जब अपनी हालत से निराश होने लगें

Acharya Prashant

8 min
1.7k reads
जब अपनी हालत से निराश होने लगें

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, बहुत पहले से देख रहा हूँ। इमैजिनेशन (कल्पनाएँ करने) की आदत है। अब यहाँ तीन महीने से हूँ तो इसे और गहराई से देखने के लिए मिला। बहुत ज़्यादा गहराई तक है यह।

मैं सही-सही बताऊँ तो कोई मुझसे बात करता है तो मुझे उसकी आधी बात सुनाई ही नहीं देती। अगर तुरंत मुझसे पूछा जाए कि उसने क्या बोला, तो आधे से ज़्यादा बार तो मुझे पता ही नहीं चलता कि उसने क्या बोला।

जैसे आप कहते हैं कि सार्थक कर्म में डूबो तो ये चीज़ें कम हो जाती हैं। सार्थक कर्म में डूबने के लिए भी शुरू में थोड़ा एफ़र्ट (प्रयास) करना पड़ता है और उसमें बार-बार ऐसा लगता है असफल हो जा रहा हूँ। उससे निराशा बहुत हो जाती है।

ऐसा लगता है कि कहीं मंद बुद्धि जैसा हो गया हूँ क्या मैं। रास्ते पर जा रहा हूँ तो रास्ते का पता नहीं।

आचार्य प्रशांत: गलती कर रहे हो। गलती ये नही है कि मंद बुद्धि हो, गलती ये है कि उम्मीद करते हो की तीव्र बुद्धि होओगे। अपने आप से उम्मीद बहुत ज़्यादा है। तो बुरा लगता है जब दिखाई देता है कि ध्यान कम है, एकाग्रता कम है और मंद बुद्धि हो।

तुम्हें ये अधिकार किसने दिया सोचने का कि तुम जैसे हो, इससे बेहतर हो सकते हो? पर हम सब के पास अपनी-अपनी एक बड़ी प्रकाशमई आत्म-छवि होती है। एक बड़ा रौशन पुतला होता है हमारे पास अपना। "वो देखो, पहाड़ के ऊपर किसकी मूर्ति खड़ी है। परेश महान! हेल परेश ।”

अरे, तुम जैसे हो वैसे ही हो। तुम्हें निराशा इसलिए होती है क्योंकि तुम अपनी तुलना उस रौशन पुतले से करते हो। जैसे तुम्हारी कोई सौ-फीट ऊँची प्रतिमा, वो भी सुंदर और खूबसूरत, हैंडसम, बना कर टाँग दी गई हो। वो झूठी है न?

और उसके नीचे एक ताम्रपत्र पर तुम्हारे गौरवपूर्ण कृत्यों का विवरण भी लिख दिया गया है।

"यही हैं जिन्होंने ईरान से लेकर चीन तक फतह करी थी।"

"यही हैं जिनका आईक्यू (इंटेलिजेंस क्वोशन्ट/बुद्धि लब्धि) पौने-छः-सौ है।"

"यही हैं जिन पर दुनिया की सारी हूरें मरती हैं।"

"यही हैं जो एक हाथ से पाँच-सौ पुशअप मारते हैं।"

अब इतनी बड़ी तुम्हारी प्रतिमा लगा दी गई और उसके नीचे इतनी बड़ी तुम्हारी कहानी लिख दी गई, ठीक?

अब तुम उस प्रतिमा को देखते हो, कहानी को पढ़ते हो और बोलते हो, "वो कौन है? मैं हूँ।" और उसके बाद तुम एकदम फूल करके निकलते हो कि, "चलो भाई, अब पुशअप मारा जाए", और दो हाथ लगा लेते हो, फिर चार हाथ लगा लेते हो, फिर चार पाँच हाथों का सहारा भी माँग लेते हो, और उसके बाद भी पाँच पर बिलकुल फुस्स।

कहते हो, "वहाँ तो लिखा था कि एक हाथ से पाँच-सौ मारते हैं। वो तो हो नहीं रहा।"

वो जो प्रतिमा है वो झूठी है। उसमें जो कुछ लिखा हुआ है वो झूठा है। तुम अपनी तुलना उससे क्यों करते हो? इसीलिए तुमको निराशा होती है।

