छोड़ना नहीं, पाना

Acharya Prashant

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छोड़ना नहीं, पाना

आचार्य प्रशांत: परम त्याग नहीं, परम प्राप्ति। ये सिर्फ शब्दों की बात नहीं है। ये पूरा-पूरा दृष्टि का ही अंतर है। सत्य आपके समक्ष आएगा ही नहीं अगर आप पाने की भाषा में बात नहीं करेंगे। अगर आपकी संतोष की वही धारणा है, जो आमतौर पर चली आ रही है, अगर आप दमन, शमन, निरोध, इन्हीं शब्दों के साथ जीते हैं, अगर संयम, कर्त्तव्य, दायित्व, अभ्यास, वैराग्य यही सब आपके लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं, तो चूक जाएँगे, मिलेगा नहीं।

ज़ोर दे कर कह रहा हूँ — छोड़ने को छोड़ो, पाने की बात करो। छोड़ने में क्या रखा है। जो छूटना है, वो छूट ही जाएगा। जैसे ही उसकी मूल्यहीनता दिखेगी, वो छूट जाएगा। अपने-आप छूट जाएगा, यदि छूटना चाहिए तो। तुम छोड़ने को ही छोड़ो, तुम तो पाने पर आओ। तुम बड़े हो, जीवन पाने के लिए है, विशाल है, वृहद है। बादशाहत को पाओ।

कोई तर्क कर सकता है कि छोड़ कर ही तो पाया जा सकता है। छोड़-छोड़ कर नहीं पाया जाता, पाने से छूटता है।

तुमने सिर्फ़ धारणा बना रखी है कि तुम छोटे हो। अपने बड़ेपन को देखो और उसे पा लो। बड़े हो जाओगे बीमारी अपने-आप छूट जाएँगी।

मुझे मालूम है कि दोहरा रहा हूँ पर फिर कह रहा हूँ — पहले अपने बड़े होने का बोध आता है। उसके बाद जो कूड़ा-कचरा है वो गिरता है। सच तो यह है कि बड़े होने का बोध जब आ भी जाता है तो भी कुछ समय तक कूड़ा-कचरा शायद लगा रहे। आदतवश लगा रहेगा, फिर गिरेगा। अतीत की ये आदत है तो फिर ये होगा कि बड़े हो गए हैं लेकिन पुराना कचरा अभी थोड़ा साथ चल रहा है। गिर जाएगा, फिर गिर जाएगा।

तुम्हारे घाव होता है। अभी एक श्रोता के घाव है तो घाव के ऊपर एक पपड़ी जमेगी न। पपड़ी हटाकर तुम्हें स्वास्थ्य मिलेगा कि स्वास्थ्य मिलेगा तो पपड़ी अपने-आप हट जाती है? और तुम कहो — नहीं त्याग करूँगा, तो स्वास्थ्य मिल जाएगा। तुम पपड़ी का त्याग करते चलो बार-बार, स्वास्थ्य मिल जाएगा? पपड़ी अपने-आप हट जाएगी भाई। तुम स्वस्थ हो जाओ।

हाँ, ये हो सकता है कि घाव ठीक हो गया हो तो भी कुछ घण्टों तक, एकाध दिन तक पपड़ी लगी रहे। वो आदत है, फिर हट जाएगी। तुम परवाह मत करो, वो हट जाएगी।

सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्। वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्वत: ॥

अनुवाद: इन्द्रियों से अतीत, केवल शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा ग्रहण करने योग्य जो अनन्त आनन्द है, उसको जिस अवस्था में अनुभव करता है, और जिस अवस्था में स्थित यह योगी परमात्मा के स्वरूप से विचलित होता ही नहीं। ~ श्रीमद्भागवत गीता (अध्याय ६, श्लोक २१)

