ज़िंदगी में मच्छर ही मारने हैं, तो टैंक का क्या करोगे?

Acharya Prashant

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ज़िंदगी में मच्छर ही मारने हैं, तो टैंक का क्या करोगे?
हम क्यों पैदा हुए हैं? मुक्ति के लिए। मुक्ति माने क्या, मुक्ति कोई लड्डू होता है! मुक्ति क्या होती है? बंधन को तोड़ना। तो जो कुछ भी करो उसमें बस एक चीज़ पूछनी है, ये करने से मेरा प्रेम मेरे बंधन तोड़ रहा है कि नहीं। प्रेम ही नहीं है अगर बंधन नहीं तोड़ रहा। ऐसी लड़ाई जो बंधन में रहते हुए भी लड़ी जा सकती है, ये कोई लड़ाई है! कुछ भी सार्थक है कि नहीं ज़िंदगी में इसकी पहचान बस यही है — वो आपके लिए आपको तोड़ना अनिवार्य बना रहा है या नहीं। कुछ भी ऐसा है जो आप स्वयं को बचाए-बचाए कर सको, वो करने लायक नहीं है। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

आचार्य प्रशांत एक बार मुझसे किसी ने कहा था कि आप भगवद्गीता पढ़ाते हैं और मैं भी एक धार्मिक हिन्दू हूँ, गीता हमारा पूज्य ग्रन्थ है। आप पढ़ाने के लिए उपलब्ध हैं फिर भी मेरा पढ़ने में मन नहीं लगता। मैं हिन्दू हूँ, मुझे गीता पढ़नी चाहिए और पढ़ाने वाला भी उपलब्ध है सामने आसानी से। मन तब भी नहीं लग रहा। क्यों नहीं लग रहा मन?

तो मैनें पूछा तुम्हारी ज़िंदगी में चुनौती क्या है, तुम क्या करते हो, समस्याएँ तुम्हें क्या आती हैं? पिछले साल दो साल में तुम्हें बड़ी-से-बड़ी समस्या क्या आई है जीवन में? तो वो सोचने लगा। बोलता है, ‘एक बार तीन-चार दिन तक बच्चा है छोटा और उसको बुखार हो गया था एक-सौ-दो, एक-सौ-तीन चला गया था। सच पूछो तो अभी पिछले दो साल में तो सबसे ज़्यादा बेचैन मैं उन्हीं दिनों हुआ था।’

और बताओ…

‘जो दुकान है, पीछे से जो माल आता है, उसके कीमतें बहुत बढ़ने लग गई थीं। बिक्री कम होने लग गई और बिक्री के साथ-साथ मुनाफ़ा और कम होने लग गया क्योंकि कीमतें पीछे से बढ़ रही थीं, उतनी ही मैं आगे नहीं बढ़ा सकता था, मेरे ग्राहक बर्दाश्त नहीं करते। थोड़ी कीमतें बढ़ाईं, थोड़ी कीमतें बढ़ाईं तो थोड़ी बिक्री घटी, लेकिन कीमत थोड़ी बढ़ाई और जो उसकी लागत थी, कॉस्ट वो बहुत बढ़ी हुई थी। तो ऐसा चला था करीब चार-छः महीने। बहुत दिल धड़का था। लगा था कैसे अब घर चलेगा, कैसे सपने पूरे होंगे। बहुत सारी चीज़ें सोची हुई हैं, खर्चे बाँध लिए हैं और अरमान भी हैं, उनका क्या होगा।’

मैंने कहा, अच्छी बात है आप ईमानदार आदमी हो, आपने खोल कर बता दिया सब और बताओ और क्या चुनौती है आपके सामने। बोल रहा, ‘और तो ऐसी कोई चुनौती आती नहीं, बाकी तो रोज़मर्रा का यही रहता है। कभी किसी से कुछ खिचपिच हो गई, कभी किसी रिश्तेदार से, कभी किसी पड़ोसी से। इनसे तो बड़ी चुनौतियाँ आती नहीं।’

मैंने कहा, ‘तो फिर तुम्हें गीता की ज़रूरत क्या है? इसीलिए तो गीता में तुम्हारा मन नहीं लगता। ये जिस स्तर पर तुम खेल रहे हो, इस स्तर पर तुम्हें गीता की कोई ज़रूरत है ही नहीं। तुम क्या करोगे? तुमने ज़िंदगी में बहुत साधारण और सुरक्षित चीज़ें चुनी है अपने लिए। एक अदद छोटा-सा घर, परिवार, बच्चे, दुकान, व्यापार, पड़ोसी, रिश्तेदार, ये सब तो पहले से ही एक व्यवस्था के हिस्से हैं। इनमें तो पहले से ही सब तयशुदा है। इनबिल्ट सिक्योरिटी (अन्तर्निर्मित सुरक्षा) है इन ढ़र्रों के भीतर, जितनी भी हो सकती है। तो तुम्हें यहाँ कोई बड़ी समस्या है ही नहीं। गीता तुम्हारे काम की नहीं है इसलिए तुम्हें गीता में मन नहीं लगता। तुम छोड़-छोड़ भागते हो, तुम्हें नींद आती है, क्योंकि तुमने ज़िंदगी में बहुत छोटी चीज़ें उठा रखी हैं।‘

जिसे मच्छर मारना हो वो टैंक का क्या करेगा? जिसके लिए ज़िंदगी में बड़ी चुनौती यही है कि मच्छर मारना है, मच्छर बहुत काटा करते हैं, उसको आप टैंक ले कर दीजिए वो क्या करेगा? वो इतना और कहेगा कि लुट गए, बर्बाद हो गए, ज़िंदगी भर की पूंजी एक टैंक खरीदने में चली गई। आप अपनी पूरी घर-गृहस्थी, ज़मीन, जायदाद, गहने, शेयर सब बेच देंगे, तब भी एक टैंक न खरीद पाएँ, बहुत महँगा आता है। और मारने क्या हैं? मच्छर। टैंक का एक गोला ही उतने में आता है जितने में बच्चे की साल भर की स्कूल की फीस। अब मच्छर बेईमान, फायर हो गया गोला, मच्छर मरा भी नहीं। क्योंकि गोला भी इसलिए नहीं बनाया है कि मच्छर वो मार दे।

बात समझ में आ रही है?

