कर्मयोग और कर्मसन्यास में अंतर? || आचार्य प्रशांत, श्रीकृष्ण पर (2014)

Acharya Prashant

19 min
55 reads
कर्मयोग और कर्मसन्यास में अंतर? || आचार्य प्रशांत, श्रीकृष्ण पर (2014)

आचार्य प्रशांत: कर्मसंन्यास और कर्मयोग क्या हैं? दोनों में अन्तर क्या है? आमतौर पर हम जिसे कर्म कहते हैं; वो कैसे होता है? वो ऐसे होता है कि जैविक रूप से और सामाजिक रूप से मन संस्कारित रहता है। फ़िज़िकल , सोशल दोनों तरह के संस्कार। तो मन में पहले ही ये व्यवस्था बैठी होती है कि इस तरह की स्थिति में इस तरह का उत्तर देना है, ऐसा कर्म कर देना है; ये हमारा साधारण कर्म है। क्या है साधारण कर्म? बाहर एक स्थिति है और मन के पास पहले ही ये ढाँचा तैयार है कि इस स्थिति का ऐसे उत्तर देना है। और चूँकि मन के पास कुछ तयशुदा ही उत्तर हैं इसीलिए वो बाहर की सारी ही स्थितियों को उनके तयशुदा प्रश्नों में ही बाँधकर देखेगा।

मन इतना बड़ा नहीं है कि उसमें प्रतिक्षण बदलती प्रत्येक स्थिति का उत्तर हो। उसके पास तो एक मॉडल है, ऐसी स्थिति, ये उत्तर, ऐसी स्थिति, ये उत्तर। और ऐसे दस-बीस या दस हज़ार या बीस हज़ार जवाब उसके पास हैं लेकिन जीवन में जो स्थितियाँ हैं, वो असंख्य हैं। तो मन क्या करता है कि बाहर की स्थिति कैसी है, इससे उसे कोई विशेष प्रयोजन नहीं रहता। वो तो बस ये समानता भिड़ाता है, मैचिंग करता है कि बाहर की स्थिति के आस-पास का कौनसा संस्कार, कौनसा सवाल मेरे पास पहले ही मौजूद है और उत्तर दे देता है।

दो घटनाएँ अब यहाँ पर घट रही हैं। पहला, उत्तर समझ से नहीं आ रहा है, उत्तर आत्मा से नहीं आ रहा है। दूसरा, उत्तर बाहर की स्थिति से भी नहीं आ रहा क्योंकि आपको बाहर की स्थिति भी ठीक-ठीक पता नहीं है। आप बाहर की स्थिति ठीक-ठीक पता कर ही नहीं सकते क्योंकि अगर ठीक-ठीक पता चल गयी तो आपके लिए मुश्किल खड़ी हो जाएगी। आपके पास उसका उत्तर ही नहीं होगा। भाई, आपको बता दिया गया है कि बाहर यदि लाल है तो आपको कहना है 'ल'। बाहर यदि सफ़ेद है तो आपको कहना है, 'स'। बाहर यदि नीला है तो आपको कहना है, 'न' और बाहर यदि हरा है तो आपको कहना है, 'ह'। और दुनिया भर के रंगों में जितनी विविधता हो सकती है उसको इन्हीं चार रंगों में कैद करके आपको पढ़ा दिया गया है क्योंकि पढ़ाने की सीमा होती है। जो पूरा स्पेक्ट्रम (वर्णक्रम) है उसमें तो अनगिनत रंग हैं। हर रंग का नाम नहीं रखा जा सकता क्योंकि असंख्य नाम हो जाएँगे और जब हर रंग का नाम ही नहीं रखा जा सकता तो हर रंग के आने पर आपको क्या जवाब देना है, ये भी निर्धारित नहीं किया जा सकता।

