आचार्य प्रशांत: बोली ठोली मसखरी, हँसी खेल हराम मद माया और इस्तरी, नाहिं सन्तन के काम।। ~ कबीर साहब
जब यहाँ पर कबीर कह रहे हैं, “बोली ठोली मसखरी, हँसी खेल हराम”, तो इसमें ऐसा लग सकता है जैसे कबीर बोलने के और मसखरी के विरुद्ध कुछ कह रहे हैं। पर जब आप इसको उस पहले दोहे से जोड़कर देखेंगे,
“कबीरा ये गत अटपटी, चटपट लखी न जाय। जब मन की खटपट मिटे, अधर भया ठहराय।।”
तो ये बिलकुल साफ़ हो जाना है कि बोलना अपनेआप में बीमारी नहीं, बीमारी का लक्षण है। बीमारी मन में है। एक असन्तोष है, एक अनुपस्थिति है, कुछ अनभिव्यक्त रह गया है। जीवन आत्मा की अभिव्यक्ति नहीं बन पाया है।
जब आत्मा जीवन से अभिव्यक्त नहीं होती तो होंठ अनर्गल ही कुछ-न-कुछ अभिव्यक्त करने लग जाते हैं। जब आपको जो कहना है, वो आप अपने जीवन के ही माध्यम से कह रहे होते हो तो शब्दों की कोई विशेष ज़रूरत बचती नहीं है। पर जब आपका जीवन अभिव्यक्ति से खाली होता है, तब शब्द बड़े महत्वपूर्ण हो जाते हैं। जब करने में अन्तस की धार नहीं होती तब शब्द बटोरने पड़ते हैं, कहना ख़ूब पड़ता है।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, क्या आपके कहने का मतलब ये है कि हम ख़ुद को अच्छे तरीक़े से एक्सप्रेस (अभिव्यक्त) नहीं कर पाते?
आचार्य: जब जीवन आत्मा की अभिव्यक्ति नहीं होता, तब एक नक़ली, वैकल्पिक अभिव्यक्ति की ज़रूरत पड़ती है। अगर मैं जी ही रहा हूँ सत्य को, स्वयं को, आत्म को, तो बोल-बोलकर क्या करना है ख़ास? साँस-साँस से कहा जा रहा है, होंठ क्यों हिलाने हैं बहुत?
चलते हैं, फिरते हैं, हाथ-पाँव, पूरा शरीर, एक-एक क्षण हम ज़ोर-ज़ोर से अपनी कहानी कह रहे हैं, शब्दों की क्या आवश्यकता है? हमारी हर निगाह हमारी कहानी बयान कर रही है, शब्दों का क्या करना है? बोलना क्यों है बहुत? बोलना तब पड़ता है जब तुम जी नहीं रहे होते हो अपनेआप को। तब शब्द एक सस्ता विकल्प बनकर तुम्हारे पास आते हैं।
शब्दों की प्रचुरता इसी बात का संकेत है कि जीवन में बड़ी कमी है। कोई सूनापन है, कोई खोज है, कोई दर्द है, घुटन है। जैसे कि कोई पीड़ा हो और कोई मिलता हो तो तुम तुरन्त उसको बताना शुरू कर दो। तुम स्वस्थ हो, तुम्हारे सामने जो है वो भी स्वस्थ है, तो दोनों मिलकर के क्या आदान-प्रदान करोगे शब्दों का? क्या कहने को है और क्या सुनने को है?
प्र: कबीर साहब का दोहा है न, “ज्ञानी को ज्ञानी मिलै, शब्द की लूटम लूट।
आचार्य: रस की लूटम-लूट, शब्द की लूटम-लूट नहीं है।
“ज्ञानी को ज्ञानी मिलै, रस की लूटम लूट। ज्ञानी अज्ञानी मिलै, हौवे माथा कूट।।”
"ज्ञानी को ज्ञानी मिले, रस की लूटम-लूट", बेशक। हाँ, "ज्ञानी को अज्ञानी मिले, होवे माथा कूट", वहाँ ज़रूर ख़ूब शब्द चलते होंगे। वहाँ ज़बरदस्त शब्द चलते होंगे। पर जानने वाला जानने वाले के सामने बैठा है, क्या बात करेगा विशेष? ऐसा नहीं कि वहाँ पर कुछ कहा-सुना जा नहीं रहा है, पर जो कहा-सुना जाना है, वो जीवन के माध्यम से हो रहा है।
याद रखिएगा, शब्द संकेत भर हैं, जीवन असली है। और अक्सर जिनके पास असली जीवन नहीं होता, उनके पास शब्द बहुत होते हैं। जो असली था वो तो मिल नहीं पाया, तो संकेतों से भर लो जीवन को। जैसे कि व्यक्ति चला गया हो और तुमने उसकी याद में अपने कमरे को उसके चित्रों से भर लिया हो, उसके संकेतों से भर लिया हो।
जब तुम्हारा प्रेमी तुम्हारे सामने होता है, तब क्या उसकी तस्वीर के सामने जाकर के प्रेम व्यक्त करते हो और चुम्बन लेते हो? अगर तस्वीरों की बहुत जगह है जीवन में तो इसका अर्थ एक ही है — प्रेमी बिछड़ा हुआ है; नहीं तो क्या करोगे तस्वीरों का?
