ‘ना करना’ हो जाए, वो अलग बात है। करने-करने में आप गीत गुनगुना रहे हो, ये तो हो सकता है, कि कर रहे हैं और कहाँ चल रहा है सारा करना? वो गीत के माहौल में हो रहा है। जैसे आप इस कमरे में बैठे हों और हल्की सी धुन बज रही है और वो पूरे कमरे को भरे हुए है, वो गीत, और आपको जो भी करना है अपना रोज़मर्रा का काम, आप वो कर रहे हों। तो ‘गीत में’ तो काम करना हो सकता है। ‘ध्यान में’ आप जो भी कर रहे हो, वो हो सकता है पर अगर प्रयत्न ये है कि मैं कुछ कर-कर के गीत को पा लूँगा, तो थोड़ा सा अहंकार है। कि इतनी ज़ोर से करो कि नाद बजने लगे, तो नाद यूँ तो नहीं बजेगा, ऐसे तो नहीं बजेगा। वो बजता ही तभी है जब आप उसका ख़याल छोड़ देते हो। बिन बुलाया मेहमान है वो। आप बुलाने की कोशिश छोड़ो और आप पाओगे कि वो पहले ही बैठा हुआ है। जैसे कि कोई घर के अंदर बैठा हुआ है और आप दरवाज़े से बाहर निहार रहे हो, ताके पड़े हो, पूरी कोशिश कर रहे हो कि आ जाए, सड़क की ओर देख रहे हो। वो घर के अंदर ही बैठा हुआ है। आपके बुलाने की उसको ज़रुरत ही नहीं है। बुलाना छोड़िए, आप पाएँगे कि ध्यान उपलब्ध है।
प्र: कोई पेमेंट (भुगतान) करने की भी ज़रुरत नहीं।
आचार्य: बिलकुल भी ज़रुरत नहीं।
प्र१: थोड़ा पिक्टोरल (चित्रीय) सा है पर इसका उदाहरण क्या ये हो सकता है कि उस बच्चे की तरह है जो माँ के गर्भ में स्थित है। वो ये नहीं बता सकता है कि माँ का गर्भ है और मैं उसके अंदर स्थित हूँ। लेकिन तापमान अनुकूल है, घूम रहा है, खाने की कोई चिंता नहीं है।
प्र२: ध्यान के लिए है कि ‘लफ़्ज़ों में ढाल भी दूँ तो गाना भूल जाता हूँ, तू ऐसी बज़्म है मेरी बताना भूल जाता हूँ’।
आचार्य: हाँ, उसका एक चिन्ह कुछ इस तरह से मिलेगा कि हम इतने आदी हो गए हैं ध्यान में ना रहने के, कि ध्यान के पलों के बाद हमें कुछ असहज सा लगेगा। जैसे कि कोई बीमारी का इतना आदी हो जाए कि स्वास्थ्य उसको अजीब सा लगे। जैसे कि कोई एक कृत्रिम कठोरता पहने रहने का इतना आदी हो जाए कि किसी दिन वो खिलखिला के हँस दे तो उसके बाद उसको अपने-आप पर शर्म सी आए। तो मन ध्यान में है इसके बारे में तो कुछ विशेष कहना...?