सफ़ेद का नाम रखा जा सकता तो आपसे कहा जाता, 'सफ़ेद आये तो तुम बोलना, 'स', हरा आये तो तुम बोलना 'ह', लाल आये तो बोलना 'ल' और नीला आये तो बोलना 'न'। अब आपके सामने गुलाबी आया; आपमें ये क्षमता ही नहीं है कि आप कह पाओ कि ये गुलाबी है क्योंकि यदि वो गुलाबी है तो आप करोगे क्या? आपके पास तो गुलाबी का उत्तर है ही नहीं तो आप कहोगे कि गुलाबी नहीं है, ये लाल है। और आप गुलाबी देखोगे तो आपका जवाब आएगा, 'ल'। लाल से मिलते-जुलते अन्य भी जितने रंग होते हैं वो सब अलग-अलग हैं आपस में लेकिन उन सबपर आपका जवाब एक ही आएगा, रटा-रटाया। क्या? 'ल’।

तो संस्कारित मन जो जवाब देता है उसमें दो बातें होती हैं, पहला, वो जवाब आत्मा से नहीं निकलता। उस मन को आत्मा का कुछ पता नहीं है और दूसरा, उस मन को ये भी नहीं पता है कि बाहर स्थिति क्या है। बाहर की स्थिति का भी उसे कुछ पता नहीं है। कर्मसंन्यास क्या हुआ? अभी तक हमने जो बात करी थी वो हमारे साधारण कर्म की करी। कर्मसंन्यास क्या हुआ? कर्मसंन्यास हुआ कि बाहर की परिस्थितियों से संस्कारित नहीं होऊँगा। मेरे द्वारा उठता हुआ प्रत्येक कर्म आत्मा से उठेगा। ये कर्मसंन्यास है। बाहर से जितनी भी आवाज़ें आएँगी कि ये कर्म करो और वो कर्म करो। 'न! मैंने छोड़ दिया तुम्हारे कहने पर कर्म करना। मैंने इस अर्थ में संन्यास ले लिया कि तुम जो कुछ कहोगे, हम वो तो नहीं करेंगे।’

तो इस अर्थ में हम संन्यस्थ हुए कि बाहर की आवाजों के कहे पर नहीं चलते तो हम संन्यासी। लेकिन ऐसा नहीं है कि कर्म नहीं करते। कर्म करते हैं। अब कर्म कैसे करते हैं? अब कर्म उठता है आत्मा से। कर्म उठता है, अब कर्म उठता है आत्मा से। बाहर की आयी स्थितियों द्वारा प्रदत्त संस्कारों से नहीं। ये कर्मसंन्यास है। कर्मसंन्यास कहता है, दुनिया को भूल, खुद को देख और जान जाएगा क्या करना है। कर्मसंन्यास कहता है, दुनिया को भूल, खुद को देख। और खुद को देखने से अपनेआप उचित कर्म होगा।

कर्मयोग क्या है? कर्मयोग कहता है, ‘आत्मा का तुझे कुछ पता नहीं। तू तो ध्यान से बस देख कि स्थितियाँ क्या हैं। तू तो ध्यान से देख कि स्थितियाँ क्या हैं और स्थितियों के अनुकूल जो आचरण हो, तू करता चल; ये कर्मयोग है। ऊपर-ऊपर से दोनों विपरीत लगते हैं। ऊपर-ऊपर से कर्म-संन्यासी कहता है कि अब हमने स्थितियों का गुलाम होना छोड़ दिया। अब हम तो सिर्फ़ आत्मा की ओर देखते हैं और ऊपर-ऊपर से कर्मयोगी कहता है कि न, हम तो जैसा मौका हो वैसा कर्म कर जाते हैं। समझो बात।

कर्मसंन्यासी कह रहा है कि हम सिर्फ़ आत्मा के कहे पर चलते हैं। अपने मूल के कहे पर, अपने स्रोत के कहे पर, जिसको तुम समझदारी भी कह सकते हो अपनी, उस पर चलते हैं। कर्मयोगी कहता है कि कर्म बाहर की ओर होता है तो स्थितियाँ देखकर ही होगा क्योंकि बाहर क्या हैं? स्थितियाँ हैं। तो स्थितियाँ देखेंगे और कर्म करेंगे।

