झूठ बहुत चल जाए, तो भी सच नहीं हो जाता || आचार्य प्रशांत (2020)

Acharya Prashant

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झूठ बहुत चल जाए, तो भी सच नहीं हो जाता || आचार्य प्रशांत (2020)

प्रश्नकर्ता: नमस्कार सर, हाल ही में मैंने अपने आदर्श स्टीव जॉब्स और विराट कोहली द्वारा सुझाई गयी लोकप्रिय किताब ‘ऑटोबायोग्राफी ऑफ ए योगी’ पढ़ी, तो जीवन का अलग ही आयाम खुल गया।

उस किताब के लेखक और उनके गुरु ने, न केवल अपने पूर्व जन्मों के बारे में विस्तार से बताया साथ ही साथ उस पुस्तक के कई किरदार अलग-अलग समय पर प्रकट होकर भविष्य की घटनाओं के बारे में भी बता देते थे।

उस पुस्तक में कुछ योगी तो ऐसे भी हैं जो एक साथ दो शरीरों का संचालन करते थे और कई हज़ार साल से जिंदा थे। जीवन में जब इतना रोमांचक डायमेंशन (आयाम) भी होता है, तो आप ही उसे क्यों नकारते रहते हैं। इतना प्रसिद्ध उस किताब के लेखक हैं और इतने बड़े-बड़े लोग उस किताब के पक्ष में बोल रहे हैं तो आप ही क्यों इनकार करते हैं?

आचार्य प्रशांत: देखो, बहुत तरीकों से अन्धविश्वास फैलते हैं, झूठी धारणाएँ फैलती हैं। उनमें एक तरीका ये भी है कि तुम साफ़-साफ़ सच्चाई से स्वयं परखना नहीं चाहते कि जो बातें कही गयी हैं उनमें कुछ दम भी है या नहीं।

तुमने बस यह देख लिया कि किताब बहुत लोकप्रिय है, खूब बिकी है, लेखक प्रसिद्ध हो गये हैं, और अब तुम कह रहे हो कि तुम्हारे आदर्श स्टीव जॉब्स और विराट कोहली उस किताब की प्रशंसा कर रहे हैं— मैं नहीं जानता उन्होंने करी है कि नहीं पर तुम अपने सवाल में पूछ रहे हो तो करी होगी शायद— तो तुम कह रहे हो कि बहुत बढ़िया किताब है। और तुमने मुझ पर ही इल्ज़ाम-सा लगा दिया कि जब जीवन का इतना रोमांचक डायमेंशन (आयाम) भी होता है तो आप उसे क्यों नकारते हैं।

तुम्हें कैसे पता है कि वो डायमेंशन (आयाम) होता भी है? रोमांचक है या नहीं ये तो बाद की बात है। तुम्हें कैसे पता? कोई किताब तुम्हें अच्छा मनोरंजन दे रही है तो वो सच्चाई हो गयी?

तुम ये (जिस तरीके के) सवाल भेज रहे हो, मुझे लगता है कि कम-से-कम कुछ महीनों से तुम मुझे सुन रहे होगे, कुछ महीनों से नहीं तो हफ्तों से, हफ्तों से नहीं तो दिनों से। क्या सुना है तुमने अगर अभी भी तुम्हें लगता है कि इस तरीके की चीज़ों में कुछ यथार्थ है? इतना (तो) बताया है कि विज्ञान हो कि उपनिषद हों, दोनों साफ़-साफ़ सत्य के, यथार्थ के, सच्चाई के बारे में क्या कहते हैं।

भौतिक जगत में जो कुछ है वो विज्ञान के नियमों के अधीन है— ये बात अच्छे से समझ लो। क्या? भौतिक जगत में जो कुछ है वो विज्ञान के नियमों के अधीन है। उनकी अवहेलना नहीं की जा सकती, वहाँ पर कोई अपवाद नहीं होता। वो नियम तोड़े नहीं जा सकते और उनमें कोई अपवाद, कोई एक्सेप्शन नहीं होता। तुम ये नहीं कह सकते कि आम लोगों के लिए नियम हैं पर सिद्धों, योगियों के लिए नियम नहीं होते।

