प्रश्नकर्ता: नमस्ते, आचार्य जी! मन की उस स्थिति में सदा कैसे रहें कि मुझे किसी के साथ कोई चिंता न हो — ज़ाहिर है कि वो मेरे क़रीबी और प्रिय लोग हैं, जैसा वो कह रहे हैं। मेरे मन में हर समय बहुत सारे सवाल होते हैं। उनके बयानों और चाल-चलन पर हमेशा विवाद होता रहता है। मुझे इन सब चीज़ों से परेशान नहीं होना है।
और मैं तीन सालों से आपकी वीडियो सुन रही हूँ इसलिए उनसे बहुत प्रभावित हूँ। इसलिए हर रोज़ अंतहीन सवाल आते हैं और मेरे लिए आपके वीडियो सुनना एक समाधान की तरह है। लेकिन फिर मुझे शर्म भी आती है कि उन सभी वीडियो को सुनने के बाद मुझे उचित समाधान नहीं मिल रहा है।
आप कह रहे हैं कि वो सबकुछ यहाँ से खाली हो जाएगा, तो मैं परेशान न होऊँ। दिन के समय कोई दिक़्क़त नहीं होती, मैं अपनेआप को काम में व्यस्त रख सकती हूँ और काम के समय पर ही मैं ख़ुद को विचारों से अलग कर पाती हूँ और फिर मैं सबकुछ भूल जाती हूँ। लेकिन सोते समय ये सारे विचार मेरे दिमाग में आते हैं और मैं इस तरह से न्यूरो सर्जरी से गुज़र रही हूँ। तो इस चीज़ से कैसे छुटकारा पाया जाए?
आचार्य प्रशांत: टू द एक्सटेंट देयर इज़ क्लैरिटी , जितना आप जानती हैं कि सही है, उतना करिए। आप जहाँ पर खड़ी हुई हैं वहाँ तो वही बातें, वही समस्याएँ, वही विचार चलते ही रहेंगे जो पहले से चलते रहे हैं क्योंकि वो अब एक जमी हुई व्यवस्था बन गयी है। कुछ बदल ही नहीं रहा न! न अंतर्स्थिति बदल रही है, न परिस्थिति बदल रही है। न आपके इर्द-गिर्द जो स्थितियाँ हैं वो बदल रही हैं, न आपकी जो हालत है वो बदल रही है। तो वो फिर क्या है? वो एक तरह का स्टेलमेट (गतिरोध) है। स्टेलमेट समझती हैं न?
प्र: जी।
आचार्य: न वो जीत सकते हैं, न आप जीत सकते हैं। पर आपकी जो स्थिति है वो कष्ट की है। उसको बदलने के लिए आपको किसी भी दिशा में एक कदम तो उठाना पड़ेगा।
आप शतरंज का ही उदाहरण ले लीजिए हमने स्टेलमेट बोला तो। सबकुछ जमा हुआ है और जिस तरीक़े से जमा हुआ है, उसमें न आप किधर को बढ़ सकते हैं, न सामने वाला किधर को भी बढ़ सकता है। कोई जीत भी नहीं रहा। और न आप उसका प्यादा काट सकते हो, न वो आपको काट सकता है।
इसमें अगर आप अपना एक मोहरा भी उठाकर के एक जगह से दूसरी जगह रख दें, बस बगल वाले खाने में ही रख दें, तो भी पूरा खेल बदल जाएगा कि नहीं बदल जाएगा?
कुछ करना पड़ेगा न! वरना तो जो जैसा जमा हुआ है, वैसा ही जमा रहेगा। और जैसे ही आप थोड़ा भी परिवर्तन लाते हैं, अपनी ओर से कुछ करके दिखाते हैं, वैसे ही और बहुत कुछ होने की संभावना खुल जाती है। न जाने अब क्या-क्या हो सकता है।
रात में भी जो विचार आते हैं, देखिए, वो इसलिए आते हैं क्योंकि दिन में काम नहीं हुआ। दिन का जो लंबित, अपूरित, पेंडिंग काम है, वो रात में दिमाग में चक्कर काटेगा। वो काम आप दिन में कर दीजिए, रात का बोझ कम हो जाएगा।
प्र: सर, अगर किसी ने झूठ बोला तो क्यों बोला है? मुझे पता है कि वो झूठ बोल रहा है तो ये चीज़…
आचार्य: सवाल ये नहीं है ‘झूठ क्यों बोला?’, सवाल ये है कि उस झूठ बोलने वाले से क्या आप अभी भी वही नज़दीकी और वही रिश्ता रखेंगी जो आपने पहले रखा हुआ था?