शब्द क्या हैं? सिर्फ़ संकेत, जैसे तस्वीरें। वो असली चीज़ नहीं है। वो असली चीज़ है ही नहीं। अभी भी तुमसे बोल रहा हूँ तो अगर शब्द पकड़ रहे हो तो तस्वीरें पकड़ रहे हो। और कोई ही होगा जो शब्दों से हटकर के भी कुछ और पकड़ रहा होगा। और कुछ ऐसे होंगे जो शब्द भी नहीं पकड़ रहे होंगे। वो भले हैं। कम-से-कम उन्हें ग़लत-फ़हमी तो नहीं होगी कि कुछ मिल गया।
तो इसलिए कह रहे हैं कबीर, "बोली ठोली मसखरी।" सन्त बहुत वाचाल नहीं मिलेगा आपको, कभी नहीं मिलेगा। इसलिए नहीं कि उसने आचरण में ये बात डाल ली है कि कम बोलना है। उसने अभ्यास नहीं करा है कि कम बोलो, कम बोलो, कम बोलो। उसे बोलने की आवश्यकता अनुभव ही नहीं होती। जिस क्षण होगी, ख़ूब बोल लेगा, पर नहीं होती तो नहीं होती, अब क्या ज़बरदस्ती बोले? ऐसा नहीं है कि उसे बोलने में कोई बाधा है, ऐसा नहीं है कि बोलने की शक्ति उसके पास नहीं, या शब्दों का संग्रह उसके पास नहीं, वो बोलना चाहेगा तो ख़ूब बोलेगा।
दुनिया में आज तक जिन्होंने भी कुछ सारगर्भित बोला है, सन्तों ने ही बोला है। और किसका लिखा हम पढ़ सकते हैं! जो कुछ भी श्रेष्ठतम कहा गया है, वो सन्तों की ही बोली रही है। और याद रखिएगा सन्तों ने लिखा कम है, बोला ही ज़्यादा है। वो तभी बोलते हैं जब बोलने का कोई सार हो। जब बोल जीवन से निकले, तभी बोलेंगे, अन्यथा उन्हें कोई शौक़ नहीं बोलने का। वो घंटों, दिनों, महीनों मौन रह सकते हैं।
बात आ रही है समझ में?
प्र: लेकिन इसका अर्थ ये तो नहीं कि जो बोलता नहीं, वो. . .
आचार्य: नहीं, आचरण से तो आप कुछ भी ले लीजिए, उसका कोई अर्थ नहीं है। उनका मुँह नहीं चल रहा है, मन चल रहा है। सिर्फ़ ज़बान पर ताला लगा लेने से आप सन्त नहीं हो जाते, कि कोई कम बोलता है तो सन्त हो गया। किसी ने कहा है कि यू कैन रिमेन साइलेंट एंड लेट् अदर्स वंडर वेदर यू आर एन इडियट ऑर यू कैन स्पीक एंड रिमूव ऑल द डाउट (आप चुप रहकर सबको इस संदेह में रख सकते हैं कि आप मूर्ख हैं या नहीं, या फिर आप बोल कर उनका सारा संदेह दूर कर सकते हैं)।
तो कई बार जो बहुत चुप्पे होते हैं वो इसीलिए होते हैं कि जब तक चुप हैं तब तक कम-से-कम पोल नहीं खुली है। सन्त ऐसे नहीं चुप रहता।
सन्त ऐसे नहीं चुप है कि जब ज़रूरत है तब भी उसके मुँह से बोल नहीं फूट रहे हैं, जब ज़रूरत है तो बोलेगा और ख़ूब बोलेगा, पर उसे बोलने की बीमारी नहीं है। जब ज़रूरत होगी तो ख़ूब बोलेगा। वो ऐसे नहीं चुप रहेगा कि घड़ी आ गयी है जब कहो कुछ, और तुम्हारे बोल नहीं फूट रहे। ऐसा नहीं होगा वो।
प्र: सर, ऐसा तो नहीं कि सन्त ने जब अपनेआप को एकदम मौन कर दिया, स्रोत के लगभग बराबर हो गया है, तो उसके लिए अब कुछ बोलने का कोई अर्थ नहीं रह जाता?