हाँ ये है कि जब मन ध्यान से दोबारा वापस आएगा तो आपको ऐसा लगेगा जैसे कि जान बची। और बड़ी आशंका होगी कि ये कर क्या रहे थे। वो जितना आकर्षक है उतना ही आशंकित भी करता है। बड़ी हल्की चीज़ है, बड़ी सूक्ष्म चीज़ है, बड़े महीन तारों से अपनी ओर खींचता है। आप ये जान नहीं पाएँगे कभी कि वो क्यों आकर्षित कर रहा है। उसका ना होना बेचैनी देगा, तमाम तरह की बीमारियाँ रहेंगी, आप उन बीमारियों का अपने तल पर इलाज भी खोजते रहेंगे, सारी अपनी बुद्धि लगा कर के, अपनी सारी चतुराई लगा कर के पर कहीं-न-कहीं ये भी जानते रहेंगे कि ये इलाज काम कर नहीं रहे हैं। और वो सदा प्रस्तुत रहेगा कि ‘आओ, डूबो’।
तो छोटे-मोटे ध्यान की बात छोड़िए कि मन की ही किसी छवि पर ध्यान लगा दिया, किसी मूर्ति पर ध्यान लगा दिया, किसी मंत्र पर ध्यान लगा दिया, किसी शब्द पर ध्यान लगा दिया, कुछ लोग कहते हैं कि मौन पर ही ध्यान लगाओ– वो सब हटाइए। बस डूब जाइए, और जब ध्यान में डूबेंगे तो वो ध्यान मन का हिस्सा नहीं हो सकता। ध्यान ‘करेंगे’, तो वो ध्यान मन की करनी है, तो वो मन का हिस्सा ही होगी और ध्यान में ‘डूबेंगे’ तो वो मन का हिस्सा नहीं होगा, वो मन से बहुत-बहुत बड़ा है।
मन हर चीज़ को अपने दायरे में समेट लेना चाहता है, ध्यान को भी वो समेट ही लेना चाहता है। ‘मैं ध्यान कर रहा हूँ’। तो बड़ा कौन? ध्यान या मैं? ‘मैं’। देखिए न! आपने सवाल भी क्या पूछा कि, "किसी तरह के अनुशासन की ज़रुरत पड़ेगी?" माना आपने अनुशासन ले लिया अपने ऊपर। कौन है जिसने अनुशासन ले लिया? ‘मैंने’। तो तारीफ़ किसकी? ‘हम वो हैं जिन्होंने अनुशासित हो कर के दिखाया’।
ध्यान का अर्थ है ‘मैं जानता ही नहीं’।
ध्यान का अर्थ है कि "मुझे तो मेरी रोज़मर्रा की नून-तेल-लकड़ी करने दो, जो है समर्पित हो करके करता रहूँगा’। इतना मेरा अहंकार नहीं कि मैं बोलूँ कि ‘मैं’ ध्यान में जा सकता हूँ। मैं तो अपने छोटे-मोटे काम कर सकता हूँ, मुझे करने दो। और मैं जानता क्या हूँ। मैं यही जनता हूँ कि नहाना है, शरीर को पालना है, खाना बना लेना है, खाना खा लेना है, थोड़े पैसे कमाने है, घर चलाना है, मैं तो यही जानता हूँ। तो मैं यही कर रहा हूँ। मैं क्यों बड़े दावे करूँ कि मैंने परम को पा लिया है? मैं अपने छोटे-छोटे काम कर रहा हूँ।" और जहाँ यही रोज़मर्रा के काम हल्केपन में हुए, निरहंकारिता में हुए तो वही ध्यान है।
ध्यान पर आप सीधे निशाना नहीं लगा पाएँगे कि तीर चलाया और वो ध्यान पर जा कर लग गया। फिर बोल रहा हूँ कि ध्यान को आप बुला नहीं पाएँगे, कि दरवाज़े पर खड़े हैं और उसको आमंत्रित कर रहे हैं, ध्यान कुछ कर के नहीं आएगा, ध्यान तो जो ‘करने’ का लगातार भाव है इसको छोड़ कर आएगा।
आप वैसे ही इतना कुछ समझते रहते हैं कि कब समझा जाए कि हम ध्यान में है? इतनी बातें समझते हैं, एक बात और समझ लेना चाहते हैं। इतने काम करते हैं, एक काम और कर लेना चाहते हैं। मन बिलकुल तैयार खड़ा है कि किसी तरीके से इसको भी हिस्सा बना ही लो। पोर्टफोलियो में जुड़ गया आज से ये। ये रास्ते, जो हमारे रोज़मर्रा के रास्ते हैं, उनसे थोड़ा सा अलग हैं। वहाँ करना पड़ता है, वहाँ पर लक्ष्य बनाना पड़ता है। जीवन कोई लक्ष्य थोड़े ही है, परम कोई लक्ष्य थोड़े ही है, ध्यान कोई लक्ष्य थोड़े ही है। ये सब हाँसिल करने की चीज़ें नहीं हैं। इन्हें हाँसिल नहीं किया जा सकता। पाने का तो विचार ही व्यर्थ है, ये उतरने की चीज़ें हैं और उतरना कृत्य नहीं है। वहाँ आप ये मत समझिएगा कि मैं उतर रहा हूँ; तालाब है, तालाब में उतर कौन रहा है? ‘मैं’ उतर रहा हूँ। नहीं, वो नहीं। उतरने का अर्थ है, "मैं उतर नहीं रहा, मैं से ही उतर गए।"