कहते हो मुझे सुन रहे हो। सौ बार बोलता हूँ कि इंसान वृत्तियों का पुतला है। इंसान सीमाओं का, क्षुद्रताओं का एक मलिन पुतला है। अपनी गलतियों को देखकर ताज्जुब तुम्हें कभी होना ही नहीं चाहिए क्योंकि तुम वैसे ही पैदा हुए हो।

पर नहीं, हमें तो बताया गया है कि साहब हम आसमान फतह करने के लिए पैदा हुए हैं। और ऐसा ही नहीं कि हमें इधर-उधर के लोगों ने बता दिया, हम कहते हैं कि शास्त्रों ने भी यही कहा है किं तुम्हारे भीतर अपार संभावना है।

संभावना का करोगे क्या? तुम्हारा यथार्थ क्या है इस पर जीना है या संभावना से कुछ हो जाना है? तुम संभावना से अपनी तुलना कर-करके पाओगे क्या? और अपनी वो संभावना भी क्या तुमने खुद खोजी है? तुम्हें तो संभावना का भी पता नहीं। वो तो कोई और बता गया कि तुम ब्रह्म हो ,तुम आत्मा हो, तुम अनंत और असीम हो। यथार्थ क्या है तुम्हारा? यथार्थ यह है कि तुम प्रकृति के, मिट्टी के ढेले हो, जिसमें नखशिख, दोष और विकार भरे हुए हैं।

और दोषों में एक दोष यह भी है कि जब तुम्हारे दोष सामने आते हैं तो तुम्हें बुरा लगता है। तुम्हें लगता है कि, "यह मैंने क्या कर दिया! मेरी छवि तो बड़ी उज्जवल है। इतना रौशन पुतला और इतने काले काम।"

पुतला ही तो रौशनी है न, प्रकृति तो अंधी है। ये दिमाग का गायब रहना, ये कल्पनाशीलता, ये सब तो मस्तिष्क के हार्डवायरिंग में है। ये तुमने कोई गुनाह थोड़े ही कर दिया, ये तो सबके साथ है। किसी का थोड़ा कम है, किसी का थोड़ा ज़्यादा है। और ऐसा भी नहीं है कि तुम्हें सुनाई नहीं देता या समझ में नही आता। अभी जब बोल रहा हूँ तो आधा ही सुन रहे हो या पूरा सुन पा रहे हो? या अभी भी पुतले में ही घुस गए जाकर?

सुनते तो हो। देखो अभी कैसे देख रहे हो। थोड़ी देर पहले कैसे सो रहे थे पर अभी तो जागे न, जागे कि नहीं जागे? अरे पूरी तरह नहीं, पचास-साठ प्रतिशत तो जगे? पहले तो कुछ भी नहीं था। तुम इतने से संतुष्ट हो जाया करो और यात्रा जारी रखो।

यह बात बड़ी व्यवहारिक है, समझना। जो सीधे अपनी तुलना आसमान से कर लेते हैं, वो झट से उड़ने की कोशिश करेंगे, धड़ से गिरेंगे और फिर पूरी तरह से निराश होकर, निरुत्साहित होकर वो ज़मीन में ही गुफा में घुस कर बैठ जाएँगे। गुफा ही नहीं, बिल के अंदर घुस कर बैठ जाएँगे। आसमान की ओर निकले थे, घुस गए बिल में। इससे अच्छा ये है कि एक-एक कदम बढ़ाओ और अपने यथार्थ को हमेशा याद रखो।

ठीक है, आसमान से प्रेम है, आसमान की ओर जाना है। बड़े बूढ़े हमें बता गए कि निर्मल, स्वच्छ, अनंत आत्म हमारा स्वभाव है, ठीक है वो बात। लेकिन हम विनम्रता के साथ, ह्यूमिलिटी के साथ इस बात को भूलेंगे नहीं कि हमारी औकत क्या है।

आत्मा स्वभाव है। स्वभाव होगी आत्मा, पर टुच्चई तो औकात है न, वो कैसे भूल जाएँ? शास्त्र हमें बताते होंगे कि हम निर्मल हैं, लेकिन हम ये कैसे भूल जाएँ कि यहाँ तो ऊपर से लेकर नीचे तक मल-ही-मल से भरे हुए हैं? मल से भरे भी हुए हैं और नहाने का मन भी नहीं है। ऐसा ही है न? वो कभी मत भूला करो।