आचार्य: नहीं, देखिए जब तक सन्त है और सशरीर है, तब तक विचार भी है। ठीक है? निर्विचार का अर्थ इतना ही है कि उसके जितने विचार हैं वो सब सधे हुए हैं। निर्विचार का अर्थ ये नहीं है कि सन्त कभी कुछ सोचता ही नहीं। कबीर हज़ार बार कहते हैं, “सन्तों करो विचार, साधु करो विचार।”
कबीर ख़ुद कह रहे हैं, ‘विचार करो’, पर तुम्हारा विचार सतोगुणी हो, तुम्हारा विचार साफ़ हो। तुम्हारा विचार ऐसा हो जो तुम्हें तुम तक लाता हो। तुम्हारा विचार ऐसा हो जो स्वयं भी अपने ही स्रोत में विगलित हो जाने के लिए तैयार हो। तुम्हारा विचार ऐसा न हो जैसे जंगली झाड़ जो फैलते-फैलते और फैलने के लिए तैयार हैं और उस पर काँटे-ही-काँटे लगे हुए हैं, ऐसा न हो तुम्हारा विचार।
तो सन्त वो नहीं है जिसको संसार दिखायी ही नहीं देता। सन्त वो नहीं है कि जिसको कोई विचार ही नहीं उठता, कि निर्विचार हो गया है। सन्त को भी संसार दिखायी देता है। सन्त भी विचार करता है, लेकिन सन्त का विचार सधा हुआ है, आत्म केन्द्रित है। और सन्त जब संसार को देखता है तो उसमें भी उसे सत्य ही दिखायी देता है, स्रोत ही दिखायी देता है। इतना ही अन्तर है, और कुछ नहीं है। दृष्टि में अन्तर है।
प्र: अगर एक बार स्रोत दिखने लगे सन्त को, तो उसके बाद भी उसे विचार आएँगे?
आचार्य: क्यों नहीं आएँगे बेटा! काहे में स्रोत दिखेगा? किसमें स्रोत दिखेगा? किसमें दिखेगा? आँखें हैं न, आँखें तो अपनी भौतिक, रासायनिक प्रक्रिया करेंगी-ही-करेंगी। मन में ही आएँगे न विचार? मन में ही उदय हो रहा है न उस छवि का जिसमें स्रोत दिखता है? दीवार में दिख रहा है, इंसान में दिख रहा है, जानवर में दिख रहा है। दीवार, इंसान और जानवर कहाँ से आये?
प्र: पिछली बार आपने बोला था कि कोई भी विचार ईगो (अहंकार) है, थॉट इज़ ईगो (विचार ही अहंकार है), तो उस हिसाब से तो…
आचार्य: तो क्या समस्या है अगर ईगो है तो?
प्र: सन्त को तो ईगो नहीं होना चाहिए।
आचार्य: और ये किसने तय किया?
प्र: सर, अभी तक तो मुझे यही समझ आया था।
आचार्य: सन्त को अहंकार नहीं होना चाहिए, तुम्हारे जैसा अहंकार। सन्त को तुम्हारे जैसा अहंकार नहीं होना चाहिए। सन्त का अहंकार ऐसा है कि जैसे किसी दास का होता है या किसी प्रेमी का होता है। सन्त को कहते हैं कि वो या तो कान्ता भक्ति करता है या दास भक्ति करता है। दास भक्ति मतलब मेरा अहंकार उसके पाँव में पड़ा हुआ है। है तो, पर उसके पाँव में पड़ा हुआ है। और कान्ता भक्ति का अर्थ हुआ कि मेरा अहंकार उसके बिलकुल निकट जाकर के उससे गले लगा हुआ है; है तो।
अहंकार वहाँ भी है, पर हमारे जैसा अहंकार नहीं है।
प्र: इतना समझ में आ रहा है कि सन्त तो है अभी भी सेपरेशन (अलगाव) में ही। दो तो दिख ही रहा है।
आचार्य: अब वो मर्ज़ी है आप कैसे देख रहे हो — दो देख रहे हो कि एक देख रहे हो। वो इस पर निर्भर करता है कि आप क्या अनुभव करते हो जब गले मिले हुए हो, कितनी प्रगाढ़ता से गले मिले हो, कि अभी दो का ही अनुभव हो रहा है या एक का अनुभव हो गया। निर्भर करता है।
निर्भर करता है कि आप किस हद तक अपनेआप को दास मानते हो। यदि मेरा अपना कुछ हो ही न मेरे करने में और मैं बस वही-वही करता हूँ जो मालिक कहता है, तो मैं कहाँ से कुछ हूँ? मैं साँस भी तब लेता हूँ जब मालिक बोलता है। एक-एक क़दम मेरा तभी बढ़ता है जब मालिक कहेगा, तो मैं कहाँ से कुछ हूँ? काहे का सेपरेशन (अलगाव)? सेपरेशन तो तब जब मेरा अपना कुछ हो, जब मेरा अलग कुछ हो। अगर दासता पूरी है तो फिर उसमें वियोग कहाँ है!
