बाहर काम अंदर आराम || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

Acharya Prashant

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बाहर काम अंदर आराम || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

“श्रम से सब कुछ होत है, बिन श्रम मिले कुछ नाहीं।

सीधे उंगली घी जमो , कबसू निकसे नाहीं।

~ संत कबीर

वक्ता: कबीर हैं।

सवाल यह है कि कबीर श्रम की महत्ता पर इतना ज़ोर दे रहें हैं, और आपने बार-बार कहा है कि श्रम की कोई कीमत नहीं।

कबीर जो कह रहें हैं वो अपनी जगह बिल्कुल-बिल्कुल ठीक है। कबीर ने इतना ही तो कहा न कि, ‘श्रम से ही सब कुछ होत है’। जो भी कुछ होना है, वो तो श्रम से ही होगा, इसमें कोई संदेह नहीं। जो कुछ भी चलना है, वो श्रम से चलेगा। जो भी कुछ हिलना है, वो श्रम से ही हिलेगा, गति श्रम से, परिवर्तन श्रम से। कबीर ने कहा “श्रम से ही सब कुछ होत है, बिन श्रम मिले कुछ नहीं,” बिलकुल ठीक! जो कुछ मिलना है वो श्रम से मिलेगा, जो चलना है, वो श्रम से चलेगा, पर भूल गए आप एक बात कि अभी कबीर ने उसकी बात नहीं की है, जो नहीं मिलना है, जो नहीं होना है। और जीवन में वही केन्द्रीय है– जहाँ कुछ मिलना नहीं, जहाँ कुछ होना नहीं। होने का अर्थ है परिवर्तन और जो परिवर्तनशील है, उससे कहीं ज़्यादा वो महत्त्वपूर्ण है, जो अपरिवर्तनशील है। हाँ, ठीक, पदार्थ की दुनिया है, और पदार्थ को हिलाने के लिए तो श्रम चाहिए। हाथ–पाँव का हिलना बहुत जरूरी है, यह भुजाएं श्रम के लिए हैं, यह माँसपेशियाँ श्रम के लिए हैं। पर भूल मत जाइएगा कि भुजाओं और माँसपेशियों से कहीं ज़्यादा केंद्रीय आत्मा है और वहाँ कोई श्रम नहीं। वहाँ कुछ होता नहीं, वहाँ कुछ घटता नहीं, वहाँ न दिन न रात। वो वही जगह है, जिसे कबीर ने कहा है कि साईं की नगरी परम अति सुन्दर, कोई आवे न जावे। न आने वाला है, न जाने वाला है, श्रम कैसा? वहाँ कोई घटना ही नहीं घटती।

बात को समझियेगा राहुल जी, जहाँ कोई घटना घटनी है, वहाँ तो श्रम का महत्त्व है।

कहाँ घटनी है घटना? बाहर–बाहर घटनी है, व्रत की परिधि पर घटनी है, वहाँ श्रम का महत्त्व है। पर जिस केंद्र से श्रम अविर्भूत होता है, उस केंद्र पर कोई श्रम नहीं है। श्रम को अपने जीवन का केंद्र मत बना लीजियेगा। केंद्र पर तो अश्रम ही रहे। बाहर–बाहर श्रम और भीतर विश्राम; परम विश्राम।

माला फिरूंन न जप करूँ , मुहं से कहूँ न राम।

सुमिरण मेरा हरि करे , मैं पाऊं विश्राम।।

विश्राम। इन्हीं को उपनिषदों ने कहा है कि विद्या-अविद्या को एक साथ साधना है। वो ठीक इसी बात को दूसरे शब्दों में कह रहे हैं कि जानो कि विश्राम की उचित जगह क्या है, और श्रम की उचित जगह क्या है। हम तो ऐसे मूढ़ हैं जो केंद्र पर श्रमित रहते हैं, और बाहर अकर्मण्य। जहाँ श्रम होना चाहिए, वहाँ श्रम का अभाव, और जहाँ शांति और विश्राम होना चाहिए वहाँ निरंतर उथल–पुथल। श्रम भी हम कर कहाँ पाते है? हमारे माध्यम से श्रम हो कहाँ पाता है? वास्तविक श्रम तो वही कर पाएगा, जो भीतर बिल्कुल स्थिर है। जहाँ भीतर कोई हलचल नहीं, जिसके भीतर कोई हलचल नहीं, वो बाहर बड़े से बड़ा तूफ़ान खड़ा कर सकता है। पर भीतर हवा का हल्का झोंका भी नहीं होना चाहिए, वो वही जगह रहे – निर्वात स्थान। भूलना नहीं कृष्ण को। बाहर झंझावात, तूफ़ान, हवाएं और भीतर ज़रा सी हवा नहीं। वहाँ तो बस तुम्हारा दीया जल रहा है। ज़रा सी भी हवा चलेगी तो क्या होगा?