पहला श्लोक आपको यही तो समझा रहा है कि ये कब तक पूछते रहोगे कि उसने झूठ बोला तो क्यों बोला। इस प्रश्न का तो तुम्हें कोई उत्तर नहीं मिलेगा। इस प्रश्न के उत्तर में या तो तुम्हें माया बोलना पड़ेगा या ब्रह्म बोलना पड़ेगा। अब बात सवाल-जवाब की नहीं है, अब बात कर्म की है, एक्शन की है।
अगर जान ही गये हो कि कोई आपसे दिन-रात झूठ बोलता है तो उससे अभी भी वही रिश्ता और वही पुरानी नज़दीकियाँ क्यों हैं? यही तो बदलना है न!
प्र: उस समय नहीं समझ में आता है वो, एक प्रतिक्रिया करने के बाद। और इसमें तीन-चार दिन लग जाते हैं फिर वो स्थिति सामान्य होती है।
आचार्य: ये तो देखिए अभ्यास की बात है। आप जैसे-जैसे अपनेआप को कुछ करने की अनुमति देती जाएँगी, वैसे-वैसे आप और ज़्यादा सहज होती जाएँगी, स्पोंटेनियस।
अभी तो आपकी आदत या अभ्यास ही नहीं है कुछ करके दिखाने की। अभी शायद आपने अपनी अंदरूनी व्यवस्था ऐसी बना ली कि जो कुछ हो रहा है, उसको बस मन में सोख लो और उस पर विचार करना शुरू कर दो। कदम किधर को ही मत बढ़ाओ, करके कुछ भी मत दिखाओ, बस जो हो रहा है उसे दिमाग में समेट लो! (व्यंग्य करते हैं)
और दिमाग बिलकुल भट्टी बन जाता है, दहकता हुआ तंदूर, उसमें सबकुछ पक रहा है। और वो पकता ही जा रहा है सालों से। दिमाग में पकाइए नहीं न इतना! जो भी अब पक गया है, सड़ गया है, जल गया है, उसको बाहर फेंकिए।
प्र: मन को खाली कैसे रखें?
आचार्य: वो जितनी है उसको पड़ी रहने दीजिए। उसके बाद तो कुछ करके दिखाइए। मान लीजिए, दो दिन, चार दिन आपका विचार करना आपकी आदत बन चुका है। कि कुछ भी हुआ है उसपर दो दिन, चार दिन तो मैं सोचती ही रहती हूँ। चलिए ठीक है, पुरानी आदत है, सोच लीजिए दो-चार दिन। दो-चार दिन के बाद तो कोई कदम उठाइए।
देखिए, चिंतन, ज्ञान, इनमें से कुछ भी कर्म का और सही जीवन का विकल्प नहीं हो सकता। आप बहुत सोचते हैं, आपके पास ज्ञान बहुत इकट्ठा है, लेकिन ज़िंदगी आप गड़बड़ जी रहे हैं, वो ज्ञान कोई काम नहीं आएगा, एकदम नहीं।
ज्ञान तो होता ही इसीलिए है कि वो जीवन सही जीने में आपकी मदद कर सके, है न! ये कहाँ की चाल है कि ज्ञान ले लिया और उसको जीवन में नहीं उतरने दिया। फिर क्या होगा? वो जो ज्ञान है, वो आपको ही खाएगा भीतर-ही-भीतर।
उससे अच्छा तो होता कि ज्ञान नहीं होता आपके पास। फिर वो ज्ञान जब दिन में, कर्म में परिणीत नहीं होता तो रात में सपनों में परिणीत हो जाएगा। वो सपना भी नहीं होता। आप जो बोल रही हैं न, वो विचार ही होता है जो रातभर चलता है। आप सो भी रही हैं तो भी दिमाग में विचार चल रहा है।
प्र: ये सोने जैसा बिलकुल नहीं है, ये पूरी रात होता है।
आचार्य: बस-बस, वो सपना भी नहीं है। वो विचार ही है जो चले ही जा रहा है, चले ही जा रहा है। असल में वो विचार चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा है, ‘कुछ करो’।
प्र: लेकिन अगर अपनेआप से वार्तालाप करती हूँ कि मुझे नहीं सोचना है, आई हैव लॉट अदर थिंग्स (मेरे पास बहुत सी दूसरी चीज़ें हैं)।
आचार्य: अदर थिंग्स नहीं , वही थिंग है। उसी थिंग को करिए। अदर थिंग्स तो स्केप (पलायन) है। जहाँ पर लड़ाई है उसको आप बोल दो, ’नो, नो, आई हैव अदर थिंग्स टू टेक केयर ऑफ’ (नहीं, नहीं, मेरे पास फ़िक्र करने के लिए अन्य चीज़ें हैं), ये कहाँ की बहादुरी है?