इन दोनों में निश्चित रूप से भीतर को मुड़ना थोड़ा ज़्यादा कठिन है क्योंकि मन का स्वभाव है बाहर को जाना। तो कृष्ण अर्जुन को सलाह देते हैं कि कर्मसंन्यासी और कर्मयोगी दोनों पहुँचते तो एक ही जगह हैं अर्जुन लेकिन इन दोनों में ज़्यादा सरल मार्ग कर्मयोग है। तो अर्जुन को सुझाते हैं कि तू कर्मयोग का पालन कर। वो अर्जुन से कहते हैं कि कर्मसंन्यासी और कर्मयोगी दोनों एक ही जगह पहुँच जाते हैं लेकिन कर्मसंन्यासी होना मुश्किल है क्योंकि मन की जो वृत्ति है और इन्द्रियों की जो वृत्ति है वो बहिर्गामी है। वो लगातार बाहर को जाती है। अब जब बाहर को जाती ही है तो चल तू ऐसा कर, बाहर को ही ध्यान से देख।

जिसने दुनिया को ध्यान से देख लिया वो भी सत्य तक पहुँच जाएगा। इन दोनों रास्तों का अन्तर समझना। एक रास्ता है कि हमने दुनिया को देखना ही बन्द कर दिया। हम तो लगातार ध्यानस्थ रहते हैं, आत्मसरोवर में डूबे रहते हैं। अपने ही भीतर समाये रहते हैं। और दूसरा रास्ता है कि आँखें जो दिखाती हैं वही देखते हैं पर ज़रा ध्यान से देखते हैं, शान्त चित्त से देखते हैं, कृष्ण को स्मरण करते हुए देखते हैं। कान जो सुनाते हैं वही सुनते हैं पर ज़रा ध्यान से सुनते हैं। फिर आँखों के देखने से और कान के सुनने से ये स्पष्ट हो जाता है कि मेरे लिए सम्यक् कर्म क्या है; ये कर्मयोग कहलाता है।

अब इस विषय में जो भ्रान्तियाँ हैं, उनको ज़रा देखेंगे। एक ये बड़ी प्रचलित भ्रान्ति है कि कर्मयोग का अर्थ होता है कि जो कुछ भी परम्परा से चली आ रही रूढ़ि है, ढर्रा है, उसका पालन करते चलो। आप लोगों से मिलेंगे, वो पूरे तरीके से एक बँधा-बँधाया संस्कारयुक्त जीवन जी रहे होंगे जो कि एक गुलामी का जीवन होगा जिसमें कहीं भी न कोई होश होगा, न चैतन्य होगा, न समझ होगी। रोज़ वही “ढाक के तीन पात।” यहाँ से वहाँ जाना, वहाँ से यहाँ जाना और वापस लौट आना। और वो दावा करेंगे, वो कर्मयोगी हैं। कर्मयोग का अर्थ ये निकाल लिया गया है कि जो भी कर रहे हो, डटकर करो। न! कर्मयोग का ये अर्थ बिलकुल भी नहीं है कि जो भी कर रहे हो वही डटकर करो।

कृष्ण भी एक स्थान पर कहते हैं कि जो नियत कर्म है, करो। लेकिन नियत कर्म का ये अर्थ नहीं है कि वो कर्म करो जो तुम्हारे मुक्त स्वभाव के विपरीत जाता हो। नियत कर्म का अर्थ ये है कि तुम जहाँ भी होते हो जीव रूप में; तुमसे बाहर कुछ परिस्थितियाँ होती हैं, वो परिस्थितियाँ तुम्हारे द्वारा निर्धारित नहीं हैं और तुम्हारे बस की नहीं हैं। उन परिस्थितियों को नियति कहते है। याद रखिएगा, नियति हमेशा आपसे बाहर की है, आपके भीतर कोई नियति नहीं चलती। बाहर होती है नियति और भीतर होती है मुक्ति। जिसने नियति को भीतर बैठा लिया वो तो बड़ा गहरा गुलाम हो गया। तो नियत कर्म का अर्थ ये है कि मुक्त भाव से नियति को उत्तर दो। भीतर से मुक्त ही रहना। नियति बाहर-बाहर रहे।