प्र: सर, इसे कह सकते हैं कि थॉट्स तो हैं पर थॉट्स का कोई क्रेडिट (श्रेय) लेने वाला नहीं है, मन समर्पित है पूरी तरह?
आचार्य: उसको कह जैसे भी लीजिए। ये कोई बहुत अच्छा तरीक़ा नहीं है कहने का कि थॉट का क्रेडिट लेने वाला कोई नहीं है, क्योंकि आमतौर पर थॉट का क्रेडिट तो वैसे भी हममें से कोई नहीं लेता। ये तो जानी-समझी बात है कि मेरा विचार है। सवाल ये नहीं है कि क्रेडिट ले रहे हैं कि नहीं, सवाल ये है कि विचार ही कैसा उठ रहा है।
विचार उठेगा, अभी यहाँ पर लाकर के कुछ रख दिया जाए, कोई भी चीज़, वस्तु, ऑब्जेक्ट , तो विचार यहाँ जितने बैठे हैं सबके मन में उठेगा। सवाल ये है कि कैसा विचार उठा। यही अन्तर है एक सन्त में और एक असन्त में, उनके विचारों की गुणवत्ता ही अलग-अलग होती है। निर्विचार मत बोलिए, उनके विचारों की गुणवत्ता बहुत अलग-अलग होती है। एक ही वस्तु को देखकर, एक ही स्थिति में होकर, उनको बहुत अलग विचार आएगा, वो सन्त है।
आप बात करते हैं न कि विचारों को काबू कैसे किया जाए, काबू नहीं करना है, उसका तत्व बदलना है, उसकी सफ़ाई करनी है। आप पूछते हैं कि जब वासना उठे तब उसे कैसे दबा दूँ। उठ गयी तो दबाने की बात बेकार है। मन ऐसा हो कि उसमें वासना उठे ही न। उसी को अभी हम कह रहे थे कि बंजर मन, उसमें व्यर्थ की चीज़ें उगती ही नहीं हैं। आप कहते हैं, ‘क्रोध आ रहा है’, आ गया है, बहुत ज़ोर से लालच आ गया है। अब लालच आ गया है, आ गया है, अब क्या करोगे? अब लड़ो, और क्या करोगे? व्यर्थ ही।
मन ऐसा रहे कि उसमें आये ही न लालच। वो है सन्त का मन। वो भी देखता है, संसार है उसके चारों ओर फैला हुआ, पर उसके जो विचार उठते हैं वो आम विचारों से बहुत अलग हैं। वो भी सुनता है, वो भी यहाँ मौजूद हो तो यही शब्द उसके कान में पड़ेंगे, पर उसके भीतर से जो रिस्पोन्स (प्रतिक्रिया) उठेगा वो आपके रिस्पोन्स से बहुत अलग होगा। बस यही अन्तर है। रिस्पोन्स कैसा है, उसको देखिए। मन की ज़मीन कैसी है, उसमें क्या उगता है, उसको देखिए।
भाई, आम किसान की ज़मीन पर भी अगर बहुत समय तक ज़हर डाला जाए, कीटनाशक और इस तरह की चीज़ें, तो फिर उसमें जो फसलें भी उगती हैं वो भी ज़हरीली होती हैं। आपने अपने मन की ज़मीन की सिंचाई किन चीज़ों से करी है, वैसा ही अब उसमें विचार उगेगा। तो ये बार-बार मत पूछिए कि मेरे मन में ज़हरीले विचार क्यों उठते हैं, ये देखिए कि आप अपने मन की सिंचाई किन चीज़ों से करते हैं, आप अपने मन को क्या पोषण, क्या खुराक देते रहते हैं दिन-रात। जो खुराक देते हैं, वैसे ही विचार उठेंगे।
मन को ऐसा बनाना है कि उसमें आत्म से दूर ले जाने वाला विचार उठे ही न। और जब उठे तब कुछ करने की कोशिश मत करिए, तब कुछ हो ही नहीं सकता। अब नहीं कुछ हो पाएगा। अब तो बस ये कर सकते हैं कि जान लें कि उठ रहा है, देख लीजिए कि उठ रहा है। साक्षी हो जाइए, ऑब्ज़र्व कर लीजिए, अब और कुछ नहीं सम्भव है। अब तो जो अनहोनी थी, वो हो गयी। क्रोध आ गया, अब क्या करोगे? अब बस सबक ले सकते हो। ये बस एक संकेत है, क्या संकेत है? बार-बार क्रोध का आना, बार-बार लालच का आना संकेत है। मन में अगर बहुत असुरक्षा रहती है, जलन की भावना रहती है, तो वो एक संकेत है, क्या संकेत है? कि मन को बहुत ग़लत आहार दिया गया है।
प्र: सर, ऐसे अपने इमोशन्स (भावनाओं) को रिडिक्यूल (उपहास) करना सही रहेगा क्या?