आत्मा की ओर बढ़ने के लिए अनिवार्य आवश्यकता है कि कभी अपनी औकात मत भूलो। भूलो मत कि अंदर कितने दोष हैं।

जो अपने दोषों को याद रखता है, वही धीरे-धीरे दोषों से मुक्त भी होता चलता है।

दोषों को देख कर अगर बहुत लज्जा आएगी तो जानते हो क्या होगा? दो काम होंगे – एक तो हो सकता है पाखंड शुरू कर दो। क्योंकि अगर लाज बहुत आती है तो लाज के साथ जीयोगे कैसे? तुम कहना शुरू कर दोगे कि, “मुझ में दोष हैं ही नहीं।” पाखंड करना शुरू कर दोगे कि दोष हैं लेकिन छुपाना शुरु कर दोगे।

या फिर कह दोगे कि, "दोष हैं तो क्या हो गया? मैं ऐसा ही हूँ, ऐसा ही रहूँगा। मैं तो ऐसा ही हूँ। सुना है न बहुत लोगों को ऐसा बोलते? "आई ऍम व्हाट आई ऍम , मैं तो ऐसा ही हूँ। मुझे बदलना ही नहीं हैं।"

या तो पाखंड शुरू कर दोगे और ये कहने लग जाओगे कि, "मैं ऐसा नहीं हूँ", जबकि तुम वैसे हो। या फिर तुम उजड्ड और बदतमीज हो जाओगे, और अकड़ कर बोलोगे, "अब मैं जैसा हूँ वैसा ही हूँ। भाई अपना तो ऐसे ही है।" और ये दोनों ही बातें घातक होंगी।

तो साधक को अपने यथार्थ को लेकर के बड़ी विनम्रता रखनी होती है। तभी कहता हूँ कि तथ्यों को याद रखो, फैक्ट को भूलो मत। और सत्य के प्रति अगाध प्रेम रखो।

कहीं पहुँचने के लिए दो बाते पता होनी चाहिए न – तुम कहाँ हो और तुम्हें कहाँ जाना है। जहाँ तुम हो उसका नाम है तथ्य, और जहाँ तुम्हें जाना है उसका नाम है सत्य। दोनों पता होना चाहिए, दोनों में से एक कोई भूल मत जाना।

मैं कैसा हूँ, मुझे ये भी पता है; और मैं कैसा हो सकता हूँ, मुझे उसके प्रति श्रद्धा रहे। तुम्हें तुम्हारी संभावना भी पता है और तुम्हारा यथार्थ भी, तुम्हारी औकात भी।