अध्यात्म उनके लिए है जिन्हें बड़ी लड़ाइयाँ लड़नी है। अर्जुन के जीवन में भी जब तक कुरुक्षेत्र नहीं आया था, तब तक गीता भी नहीं आई थी। कृष्ण-अर्जुन दशकों से साथ थे। जब गीता का संवाद होता है तो उस समय दोनों का कोई लड़कपन नहीं चल रहा है। अर्जुन तो दादा बनने के करीब हैं। अर्जुन का ही खानदान फिर आगे चला था, जब सब समाप्त हो गया था युद्ध के बाद। तो अर्जुन दादा बनने वाले हैं। तो सोचो दोनों ही पचास से ऊपर के हैं निश्चित रूप से। और दुर्योधन ज्येष्ठ हैं अर्जुन से और कर्ण भी ज्येष्ठ हैं अर्जुन से, तो वो तो शायद पचपन साठ के रहे होंगे वो लोग। और पितामह का तो कहना ही क्या। वो पता नहीं कितने के हैं।

समझ में आ रही है बात?

इतनी उम्र हो गई, इतने सालों तक साथ थे, गीता जैसी कोई चीज़ नहीं कही कृष्ण ने अर्जुन से, क्योंकि अर्जुन को अभी ज़रूरत ही नहीं थी। और जिस चीज़ की ज़रूरत न हो न, वो बहुत महँगी भी लगती है। आप एक साधारण गाड़ी खरीदते हो, वो आ जाती है एक साधारण कीमत में। अब आप कहो मुझे ऑफ़-रोडर खरीदना है। ऑफ़-रोडर जानते हो क्या होता है, क्या होता है? जिसको लेकर पहाड़ में घुस जाओ, खेत में घुस जाओ, नदी-नाले में घुस जाओ, पत्थरों में चढ़ जाओ। वो महँगा आता है क्योंकि उसमें अलग तरीके की कारीगरी करनी पड़ती है। जो टायर ही अलग होती है, सबकुछ उसकी पूरी व्यवस्था अलग होती है। फोर इनटू फोर ये वो…. उसको आप लेकर बर्फ में भी जा सकते हो। वो महँगा आता है।

अब जिसको करना ही कुल यह है कि झुन्नू अपने घर से धनिया के घर तक जाएगा, ये उसकी कुल ज़िंदगी है। उसको तुम कहो कि तू फोर बाई फोर ऑफ़-रोडर खरीद, तो उसको तो महँगा ही लगेगा न। अध्यात्म महँगा नहीं होता। आपकी ज़रूरतें कई बार बहुत छोटी होती है। ‘समस्या क्या है ज़रूरत छोटी होने में? ज्ञानियों ने कहा है कि ज़रूरतें कम रखो।’ समस्या ये है कि आपका स्वभाव चिल्ला-चिल्लाकर कह रहा है कि मुझे अनंत चाहिए। आप अनंत से नीचे, किसी चीज़ से तृप्त होने वाले नहीं हैं तो छोटी ज़रूरत फिर कैसे आपको संतुष्ट करेगी?

यो वै भूमा तत्सुखं नाल्पे सुखमस्ति भूमैव सुखं। भूमा त्वेव विजिज्ञासितव्य इति भूमानं भगवो विजिज्ञास इति॥

जो अनंत है उसी में सुख है अल्प में नहीं, अनंत में ही सुख है इसलिए अनंत की ही खोज करनी चाहिए।

~ छान्दोग्य उपनिषद् ७:२३:१

सुख आपको मिलेगा ही नहीं छोटी चीज़ में, तो छोटी ज़रूरतें और छोटी ज़िंदगी पकड़कर के आप कहाँ पहुँच जाओगे? बाकी चुनाव आपका है, अधिकार आपके हाथ में है आप बिल्कुल चुन सकते हो। क्या कह रहे थे हम लोग उस दिन? खिलाड़ी नहीं होना है, पदाड़ी होना है। तो आप चुन सकते हो कि सब कुछ छोटा छोटा छोटा…. कि वर्मा जी और मिसेज़ वर्मा रात में खाकर वाक पर भी निकलते हैं तो उतनी ही दूर तक जाते हैं जहाँ पर स्ट्रीट लाइट ठीक है, उसके आगे नहीं बढ़ते वो। पता नहीं दोनों को क्या डर है। दोनों पचपन साठ के हो गए हैं लेकिन वो टहलने भी वहीं तक जाते हैं जहाँ तक रोशनी की सुरक्षा है, उसके आगे एक कदम उनका जाता ही नहीं। ऐसों के क्या काम आएगा अध्यात्म!

बात आ रही है समझ में?

दो काम फिर करते हैं गीता जैसे ग्रन्थ। ये हमारे पास अभी लाओत्सू हैं, आज शून्यता सप्तति है, उपनिषद हैं। पहला आपको बताना कि छोटे में तुम्हारा काम चल नहीं रहा है। आप असंतुष्ट तो हैं ही, आपको दिखाना कि आप कितने असंतुष्ट हो और आगे करना ये कि बताना कि असंतुष्टि गैर ज़रूरी है, नेति-नेति। सबसे पहले आत्म-अवलोकन जो आपको दिखाएगा कि आप कितने असंतुष्ट हो और उसके बाद जिन कारणों से असंतुष्ट हो, उनका त्याग, नेति-नेति। कोई भी असंतुष्टि अन्दरूनी नहीं होती, इंटरेंसिक नहीं होती, कारण बद्ध होती है। कारण हटा दोगे असंतुष्टि हट जाएगी। सत्य के अलावा सबकुछ कारण बद्ध होता है। कार्य कारण का सिद्धान्त हर झूठी चीज़ पर लगता है। सत्य बस अजात होता है, अकृत होता है। न उसे किसी ने किया होता, न वो कर्ता होता है। तो उसके लिए अकृत और अकर्ता एक साथ चलता है। न उसे किसी ने बनाया, न वो कुछ बनाने में उत्सुक है।

समझ में आ रही है बात ये?