अभी यहाँ पर बारिश हो रही है, ये नियति है। हम इस बारिश के मध्य क्या कर रहे हैं, वो हमारी मुक्ति है। तो नियत कर्म का अर्थ ये मत समझ लीजिएगा कि तयशुदा कर्म। नियत कर्म का अर्थ ये नहीं होता कि तुम यन्त्रवत कुछ भी करे जा रहे हो, मशीन बन गये हो और कहो कि भई ये तो नियति है। इसी तरह से कृष्ण एक स्थान पर ये कहते हैं कि अर्जुन! तू वही कर जो पूर्व से चला आ रहा है। इसका भी बड़ा उल्टा अर्थ किया जाता है। इसको ये समझा जाता है कि ज्यों कृष्ण कह रहे हों कि अर्जुन तू वो सब कर जो परम्परा है। कृष्ण नहीं कह रहे हैं कि तुम परम्परा का पालन करो। 'पूर्व से चला आ रहा है' से अर्थ है कि समय में है, प्रकृति में है। तो अर्जुन से कह रहे हैं, ‘अर्जुन! तू समय को, प्रकृति को यानी कि इस पूरे विश्व को पूरा सम्मान दे।‘ और सम्मान देने का अर्थ यही हुआ कि इसको जान।

बात समझ में आ रही है?

कर्मयोग यन्त्रवाद नहीं है। कर्मयोग का ये अर्थ नहीं है कि तुम अगर मूर्खतापूर्ण कृत्य कर रहे हो तो उसी को लगकर के करते रहो। चाहे कर्मसंन्यास हो, चाहे कर्मयोग हो, दोनों के केन्द्र में कृष्ण हैं। बस दृष्टि का अन्तर है। कृष्ण मन के पीछे रहें मन को बल देते हुए हुए और कृष्ण के बल से मन दुनिया को देखे तो ये कहलाया ‘कर्मयोग’। याद रखिए कर्मयोग में भी कृष्ण प्रधान हैं। आँखें भले दुनिया को देख रही हैं। आँखें भले दुनिया को देख रही हैं लेकिन दुनिया को समझने की ताकत आँखों के पीछे के कृष्ण ही दे रहे हैं। तो कर्मयोग में भी प्रधान कौन हुए? कृष्ण। और कर्मसंन्यास में तो आँखें सीधे-सीधे कृष्ण को ही देख रही हैं। मन भीतर को ही मुड़ गया है, वहाँ कृष्ण को ही देख रहा है। दोनों के केन्द्र में कृष्ण ही बैठे हैं। न कर्मसंन्यास में, न कर्मयोग में, किसी भी प्रकार की दासता के लिए या मूढ़ता के लिए कोई जगह है। दोनों में ही नहीं है।

आयी बात समझ में?

मीरा जहाँ पर है वहाँ पर कर्मसंन्यास, कर्मयोग सब एक हो जाते हैं। कर्मसंन्यास में हम कहते हैं अन्दर का कृष्ण। कर्मयोग में हम कहते हैं, बाहर की दुनिया और भीतर का कृष्ण। मीरा के लिए अन्दर-बाहर दोनों कृष्ण। कर्मसंन्यास, कर्मयोग विधियाँ है उनके लिए जिन्होंने अभी शुरुआत करी है।

प्रश्नकर्ता: कर्मसंन्यास और कर्मयोग में सरल मार्ग कौनसा है?

आचार्य: ये कोई तय करने की बात नहीं है। मोटे तौर पर ये कह सकते हो कि जब गतिविधि से बहुत घिरे हुए हो, जब मन पर बाहरी हालातों का बार-बार आघात हो रहा हो, तब सरलता ज़्यादा कर्मयोग में है। बाहर लगातार घटनाएँ घट रही हैं तो आँखें लगातार बाहर की ओर तो देखकर ही सतर्क रहेंगी न! बाहर ऐसी इधर से कुछ आवाज़ आ रही है, यहाँ से कुछ कहा जा रहा है, ये हो रहा है तो तुम्हारी सारी इन्द्रियों की मजबूरी रहेगी कि उन्हें बाहर की ओर ही जाना पड़ेगा। तब उचित यही है कि जाओ, बाहर को जाने दो इन्हें। जाओ तुम बाहर की ओर। पर तुम भले बाहर की ओर जाओ लेकिन बाहर तुम्हें बँधना नहीं है। तुम्हारे मालिक तो आँखों के पीछे बैठा कृष्ण ही रहेगा। कर्म हम सारे दुनिया में करते रहेंगे लेकिन दुनिया मालिक नहीं हो गयी। मालिक तो कृष्ण ही हैं। कर्मयोग उन स्थितियों में ज़्यादा प्रासंगिक हो जाता है जब आप संघर्षरत हों, युद्धरत हों, कर्मरत हों, स्थितिरत हों, तब कर्मयोग ज़्यादा प्रासंगिक हो जाता है।