ठीक है? और लजाने, शर्माने की ज़रूरत नहीं है। लजाओगे तो या तो पाखंडी हो जाओगे या अकड़ू। लज्जा घातक होती है अध्यात्म में।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
A
Ayushसानिध्य
3mon ago
सत्य के प्रति अगाध प्रेम रखो। ❤️❤️
S
Soniyaसाईशा
3mon ago
स्वभाव होगी आत्मा, पर टुच्चई तो औकात है न, वो कैसे भूल जाएँ? 😶‍🌫
K
Kashish
4mon ago
Mai dono hogyi hu 🙂
S
Soniya
4mon ago
Dhanyawad!
A
अनु
4mon ago
"एक-एक क़दम बढ़ाओ और अपने यथार्थ को हमेशा याद रखो।"🌌
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Articles On Guilt
Excerpts From Articles
Science and Spirituality Always Go Hand in Hand
The most common thing in spirituality and science is 'an honest urge to know the Truth.' Science observes the external universe, and spirituality observes the mind. These two have to be in tandem. The one thing that enables true knowledge in any field is honesty and integrity.
What Makes a Woman Beautiful?
The woman is not beautiful; the man is not beautiful either. Truth and compassion are beautiful. The compassionate one stands head and shoulders above the gorgeous woman or the handsome man. And this is possible only when love and appreciation for the right, gender-independent values are fostered in both the man and the woman.
Why Do We Hide Things In Relationships?
Cultures place too much value on conforming to relationship stereotypes. These dogmas and rigid opinions do not easily accept reality. And so, to please them, you become a habitual liar. But good relationships are founded on freedom; they are not based on obligations, and they are not afraid of reality. In good company, the other might frown, but less on what you did, and more on what you hid.
Leadership and Spiritual Insights from the Bhagavad Gita
My concern is the way we are. My concern is the face of the human being. My concern is the little sparrow. I'm not here to tell people what God has said. I'm here to take care of the sparrow. That's my concern. And the sparrow cannot be taken care of unless we go to the Gita. Hence, the Gita.
The Female Body, Chastity and 'Rape Culture'
Rape is happening all over the place. A husband raping a woman is not something new. Public apathy—nobody reporting the rape—that is again not something new. What is new is the woman standing up. And not just standing up in a way that displays raw courage, but standing up in a way that displays something deeper. She is challenging the very notion of female honor.
Astrology: A Myth People Believe
It has been extremely conclusively proven, demonstrated that astrology is not a science at all. It's a conjecture. It's a belief system. Belief system with no material basis at all.
How Can The Common Man Make Better Decisions In Life?
First of all, we have to realize what our life is like. You know, I can’t change something without firstly understanding its processes and its actuality. I must know what this thing called my life is. We keep living without knowing a thing about life. And we’re blinded by names and identities.
आश्रित महिलाएँ और अध्यात्म
जो आश्रित महिलाएँ हैं, इनको सबसे बड़ी सज़ा यह मिलती है कि इनका अध्यात्म की तरफ़ बढ़ने का रास्ता बिल्कुल रोक दिया जाता है। परमेश्वर की ओर कैसे बढ़ोगे अगर पति ही परमेश्वर है? जो कैद में है, उसके लिए साधना है — दीवारों को तोड़ो और बाहर आओ। बाहर निकलकर कोई नया ज्ञान, कला, या कोई कुशलता सीखो।
Living Without Illusions: A Lesson on Expectations and Reality
It is not that the way the world is, the ignorance, the stupidity, the suffering, the perverseness of it all. It's not that that hurts or surprises you. What shocks is that adverse things come from people you think of as decent, respectable and wise. It is not events or people, therefore, who are shocking you, it is the expectations that you hold of them.
How Influencers Fool Us So Easily
We have reserved critical thinking only for problems related to science and technology, but not for life itself. Why can’t the same spirit of inquiry be present in everything? Without the filter of thought and inquiry, you will be enslaved and exploited. So, pause at every sentence, analyze, and refuse to move on until you are satisfied.
How to Raise a Daughter?
Please be an observer and a compassionate witness. Keep watching, watch from a distance. Meddling is not needed. Being a parent of a girl child today is a humongous opportunity. You have the chance to give rise to a new world—if you can truly raise one girl as a free girl.
Kids and Anxiety: What’s Going Wrong?
If a kid has been continuously told that the world is everything, how will an untouched point remain within? The world, as we know, is quite fickle, while our real nature is stability or permanence. It is this dichotomy that pushes us into stress and anxiety. A big portion of the mental health problem can be addressed if we provide the right value system to the kid—the right literature.
How to Break Free from the Trap of Seeking External Validation?
The relationship can be very strong, but the strength of the relationship may not necessarily be an auspicious thing. You can have a very, very strong relationship with the external, and yet it could be from a very wrong center. And what do we mean by wrong? The center of inner ignorance.
इंसान हो तो ज़िंदगी से जूझकर दिखाओ
दुनियादारी सीखो, भाई! और मुझसे अगर प्रेम है या कोई नाता है, इज्जत है, तो मेरी अभी स्थिति क्या है, वो समझो। प्रेम अगर है, तो प्रेम यह देखता है ना कि सामने वाला क्या चाहता है, उसकी क्या जरूरत है? प्रेम आत्म-केंद्रित थोड़ी हो जाएगा कि "मैं अपने तरीके से!" अपने तरीके से है, तो फिर प्रेम नहीं है, स्वार्थ है ना!
कॉमेडी हो तो ऐसी
हमारी ज़िंदगी में तो लगातार वही सबकुछ हो रहा है जो होना नहीं चाहिए। आप लोगों को हमारी ज़िंदगी का ही आईना दिखा दो न। हम सब अपने गधों को अपनी पीठ पर बैठाकर चल रहे हैं। इतनी जोर की हँसी आएगी कि मज़ा आ जाएगा। कुछ ऐसा है जो बेमेल है, विसंगत है, और हमारी ज़िंदगियाँ मूर्खता की ही एक अंतहीन कहानी हैं। ये एब्सर्डिटी दिखाओ न लोगों को, खूब हँसेंगे।
Categories