श्रोतागण: बुझ जायेगा।

वक्ता: और जीवन जीने का मज़ा तो तभी है जब तूफानों में जिया जाए। तूफानों में जीने की शर्त यह है कि भीतर हवा ज़रा भी न आए। आ रही है बात समझ में?

जिया वही, जो तूफानों में जिया अन्यथा क्या जिया? पर हम तूफानों में जी नहीं पाते क्योंकि तूफ़ान आते नहीं कि हमारा दीया बुझने लग जाता है। निर्वात स्थान हमें उपलब्ध ही नहीं है। वो जगह हमें उपलब्ध ही नहीं है, जिसे कबीर ने कहा था कि, ‘शून्य महल में दीया जलाई के आसन से मत डोल रे।‘ वो शून्य महल हमनें पाया नहीं।

श्रम की दुनिया के लिए कबीर की यह पंक्तियाँ हैं: “श्रम से सब कुछ होत है, बिन श्रम मिले कुछ नाहीं।

हाँ, जो होना है वो श्रम से होगा पर न होने को मत भूल जाना।

जो हो रहा है , उससे ज़्यादा महत्त्वपूर्ण वो है, जो नहीं हो रहा, उसको मत भूल जाना।

लाओ तज़ु को याद रखना – जो कुछ नहीं करता, वो उसे जीत लेता है, जो बहुत कुछ कर रहा है। ईशावास्य को मत भूल जाना कि आत्मा वो है, जो अपनी जगह खड़े – खड़े, मन से कहीं आगे निकल जाता है। श्रम मन की दुनिया है, विश्राम आत्मा है।

*“सीधे उंगली घी जमो,कबसू निकसे नाहीं। ”*

बिल्कुल ठीक! जहाँ घी है, और जहाँ उंगली है, और जहाँ जमना है, और घी को निकालना है वहाँ तो यह सब दंद–फंद करने ही पड़ेंगे–कभी उँगली सीधी करो, कभी टेढी करो, घी जमाओ, निकालो, गरम करो – पर यह सब क्या हैं, और कहाँ है? रमण से पूछो घी कहाँ जमा है, तो बोलेंगे मन में, वहीँ पिघलालो। वहीँ पिघलाओ। अरे! कौन सी उँगली? अरे, देह सच है क्या? क्या पिघलाना है? कुछ जमता भी है कभी क्या? किस धोखे में पड़े हुए हो। कबीर के यह वचन अति सार्थक है पर समझो कि किससे कहे गए हैं? कबीर के यह वचन उनसे कहे गए हैं, जो आत्मा की अचलता को शरीर का आलस्य और अक्रियता बना देते हैं। आदमी का मन बड़ा नालायक है। कहा तुमसे यह जाता है कि आत्मा का स्वभाव है विश्राम, और तुम उसको बना देते हो देह का विश्राम। ऐसो को कबीर ने कहा है कि, ‘अरे ज़रा उठो।‘

अकर्ता होने का अर्थ अकर्मण्य हो जाना नहीं है। अकर्ता और अकर्मण्यता एक नहीं है।

यह उनको कह रहे हैं कबीर। बल्कि जब तुम अकर्मण्य हो, तो उसमें गहरे रूप से तुम कर्ता हो, तुमने फैसला ही कर लिया है कि, ‘’मैं कुछ नहीं करूँगा!’’ तुम्हीं नें फैसला किया न? तुम ही उस फैसले के कर्ता हो। ऐसो को कबीर कह रहे हैं कि कर्म होने दो, श्रम होने दो, तुम श्रम को बाधित क्यों कर रहे हो?