प्र २ कर्मसंन्यास में कर्म कैसे होता है?

आचार्य: कर्मसंन्यास में तुम्हारी प्रमुख सजगता यही रहती है कि कृष्ण क्या कह रहे हैं। आत्मा क्या कह रही है। बाहर क्या चल रहा है, ये बात गौण हो जाती है। तो अब भीतर से आवाज़ उठ रही है कि ये करो तो तुम कर डालते हो। हाँ, उसमें भी ये तुम्हें देखना होगा कि जब बात करने की आती है तो करने के उपकरण तो तुम खुद ही हो न! तुम्हारी ही ऊर्जा से होगा, तुम्हारे ही हाथ-पाँव से होगा, तुम्हारे ही मन से विचारा जाएगा तो वहाँ पर भी परिस्थितियों का काम तो है ही है। दोनों में अन्तर सिर्फ़ नज़र की दिशा का है।

कर्मसंन्यासी लगातार भीतर की ओर देख रहा है। कर्मयोगी लगातार बाहर की ओर देख रहा है। कर्मसंन्यास के बारे में भी ये जो भ्रान्ति है कि कर्मसंन्यास का अर्थ होता है कि हम कर्म करेंगे ही नहीं; ये मूर्खतापूर्ण भ्रान्ति है। कर्मसंन्यास का अर्थ होता है कि हम अब तक जो करते आ रहे थे, वो नहीं करेंगे। हम अब तक जिन ढर्रों पर चलते आ रहे थे, उन पर नहीं चलेंगे। कर्मसंन्यास का अर्थ ये नहीं होता कि हमने सारे कर्म छोड़ दिये। साफ़-साफ़ कहते हैं अर्जुन को, ‘कर्म छोड़ना तेरे क्या अर्जुन, किसी के बस की नहीं है।‘ जब तक तुम जीव हो तब तक प्रकृति के गुण अपना काम करते रहेंगे। तुम एक क्षण भी बिना कर्म किये नहीं रह सकते।

प्र २ विचार के तल पर दोनों में क्या अन्तर है?

आचार्य: देखो, दोनों ही बातें साधकों के लिए कही गयी हैं। सिद्धों के लिए तो नहीं कही गयी हैं। जो साधक है वो प्रत्येक स्थिति में विचार करेगा-ही-करेगा। विचार तो करेगा ही। दोनों में अन्तर इस बात का है कि विचार का विषय क्या है। कर्मसंन्यासी कहेगा, 'मैं कौन हूँ', शुरुआत यहाँ से करेंगे। और कर्मयोगी कहेगा, 'स्थिति क्या है', विचार यहाँ से शुरू करेंगे। समझ रहे हो बात को? तुम कर्मसंन्यासी से एक प्रश्न पूछो और वही प्रश्न तुम कर्मयोगी से पूछो। दोनों की विचारणा ज़रा अलग-अलग होगी। हाँ, दोनों की विचारणा अन्ततः विगलित हो जाएगी। आखिर में दोनों एक ही बिन्दु में पहुँच जाएँगे पर दोनों शुरुआत अलग-अलग जगह से करेंगे। कर्मयोगी शुरुआत यहाँ से करेगा कि ध्यान से सुनो, सवाल क्या है। कर्मयोगी शुरुआत यहाँ से करेगा कि ध्यान से सुनो, परिस्थिति क्या है। परिस्थिति अभी क्या है? सवाल। तो कर्मयोगी कहेगा ध्यान से सुनो सवाल क्या है। और कर्मसंन्यासी के सामने जब सवाल आएगा तो वो कहेगा, ‘उत्तर देने से पहले ज़रा सोचूँ कि उत्तर देने वाला कौन है।’ उत्तर कृष्ण से आ रहा है या नहीं आ रहा है, उसके लिए ये ज़रूरी होगा। समझ रहे हो बात को?

