प्रश्नकर्ता: पूज्य गुरुजी, सत्य की पुकार पर किसी दिशा में चल पड़ना एक चीज़ है और किसी जगह से भागकर भगोड़ा हो जाना, दूसरी चीज़ है। इन दोनों में अन्तर कैसे करूँ?
आचार्य प्रशांत: अन्तर बहुत साफ़ है भानु। भगोड़ा भागता ही नहीं, भगोड़ा मात्र स्थान परिवर्तित करता है। भगोड़ा बस बाहर की जगह बदलता है, भीतर से वो वैसा ही रह जाता है जैसा वो पहले था। पहले वो जहाँ था, वहाँ पर बेचारा था, कमज़ोर था, परेशान था। भागकर के वो जहाँ जाता है वहाँ भी वो बेचारा, कमज़ोर, गरीब, परेशान ही रह जाता है।
सत्य की पुकार पर जब तुम भागते हो तो तुम जिस जगह पहुँचते हो, वो जगह तुम्हारी पुरानी जगह से आयामगत रूप से भिन्न होती है। उस जगह की गुणवत्ता ही दूसरी होती है। तो तुम देख लो कि तुम कहाँ को भागना चाह रहे हो। और एक ही जगह से भागने के दो बहुत अलग-अलग कारण हो सकते हैं। एक ही जगह से भागना दो अलग-अलग कहानियाँ हो सकती हैं, दो अलग-अलग घटनाएँ हो सकती हैं। तो अगर सिर्फ़ ये देखोगे कि कहाँ से भाग रहे हो तो तुम्हें बहुत पता नहीं चलेगा। तुम्हें ये देखना होगा कि तुम कहाँ को भाग रहे हो।
एक आदमी घर छोड़ सकता है क्योंकि उसको मदिरालय जाना है और दूसरा घर छोड़ सकता है क्योंकि उसको देवालय जाना है। घर तो दोनों ने ही छोड़ा। छोड़कर के पहुँचना कहाँ चाहते हो? इसीलिए मैं बहुत महत्व नहीं देता ऐसे तर्कों को, जिनमें ये बताया जाता है कि, ‘देखिए! हमने कुर्बानी बहुत दी है, देखिए! हम क्या-क्या छोड़ आये हैं?’ छोड़ तो तुम कुछ भी सकते हो, सवाल ये है कि किसके लिए छोड़ा है। छोड़ तो तुम कुछ भी दोगे, सवाल ये है कि किसके लिए।
एक कम आकर्षक चीज़ थी, उससे ज़्यादा आकर्षक चीज़ मिली, (कम आकर्षक चीज़) छोड़ दोगे। कुत्ता बोटी चबाता हो, उसको माँस मिल जाए, वो बोटी छोड़ देगा। अब वो बोले कि देखो साहब! मैंने बोटी की कुर्बानी दी है, तो ये बेकार की बात। तूने कुर्बानी इत्यादि नहीं दी है। तू अभी भी वही कुत्ता है जिसका रस हाड़-माँस में है। बस तू पहले कम आकर्षक, कम लुभावनी जगह पर था, अब तू ऐसी जगह पर आ गया है जहाँ पर हाड़-माँस की आपूर्ति ज़्यादा है। इसीलिए कुर्बानी का तर्क अक्सर बहुत भ्रामक और व्यर्थ होता है।
बात समझ रहे हो न?
हम ऐसे खिलाड़ी लोग होते हैं कि हाथ देते हैं तो दूसरे हाथ वापस लेते हैं, वो भी पाँच गुना। तो कुर्बानी कैसी? बात समझ में आ रही है?