तो जिन्हें बड़ी चुनौतियाँ उठानी होती हैं उनके लिए ये अप्रोच दूर तक नहीं जाती कि उधर कुछ गलत है, उधर कुछ गलत है, उधर कुछ गलत है। ये चीज़ छोटे मसलों में चल जाती है। आगे नहीं चलती। जिसकी बेचैनी बस इतनी सी है कि नहीं मुझे बाज़ार जाना है और गोल-गप्पे खाने हैं, और इतने से चैन आ जाएगा, उनके लिए ठीक है। बाज़ार जाओ, गोल-गप्पे खा लो, काम हो गया। माने आपने जो काम किया पूरा वो बाहरी दिशा में था। किसी विषय से सम्बन्धित था। क्या विषय? गोल-गप्पा। तो जिसको इतनी ही बेचैनी हो कि चार बार गोल-गप्पा भीतर गया और पानी पी लिया उसका और मस्त हो गए, उनके लिए अध्यात्म की कोई ज़रूरत है भी नहीं।

पर जिनको दिखाई दे कि अट्ठारह गोल गप्पे खा लिए, पचास खा लिए, पूरा पेट जलने लग गया है, तब भी चैन मिल नहीं रहा है उनके लिए फिर आत्मदर्शन का कार्यक्रम शुरू होता है। जिनके पास छोटी-मोटी आकांक्षा नहीं होती, जो सचमुच महत्वकांक्षी होते हैं, अध्यात्म उनके लिए है। जिनका पेट आसानी से भरता ही नहीं है, जो छोटी दुकान से राज़ी ही नहीं होते, जिन्हें छोटी ज़िंदगी में चैन ही नहीं आता, जिन्हें हारना पसंद ही नहीं है, अध्यात्म उनके लिए है। जो पूड़ी-भाजी खाते हैं और मस्त पदाड़ी हो जाते हैं, वो क्या करेंगे युद्धयस्व का? उनको पूड़ी-भाजी दे दो।

तुम उन्हें क्या दोगे गांडीव वगैरह, क्या कुछ नहीं। उन्हें चैन मिल गया किसी चीज़ में। याद आ रहा है कितनी बार मैंने कहा था कि पहले देखो कि अर्जुन हो, क्योंकि अर्जुन हैं नहीं हम। जब मैं कह रहा था देखो अर्जुन हो, तो मैं कह रहा हूँ, देखो कि अर्जुन बने बिना बात बन नहीं रही तुम्हारी। अर्जुन माने बड़ी लड़ाई। अर्जुन माने सीना चिर जाए ऐसी लड़ाई। अर्जुन माने जो सबसे ज़्यादा पसंद है, उसी को समाप्त कर देने की लड़ाई। जो ऐसी लड़ाई में उतरते हैं, अध्यात्म उनके लिए है। अध्यात्म माने आत्म को देखना, खूब देखना, समझना। जो बड़े खिलाड़ी हैं, उन्हें अपने ऊपर काम करना होता है, उनके लिए अध्यात्म है। इससे ज़्यादा सरलता से मैं नहीं बता सकता।

सौ मीटर दौड़ना हो तो आपको अपने आप को देखने की ज़रूरत नहीं है। वहाँ खम्भा है, सौ मीटर पर, आप उस खम्भे को देखोगे और दौड़ जाओगे। कोई यहाँ नहीं बैठा जो सौ मीटर नहीं दौड़ जाएगा। सौ मीटर दौड़ना हो तो खुद को देखने की कोई ज़रूरत नहीं होती। दस किलोमीटर दौड़ना हो तो खुद को देखने की ज़रूरत आ जाती है। और मैराथन दौड़नी हो तो ये देखा ही नहीं जाता कि वो फिनिश लाइन किधर है। फिर तो बस ये देखा जाता है, हम कैसे हैं। ये अध्यात्म है।

जिन्होंने ज़िंदगी सौ मीटर के दायरे में बाँध ली है, उन्हें कोई ज़रूरत नहीं है। उन्हें समझ में ही नहीं आएगी बात। उनको बात बहुत महँगी लगेगी और यही कहेंगे कि हमारे लिए तो लूना मोपेड ही काफी है। हमको काहे के लिए ये एसयूवी दे रहे हो, ऑफ़-रोडर और इतने पैसे इसके माँग रहे हो। श्री कृष्ण तो लूटे ही ले रहे हैं न अर्जुन को, सब कुछ ले लिया अर्जुन का। क्योंकि चीज़ ही वैसी दे रहे हैं। भारी टैंक है वो। वो सस्ता नहीं आता। लेकिन जिनको उसकी ज़रूरत है, वो उसको ग्रहण करते हैं। सिर्फ़ वही ग्रहण करते हैं जो ऐसी लड़ाई में हैं, जिसमें अब उस टैंक की ज़रूरत आ गई है। क्या आप ऐसी किसी लड़ाई में हैं? और अगर नहीं हैं तो जानिए कि वो लड़ाई लड़े बिना आप ज़िन्दा नहीं हो। आप पूरी-भाजी खाकर के नाइट वॉक करने को पैदा नहीं हुए हो।