कर्मयोगी के लिए विचार के केन्द्र में संसार है और कर्मसंन्यासी के लिए विचार के केन्द्र में स्वयं है या सत्य है।

प्र ३: अन्ततः दोनों भीतर की तरफ़ ही जा रहे हैं।

आचार्य: अन्ततः दोनों शून्य में हो जाते हैं। तुम्हें यदि ध्यान से सुनना है कि तुमसे क्या सवाल पूछा जा रहा है तो तुम्हें मौन होना ही पड़ेगा। और तुम्हें ये जानकर जवाब देना है कि जवाब देने वाला कौन है, तुम कौन हो तो भी तुम्हें मौन होना ही पड़ेगा। दुनिया को जानना है तो भी तुम्हें वहीं पहुँचना पड़ेगा जहाँ तुम्हें खुद को जानने के लिए पहुँचना पड़ता है। समझ रहे हो कि नहीं? तो इसलिए अन्ततः दोनों एक हैं।

और कृष्ण अर्जुन से यही कहते हैं कि कर्मसंन्यास और कर्मयोग दोनों का फल एक ही होता है। लेकिन सरल, सुगम, आसान ज़्यादा कर्मयोग है तेरे लिए, अर्जुन। लेकिन एक बात और समझना। कर्मयोग अक्सर सकाम हो जाता है। उसमें कोई-न-कोई कामना साथ में रहती है। कृष्ण उसको भी अस्वीकार नहीं कर रहे। कृष्ण की देशना में सकाम कर्मयोग के लिए भी जगह है। कि कुछ इच्छा है तेरी, उसके लिए भी जगह है। और उसको वो कहते हैं कि ऐसे लोग आनन्द में, स्वर्ग में पहुँचते हैं पर उनका पुनर्जन्म हो जाता है। वो लौट आते हैं। बात को समझना।

कृष्ण कहते हैं कि जो सकाम कर्मयोगी है वो स्वर्ग को प्राप्त होता है लेकिन पुण्यों के क्षीण होने पर दोबारा उसका जन्म हो जाता है। उसका अर्थ क्या है? उसका अर्थ यही है कि जो कर्मयोगी हैं चूँकि उसकी प्राइमरी कंसर्न (प्राथमिक मामला) दुनिया है। इसीलिए उसका रास्ता आसान तो है पर उसका रास्ता लम्बा बहुत है। आना तो अन्ततः स्वयं तक ही है न! आना तो खुद तक ही है। दुनिया से होकर आओगे तो लम्बा रास्ता लेना पड़ेगा जैसे तुम पूरी एक ब्रहमाण्ड का चक्कर लगाकर आ रहे हो अपनेआप तक वापस। समय लगेगा। कई बार फिसलोगे। चक्र ही है पूरा।

सबसे पहले अर्जुन को सांख्ययोग का उपदेश देते हैं, फिर कर्मसंन्यास का, फिर कर्मयोग का। ऊँचे-से-ऊँचा है सांख्ययोग। सबसे पहले तो उससे वो बात कहते हैं जो अति सूक्ष्म और गूढ़ है। लेकिन बात जितनी सूक्ष्म और गूढ़ होती है वो एक आम संसारी मन के लिए उतनी ही कठिन भी हो जाती है। बात सत्य के जितने करीब होती है, अक्सर उतनी ही कम उपयोगी हो जाती है। तो सांख्ययोग पहले देते हैं कि सबसे अच्छा हो यदि बात इसी से बन जाए। बात नहीं बनती। फिर कर्मसंन्यास देते हैं कि क्या पता इसी से हो जाए। उससे भी बात नहीं बनती। फिर कर्मयोग की बात करते हैं।

प्र ४: जो बात सत्य के करीब होती है, वह कम उपयोगी क्यों हो जाती है?