आचार्य: मत करो रिडिक्यूल। तुम उनकी स्तुति गाओ, उनकी तारीफ़ें, आरती गाओ। बात यहाँ पर रिडिक्यूल करने की नहीं है। जो तुम्हें भाव उठ रहा है, उससे तुम्हें ही तो कष्ट है न। तुम अपने कष्ट को रिडिक्यूल नहीं करना चाहते, तुम्हारी मर्ज़ी। तुम्हें अपने कष्ट में बड़ा सुख है तो तुम्हारी मर्ज़ी। तुम्हें लालच उठता है, तुम्हें जलन उठती है, तुम्हारा अंग-अंग जल उठता है, तुम्हें ईर्ष्या उठती है, तुम्हें वासनाएँ उठती हैं, इससे तुम्हें बड़ा सन्तोष मिलता है? बड़ी ख़ुशी मिलती है?
प्र: सर, सेल्फ एक्सेप्टेंस (आत्म स्वीकृति) अगर है?
आचार्य: शाबाश! सेल्फ एक्टेक्सेप्टेंस का मतलब ये है कि जब काम वासना उठे तो उसको बोलो, ‘शाबाश!’ (व्यंग्य करते हैं)
प्र: सर, ये एडमिट (स्वीकार) तो करना ही पड़ेगा।
आचार्य: एडमिट तो कर ही रहे हो। तुम्हारा पोर-पोर जल रहा है, और क्या एडमिट करोगे? तुम तो न बोल भी दो, तो भी तुमने स्वीकार तो कर ही लिया। अब वो उठी है, अब तुम्हारे अस्वीकार से भी क्या होगा? अब तो तुम उससे लड़ भी लो तो क्या होगा? अब कुछ नहीं हो सकता। अब तो तुम स्वीकार करो कि अस्वीकार करो, कुछ नहीं हो सकता। अब तो जो तुम्हारे सामने आया है वो बस करतूत का फल है। अब उस फल से लड़ोगे क्या?
“करता था तो क्यों करा, अब करी क्यों पछताय। बोया पेड़ बबूल का, आम कहाँ से खाय।।” ~कबीर साहब
क्रोध अगर आ रहा है तो अब इस क्षण क्या करोगे? इतना ही कर सकते हो अधिक-से-अधिक कि उसको और हवा न दो। पर आया है, ये अपनेआप में इस बात का संकेत है कि तुम्हारी व्यवस्था में, तुम्हारे तंत्र में कुछ दुर्गुण मौजूद हैं।
तुम्हारी गाड़ी गर्म हो रही है, अब क्या करोगे? अब तो अधिक-से-अधिक इतना कर सकते हो कि और उसको आगे न बढ़ाओ, और उसकी गति न बढ़ाओ ताकि वो और गर्म न हो जाए। पर तुम बोलो ’आइ एम जस्ट एक्सेप्टिंग दैट माइ व्हीकल गेट्स ओवरहीटेड’ (मैं मान रहा हूँ कि मेरी गाड़ी गर्म हो जाती है), अरे एक्सेप्टेंस का क्या मतलब है! जानो, अब ये एक संकेत है।
प्र: सर, एक्सेप्टेंस यानी कि गाड़ी रोक दी।
आचार्य: तुम्हारे सामने कोई विकल्प है? नहीं रोकोगे तो अपनेआप रुकेगी। गर्म गाड़ी कितनी देर तक खींचोगे? तुम नहीं रोकोगे तो अपनेआप रुकेगी। पर जो ज़्यादा बड़ी बात है वो ये है कि अभी मैं कुछ भी कर लूँ उससे कुछ होना-जाना नहीं है। अगर मैं होशियार हूँ तो मैं ये समझूँगा कि मेरे इंजन में ही ख़राबी है। मैं ये नहीं कहूँगा कि अभी मैंने कोई सस्ता उपाय कर लिया कि बोनट खोलो, पानी डालो और गाड़ी आगे बढ़ाओ।