देखो चलो, मैं असली बात बता देता हूँ। मैं ये पूरी-भाजी खाना और ये नाइट वॉक की बात क्यों कर रहा हूँ। मैं अभी खेल रहा था टेनिस। अब बीच में अभी तबीयत थोड़ी ठीक नहीं थी, तो मैं रोज़ हारता था। सामने आधी उम्र का है, वो मेरा कोच। वो दिन भर टेनिस ही खेलता है, कोच है और मुझसे आधी उम्र का है तो..। पर पहले का ये रहा है कि मैं जीता करता था। आज मैं तय करके गया था कि टक्कर देनी है। तो हम खेल रहे हैं। तीसरा सेट है। पहले दोनों सेट में एक उसने जीता एक मैंने जीता। तीसरे सेट में मैं चार दो से आगे था। और बस जीतने ही वाला था, पहला सेट मैं दो छः से हारा, दूसरा छः दो से जीता, तीसरे में चार दो से आगे था कि तभी एक पचास-साठ साल के अंकल जी ने पीछे फ़ोन स्पीकर पर लगा करके टहलना शुरू कर दिया, 'दिया तो था दहेज और कितना देना है?' मैं हार गया। मेरे शरीर ने विद्रोह कर दिया और वो खाना-वाना खाकर के सड़क पर आ गए थे कि इसी बहाने थोड़ा टहल लेंगे और किसी रिश्तेदार को गरिया भी लेंगे। कोर्ट के ठीक पीछे एक सड़क है उसमें उन्होंने अपना टहलना शुरू कर दिया।

अब इनको क्या मैं गीता श्रृंखला में एनरोल कराऊँ, जिनकी ज़िंदगी का मुद्दा ही यही है, ‘अरे शुक्ला जी ने रश्मि को जितना दिया था, रश्मि से ज़्यादा हमने दिया है।‘ एक के बाद एक डबल फाल्ट होते गए, जितनी बार बॉल उछालूँ वो पीछे से बताएँ कि कौन सी गाड़ी दी है और क्या करा है, क्या नहीं करा है। और मैं सोचूँ कि क्या मैं ऐसों के लिए दुनिया बदलना चाहता हूँ। अंततः मैंने हाथ-पाँव जोड़कर उसको कहा, ‘कहीं और चले जाओ। जो तुम्हें ये अपना कथापुराण करना है वो कहीं और कर लो, मुझे छोड़ दो।' उनको थोड़ा ताज्जुब हुआ, खैर रहम करा चले गए।

उनकी पूरी दृष्टि कहाँ को थी? जगत को थी। क्योंकि उनके पास मुद्दा ही इतना छोटा है झिंगूर-तिलचट्टे बराबर कि उन्हें अपने ऊपर दृष्टि करने की ज़रूरत ही नहीं थी। वो चले गए और उसके बाद एक जोड़ा आ गया। वो थोड़ा जवान था। जो पति देव थे वो बात कर रहे हैं किससे.. पत्नी की बुआ से, स्पीकर पर लेकर के…’हाँ हाँ बुआजी वो मेरे साथ में ही है। हाँ जी बुआजी।’ बुआजी को खुश कर लो तो पत्नी जी खुश हो जाएँगी। पत्नी जी खुश हो जाएँगी तो रात का कार्यक्रम अच्छा हो जाएगा। इसमें क्या करोगे गीता पढ़कर? गीता चाहिए ही नहीं आम आदमी को। आम आदमी क्या करे गीता पढ़कर? उपयोगिता क्या है? आपके जो इरादे हैं, जो मनसूबे हैं, आपकी जो कामनाएँ हैं, वो बिना गीता के भी पूरी हो जाती हैं।

गृहस्थ वो नहीं है, जिसके जीवन में स्त्री या पुरुष है। गृहस्थ वो है, जिसके जीवन में टुच्चई है। जीवन में आदमी-औरत के होने से या बच्चों के होने से आप गृहस्थ नहीं हो जाते। गृह का मतलब है कैद, ऐसे जिसने आपको बाँध लिया, कुकून। वहाँ गीता की उपयोगिता क्या है बताओ तो, वहाँ समस्याएँ क्या आ रही हैं? घर गंदा हो गया है, घर में पुताई करानी है, हींग का डब्बा खाली है, लहसुन छीली कि नहीं छीली।

आ रही है बात समझ में?

ये बात तभी समझ में आएगी जब इस बात को समझने की ज़रूरत पड़ेगी। साहब, आपके पास कोई ज़रूरत है क्या? सबसे असाध्य बीमारियों के सबसे महँगे डॉक्टर होते हैं, नहीं तो कोई क्यों देगा इतने पैसे उनको? कोई क्यों करेगा इतना महँगा सौदा? सिर्फ़ तब जब वो असाध्य बीमारी है ऐसा पता हो। जिसको पता ही नहीं, जो लौंग-लहसुन के खेल खेल रहा है, उसको तो कृष्ण जैसा चिकित्सक यही लगेगा कि पता नहीं क्या बता रहे हैं। सात-सौ श्र्लोकों की गीता और जैसे धार्मिक ग्रन्थ होते हैं उनकी तुलना में गीता बहुत संक्षिप्त है, मात्र सात-सौ श्र्लोक।

बात समझ रहे हो?

जिस दिन अर्जुन जैसे हो जाओगे, जिस दिन सचमुच ऐसी लड़ाई में कूद पड़ोगे जहाँ मामला एकदम दिल का होगा, जहाँ हारना बर्दाश्त ही नहीं कर सकते और जीतना सम्भव नहीं है, तब कृष्ण याद आते हैं। ये छिपकली भगाने और तिलचट्टे मारने वाली चुनौतियों में कृष्ण का क्या काम? छोटे आदमी और छोटी ज़िंदगी के लिए अध्यात्म नहीं है। हाँ, एक साधारण आदमी गीता के पास आए और गीता उसको ये दिखा दे कि तुझे साधारण रहकर चैन नहीं है तो अब गीता की उपयोगिता शुरू हुई।