आचार्य: उपयोग करने वाले आप हैं न! तो बात जितनी महीन होगी, उसको उपयोग करना उतना ही महीन मन के लिए ही सम्भव हो पाएगा। एक साधारण सा मोबाइल फ़ोन हो, कोई भी इस्तेमाल कर लेता है और एक उन्नत सुपर कम्प्यूटर हो; अब क्या होगा? दुनिया के निन्यानबे-दशमलव-नौ-नौ प्रतिशत लोगों के लिए उपयोगी क्या है? मोबाइल फ़ोन या सुपर कम्प्यूटर?

श्रोता: मोबाइल फ़ोन।

आचार्य: तुम उनके घर में सुपर कम्प्यूटर रख दो, वो क्या करेंगे उसका? क्या करेंगे? मूवी देखेंगे! बात जितनी महीन होती है उतनी ही कम उपयोगी होती जाती है।

प्र ५: सर, कल जो सीडी सुन रहे थे उसमें बिलकुल यही प्रश्न पूछा था किसी ने कि अष्टावक्र गीता इतनी महीन बात कर रही है फिर वो बड़े स्तर पर प्रयोग क्यों नहीं होती जितनी भगवद्गीता होती है। सर, ये कर्मयोग ऐसा नहीं है जैसे कि अवलोकन लिखते हैं हम? वो कर्मयोग जैसा है।

प्र ६: सर, कर्मसंन्यास और भक्ति को कैसे समझें?

आचार्य: देखिए, भक्ति की एक मूल उपाधि होती है, अपने आराध्य को एक आकार देना। एक मूर्त रूप देना। कर्मसंन्यास में ऐसा कुछ नहीं होता है। समझ गयीं? दूसरी बात, आपको समझाने के लिए मैंने कह दिया कि भीतर के कृष्ण की ओर आँखें करना। कर्मसंन्यासी वास्तव में भीतर की किसी मूर्ति की ओर आँखें नहीं करता। कर्मसंन्यासी सिर्फ़ मौन हो जाता है। वो मौन होना ही अन्तर्गमन है, भीतर की ओर जाना है।

कर्मसंन्यासी बाहर के जितने प्रभाव हैं, उनसे कटकर के, उस सारे शोर से अपनेआप को अलग करके मौन हो जाता है। वो ऐसा नहीं करता कि विशेषतया उसने कोई कृष्ण का आदर्श बनाया है और उसके समक्ष भक्ति कर रहा हो; ऐसा नहीं करता। कर्मसंन्यासी बस अपनेआप को ये जो पूरा स्थूल विश्व है, इससे प्रभावित नहीं होने देता। और उससे अप्रभावित होने का अर्थ यही होता है कि वो अब भीतर को मुड़ा हुआ है।

आपको समझाने के लिए मैंने कह दिया कि वो भीतर के कृष्ण की ओर जा रहा है पर वो भीतर किसी विशेष आकार, नाम, रूप की ओर नहीं जा रहा है। वो बस आत्म-स्थित है। वो बस आत्म-स्थित है। भक्ति में आत्मस्थित होने से कहीं ज़्यादा महत्व होता है किसी दूसरे का। आत्म का नहीं, किसी दूसरे का। वो ‘दूसरा’ कृष्ण कहलाता है। वो दूसरा ही साफ़ स्वच्छ, धवल और असली कहलाता है। भक्ति में आप कहते हो, मैं कुछ नहीं। ये जो ‘दूसरा’ है, यही सबकुछ है, यही प्रमुख है। कर्मसंन्यास में दूसरा कोई नहीं है बल्कि कर्मसंन्यास में तो दूसरे जितने थे, आपने उन सबको रवाना कर दिया है। ‘तुम जाओ। हमें तुमसे कोई मतलब नहीं। हम अपने साथ हैं।’ कहा था न मैंने, आत्मसरोवर में स्नान। अपने साथ।

YouTube Link: https://youtu.be/ls7j1bW3Jmk

GET UPDATES
Receive handpicked articles, quotes and videos of Acharya Prashant regularly.
OR
Subscribe
View All Articles