सबके लिए वो नियम हैं क्योंकि वो नियम पदार्थ पर लागू होते हैं और पदार्थ तो देखो पदार्थ है। अगर कोई कहे कि सिद्धि हासिल करके या योग के माध्यम से हवा में उड़ा जा सकता है या गुरुत्वाकर्षण के विपरीत जाया जा सकता है तो ये आदमी विज्ञान तो जानता ही नहीं है ये आदमी अध्यात्म भी नहीं जानता है, ये आदमी बस बेवकूफ़ बनाना जानता है। एक ही इसकी ख़ासियत है, एक ही इसका ज्ञान है कि लोगों को बेवकूफ़ कैसे बनाना है।

विज्ञान पढ़ा हुआ भी कोई आदमी ऐसी बात नहीं करेगा कि हवा में उड़ सकते हो और आध्यात्मिक जो ज्ञानी होगा वो भी नहीं कहेगा कि प्रकृति के नियमों की उपेक्षा की जा सकती है। प्रकृति के नियम प्रकृति के पदार्थों के लिए हैं और ‘देह' प्रकृति का ‘पदार्थ’ है। किसी की देह हो वो प्रकृति के अधीन होती है। किसी की भी देह होगी, उसने जन्म लिया न, देह ने? और जन्म किसमें होता है? प्रकृति में होता है।

अगर देह इतनी ही ख़ास थी तो देह ने जन्म क्यों लिया? आसमान से क्यों नहीं टपकी? अगर देह इतनी ही ख़ास थी तो उसकी उम्र क्यों बढ़ती गयी? उम्र बढ़ने का काम प्रकृति में होता है। देह इतनी ही ख़ास थी तो खाना क्यों खाती थी? मल-मूत्र का त्याग क्यों करती थी? देह इतनी ही ख़ास थी तो मृत्यु को क्यों प्राप्त हो गयी? देह इतनी ही ख़ास थी तो उसमें दो ही आँखें क्यों थीं? पचास आँखें क्यों नहीं थी? देह इतनी ही ख़ास थी तो साढ़े पाँच फीट की ही क्यों थी? दस हज़ार फीट की क्यों नहीं थी? देह इतनी ही ख़ास थी तो टाँगों से चलते ही क्यों थे, टाँगों से तैरने ही क्यों नहीं लग जाते थे खड़े-खड़े? देह इतनी ही ख़ास थी तो जितने भी नियम हो सकते हैं पदार्थ के, उन सबका तुमने अतिक्रमण–उल्लंघन क्यों नहीं कर दिया? देह, देह होती है चाहे किसी की देह हो। अन्तर नहीं पड़ता कि बड़े-से-बड़े ज्ञानी की, महात्मा की देह है। देह तो देह है। समझ में आ रही है बात?

तो ऐसी बातें जहाँ कहीं भी हों कि एक आदमी एक पल में इस जगह है, दूसरे पल में दूसरी जगह है—हँस दिया करो, मनोरंजन है, कार्टून स्ट्रिप है। वो जो सुपरमैन तरह की कहानियाँ होती हैं वैसे ही कोई कहानी है, उसमें ये सब होता है। वहाँ पर भी वो थोड़ी बुद्धि (तो) लगा देते हैं लेकिन ये बात तो बिलकुल ही निर्बुद्धि की है। मान मत लिया करो आसानी से।

ये सब अध्यात्म नहीं होता कि आँख बन्द करी और हाथ में ताबीज़ आ गया। ये अध्यात्म नहीं होता भाई! ये सब तो अहंकार को और बढ़ाने वाली बातें हैं। ये सब तो मन को शान्त करने की जगह बातें मन को मनोरंजन देती हैं, उत्तेजना देती हैं। ये तो अध्यात्म के विपरीत है बातें। भई, मुझे इतनी बड़ी ताक़त मिल जाएगी कि मैं आँखें बन्द करूँगा और हाथ में मेरे ताबीज़ आ जाएगा— ये बात अहंकार को घटा रही है (या) बढ़ा रही है?