अभी के सस्ते उपाय मुझे बहुत दूर नहीं ले जा पाएँगे। पर हम सस्ते उपायों में बड़े उत्सुक रहते हैं। हम लोगों के पास जाते हैं और कहते हैं — गुस्सा बहुत आता है, कोई उपाय बता दीजिए, कोई गोली बता दीजिए। और आपको जब इस तरह की गोली दी जाती है कि जब गुस्सा बहुत आये तो ठंडा पानी पी लेना, जब गुस्सा बहुत आये तो दस से लेकर एक तक उल्टी गिनती गिन लेना, तो आप बहुत ख़ुश हो जाते हैं। ये बेवकूफ़ी की बातें हैं।
गाड़ी अगर गर्म होती है बार-बार तो इसका मतलब कोई गहरी गड़बड़ है उसकी व्यवस्था में, उसके तंत्र में, उसके इंजन में; ठीक कराओ। देखो, कहाँ क्या फँसा हुआ है। मूलभूत रूप से कुछ ग़लत है, उसको ठीक करो।
प्र: सर, पिछले लेक्चर में आपने बोला कि अगर ग्रेस (अनुकंपा) पानी है तो कुछ भी करना छोड़ दो।
आचार्य: ये जो गाड़ी है, इसमें जो अंदर फँसा है, वो वही है जो तुम करे जा रहे हो। गाड़ी का गर्म होना इस बात का संकेत है कि तुम मन को उल्टा-पुल्टा दिये जा रहे हो, ये तुम्हारा ही करना है। गाड़ी का गर्म होना, तुम्हारे बहुत कुछ करने का ही प्रमाण है। तुम ख़ूब कर रहे हो इसी कारण तो गर्म हो रही है। तुम्हारी व्यवस्था तुम्हें संकेत दे रही है कि ख़ूब कर रहे हो। देखो क्या-क्या कर रहे हो और जो कर रहे हो उसको करना छोड़ो, कुछ नया करने की बात नहीं है।
कहते हैं कबीर, "हँसूँ तो राम रिसाय", यहाँ पर भी यही कह रहे हैं, "हँसी, खेल, हराम”। क्यों कह रहे हैं? ये हँसने से कबीर को इतनी क्या दुश्मनी है? और एक दूसरा प्रश्न भी आपसे पूछूँगा — लीला में और खेल में क्या अन्तर है? कबीर कह रहे हैं, 'खेल सन्तों के लिए हराम है, पर लीला में सन्त बड़ा आनन्द पाता है।' तो दो बातें हैं, एक तो हँसी का बताइए, दूसरा लीला का। और व्यर्थ के तुक्के मत मारिएगा। कुछ समझ में आ रहा हो, तो ही बोलिए।
प्र: खेल में एक लक्ष्य होता है, हम कंपीट (स्पर्धा) कर रहे होते हैं और लीला में हम फ्लो (बह) कर रहे होते हैं, जैसा हो रहा है हुए जा रहा है यानी कि इसमें कोई एफर्ट (प्रयास) नहीं जा रहा है, खेल में हम कॉन्शियस एफर्ट (सचेतन प्रयास) लगाते रहते हैं।
आचार्य वही दोनों बातें जो कहीं, उन्हीं को पकड़ लो। पहला, खेल में लक्ष्य है, तो जीतने के लिए खेल रहे हो। दूसरा, जब जीतना है तो प्रतिस्पर्धा आएगी-ही-आएगी। ठीक है? तीसरा, खेल में विरोध होना पक्का है। आदमी ने जितने भी खेल बनाये हैं, वो खेले ही नहीं जा सकते अगर उसमें विरोध नहीं है। तुम्हें कोई चाहिए जो तुम्हारा विरोध करे। वहाँ मित्रता नहीं हो सकती, प्रेम नहीं हो सकता, वहाँ विरोध आवश्यक है।
हमारे सारे ही खेल हिंसात्मक हैं, हमारे सारे ही खेलों के अन्त में किसी का हारना ज़रूरी है। हमारे सारे ही खेलों में एक समय सीमा निर्धारित होती है और नियम निर्धारित होते हैं। लीला में ऐसा कुछ भी नहीं होता। लीला में न नियम है, न समय सीमा है, न कोई शत्रु है, न प्रतिस्पर्धा है, न हिंसा है।
बात समझ रहे हो?