प्र: ‘मैं’ ही समाप्त हो गया।
आचार्य: ‘मैं’ को ही उतार फेंका, वही ध्यान है। अब दिक्कत है कि जब ‘मैं’ को उतार फेंका तो कहे कौन कि ‘मैं ध्यान में हूँ’? तो हमारा सारा खेल ध्यान में जाने का नहीं है, हमारा सारा खेल ये रहता है कि मैं दावा कर सकूँ कि मैं ध्यान में हूँ। आप पूछिए खुराफ़ाती से कि "तुझे क्या चाहिए? ध्यान या ध्यान का दावा?" ‘ध्यान’ या ये दावा कि ‘मैं ध्यान में हूँ’। वो उत्तर सीधे ये देगा कि "मुझे तो दावा करना है कि मैं ध्यान में हूँ।" इसीलिए वो इस बात को हँसते-हँसते बर्दाश्त कर लेगा कि कोई उसे बेवक़ूफ बना करके बस उसे ये आश्वासन दिला दे कि ‘तू ध्यान में है’। इसीलिए इतनी दुकानें हैं जो चल रही हैं। वो आपको बस आश्वस्त कर देती हैं कि "देखो ये ध्यान है और ये तुमको मिल गया। अब तुम हो गए सच्चिदानंद, अब घर जाओ।" दावा ही तो करना था, कर लिया दावा, हो गया दावा। दावा करने में बड़ा मज़ा है।
अब ये बताओ कि जीना है या जीने का दावा करना है? प्रेम या प्रेम का दावा? बड़ा मज़ा आए कि जिस दिन कोई पूछे "पिछले दो-तीन घण्टे ध्यान में थे?" और अचकचा जाएँ बिलकुल, "ध्यान? वो क्या होता है?" तब आया मज़ा। पर वहीं कोई चतुर आदमी बैठा हो तो तुरंत पलट कर बोलेगा कि "और क्या, ध्यान में ही तो थे और क्या थे, एक-एक क्षण हमने देखा कि हम ध्यान में थे। गिन-गिन कर ध्यान में थे।"
प्र: ज़ेन स्टोरी (ज़ेन कथा) की वो लाइन (पंक्ति) याद आ रही है–व्हेन टारगेट इज़ नॉट द टारगेट (जब लक्ष्य लक्ष्य न हो)।
आचार्य: जो वाकई डूबा हुआ है, उसको तो एहसास भी मुश्किल से होगा कि डूबा हुआ हूँ। कहेगा "अच्छा, इसको ध्यान बोलते हैं?" कोई आकर के उसको बार-बार पूछे, उसको ये शब्द बार-बार दे "भई इसको जोड़ो अपनी शब्दावली में, इसी को ध्यान कहते हैं।" तब हो सकता है कि वो कहे कि "अच्छा, ध्यान! पर फ़र्क क्या पड़ता है कि ध्यान है या नहीं है?" पर जो ये दावेदारी वाले लोग हैं, इनसे सवाल कीजिए "ध्यान क्या है?" और यही बात मन की जितनी डूबी हुई अवस्थाएँ हैं सब पर लागू होती है। प्रेम में भी यही होता है। जो दावेदारी वाले लोग हैं, उन्हें अच्छे से पता होगा, ‘ये प्रेम है’।
जो वास्तविक रूप से प्रेम में है उसको बड़ी अड़चन आनी है क्योंकि नाम फिट होगा नहीं। लेबल आसानी से लगेगा नहीं। आप सब कुछ प्रेम में कर रहे हैं पर प्रेम का नाम देते वक़्त थोड़ा सा ठिठकोगे। कहोगे, "ये हमें पता नहीं कि ये प्रेम है कि नहीं" और मज़ेदार बात ये कि हो सब कुछ प्रेम में रहा है पर नाम देते वक़्त वाकई ठिठक जाओगे। नाम तो अतीत से आते हैं। अतीत को दोहरा थोड़े ही रहे हो, प्रेम में कर रहे हो। और ये बात, ज़िंदगी की बड़ी विलक्षण, बड़ी प्यारी विडम्बना है, क्या?–
जे जानत ते कहत नहीं, कहत ते जानत नाही...