श्रोतागण: बढ़ा रही है।

आचार्य: तो अहंकार ऐसा ही है, माया ऐसी ही है, वो बने रहने के लिए अपनेआप को आध्यात्मिकता का भी नाम दे देती है, ताकि वो कायम रहे।

दुनिया में सच्चाई से जीना हो तो एक बात बिलकुल गाँठ बाँध लो, एक सूत्र बिलकुल हृदयंगम कर लो, क्या? ‘परखे बिना मत मानना।’

अपनी जान लगा दो किसी बात की सच्चाई जानने में। और अगर कोई बात गड़बड़ लग रही हो तो उस पर सिर्फ़ इसलिए मत यक़ीन कर लो क्योंकि वो किसी बड़े नाम से आ रही है।

और किसको बड़ा नाम मानना है ये तय करने में बहुत सचेत रहो। ज़्यादातर नाम जो बड़े नाम बनकर घूम रहे हैं वो बड़े कहलाने के हक़दार ही नहीं हैं। ये तो समाज में फैला अज्ञान है कि उसने ऐसे लोगों को भी बड़ा नाम दे दिया है जो बड़े नाम के अधिकारी नहीं हैं। समझ रहे हो बात को?

श्रोता: आचार्य जी यदि प्रकृति के नियमों को तोड़ा नहीं जा सकता तो फिर धर्मग्रंथों में अक्सर इतने सारे मिरेकल्स (चमत्कारों) का और चमत्कारों का उल्लेख क्यों मिलता है?

आचार्य: देखो, मिरेकल्स और चमत्कार सांकेतिक होते हैं। वो तुम्हें कुछ गहरा सच बताने के लिए होते हैं। वो गहरा सच तुम्हें किसी ख़ास तरीक़े से ही बताया जा सकता है। जैसे कि, अब तुमने सुना होगा कि रामकृष्ण परमहंस नदी किनारे थे और अचानक कराहने लग गये। शिष्य साथ थे। उन्होंने शिष्यों से कहा, “देखो (आसपास) यहाँ पर किसी को चोट पड़ रही है।” शिष्यों ने पाया कि वहाँ दूर एक आदमी था उसे कोई कोड़े मार रहा था। और जब वो लौटकर आये शिष्य, तो उन्होंने देखा कि श्री रामकृष्ण की पीठ पर कोड़ों के निशान थे, चोट थी उनकी भी पीठ पर।

तो इसको ऐसे नहीं ले लेना है कि वास्तव में वहाँ उसको जो चोट लग रही थी वो किसी जादुई तरीक़े से आकर के श्री रामकृष्ण को लग रही थी।

इस कहानी का प्रयोजन है ये बताना कि जो आदमी संवेदनशील हो जाता है, जो भक्त, जो ज्ञानी, करुणावान हो जाता है वो पूरे तरीके से दूसरों का दुख अनुभव करने लगता है। कहाँ अनुभव करता है? मन में अनुभव करता है।

पर मन होता है सूक्ष्म। वह दिखाई देगा नहीं। और आम आदमी को बताओ कि श्री रामकृष्ण के मन पर उतनी ही चोट लगी जितनी कि उस व्यक्ति के मन पर लगी— तो आम आदमी को यकीन नहीं होगा।

शरीर होता है स्थूल, शरीर दिखाई देता है, तो मन पर पड़ी चोट को तन पर पड़ी चोट बताया गया। और वास्तव में चोट तो सबके मन पर ही पड़ती है न? अगर तुम बेहोश हो और तुम्हारे तन पर चोट पड़ रही है तो क्या चोट लगेगी? मन जगा हुआ होना चाहिए तभी चोट लगती है न? मन अगर सोया हुआ है तो तुम्हें चोट लग भी जाए, तुम्हें पता नहीं लगेगा।

तुम सोए हुए हो, तुम्हें साँप काट गया, हो सकता है सोते में ही कुछ घंटे में तुम्हारी मृत्यु भी हो जाए। लेकिन तुम्हें पता भी नहीं लगेगा; न सांप के काटने का (और) न यही पता लगेगा कि तुम मर गये। समझ रहे हो बात को?