सन्त को खेलने में कोई रुचि नहीं है, पर लीला में बड़ी मौज है उसकी। उसके लिए सब लीला है। तुम उसे खेलने के लिए उत्तेजित करोगे, वो मानेगा नहीं या वो अगर खेलेगा भी तो ऐसे जैसे लीला। तुम ख़ूब कोशिश करोगे कि वो किसी तरीक़े से तुमसे रेस सी करे, तुम्हें अपना प्रतियोगी मान ले, वो ऐसा करेगा ही नहीं।
प्र: सर, खेल को भी तो लीला की तरह करा जा सकता है?
आचार्य करा सब जा सकता है। पर क्या है कि हमने उसकी रचना ही ऐसे करी है कि उसमें हिंसा मूलभूत रूप से रहे। जब कृष्ण खेलते हैं गोपियों के साथ तो वो लीला ही है, पर वहाँ हिंसा नहीं है। या छोटे बच्चों को भी खेलते हुए देखना, जब छोटे बच्चे खेलते हैं तो इस तरीक़े से खेलते हैं कि खेल लम्बे-से-लम्बे समय तक चले। उनका खेल जितने लम्बे समय तक चला, उन्हें उतना आनन्द। और आपको गर्व इस बात में होता है कि मैंने सिर्फ़ दो मिनट में कुश्ती जीत ली।
आप चाहते हो कि खेल को ख़त्म कर दो और छोटे बच्चे चाहते हैं कि खेल चलता रहे। उनका खेल यदि दो ही मिनट में समाप्त हो जाए — वो भी कुश्ती लड़ते हैं, छोटे बच्चों को देखना, वो लड़ रहे हैं कुश्ती, पर उनकी कुश्ती यदि दो ही मिनट में ख़त्म हो गयी तो उन्हें अफ़सोस हो जाएगा। कहेंगे, ‘ये क्या हो गया!’ तुम यदि कुश्ती दो मिनट में जीत जाते हो तो तुम कहते हो, ‘ये विश्व रिकॉर्ड हो गया, अब मेरा ख़ूब नाम होगा, दो मिनट में चित्त कर दिया।’ ये अन्तर है।
प्र: सर, लीला को हम मौज कह सकते हैं?
आचार्य लीला मौज है। जो कुछ भी निरुद्देश्य है सो ही लीला है। यही लीला की परिभाषा है। जो कुछ भी अकारण है, अकारण का अर्थ ‘पीछे से उसका कुछ नहीं’, और जो कुछ भी निरुद्देश्य है, निरुद्देश्य से मतलब ‘आगे उसका कुछ नहीं’। जिसका न कोई आगा है न पीछा है, बस वर्तमान है, सो लीला है। जिसका न कोई कारण है, पीछे उसका कोई नहीं, कोई उसका माँ-बाप नहीं और जिसका न कोई उद्देश्य है, जिसका कोई बेटा नहीं, खानदान नहीं है आगे, सो लीला। निश्चित सी बात है, वो पागलपन जैसी लगेगी।
इसी में 'हँसी खेल हराम’।
प्र: सर, सामान्यतया हँसी जो होती है, किसी स्पेसिफ़िक (विशेष) चीज़ को लेकर के एक रिएक्शन (प्रतिक्रिया) हमारे अन्दर उठता है, उसको देखकर के कि अच्छा, ऐसा हो रहा है तो हँसना होता है, उस हँसी की बात हो रही है?
आचार्य आमतौर पर आप हँसते ही इसीलिए हो क्योंकि कुछ अच्छा लग रहा है, और किसे अच्छा लग रहा है?
प्र: मन को।
आचार्य और इसी कारण अलग-अलग लोग, अलग-अलग बातों पर हँसते हैं। इसी कारण आप किसी बात पर हँसते हैं और किसी बात पर नहीं हँसते। रोना जितनी बड़ी व्याधि है, हँसना उतनी ही बड़ी, उससे ज़्यादा बड़ी व्याधि है। कबीर रोने के लिए भी मना करते हैं, पर रोने से कहीं ज़्यादा हँसने के लिए मना करते हैं। अहंकार दोनों में ही बल पाता है, रोने में और हँसने में, पर आकर्षित वो हँसने की तरफ़ होता है। बल वो दोनों में पाता है पर आकर्षित हँसने की तरफ़ होता है।
प्र: उस तरह मज़बूती मिलती है?
आचार्य दोनों से मिलती है — रोने से भी और हँसने से भी — पर आकर्षित वो हँसने की तरफ़ होता है। जाएगा हँसने की तरफ़, तभी तो रोएगा। कौन रोया है आज तक? जो ख़ूब हँसा है, वही तो रोया है। उसके अलावा कौन रोया है?