आप अगर एक साधारण जीवन जी रहे हैं तो भी आप आ सकते हैं गीता के पास। पर फिर पहली चीज़ आपको वहाँ से ये जाननी पड़ेगी कि साधारण रहकर के आपको शांति मिल नहीं रही है, आपको असाधारण होना है। उतना ही असाधारण जैसे रात के आकाश में कोई उल्कापिंड होता है। देखा है? एक तारा है और वो बस वहाँ लटका हुआ है और एक कहलाता है टूटता तारा — अ स्ट्रीक अक्रॉस द स्काय। ज़रा सी देर को रहता है। जिसको सुरक्षा नहीं चाहिए, जिसकी दिवानगी ये है कि दो पल के लिए ही सही आकाश को रोशन कर जाऊँगा पूरा, उनके लिए है गीता। जो वो ज़रा-ज़रा से प्रकाश बिंदु बनने से सहमत हो गए हैं और उतने में ही उनको चैन आ गया है, वो क्या करेंगे? तुम्हें तो वैसे भी कोई समस्या नहीं है, कोई खतरा ही नहीं है। तुम्हे कृष्ण काहे को बचाएँगे।

कहीं कोई खतरा हो तो कवच की ज़रूरत होती है। कोई डूब रहा हो तो तारनहार की ज़रूरत होती है। तारे तो वहाँ लटके ही हुए हैं उनको कोई समस्या ही नहीं, कोई खतरा ही नहीं। वो अभी भी लटके हैं, सौ साल बाद भी ऐसे ही लटके होंगे। न उनकी हस्ती से कुछ किसी का बन रहा है, न बिगड़ रहा है, न उन्हें कोई पूछने वाला है। करोड़ो में उनकी तादाद है, जैसे करोड़ों में हमारी जनसंख्या है, लेना एक न देना दो। आसमान से पन्द्रह-बीस तारे भी गायब हो जाएँ आपको पता चलता है क्या? ऐसे ही हम बनते-बिगड़ते रहते हैं, मर जाते हैं, पैदा हो जाते हैं। किसी को कुछ फ़र्क पड़ता है क्या?

लेकिन एक शूटिंग स्टार, एक मीटियोर, उल्कापिंड, वो आता है आसमान में जैसे अँधेरे की छाती फाड़ने के लिए आया हो। आता है मिट जाता है ज़रा सी देर में, जिसको ऐसी ज़िंदगी जीनी हो, उसके लिए गीता है। वहाँ सुरक्षा कुछ नहीं है। वहाँ तो खेल मिटने का है। पर मिटने से पहले खेल जाएँगे। तुम टँगे रहना, हम आए, हम खेले, हम चले गए। तुम्हारी सज़ा ये है कि हम चले भी जाएँगे तुम उसके बाद भी लटके रहोगे। तुम लटकते रहो हम मुक्त हो गए।

आ रही है बात समझ में?

क्या कह रहे हैं आज? कह रहे हैं, ‘जितनी भी तुम्हारी समस्याएँ हैं, जो तुम्हें जगत में दिखाई देती हैं, कोई भी अपने आप में कोई अस्तित्व नहीं रखती स्वतन्त्र। सब तुम पर आश्रित है।‘ यही जो उदाहरण ले रहे हैं, बाप-बेटे का ले लेते हैं, ये जो बिल्कुल क्लासिकल, शास्त्रीय द्वैत का उदाहरण है। बाप के बिना बेटा नहीं, बेटे के बिना बाप नहीं। जिस दिन घर में बेटा पैदा होता है, उसी दिन घर में बाप भी पैदा होता है। जिस दिन तक बेटा नहीं था, उस दिन बताओ बाप भी कहाँ था। तो बताओ सिर्फ बेटा पैदा हुआ या बाप भी पैदा हुआ। दोनों इकट्ठे पैदा हुए। ठीक? तो ये तो इस तरह के उदाहरण हम बहुत बार ले चुके हैं। थोड़ा सा उससे हट कर समझते हैं।

बेटे में कोई समस्या है, साधारण सी कोई समस्या है तो बेटे को समझा-बुझा दो हो जाएगा। समस्या जब बहुत बढ़ जाती है तो बाप को ये देखना पड़ता है कि मैं उसे समझा इसलिए नहीं पा रहा हूँ क्योंकि मैं बाप हूँ। तो मैं समस्या का हिस्सा हूँ। जब तक मैं वही रहूँगा जो मैं बना बैठा हूँ, तब तक ये जो बेटा है, ये बिल्कुल समस्याग्रस्त रहेगा। क्योंकि उसका बेटा होना माने उसका समस्याग्रस्त होना माने उसकी वर्तमान स्थिति मेरे बाप होने पर आश्रित है। पर ये बात उन बापों को समझ में आएगी जिन्हें अपने बेटों से इतना प्रेम हो, इतना प्रेम हो कि उनकी समस्या की जड़ उखाड़ देना चाहते हों। बेटे से इतना ही सरोकार है कि देखो कोई गंदी बात मत करना, बेटा कोई खराब आचरण मत करना, तो इतने के लिए अध्यात्म नहीं चाहिए। इतने के लिए नैतिकता काफ़ी है या कहीं बाबाजी के पास चले जाओ, वहाँ से कुछ लड्डू-प्रसाद ले आओ, हो गया, इतना बहुत है। अनुशासन से भी काम चल जाएगा, नैतिकता से भी काम चल जाएगा और बाबाजी की बूटी से भी काम चल जाएगा।