माने पता लगने का सारा काम किसका होता है? तन का नहीं, मन का। तो चोट भी किसको पता लगती है? मन को पता लगती है। जागृत है मन तो मन को पता लगेगी।

तो जैसे उस व्यक्ति के मन पर चोट लग रही थी बिलकुल वैसी ही चोट लगी श्रीरामकृष्ण के मन पर। ये करुणा की निशानी है कि तुम्हारा दुख मैं बिलकुल वैसे ही अनुभव कर सकता हूँ जैसे तुम अनुभव कर रहे हो। कहाँ अनुभव कर सकता हूँ? शरीर में नहीं, मन में।

लेकिन ये आम आदमी को बोलो कि उसका दुख मैंने उतना ही अनुभव किया जितना उसने, तो उसको यकीन नहीं आएगा। वो सबूत माँगेगा क्योंकि उसको सूक्ष्म चीज़ें दिखाई नहीं देती। मन क्या होता है? सूक्ष्म। तो उस सूक्ष्म घटना को स्थूल बनाकर प्रस्तुत किया गया, कहा गया कि उसके तन पर निशान पड़े थे जो रामकृष्ण महाराज के तन पर दिखाई दिये। तन पर नहीं दिखाई दिये, समझ रहे हो?

तो जहाँ कहीं भी इस तरह के चमत्कारों का उल्लेख हो, ये समझ जाना कि किसी और बड़ी बात की ओर इशारा है। स्थूल बात को स्थूल ही मत मान लेना उसके सूक्ष्म इशारे हैं। अब अन्तर होता है— एक गुरु या ज्ञानी होता है जो चमत्कारों की बात करता है इसलिए ताकि तुमको सच्चाई दिखा सके। जैसे- रामकृष्ण परमहंस। वो चमत्कारों की बात कर भी कर रहे हैं इसलिए ताकि तुमको सच्चाई के करीब ला सकें। और एक होता है गुरु जो चमत्कारों की बात ठीक इसलिए करता है ताकि तुमको और ज़्यादा भ्रम में, झूठ में, धोखे में ढकेल सके।

जैसे कि बहुत हुए हैं वो ऐसे कर रहे हैं (हाथ हवा में उठाते हुए) उनके हाथ में लड्डू आ गया, राख आ गयी। और ये काम ढ़ोंगी गुरुओं ने शताब्दियोंं से किया है अपने बारे में तरह-तरह की अफवाहें उड़ाएँगे, अपने बारे में भ्रांतियाँ प्रचलित करेंगे, कोई कह देगा कि मेरा घुटना टूट गया था और मैंने उस पर हाथ फेरा और वह आधे घंटे के अन्दर मेरा टूटा हुआ घुटना बिलकुल ठीक हो गया— हो नहीं सकता भाई!

प्रकृति के नियम याद रखना, कि तोड़े नहीं जा सकते और प्रकृति के नियमों का न उल्लंघन होता है न अपवाद होता है। अब ये काम दो तरीक़े से या दो नीयतों के साथ, इरादों के साथ किया जा सकता है— एक तो ये कि भाई मैं कोई पारलौकिक घटना अगर बता रहा हूँ लोगों को तो इसलिए बता रहा हूँ ताकि उस घटना का उपयोग करके वो सत्य तक पहुँच सकें। और दूसरा ये कि मैं अब एक पारलौकिक चमत्कार लोगों को सुना रहा हूँ ताकि वो मेरे अनुयायी बन जाएँ और फिर मैं उनको और झूठ पर लाऊँ और धोखे में डालूँ, अपना उल्लू सीधा करूँ, अपनी जेब गर्म करूँ इत्यादि-इत्यादि।