कोई कहता है ये दोहा रहीम का है, कोई कहता है कबीर का है, पर जिसका भी है, बात बड़ी मज़ेदार है।
‘जे जानत ते कहत नहीं’, इसका ये अर्थ नहीं है कि छुपाना चाहते हैं, इसका ये अर्थ है कि उन्हें पता ही नहीं चलता तो कहें कैसे? और ‘कहत ते जानत नाही’, कहने का अर्थ है दावा करना। जो दावा करता है उसे कुछ पता नहीं। जिसको वास्तव में मिला हुआ है, उसको विचार ही नहीं उठेगा कि मिला हुआ है और जो खूब विचार करते हैं कि मिला हुआ है उन्हें कुछ मिला ही नहीं है।
हम परम की ओर भी दृष्टि वही रखते हैं जो किसी भी वस्तु के प्रति रखते हैं। जिन माध्यमों से और जिन तरीकों से हम संसार को पाना चाहते हैं, कोशिश हमारी यही रहती है कि परम को भी उन्हीं तरीकों से, उन्हीं माध्यमों से, उसी मन से पा लें। और मन बेचारे के पास और कोई ज़रिया है भी तो नहीं। उसके पास जो गिने-चुने उपकरण हैं, वो सोचता है कि सब कुछ इन्हीं से पाया जा सकता है। उसके उपकरण हैं बुद्धि, उसके उपकरण हैं स्मृति, उसके उपकरण हैं इंद्रियगत ज्ञान। वो सोचता है–इन्हीं से सब कुछ पाया जा सकता है। वो इन्हीं का इस्तेमाल करके ध्यान में भी उतरना चाहता है। इन्हीं का इस्तेमाल कर के वो आनंद पर भी अपने हाथ डाल देना चाहता है, "प्रेम भी ऐसे ही पा लूँगा, बुद्धि का इस्तेमाल कर-कर के।" ये उसकी मजबूरी भी है और उसकी अकड़ भी।
मजबूरी इसलिए कि उसके पास कुछ है नहीं, कोई और तरीका नहीं है और अकड़ इसलिए कि वो ये मानने को तैयार नहीं कि इसके अलावा भी कुछ है। ये मन की मजबूरी भी है और अकड़ भी है। इसीलिए परम को ‘सद-वस्तु’ कहते हैं, वस्तु नहीं। कि जो है ही, बाकी सारी वस्तुएँ मन का प्रक्षेपण हैं। ‘सद-वस्तु’ वो है, जो ‘है’ ही, वो मन का प्रक्षेपण नहीं है। इसलिए आप हाथ-पाँव चलाएँ नहीं।
आप सहज होकर के बैठ जाएँ और अपने-आप को अनुमति दें हल्का होने की। सारा खेल अपने-आप को अनुमति देने का है।