अब, भगोड़े को चाहिए आलस, मान लो और जहाँ है वो, वहाँ कोई उसको रोज़ नोक मारता है कि उठ! कुछ काम कर, कुछ उद्यम कर। तो ये भागेगा यहाँ से और ये ऐसी जगह जाकर के बैठेगा जहाँ पर आलस की पूर्ति हो सके, जहाँ आलसी बनकर काम चल सके। ये कोई सत्य की तरफ़ यात्रा करी है इसने? ये कोई समर्पण की बात है? इसमें कुछ त्याग है, कोई कुर्बानी है? न। ये तो तुम सिर्फ़ अपने लिए एक बेहतर अड्डा तलाश रहे हो।
और अक्सर अध्यात्म की ओर भी जो लोग आते हैं वो ऐसे ही होते हैं, उन्हें अपने लिए एक बेहतर अड्डा चाहिए। उन्हें बदलना नहीं है, उन्हें एक बेहतर अड्डा चाहिए। आप आलसी हैं। कुछ काम नहीं करा जा रहा। दुनिया की रफ़्तार बहुत है, आपसे वो रफ़्तार झेली नहीं जा रही क्योंकि आप दौड़ नहीं सकते। तो आप कहते हैं कि मैं भिक्षु हो जाता हूँ, मस्त साधक-सन्यस्थ हो जाता हूँ, मैं जाकर कहीं पड़ा रहूँगा।
दस में से नौ साधक ऐसे ही होते हैं। वो सत्य के लिए नहीं संन्यास लेते, वो अपनी वृत्तियों को बचाने के लिए, अपने आलस को बचाने के लिए, अपनी अकर्मण्यता को बचाने के लिए संन्यासी हो जाते हैं। ऐसों का मैं फिर कह रहा हूँ तुमसे ऐसों का सत्य से, गुरु से, अध्यात्म से कोई सम्बन्ध नहीं है।
एक पियक्कड़ को कहीं पनाह न मिल रही हो, वो आकर के मन्दिर में लोट जाए, तो क्या वो भगवान के दर्शन के लिए आया है? हकीकत ये है कि उसके लिए और कोई दरवाज़ा खुल ही नहीं रहा था। उसकी जो हालत थी, उसमें कौन उसको पनाह देता? उसके लिए कोई भी दरवाज़ा खुल ही नहीं रहा था। हाँ, मन्दिर खुला होता है, वो सबका स्वागत करता है, वो आकर के मन्दिर में कहीं लेट गया, दुबक गया तो इसका क्या ये अर्थ है कि उसे प्रभु बहुत प्यारे हैं? न।
और वो रोज़ यही हरकत करे और कुछ दिन बाद घोषित करना शुरू कर दे कि देखो मुझे! मैं तो मन्दिरवासी हूँ। तो वो सरासर झूठ बोल रहा है। ऐसे लोगों के झूठ में मत आ जाना। ये देखो कि वो किसकी ओर जा रहा है और ये देखो कि क्या है जो वो नहीं छोड़ना चाहता। मन्दिर में रहकर भी शराब तो नहीं छोड़ रहा न। शराब पहले है, मन्दिर बाद में है उसके लिए। बल्कि ये हो सकता है कि किसी दिन वो शराब के लिए मन्दिर छोड़ दे। (हल्की मुस्कुराहट) आ रही है बात समझ में?
भगोड़े को कोई वास्तविक परिवर्तन नहीं चाहिए। वो भाग ही इसलिए रहा है ताकि परिवर्तित न होना पड़े। वो कुछ बचा रहा है, वो कुछ छुपा रहा है, वो किसी चीज़ को सुरक्षित रखना चाह रहा है यही उसका भगोड़ापन है। और जो सत्य की ओर जाता है वो अपने सब बचाये हुए को, अपनी सारी संरक्षित सम्पदा को मार्ग पर लुटाता जाता है, उसके पास बचाने को कुछ नहीं बचता।
देख लो! किधर को जा रहे हो?
ऐसों की कमी नहीं है जो मन्दिर इसीलिए जाते हैं ताकि प्रसाद पा जाएँ और प्रसाद का अर्थ उनके लिए परमात्मा का आशीर्वाद नहीं होता, पँजीरी और लड्डू होता है। तुम (श्रोतागण) क्यों आये हो मन्दिर? बताओ! ये सवाल अपनेआप से बड़ी ईमानदारी से पूछना कि मन्दिर में तो हो। पर क्यों हो? परमात्मा के लिए? या पँजीरी के लिए?