तो ये तुमको देखना होगा। आप हमेशा ये नहीं कह सकते कि फलानी किताब में भी तो कुछ चमत्कारों की बात है या ऐसा हुआ या वैसा हुआ है। उन किताबों में चमत्कारों की बात है पर ये भी तो देखो कि उन किताबों का कुल असर तुम्हारे ऊपर ये होता है कि तुम सब तरह के झूठ, भ्रम, चमत्कार से आगे निकल जाते हो। और ये सबसे बड़ा चमत्कार है, आदमी माया से आगे निकल जाए इससे बड़ा चमत्कार क्या होगा! और वास्तव में यही एकमात्र चमत्कार है कि जिसको जन्म ही माया ने दिया है, शारीरिक तौर पर, वो माया से आगे निकल गया। सिर्फ़ यही एक चमत्कार होता है। बाकी सब जो चमत्कार हैं उन पर बहुत ध्यान मत देना। ठीक है?

श्रोता: आचार्य जी इसमें ऐसा भी तो हो सकता है, ये भी तो गुंजाइश है कि ये सब चीजें होती हों पर क्योंकि आपके अनुभव में नहीं आयीं हैं इसलिए आप नहीं मानते?

आचार्य: नहीं, देखो एक चीज़ होती है कि क्या आपके अनुभव में है, एक होती है कि क्या आपके अनुभव में नहीं है और एक चीज़ होती है कि क्या ऐसा है जो अनुभव में हो ही नहीं सकता। ये तीन बातें हैं। ऐसा नहीं है कि दो ही हिस्से होते हैं सच्चाई के; एक होती है जो चीज़ तुम्हारे अनुभव में है पहले से ही, एक चीज़ होती है तुम्हारे अनुभव में पहले से नहीं है पर हो जाएगी। जैसे मान लो तुम कनाडा नहीं गये हो पर तुम दिल्ली गये हो तो दिल्ली तुम्हारे अनुभव में है, कनाडा अनुभव में नहीं है पर अनुभव में आ जाएगा। ठीक है?

और एक तीसरी चीज़ है, कि तुम कहो कि ‘फ़लाना तारालोक है वह भी तो हो सकता है। जैसे– कनाडा है, पर आपके अनुभव में तो नहीं है न, वैसे ही आपके अनुभव में तारालोक नहीं है इसका यह मतलब थोड़े ही है कि तारालोक नहीं है। वह भी कनाडा की तरह हो सकता है कि हो, आप बस वहाँ गये नहीं, आपने अनुभव नहीं लिया।’

नहीं, ऐसा नहीं है। कुछ चीज़ें ऐसी हैं जो हो ही नहीं सकतीं, क्यों नहीं हो सकतीं? क्योंकि वो फिर सत्य के विपरीत हो जानी हैं और सत्य का कोई विपरीत होता नहीं है।

उदाहरण के लिए, कोई बोले कि ‘कई आत्माएँ हैं’ ये बात तो आत्मा की सच्चाई के ही खिलाफ हो गयी न? इसलिए ये चीज़ हो नहीं सकती। कोई बोले– ‘नहीं, कई आत्माएँ (होती हैं) आपको बस अनुभव नहीं है,’ तो बात समझ ही नहीं रहा है। कोई बोले– ‘सत्य का अनुभव होता है बस आपको नहीं हुआ इसीलिए आप नकारते रहते हो,’ तो वो बात समझ ही नहीं रहा है।

सत्य की परिभाषा ही क्या है? “एको अहं, द्वितीयो नास्ति” वही भर है। दूसरा नहीं है। जब दूसरा नहीं है तो उसका अनुभव कौन लेगा?

पर लोग कहते हैं कि नहीं हमें तो सत्य का अनुभव हुआ या मुक्ति का अनुभव हुआ है या समाधि का अनुभव हुआ है। अरे बाबा! जब सत्य होता है तो सत्य ही होता है, और सत्य से लौटकर नहीं आया जाता। एकतरफा मार्ग है, वहाँ जाकर कोई लौटता नहीं है। तुम कैसे लौटकर के आ गये वहाँ का हाल सुनाने के लिए!