आचार्य: अब धीरे-धीरे करके टुकड़ो में पढ़ो।

प्र: "इन्द्रियों से अतीत, केवल शुध्द हुई सूक्ष्म बुध्दि द्वारा ग्रहण करने योग्य जो अनन्त आनंद है।"

आचार्य: इन्द्रियों से अतीत कहा है। गलत मत समझ लीजिएगा। एक तथ्य है कि मन से अतीत, इन्द्रियों से अतीत, मन और इन्द्रियों का प्रयोग करके ही जाया जा सकता है। इन्द्रिय नाश की बात नहीं हो रही है। इन्द्रियों से अतीत। इन्द्रियों पर ज़रा गौर करते हैं। क्या हमने इन्द्रियों का भी पूरा प्रयोग किया है? क्या इन्द्रियाँ हमारी मुक्त हैं? कान ठीक से सुनते नहीं हैं। आँखें ठीक से देखती नहीं हैं। इन्द्रियों ने कोई भूल नहीं कर दी है। इन्द्रियाँ कोई बीमारी नहीं हैं कि आप छूटते ही बोलें, "नहीं, नहीं वो आँखों से नहीं दिखता।" मैं आपसे कह रहा हूँ कि वो आँखों से दिखता है।

शब्द कोई शोर नहीं है कि तुम कह दो कि, "नहीं, परम का शब्द सुनाई नहीं देता।" और तुम कहो, "अनहद सुनाई थोड़े ही देगा।" मैं कह रहा हूँ, परम का शब्द बिलकुल सुनाई देता है, तुमने अपने कान ख़राब कर रखे हैं। कबीर हों या बुल्लेशाह हों, सब कह गए हैं कि, "बजता है अनहद का बाजा, और हमें सुनाई देता है।" शून्य शिखर पर अनहद का ही डंका बजता है। और कबीर कहते हैं कि उसमें से छत्तीस राग निकलते हैं।

इन्द्रियों के ऊपर मन बैठा है। मन जब भटका रहता है, मन जब अपने स्त्रोत से जुदा रहता है, तो इन्द्रियाँ भी भटक जाती हैं। कृष्ण ही हैं, जो अर्जुन को समझाते हैं कि इन्द्रियों के ऊपर मन है, और उसके भी ऊपर आत्मा। जब ऊपर से ही वियोग है, तो हमारी इन्द्रियाँ भी भटकी-भटकी सी हैं।

क्यों, आप भूल गए क्या? कृष्णमूर्ति ने पूछा था न आपसे, "क्या कभी आपने पेड़ देखा है?" पेड़ दिखता है। कभी देखा है? इन्द्रियों का दमन नहीं करना, इन्द्रियों को जागृत करना है। इन्द्रियों से अतीत यदि जाना है, तो मैं कह रहा हूँ कि इन्द्रियों को जगाओ। हमारी तो इन्द्रियाँ सोई हुई पड़ी हैं। हमें कहाँ कुछ सुनाई देता है?

ये है सामने सब कुछ (पहाड़)। बोलो कुछ दिख भी रहा है? कुछ दिख रहा है?

आँख कैमरा भर तो नहीं है न? कि आँख का अर्थ है कैमरा? ना। यदि आपको बस उतना ही दिखता है, जितना कैमरे को दिखता है, तो क्या दिखा। कान और वॉइस-रिकॉर्डर में कुछ तो अंतर होगा। तुम्हारा कान यदि बस वही सुन सकता है जो एक वॉइस-रिकॉर्डर भी सुन सकता है, तो तुम सुन कहाँ रहे हो।