अर्जुन बोल रहा है कि नहीं, वो आज मुझे अपने लैब्राडोर का वैक्सिनेशन (टीकाकरण) कराना है। (श्रोतागण हँसते हैं)
प्र: नहीं सर, तो मुझे नहीं सोचना है कि वो लोग क्या बोल रहे हैं, क्या नहीं बोल रहे हैं, क्या कर रहे हैं; मुझे कुछ नहीं जानना है, तो?
आचार्य: आपको अपनेआप से ही पूछना है कि वो जो भी लोग हैं — मैं नहीं जानता किन लोगों की बात कर रहे हैं — अगर वो आपको इतनी दुख और तकलीफ़ देते हैं तो आपकी ज़िंदगी में उनका इतना महत्व क्यों है। और आप उनसे इतने निकट, नज़दीक क्यों हैं? ज़रूर कोई आपने मजबूरी बनाई है और मजबूरी में या तो लालच होता है या डर होता है।
प्र: न लालच है, न डर है। बट दे आर फ़ैमिली (लेकिन वो परिवार हैं), तो. . .
आचार्य: तो क्या? फ़ैमिली क्या होती है? कोई वृत्ति होती है? क्या होती है फ़ैमिली? जल्दी से काट मत दीजिए बात को।
आप होमो सेपियन्स हैं न, उनकी यही वृत्तियाँ होती हैं — मद, मोह, काम, लोभ, भय, मात्सर्य। आप अलग थोड़े ही हो जाएँगी कि नहीं, नहीं, मेरी एक और है फ़ैमिली।
बेचारे कृष्ण से ग़लती हो गयी। उन्होंने जब षड्-रिपु लिखी तो उसमें सप्त-रिपु कर देना चाहिए था, सातवाँ फ़ैमिली होना चाहिए था। छ: ही होते हैं। तो आप फ़ैमिली जो बोल रही हैं, वहाँ कहीं-न-कहीं लालच है या डर है।
प्र: हाँ, डर है।
आचार्य: डर के साथ लालच हमेशा होता है। वो मानिए।
प्र: लालच नहीं है सर कुछ।
आचार्य: हो ही नहीं सकता। डर और लालच एक साथ चलते हैं। असल में जब बोलो कि मुझे डर है तो नैतिक श्रेष्ठता मिल जाती है, मोरल अपरहैंड। कि मैं तो बेचारी विक्टिम (पीड़ित) हूँ, दूसरा मुझे डरा रहा है। और जब मान लो कि लालच है तो वहाँ पर मोरल क्वेश्चन (नैतिक सवाल) अपने ऊपर ही खड़ा हो जाता है, ‘तुम लालची हो?’ तो इसलिए हम मानना ही नहीं चाहते कि लालच है।
प्र: डर हो सकता है; और तो ऐसा कुछ नहीं।
आचार्य: क्या किसी भी ऐसे को खोने का डर होगा आपको जिससे आपको कुछ मिल न रहा हो?
प्र: सर, मिलने वाला कुछ है नहीं।
आचार्य: अगर कुछ नहीं मिल रहा होता तो डर नहीं होता है। जिस चीज़ से आपको कुछ न मिल रहा हो, उसको खोने का आपको डर हो ही नहीं सकता। अगर आपको किसी चीज़ के खोने का डर है तो आपको उसको रखने का लालच है। स्वीकारिए।
कहीं-न-कहीं आपको उससे कुछ प्राप्ति हो रही है और आप उसको पकड़कर रखना चाहती हैं। बस बात ये है।
प्र: सर, अगर मेरा ब्लड रिलेशन (रक्त संबंध) है तो मैं कैसे उनको?