अब मैं आपसे फिर कह रहा हूँ कि जिसने केंद्र में विश्राम को पा लिया, वो बाहर बड़े तूफ़ान खड़े करेगा और अगर आपकी जिंदगी में सिर्फ़ उदासी है और बोरियत है, गति नहीं है, त्वरा नहीं है, उर्जा नहीं है, बुझा-बुझा सा जीवन है, चार कदम चलने में आप थक जाते हैं, तो उसका कारण बस एक जानिए – आपके भीतर वो अस्पर्शित बिंदु नहीं है। जिसका केंद्र जितना अनछुआ रहेगा, वो परिधि पर उतना ही गतिमान रहेगा। आप अगर पाते हैं कि आपके जीवन में गति नहीं है, तो जान लीजिये कि गड़बड़ कहाँ हो रही है।

एक बुद्ध जब शांत हो जाता है, तो जीवन भर चलता है फिर, क्षण भर को बैठ नहीं जाता। समूचे उत्तर भारत पर छा गया था वो, तूफ़ान बन के। पुरानी रूढ़ियों को, सड़ी गली परम्पराओं को उठा फैंका था। यह तूफ़ान उस शांति से उपजा था, जो बुद्ध को उपलब्ध हुई थी।

समझ रहे हो बात को?

श्रोता: यह भी निरंतर मिलती रहती है।

वक्ता: निरंतर मिलती रहती है! बहुत बढ़िया। यह नहीं कि आज मिली स्टेरॉयड डोज़ की तरह, अगले दिन गायब! निरंतर, अक्षय उर्जा, कभी ख़त्म नहीं होती। आज सुबह उठे, तो ऐसा लग रहा था कि बड़ी जान आ गई है, बड़ी ताकत है। टाँगे, भुजाएं कुछ करने के लिए मचल रहें हैं। अगले दिन उठे,फिर मचल रहें हैं। सूरज आज नया है, दुनिया आज नई हैं, आज फिर उद्यत हैं हम। असीमित उर्जा। ऐसी उर्जा तो तुम्हारे शारीरिक रूप के न रहने के बाद भी शेष रहेगी। तुम नहीं हो, तुम्हारी उर्जा आज भी प्रवाहित है। जिन ऋषियों से उपनिषद् फूटे थे, उनकी उर्जा क्या रुक गई? उन्हीं की तो उर्जा इस सत्र में बह रही है।

तुम्हारे मन की जो अभी गति है, वो कबीर की ही तो गति है – ऐसी होती है वो अक्षय उर्जा। कबीर की देह कहीं नहीं है, पर कबीर की गति बाकी है। उपनिषद् का ऋषि कहीं नहीं है, पर उसकी उर्जा इतनी, कि उससे तुम्हें भी ताकत मिल रही है। शरीर चला गया, वो रह गए।

श्रम और विश्राम, विद्या और अविद्या, सत्य और संसार – दोनों को जानो, दोनों के उचित स्थान को जानो और दोनों में प्राथमिक कौन है, इसको भी जानो।

विश्राम की कला आत्मा की कला है। श्रम ही करना मत सीखो, विश्राम भी सीखो। जिन्हें विश्राम नहीं आता, वो श्रम भी नहीं कर पाएंगे। श्रम ऐसा करो कि निरंतर विश्राम बना रहे। खूब मेहनत करो और जब कोई आ कर कहे “बड़ी मेहनत कर रहे हो”, तो कहो, “मेहनत? कौन? हम तो आराम कर रहे थे। आ – राम, आ – राम। (हँसते हुए) मेहनत करें मेरे दुश्मन, हम तो आ-राम करते हैं”।

जो मेहनत , मेहनत जैसी लगे , वो मेहनत नर्क हैं। जो मेहनत आराम जैसी लगे, वही मेहनत सार्थक है।

अरे! जीते तो तुम तब न, जब दिन भर मेहनत करने के बाद शाम को खिलखिलाओ। पर तुम्हारी हालत यह रहती है कि दिन में तुमने कर ली कुछ थोड़ी बहुत, आधी– अधूरी मेहनत। जैसे तुम आधे अधूरे वैसी ही तुम्हारी मेहनत आधी– अधूरी। दिन में कुछ कर लिया और शाम में मुहं लटका के, लाश की तरह ढो रहे हो अपनेआप को! “बड़ी मेहनत करी, अब नितनेम भी पढ़ें क्या?” दिन में प्रोजेक्ट संभालो, शाम को नितनेम पढ़ो! खाना कौन बनाएगा? बड़ी मेहनत है!” तो तुम क्या जीए? हार गए! जीते तो तुम तब न, जब दिन भर मेहनत करो और शाम को मस्त हो! क्योंकि मेहनत की ही नहीं थी, क्या किया था?