हमारी इन्द्रियाँ सोई पड़ी हैं। और जब कृष्ण कह रहे हैं कि इन्द्रियों से अतीत जाओ, तो कह रहे हैं कि जगाओ इनको, यही मुझ तक ले कर आएँगी। इन्द्रियों से मन, मन से आत्मा, जगाओ इनको। साफ-साफ देखो। आँख बंद कर लेने को नहीं कह रहे हैं। वो कह रहे हैं कि पूरा देखो। आँखों को खोलो क्योंकि मनुष्य हो। मनुष्य होने का अर्थ ही यही है कि इन्द्रियाँ हैं। वो तुम्हारा मानवीय गुण है। वही तुम्हारा मनुषत्व है। तुम इन्द्रियाँ हटा रहे हो तो तुम अपने मनुषत्व में भी कुछ बाकी नहीं छोड़ रहे।

सजग इन्द्रियाँ, संवेदनशील इन्द्रियाँ, कुछ छुप ना जाए जिनसे, जो पूरा देख पाएँ। जो निर्गुण के गुण देख लें, जो निराकार का आकार देख लें, ऐसी इन्द्रियाँ। जो अनहद का शब्द सुन लें, ऐसे कान। जो परम की खुशबू सूँघ लें, उसका इत्र, ऐसी नाक़। हाथ ऐसे जो स्पर्श ही करते हों सीधे परमात्मा को। परमात्मा कोई धारणा है क्या कि दिखाई नहीं देगा, सुनाई नहीं देगा? कहाँ है? तुम कहोगे, "कल्पना है! बेकार की बात है परमात्मा।"

कल्पना है? कल्पना नहीं है। ये रहा। ये है (एक पत्थर की ओर इंगित करके)। छुओ, सामने है। और आँखों से अगर तुम्हें दिखता नहीं, तो अंधे हो। और कान से सुनाई नहीं देता, तो बहरे हो। ये बेकार की बात मत करना कि वो तो अतीन्द्रिय है। "अरे! आँखों से कहाँ से दिखेगा?" तो और कहाँ से दिखेगा? मनुष्य हो न, तो और कहाँ से देखते हो? बताओ। तो कहेंगे, "हमारी तीसरी आँख खुली हुई है। शिव नेत्र हैं हमारे पास।" किसको बेवकूफ बना रहे हो?

इन्हीं आँखों से दिखेगा। और कोई तीसरा नेत्र नहीं होता। तीसरे नेत्र का अर्थ ही यही है कि नेत्रों के पीछे का नेत्र खुल गया है। नेत्रों के पीछे जो नेत्र है, वो खुल गया है। वो तीसरा नेत्र है। वो माथे में कहीं नहीं होता। कई लोग घिसते रहते हैं कि तीसरा नेत्र खुलेगा। ऐसा नहीं होता।

समझ में आ रही है बात? (एक श्रोता की ओर इंगित करते हुए) ये गाता है, “तेरा मेरा एक नूर, काहे को हुज़ूर, तूने शकल बनाई है श्वान की...”। ये होता है धार्मिक चित्त। जो दिख रहा है, उसी में दिख रहा है। आँखों से ही तो दिखा न उन्हें श्वान? आँखों से ही श्वान दिखा न? और उन्हीं आँखों से उस श्वान में क्या दिखा? परम दिखा। तो ऐसी हों आँखें। कल्पना नहीं है। विचार भर नहीं है। विचार, युक्ति, अवधारणा कुछ नहीं है वो।

वो तो साक्षात से भी ज़्यादा साक्षात है। करीब से ज़्यादा क़रीब है। प्रकट से ज़्यादा प्रकट है। तुम उसके अलावा और किसकी आवाज़ सुन रहे हो? तुम उसके अलावा और किसको देख सकते हो? कोई और है भी देखने के लिए? है कोई और जिसकी आवाज़ सुन सकते हो? तो फिर ये सब क्या है कि कान बंद करोगे तब वो सुनाई देगा, और आँख बंद करोगे तब वो दिखाई देगा? ना, ये बातें नौसिखियों के लिए ठीक हैं कि आँख बंद करो और कान बंद करो। योगी के लिए नहीं। वहाँ तो खुली आँख से दिखता है। वहाँ तो हाथ में लेकर खेला जाता है, मिट्टी में है।