अगर इतना ही कराना हो कि बेटा तुम्हारा बहुत अच्छा है — क्यों अच्छा है? गाली नहीं देता। रात में दस बजे के बाद घर से बाहर नहीं रहता। एकदम गोलू है। गुंडे देखते ही डर कर भाग जाता है, सज्जन आदमी है न। इतना ही चाहिए तो...पर बाप में अगर प्रेम इतना हो कि वो देखे कि उसका जो बेटा है वो एक पिग्मी है, बौना, वामन, ड्वार्फ़। तो उसको समझ में आएगा कि बेटे की समस्या का बहुत बड़ा हिस्सा बाप स्वयं है। ये अब आत्मज्ञान शुरू हुआ। अब दिखाई देगा क्योंकि समस्या बड़ी है कि समस्या नहीं हटा सकते स्वयं को हटाए बिना। जब तक बाप जैसा है वैसा रहेगा, तब तक बेटा जैसा है बेटा भी वैसा ही रहेगा। हाँ, बेटे में छोटे-मोटे आप परिवर्तन लाना चाहते हो तो फिर बाप को बदलने की कोई ज़रूरत नहीं है। तो फिर अध्यात्म की भी कोई ज़रूरत नहीं है। पर सचमुच अगर बदलना है बेटे को तो बाप को बदलना पड़ेगा। पर सचमुच तो कोई किसी को बदलना नहीं चाहता क्योंकि सचमुच जो चीज़ होती है, उसको तो प्रेम बोलते हैं। उतना प्रेम हममें नहीं होता कि किसी की खातिर हम खुद को बदलने को तैयार हो जाएँ। इतना प्रेम हममें नहीं होता कि किसी की मुक्ति के खातिर हम अपने बंधन काट डाले।

आ रही है बात समझ में?

द्वैत के दो सिरों में एक वो होता है जो समस्या का अनुभव कर रहा होता है और दूसरा वो होता है जिसका नाम समस्या है। मेरी समस्या बस इतनी है कि गर्मी लग रही है पंखा चला दो, (दोहराते हुए) गर्मी लग रही पंखा चला दो, तो पंखा चलाकर मेरी समस्या दूर हो गई न। क्या ज़रूरत है सोचने की कि मैं और वो अलग-अलग नहीं हैं। मेरे बिना उसका कुछ नहीं, उसके बिना मेरा कुछ नहीं। वास्तव में वो भी शून्य है, वास्तव में मैं भी शून्य हूँ और समस्या है ही इसीलिए है क्योंकि मैं अपने आप को शून्य की जगह कुछ और समझ रहा हूँ। इतना सोचने की ज़रूरत है? कुल समस्या ही क्या है? पंखा चला दो। आम ज़िंदगी इसी तल पर चलती है। पंखा चला दो, सारी समस्या मिट गई। आसमान की ओर, मुँह कर लिया, खर्राटे मारकर सो गए। और क्या है? पकौड़ा बना है, नमक कम है, नमक लाकर डाल दिया। ऊपर से उसमें थोड़ा चटनी भी डाल दो और इससे बड़ी कोई समस्या होती है क्या? इन समस्याओं के लिए आचार्य नागार्जुन की कोई उपयोगिता एकदम भी नहीं है।

इंसान वो है जिसे दिखने लगे कि इन चीज़ों में उलझकर के सिर्फ़ उलझाव ही मिलता है। ये पहले चरण का काम होता है। ये काम आपको खुद करना होता है। जिसको अभी अपनी समस्या का ज़रा भी एहसास नहीं है कोई आचार्य, कोई बुद्ध, उनके काम नहीं आता। तो करुणावश कई बार बुद्धों को ये करना पड़ता है कि जिनको समस्या का कोई एहसास नहीं है, उन्हें समस्या का एहसास कराना पड़ता है। और जब जो अभी तक बिल्कुल निर्द्वन्द्व होकर के मस्त जी रहा था, असमस्या में, 'मेरे पास तो कोई समस्या है ही नहीं,’ जब उसे दिखाओ कि तेरे पास समस्या है, तो वो ये नहीं देख पाता कि उसको उसकी समस्या दिखाई गई है। उसको ऐसा अनुभव होता है जैसे उसके जीवन में समस्या अब लगाई गई है। किसने लगा दी समस्या? यहीं जो बताने आया था कि समस्या है। लगी थी आग मेरे घर में, मुझे तो पता नहीं था न। मैं मस्त टी.वी देखता था, पकौड़ा खाता था, और पड़ा रहता था और क्या करना था।

वो कोई आ गया उसने बता दिया, ‘ये देखो, उधर देखो, ठीक से देखो, झुककर देखो, सूँघकर देखो, आग लगी हुई है।‘ आराम में विघ्न पड़ गया, मौज में खलल आ गया। तो तुरंत आक्षेप क्या लगता है? इसी ने आग लगाई है। उसने आग लगाई है या दिखाई है? दिखाई है। दिखाना ज़रूरी होता है क्योंकि जब तक ये देखोगे ही नहीं, जीवन में आग लगी है, तब तक समाधान का, शमन का कोई सवाल ही नहीं है न।

बात समझ में आ रही है?

छोटी ही चीज़ों में उलझे रह जाओगे और जीवन में कुछ भी उतना घिनौना, घृणास्पद नहीं होता जितना कि जिसको हम आम ज़िंदगी बोलते हैं। उससे ज़्यादा कुछ नहीं होता घिनौना। पर बुद्धों का काम घिनाना नहीं है। वो डिसगस्ट (घिनौना) या हेट्रेड (नफ़रत) के लिए नहीं पैदा हुए। वो जहाँ देखते हैं कि कुछ ऐसा चल रहा है जो बिल्कुल हीन है, घृणास्पद है, तो उनमें घृणा की अपेक्षा करूणा आती है। वो कहते हैं, ‘इसको बाहर निकालो, इसकी स्थिति से हटाओ। ये क्यों ऐसी ज़िंदगी जी रहा है कीड़े-मकौड़ों जैसी?‘ लेकिन वो सब प्रयत्न करके भी सफलता उन्हें कम ही मिलती है क्योंकि जैसा हमने कहा कि सफलता तो तब मिले न जब जिसको तुम उबारना चाहते हो, सबसे पहले उसको थोड़ा तो लगे कि उसे उबरना है। यहाँ तो जिसको उबारना चाहते हो वो मस्त है। बिल्कुल मस्त है। ‘अरे! माला को कम थोड़े ही दिया, रश्मि से ज़्यादा दिया था’ क्या? दहेज। मारी डकार ज़बरदस्त, जाने क्या खाकर आए थे।