सत्य कोई बगल का मोहल्ला है कि गये थे और थोड़ा मटरगश्ती करी और वहाँ से लौटकर बता रहे हो ‘वो जो हरा वाला घर है न वहाँ बढ़िया अनुभव होता है।’

सत्य ऐसा थोड़े ही है– “कहें कबीर सत्य वह पथ है जहाँ फिर आना और जाना नहीं।” जो गया सो लौटकर नहीं आया। तभी तो लोग जाते (ही) नहीं हैं। जो गया वह लौटकर नहीं आया। तुम कैसे लौट कर आ गये अपना अनुभव बताने के लिए! तुम कौन हो? वास्तव में तुम अपना कोई सपना बता रहे हो। ये सब जो समाधि के अनुभव और इधर–उधर की बातें हैं दिव्य अनुभूतियाँ, पारलौकिक तरंगें, जादुई प्रकाश, ये सब क्या हैं? ये मन के भ्रम हैं। सब अनुभव तो मन को ही होते हैं न?

मन तो सक्रिय ही था, अनुभव ले रहा था। जब मन सक्रिय ही था, अनुभव ले रहा था, तो कौन सी समाधि? समाधि का तो मतलब है कि वहाँ पर स्मृति भी निष्क्रिय हो जानी है, तो तुम कैसे बच गये? इसीलिए समाधि कोई अवस्था नहीं होती। अवस्थाएँ चलती रहती हैं, अवस्थाओं के नीचे समाधि होती है।

लोगों ने क्या करा है कि समाधि को भी अवस्था बना लिया है! समाधि को भी अवस्था बना लिया है! समाधि तब है जब मन शान्त है, ऊपर-ऊपर से अपना जो कार्यक्रम है प्रकृति का वह चल रहा है। प्रकृति का कार्यक्रम चल रहा है, अहम् प्रकृति से विलग होकर के आत्मा में शान्त है— ये समाधि है।

यही सहज समाधि है। बाहर— अपना कार्यक्रम चलने दो, भीतर— हम हैं। तो समाधि कोई विशिष्ट अनुभव नहीं होता कि, ‘तेईस मार्च को फ़लाने बुधवार प्रातः साढ़े पाँच बजे मुझे ठीक साढ़े चार मिनट के लिए समाधि लगी थी’— तुम कोई बीमारी बता रहे हो क्या? कोई हादसा बता रहे हो? क्या बता रहे हो? कि साढ़े चार मिनट के लिए फ़लाने दिन फ़लानी जगह पर ऐसा हुआ था! ऐसे नहीं होता समाधि वगैरह।

ये सब अनुभव, अनुभव मात्र हैं। और सब अनुभव अहंकार को ही होते हैं और, अहंकार जब तक अनुभव ले रहा है तब तक वह अहंकार मात्र है। जब तक अनुभवों में उसकी रुचि बनी हुई है जब तक वह किन्हीं ख़ास अनुभवों को समाधि इत्यादि का नाम दे रहा है तब तक वह बहुत जड़ अहंकार है, बड़ा मूर्ख अहंकार है।

समाधि समझ लो ऐसी है जैसे हृदय का धड़कना। ऐसी होनी चाहिए समाधि। बाहर-बाहर क्या हो रहा है— बात कर रहा हूँ, सोच ही नहीं रहा अपने दिल के बारे में, वो चुपचाप पीछे अपना काम कर रहा है, लगातार और चुपचाप। ये समाधि की बात है, निरन्तर और मौन। उसमें क्या होती हैं दो बातें? निरन्तरता और मौन, जैसे दिल के धड़कने में।

तुम ये थोड़े ही। कह सकते हो (कि) ‘मुझे दिल के धड़कने का चार मिनट का अनुभव हुआ।’ तो (क्या) कुल चार ही मिनट धड़का तुम्हारा दिल? बड़े ज़बरदस्त मुर्दे हो फिर तो! दिल तो लगातार धड़के न। समाधि ऐसी है। वह लगातार रहे और बाहर-बाहर कार्यक्रम चलता रहे और बाहर-बाहर का कार्यक्रम सुचारू रूप से चल ही इसीलिए रहा है क्योंकि भीतर दिल मौन धड़क रहा है— ये समाधि है। आ रही है बात समझ में?

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