नाविचारसुश्रान्तो धीरो विश्रान्तिमागतः।
न कल्पते न जाति न शृणोति न पश्यति।।
अष्टावक्र गीता (अध्याय १८, श्लोक २७)
(जो धीर पुरुष अनेक विचारों से थककर अपने स्वरूप में विश्राम पा चुका है,
वह न कल्पना करता है, न जानता है, न सुनता है और न देखता ही है)
आचार्य प्रशांत: पहली पंक्ति तो स्पष्ट ही है कि ये जो दिखाई देता है, ये सिर्फ़ भाव है; इसमें परमार्थ कहीं नहीं है। मानसिक है, मानस है, उससे अर्थ यही है कि आख़िरी नहीं है। ये चीज़ जो है ये आख़िरी नहीं है, इसके पीछे भी कुछ है। जैसा दिखता है, उस दिखने को ही आख़िरी मत मान लेना। जो दिखाई देता है, उससे कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण कुछ है, उससे कहीं ज़्यादा कुछ आगे का, ऐसा है जो दिखाई नहीं देता, पर है ज़रूर। जो दिख रहा है वो नकली है, ये नहीं कहा जा रहा; ये कहा जा रहा है कि सिर्फ़ उतना ही नहीं है जितना दिखाई देता है। जो दिखाई देता है वो बात आख़िरी नहीं है; पारमार्थिक नहीं है।
इसमें कहा गया है: “न किन्चित परमार्थतः”, देखिए, तीन तल हैं जिनपर हमको प्रतीतियाँ होती हैं, पारमार्थिक उसमें से आख़िरी तल होता है। उससे पहले दो तल और भी होते हैं — प्रातिभासिक (इमेजिनेशन) और आधिभौतिक (फैक्ट)। तो बस यही कहा जा रहा है कि जो दिखाई दे रहा है, वो आधिभौतिक है, पारमार्थिक (ट्रुथ) नहीं है।
“न किन्चित परमार्थतः”
दूसरी पंक्ति कह रही है: “नहीं है अभाव स्वभाव का”, उसमें, जो भाव में ‘दिखाई’ देता है, और उसमें भी, जिसका अभाव ‘प्रतीत’ होता है — दोनों का स्वभाव एक ही है। हो भी नहीं और हर जगह हो। नहीं है अभाव स्वभाव का कहीं भी। सत्य, सर्वथा सदैव है। जब दिखे, तब भी है, और जब ना दिखे, तब भी है। स्वभाव का अभाव कहीं भी नहीं है — न भाव में, न अभाव में। स्वभाव समझिये सत्य, स्रोत। तो जो कुछ है स्रोत से ही है, उसका अभाव कहीं नहीं है। एक विडियो डाला हुआ है जिसका नाम यही है – “ट्रुथ इस द सोर्स ऑफ़ इमेजिनेशन एंड फैक्ट्स”। जो प्रतीत होता है वो भी उसी से आ रहा है, और जो प्रतीत नहीं होता है, वो भी उसी से आ रहा है। सब कुछ उसी से आ रहा है। स्वभाव का अभाव कहीं नहीं है।
श्रोता १: तो फ़िर जो प्रतीत होता है, आदमी उसके पार जाने का फ़िर सोचता ही क्यों है? जो ‘है’, वो भी सत्य है।
वक्ता: जो ‘है’, वो सत्य है ही, पर तब, जब उसे सत्य रूप में देखा जाए। ऐसे समझिये, आप एक दीवार को देखते हैं, वो दीवार आपके लिए हज़ार अर्थ लेकर के आती है। वो अर्थ लगातार बदल रहे हैं, और वही दीवार हो सकता है थोड़े ही देर में ना रहे। नहीं ही रहेगी। पक्का है कि समय बीतेगा और दीवार जायेगी। कोई दीवार ऐसी नहीं है जो अनंतकाल से आज तक खड़ी हो। हर दीवार गिरेगी। दीवार को लेकर आपके जो अर्थ हैं, वो लगातार गिरेंगे। क्योंकि कोई दृष्टि ऐसी नहीं है जो सदा एक सी हो। फ़िर आप ही उसको सत्य नहीं कह पाओगे, क्योंकि बदल गया। यदि आप उस दीवार को ऐसे देख पाओ, कि वो सत्य ही है, कभी बदलेगी नहीं, तो बहुत बढ़िया। दिक्कत ये नहीं है कि दीवार असत्य है, दिक्कत ये है कि आप ही थोड़े ही देर में बोलोगे कि वो तो असत्य था। आपका आज एक नज़रिया है, एक वस्तु के प्रति। थोड़े ही देर पहले दूसरा नज़रिया था। अभी, वो पहले वाला नज़रिया कैसा लगता है?
श्रोता २: झूठा सा।
वक्ता: तो आप ही कह रहे हो न कि वो असत्य था। दिक्कत बस यही है, परमार्थ आपसे आकर यह नहीं बोल रहा है कि दीवार को झूठा बोलो और स्रोत को सच्चा बोलो। स्रोत ने ऐसी कोई शर्त नहीं रखी है आपके सामने। स्रोत बिल्कुल ऐसी कोई शर्त नहीं रखा है कि दीवार झूठी है, मैं सच्चा हूँ; आदमी झूठा है, परमात्मा सच्चा है। स्रोत नहीं आकर के यह कह रहा है; यह आप ही तो कहते हो!
आपको आदमी में स्रोत दिखाई देता है क्या? स्रोत ने तो अपनेआप को पूरी तरह से आदमी में भी, दीवार में भी, पौधे में, जानवर में, सबमें प्रकट कर दिया है। पर आपको दिखाई देता है क्या?
तो बिल्कुल नहीं कहा जा रहा है कि इसके ‘पार’ जाना है। अगर आपको इसमें सत्य दिखता हो, तो पार बेशक़ मत जाओ, पर आपको इसमें सत्य दिखता कहाँ है? आप थोड़े ही देर में ख़ुद ही बोलोगे कि असत्य है।
शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।