अब ये माला, ये रश्मि कैसी होगी इनकी ज़िंदगी सोचो एक बार। पता नहीं है उनके पिता जी हैं, चाचा जी हैं, क्या हैं, पर कैसी होगी उनकी ज़िंदगी। जहाँ अब शादी-ब्याह हो चुका है, शायद। अभी लेकिन मुद्दा ये चल रहा है कि दहेज की कुछ कमी पड़ी है और तुलना करी जा रही है अब कोई और माला है, हमें नहीं मालूम माला कौन है, हमें क्या पता, पर कोई और है माला कहीं पर उसको जितना दहेज गया, उससे अब तुलना करी जा रही है और इस लड़की के घर वाले जानते हैं कि वो माला को कितना गया था। तो वो भी बीच-बीच में लाकर के कुछ चिकोटी काट रहे हैं कि वो माला जितना रश्मि को नहीं मिला। जिस लड़की का बाप उसके नाम का सही उच्चारण नहीं कर सकता, उसकी रश्मि रश्मि सुन के…. मेरे रैकेट की स्ट्रिंग्स टूट गईं।

बीमारी बुरी नहीं है, गरीबी भी बुरी नहीं है, आम ज़िंदगी बहुत बुरी है। अभी नवदुर्गा, तो रात में निकलो तो पता नहीं क्या बता दिया है इन बेचारे लोगों को और वो ज़्यादातर सब समाज के निचले तबकों से आते हैं। वो बीस-बीस किलोमीटर पैदल चलकर नॉएडा से ग्रेटर नॉएडा आ रहे होते हैं एक्सप्रेस वे पर। उनके मन में मीडिया द्वारा और धर्म गुरुओं द्वारा पता नहीं कौन-सी सामग्री भर दी गई है और वो सब अमीर लोग जो मीडिया को नियन्त्रित करते हैं, उनमें से कोई मुझे नहीं दिखता कि वो नवरात्रि में खुद पैदल चलकर आ रहा हो और ज़्यादातर जो ये आ रहे होते हैं उसमें औरतें होती हैं। मैं इन्हें कैसे गीता पढ़ाऊँ?

कईयों ने सिर पर कुछ रखा होता है। जैसे झूठ को देखकर मेरे शरीर ने विद्रोह कर दिया था न; मैं डबल फॉल्ट करना शुरू कर दिया, वैसे ही सच को सुनकर भी शरीर विद्रोह कर देता है। आप आज भी निकल पड़िए, जाइएगा….अगर वही धर्म है तो फिर इस धर्म की ज़रूरत क्या है? फिर भगवद्गीता की ज़रूरत क्या है? और वो ठेला, ट्रैक्टर-ट्रॉली ले लेते हैं, उसपर डीजे बजाते हैं रात भर एक्सप्रेस वे पर। रोज़ देख सकते हो बेटा। रोज़ हो रहा है, नाच भी लेना। जब ये लगे कि जीवन की समस्याएँ यही सब करने से दूर हो जाती हैं तो गीता के टैंक की फिर ज़रूरत क्या है?

अगर आपके जीवन में प्रेम ऐसा नहीं है जिसको निभाने के लिए आपको टूटना पड़े तो प्रेम नहीं है, कुछ और होगा। कामना, विलासिता, अय्याशी, हवस कुछ होगा। आपके जीवन में चुनौती ऐसी नहीं है कि उससे जूझने के लिए आपको टूटना पड़े, अनिवार्य हो जाए, तो वो चुनौती नहीं है पदाड़ीपन है। आप जिसके साथ खेलने गए हो, अगर वो आपसे कम-से-कम दुगना समर्थ नहीं है, तो आप खेलने नहीं गए हो, आप जी बहलाने, मनोरंजन करने गए हो।

हम क्यों पैदा हुए हैं? मुक्ति के लिए। मुक्ति माने क्या, मुक्ति कोई लड्डू होता है! मुक्ति क्या होती है? बंधन को तोड़ना। तो जो कुछ भी करो उसमें बस एक चीज़ पूछनी है, ये करने से मेरा प्रेम मेरे बंधन तोड़ रहा है कि नहीं। प्रेम ही नहीं है अगर बंधन नहीं तोड़ रहा। ऐसा प्रेम जो बंधनों के साथ भी किया जा सकता है, प्रेम थोड़े ही है। ऐसी लड़ाई जो बंधन में रहते हुए भी लड़ी जा सकती है, ये कोई लड़ाई है! ये तो एक-दूसरे की पीठ खुजा रहे होगे और बोल रहे हो लड़ रहे हैं। कुछ भी सार्थक है कि नहीं ज़िंदगी में इसकी पहचान बस यही है — वो आपके लिए आपको तोड़ना अनिवार्य बना रहा है या नहीं। बस यही सवाल है, यही कसौटी है। कुछ भी ऐसा है जो आप स्वयं को बचाए-बचाए कर सको, वो करने लायक नहीं है।

अब सवाल — दिन भर जो करते हो बताओ कि उसमें से क्या ऐसा है जो तुम्हें तोड़ रहा है और नहीं तोड़ रहा तो पूरा दिन क्यों बर्बाद कर रहे हो? नर्क ये थोड़े ही होता है कि कहीं ले-जाकर बेकार जगह में डाल दिया है। नर्क का मतलब होता है एक व्यर्थ गया दिन। एक ऐसा दिन जो तुम्हारे बंधनों को तोड़ कर नहीं गया, वो दिन नर्क कहलाता है। बताओ, आज ऐसा क्या किया? दिवस का अब हो रहा है अवसान, बारह बज जाएँगे अभी। बताओ, आज ऐसा क्या किया जिसने तुम्हें तोड़ा और कुछ नहीं किया तो पूरा दिन क्यों नर्क में सड़े?