आचार्य: तो फिर आप ब्लड में ही बने रहिए न! अध्यात्म में क्यों आ रही हैं? ब्लड तो देह होता है। ब्लड माने क्या होता है? ब्लड रिलेशन माने क्या होता है? शरीर का रिश्ता। तो फिर आप शरीर के रिश्तों में प्रसन्न रहिए। आपको मन की शांति क्यों चाहिए?
आप क्या तीन साल से सुन रही हैं मुझको! जो व्यक्ति ये बोल दे कि मैं क्या करूँ, मेरा तो ब्लड रिलेशन है, वो तो अध्यात्म के आधे अ पर भी नहीं शुरू किया उसने। ये क्या जवाब है — मैं क्या करूँ? जो मुझे परेशान करते हैं उनसे मेरा ब्लड रिलेशन है।
आप ब्लड बैंक हैं? क्या हैं?
आप यहाँ बैठ गयी हैं। फिर तो कृष्ण बड़े दोषी हो गये। अर्जुन से जिनको मरवा रहे थे, उन सबसे ब्लड रिलेशन था।
अरे! धर्म होता है और अधर्म होता है, इसमें ब्लड रिलेशन कहाँ से आ गया? सच होता है और झूठ होता है, उसमें ये सब कहाँ से आ गया? और यही आपकी असली समस्या है। लो, खुलकर आ गयी सामने।
ये हम सबकी हालत है, वही कि आइ वाॅन्ट टू हैव माय केक एंड ईट इट टू (मुझे मेरे केक की चाहत है और इसे खाना भी चाहती हूँ)। जितने भी पुराने तरीक़े हैं जो हमें सुरक्षा के दे दिये गये हैं, वो सब पकड़कर भी रखने हैं और आध्यात्मिक आज़ादी भी चाहिए। सुरक्षा वाले पिंजड़े भी चाहिए और आध्यात्मिक आज़ादी भी चाहिए। दोनों एक साथ कैसे मिल जाएँगे भाई!
और ऐसे ज़्यादातर मामलों में एक पक्ष ही दूसरे से दुखी नहीं होता, दूसरा भी पहले से बराबर का दुखी होता है। और दोनों कह यही रहे होते हैं कि हम एक-दूसरे को झेल रहे हैं क्योंकि ब्लड रिलेशन है।
आप ये सब करके किसी दूसरे का भला भी तो नहीं कर रहे हो न! आप यही तो कह रहे हो, आपकी बात में जो फाउंडेशन (आधार) है वो ये है कि जिससे ब्लड रिलेशन है मैं उसका बुरा कैसे कर दूँ? आप जो ढर्रा चला रहे हो उसमें दूसरे का भला भी हो रहा है क्या?
अभी दूसरे को बुलाया जाए, वो बिलकुल यही बोलेगा कि इस व्यक्ति के कारण मैं भी परेशान हूँ।
प्र: तो सर, उनको बोलती भी नहीं हूँ मगर वो चीज़ें रात में हैंपर (बाधा) होती हैं मुझे कि. . .
आचार्य: आप नहीं बोलती हैं यही तो आप उनका नुक़सान करती हैं न! जो व्यक्ति ग़लत है, उसे न बताओ कि वो ग़लत है — ये तुमने उसके साथ अच्छा करा या बुरा? पर उसमें तकलीफ़ ये है कि उसको खुलकर बोल दोगे कि तू ग़लत है तो वो आपकी सुख-सुविधाओं और सुरक्षा में कमी कर सकता है। उसका है लालच। ये बहुत पुरानी कहानी है। हर जगह यही चल रही है।
प्र: सर, सुविधा वाली बात नहीं है मगर ये चीज़ है कि. . .
आचार्य: आपकी अलग नहीं हो सकती। सब जीव एक हैं, सबका मन एक है, सबकी परेशानियाँ एक हैं, सबकी वृत्तियाँ एक हैं। समाधान अगर चाहिए तो समझिए। नहीं तो फिर जो चल रहा है चलता रहेगा जैसे कि लाखों घरों में चलता है।