कबीर का है, “साधो सहज समाधि भली।” वो सब समाधि नहीं है कि ये कर रहे हो, वो कर रहे हो। सहजता में समाधि है। उठ रहे हैं, चल रहे हैं, खा रहे हैं, पी रहे हैं, समाधिस्थ हैं।

प्र: "उसको जिस अवस्था में अनुभव करता है, और जिस अवस्था में स्थित यह योगी परमात्मा के स्वरूप से विचलित होता ही नहीं।"

आचार्य: ऐसा बैठा है कि हिलता ही नहीं। अंगद का पाँव जमा दिया है, हिला कर दिखाओ। उसको अलग-अलग तरीके से वर्णन किया जाएगा। कोई कहेगा कि पिया से ऐसी मिली हूँ कि पिया ही बन गई हूँ। ऐसा नाम लिया राँझा का कि राँझा ही हो गई। कोई कहेगा कि उसके महासागर में मेरी बूँद सागर ही हो गई, "बूँद समानी समुन्द में।" कोई कहेगा कि मैं जो था, अपने आप जान लिया। पर बात वही एक ही है।

सत्य में बैठ गए, विचलित होते ही नहीं। चल रही हैं हवाएँ, चल रहे हैं तूफान। बुझना तो छोड़ो, दिया काँपता भी नहीं। ऐसा पाया है उसको कि हम वही हो गए हैं। अब वो हमसे छूटेगा कैसे?

"अगर वो हमारे हाथ में होता तो तुम हमारा हाथ काट सकते थे, छुड़ा लेते। अगर वो हमारे दिमाग में होता तो तुम हमारी स्मृति छीन सकते थे, छूट जाता। वो आँखों में होता, तो आँखें निकाल सकते थे। पर वही हो गए हैं। अब हमसे छूटेगा कैसे?" इसे कहते हैं आसन में स्थित हो जाना। हम वही हो गए हैं। कोई तरीका ही नहीं है कि वो हमसे छूट सके।

तू, तू करता…।

श्रोतागण: तू हुआ।

आचार्य: कैसे छुड़ाओगे? छुड़ा कर दिखाओ। ये नहीं कि बड़ा बल है हममें, हम वही हैं। हमसे छूटेगा कैसे वो? तुम्हें क्या लग रहा है, ये सब नकली है? ये सब नकली नहीं है।

ना तो ये जगत भ्रम है, ना कहीं कोई माया है, कुछ मिथ्या नहीं है। सब असली है, और सब ये परमात्मा ही है।

तुम मंदिर में बैठे हो अभी, कुछ नकली नहीं है इसमें से। ये मत कह देना कि "अरे! ये द्वैत है, तो नकली है।" सब असली है। कहीं कुछ नकली होता ही नहीं। असली की ही सत्ता है, असली-ही-असली है चारों ओर। ये रहा परमात्मा, देखो। देखो! ये रहा। उसी में बैठे हो, उसी की साँस ले रहे हो। छूओ! ये रहा परमात्मा। कुछ नकली नहीं है।

(नदी की धारा के बहाव से उत्पन्न शोर की ओर इंगित क़रते हुए) ये कृष्ण ही बोल रहे हैं और कोई नहीं बोल रहा। तुम क्या सोचते हो, गीता कोई कागज़ है जो हाथ में ले लोगे?

(पर्वत से गिरते झरनों के उद्गम की ओर इंगित करते हुए) वो रही गीता, ऊपर से आती हुई।

जो आयतें उतरी थीं, ऐसे ही उतरी थीं, यही फ़रिश्ता है। ऐसे ही बोलता है वो। इन्हीं कानों से सुनोगे।

देखो, बोला। बोल रहा है न? क्या बोल रहा है? कानों को ऐसा कर लो जो सुन सकें।

करो ऐसा कानों को जो साफ़-साफ़ सुन सकें जो वो बोल रहा है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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