मुर्दे जैसा क्यों नहीं अनुभव होता अगर कुछ ऐसा नहीं कर रहे हो जो करा ही नहीं जा सकता था, जो अपनी औकात के, अपने बूते के बाहर का था। केचुआ दिन भर मिट्टी में पड़ा हुआ है, तो क्यों माने कि वो ज़िन्दा है? मर भी जाएगा तो भी मिट्टी में ही पड़ा रहेगा। पक्षी भी दिन भर ज़मीन पर ही पड़ा हुआ है तो क्यों माने कि वो ज़िन्दा हैं? वो मर भी जाएगा तो भी ज़मीन पर पड़ा रहेगा। पक्षी ज़िन्दा तो तब है न जब परवाज़ ले। आप बताओ आपने कौन-सी उड़ान ली है आज और उड़ान नहीं ली तो क्यों न आपको मुर्दा मानें? और जिन्हें उड़ान लेनी नहीं है वो इस आकाश (भगवद्गीता) का क्या करेंगे?

हम तो आपके लिए तीस दिन आकाश लेकर आ रहे हैं। आपको उड़ान लेनी नहीं है, ज़मीन पर बैठे-बैठे क्या करना है, दाद देनी है? क्या करा पूरे दिन जिसमें टूटे? तीन ही चीज़ें होती हैं, जो तोड़ती हैं। तीन या एक ही है वो, पर उसको तीन तरीके से बोलता हूँ। तीनों तरीके से बोलना मुझे पसंद आता है। एक प्यार, एक ज्ञान और एक जंग। प्रेम, ज्ञान और चुनौती। हैं तीनों एक ही पर तीन मान लो। तुम्हारे प्रेम में कुछ ऐसा है जो तुम्हें तोड़ा? कुछ नहीं, तुम्हारे पास प्रेम है ही नहीं, क्योंकि प्रेम किसके प्रति होता है? अपनी ही अव्यक्त सम्भावना के प्रति जो होता है उसको प्रेम बोलते हैं। प्रेम नहीं है।

ज्ञान माने क्या? कि सुन ली ऐसी बात जो अहंकार के लिए ज़हर बराबर है और झेल भी गए बिना प्रतिकार करे। ये एक ऐसी बात कान में पड़ जाए तो बिदकना और बिलखना शुरू कर देते हो। दम कहाँ होता है हममें! दम तो उसमें होता है न, जो सच को झेल सके, हमसे सच झेला जाता है क्या? उस दिन हम कह रहे थे, ये नीत्शे का अंदाज़ था बोलने का, बोले आदमी में दम कितना है ये देखना है तो बस ये देख लो कि उससे सच कितना झेला जाता है।

और तीसरी चीज़ चुनौती। वो चुनौती शारीरिक हो सकती है, मानसिक हो सकती है या कैसी भी हो सकती है। कौन सी ऐसी चुनौती उठाई जो थी आपे के बाहर की, औकात के बाहर की? और चुनौती उठाने का मतलब ये नहीं है कि पार ही लग गए। उठाओ तो, करो तो, घिसट-घिसटकर करो तो, अपनी सामर्थ्य की हद तक, आखिरी बूँद तक करो तो। (एक श्रोता टिककर बैठे थे) गिरो तो नहीं बोला है, बैठ जाओ सीधे।

आ रही है बात समझ में?

जिसकी ज़िंदगी में कुल हिसाब दो और दो चार से आगे कभी गया ही नहीं, वो सुपर कम्प्यूटर का क्या करेगा? या कुछ करेगा? बड़ा हिसाब लगाओ तो, फिर बड़ा कम्प्यूटर भी प्यारा लगेगा, इसकी इज्ज़त करना सीखोगे। अभी तो हमारा जो हिसाब है वो इन उँगलियों पर हो जाता है। तो कम्प्यूटर सामने आता भी है तो हमें लगता है, बेकार ही है, क्या करना है इसका!

मुझे अच्छा लगता है, मैं कम्युनिटी पर पढ़ता हूँ। हमारी जब यात्रा शुरू हुई थी तो बहुत बड़ी संख्या थी लोगों की जो बोलते थे कि हम गीता सत्र के दिन महीने में पाँच दिन कहीं और चले जाते हैं, छुपकर देखते हैं। किसी का आता था कि कोहरा पड़ रहा है खूब, जनवरी वगैरह का महीना है और वो ठंड में बाहर कम्बल डालकर के घूम रहे हैं और वहाँ से अपना रिफ्लेक्शन (अवलोकन) भी बता रहे हैं। वो सब हुआ करता था। अब ऐसा कम होता है।

और कुछ लोग आते हैं जो कहते हैं, मैं ही वो था जो घर वालों के डर से बाहर कम्बल डालकर घूमता था और आज आपको मैं कुछ दिखाना चाहता हूँ, और फिर वो ज़ूम आउट करते हैं फ्रेम को और वहाँ उनका पूरा घर बैठा होता है। मैं कहता हूँ, ‘चलो कुछ तरक्की हो तो रही है।‘ वैसे तरक्की का जिसका इरादा हो, उसे श्री कृष्ण से खुदबखुद प्यार हो जाएगा। और अगर कृष्ण से आपको प्यार नहीं हो रहा है तो इसका मतलब ये है कि आपको कृष्ण जैसी अनंतता चाहिए ही नहीं। जिसको गिलास के अंदर जीना है, सागर उसके लिए सिरदर्द है बस। आपको एक चुनौती दे रहा हूँ, ठीक है? या इसको प्रयोग समझ लो। कुछ भी ज़िंदगी में ऐसा करो जो बूते से बाहर का है और फिर देखना कि कृष्ण से प्यार हो जाता है कि नहीं हो जाता। जब कुछ बूते से बाहर का उठाओगे तो दोनों बातें होंगी। जिनसे अभी प्यार में पड़े हो, वो शरीर पर जमी रेत की तरह झड़ जाएँगे और कृष्णों और बुद्धों से प्रेम हो जाएगा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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