श्रोतागण: राम।

वक्ता: आध्यात्मिकता कुछ अर्थो में हराम से हे-राम की यात्रा है। हराम क्या है? जो अनुचित है। हे- राम क्या है? अकेला जो उचित है। हे राम, पहले क्या था? हराम! (हँसते हुए) और मज़ेदार बात यह है कि हमारे कुछ बुद्धि-जीवियों ने कहा हुआ है कि “आराम हराम है”। धन्यवाद। राम का कुछ पता नहीं, बेचारे और क्या बोलेंगे?

श्रोता: उन्होंने अपनी गीता भी लिखी है।

वक्ता: (हँसते हुए) गाने का हक़ तो सबको है, कोयल भी गाती है, कौआ भी गाता है। गीता माने गीत, कोई भी गा सकता है। अब यह तुम पर है कि तुम्हें कोयल को सुनना है कि कौआ को।

श्रम के बाद चेहरा कुम्हलाए नहीं। श्रम सार्थक तब है, जब श्रम के बाद चेहरा श्रम की आभा से चमके। दो तरह के श्रम होते हैं। एक श्रम वो, जिसके बाद चेहरा कुम्हला गया, गिर गया। दूसरा श्रम वो, जिसके बाद चेहरा चमक गया। पसीने से चेहरा चमक रहा है। एक नई कान्ति आ गई है जो बिना श्रम के नहीं आ सकती थी।

श्रोता ३: तो उसके लिए मेरे अन्दर भी थोड़े से अनछुएपन का एहसास होना चाहिए।

वक्ता: उसका भी सूत्र यही है कि जब वो थोड़ा सा मिलता है, तो उसको और ज़्यादा रखने की चाह बढ़ती जाती है, उसका एक अनुभव लो तो फिर और ज़्यादा चाहते हो। और प्रथम अनुभव यहीं मिल जायेगा। श्रृंखला यहीं से शुरू हो जाएगी। मुझसे पूछते हैं कि बाहर जा करके फिसल जाते हैं, और मैं बार-बार कहता हूँ यहाँ मौजूद हो लो ठीक से, फिर बाहर फिसलने की नौबत नहीं आएगी। यहाँ स्वाद ले लो, तो फिर वो इतना प्यारा लगेगा कि बाहर भी उसको खोना नहीं चाहोगे। यहाँ शांत हो लो, वो शांति कुछ ऐसा दे देगी कि उसे बाहर भी नहीं खोना चाहोगे फिर। तुम बार-बार यह कहते हो कि हम बाहर जा कर फिसल जाते हैं, तुम बाहर नहीं फिसलते तुम यहीं फिसले हुए हो। यहाँ मौजूद हो लो, यहाँ पूरे तरीके से समर्पित भाव से मौजूद होलो, फिर बाहर भी नहीं फिसलोगे। फिर तुम बाहर खुद ही कहोगे कि अन्दर जो मिला था, वो इतना प्यारा था कि उसे हम बाहर भी सहेजना चाहते हैं।

थोड़ा सा यहाँ मिलेगा, और तुम उसे और बढ़ाते जाओगे, कहोगे कि यह थोड़ा सा ही बड़ा अच्छा था, और मिल सकता है क्या? और मिलेगा? और अस्तित्व महा दाता है। तुम मांगते जाओ, वो देता जायेगा। और चाहिए? लो! कितना पीना है?

इसीलिए कहा जाता है शुरुआत। गुरु क्या देता है?

श्रोतागण: शुरुआत।

वक्ता: वो चखाता है! यह थोड़ी करेगा कि जिंदगी भर बैठा कर खिलाता रहेगा कि हाथ में करछुल ले रखा है और तुमको गोद में बिठा कर के, लो।

यह लो चखो, कैसा लगा? अच्छा लगा। बाहर और है, जाओ। पर चखो तो पहले। तुम मुहं में च्युइंग गम भर के आते हो, तुम्हें कोई अमृत भी कैसे चखाए? तुम्हारा मुहं भी चल रहा है और दिमाग भी चल रहा, तुम अपने से ही बातें करने में मगन हो। तुम्हें मेरी कोई बात सुनाई कहाँ दे रही है? तुम्हारा तो अपना ही एक आत्म संवाद चल रहा है! च्युइंग गम चल रहा है। और वो उतना ही चिपकू है। चिपक गए हो उससे। कैसे कुछ और चखाए तुम्हें?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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