प्र: सर, ये इस पर भी तो निर्भर करता है न कि हँसा किस समझ से जा रहा है?
आचार्य आप किस समझ पर हँसते हैं? तो इधर-उधर की काल्पनिक बातें मत करिए, अपने जीवन को देखिए, अपने आसपास को देखिए। कैसा आपने अपनेआप को और दूसरों को हँसते हुए देखा है और कैसा उन्हें रोते हुए देखा है?
प्र: बच्चा पैदा हुआ तो हँसी हुई, मर गया तो रोना।
आचार्य हाँ, बात सीधी है। उसमें इधर-उधर का हम अड़ंगा क्यों जोड़ते हैं फ़ालतू? उससे इतना ही होता है कि मन को भागने के बहाने मिल जाते हैं कि देखो हम हँस तो रहे हैं पर हमारी हँसी न उस टाइप (क़िस्म) की नहीं, उस टाइप की है। सीधे-सीधे स्वीकार करिए कि जिन बातों से अहंकार को बड़ी तृप्ति मिलती है, जिन बातों की उसे सीख दे दी गयी है, जो बातें उसकी कंडिशनिंग (संस्कार) का हिस्सा हैं, उस पर हँस पड़ता है। और जो कुछ उसे चोट पहुँचाता है उस पर वो रो पड़ता है, बात सीधी है।
तो क्यों कहते हैं कबीर कि "हँसूँ तो राम रिसाय"? क्योंकि हँसने का अर्थ है कि मन को कुछ और प्रिय मिल गया है, उस एक के अलावा कुछ और मन को ऐसा मिल गया है जो उसे प्रिय लग रहा है। आपने एक वैकल्पिक राम ढूँढ लिया है, तो फिर जो असली राम है वो तो रिसाएगा ही, उसे तो बुरा लगेगा ही — "हँसूँ तो राम रिसाय।"
जब तुम्हें नकली में ही इतनी हँसी आ रही है तो फिर अब असली क्यों मिले तुम्हें? जब तुम्हारा अन्तर्मन इतना सस्ता और इतना हल्का है कि एक कपड़ा देखकर के और एक फ़र्नीचर देखकर के हँस उठता है, तो फिर तुम परम को पाकर क्या करोगे, तुम्हारे लिए फ़र्नीचर ही काफ़ी है।
प्र: पर यहाँ इस हँसी की बात नहीं हो रही जिससे किसी को प्लीज़ (ख़ुश) किया जा रहा है?
आचार्य हमारी सारी हँसी वही होती है जो हमारे प्लीज़ होने से निकलती है, किसी को नहीं किया जा रहा है। आपका अपना प्लेज़र ही बहुत बड़ा दुर्गुण है। आप तभी हँसते हो न जब आप प्लीज़्ड होते हो, और आप किस बात पर प्लीज़्ड होते हो? आपका अपना प्लेज़र कहाँ से आता है, सुख कहाँ से आता है? बहुत जमी-जमाई बातें हैं — देह का सुख है, समाज का सुख है, मन का सुख है, यही हैं। तो किसी और को आप प्लीज़ कर रहे हो कि नहीं, वो पीछे की बात है। आपका अपना प्लेज़र क्या है, वो देखिए, उसी से तो हँसी निकल रही है।
कोई आकर तारीफ़ कर दे, आप हँस पड़ोगे।
मद, माया और स्त्री, ये भी ठीक वही हैं — बीमारियाँ नहीं, बीमारियों के लक्षण। वो परम ख़ुद इतना बड़ा नशा है, लोगों ने उसे सुरूर कहा है, ख़ुमारी कहा है। सुरूर और ख़ुमारी से बढ़कर के वो ऐसा नशा है जो सिर पर चढ़कर बोलता है। इतना बड़ा अस्तित्वगत नशा मौजूद है और आपको किसी दूसरे नशे की ज़रूरत है तो निश्चित रूप से आप पहले वाले से कटे हुए हो।
ये वैसा ही है जैसे कि कोई हिमालय की चोटी पर बैठा हो और कहे कि मुझे एक एयर कंडीशंड (वातानुकूलित) कमरा चाहिए। ये वैसा ही है जैसे झमाझम बारिश हो रही है और कोई बिना नहाये बैठा है कि नल में पानी नहीं आ रहा। अस्तित्वगत रूप से मौजूद है तो कृत्रिम क्यों चाहिए, नकली क्यों चाहिए?
ये वैसा ही है जैसे चारों तरफ़ मज़े चल रहे हों, मौज, उत्सव, और आप मुँह लटकाकर बैठे हो; क्यों? 'मेरा एक विशेष व्यक्तिगत प्रेमी नहीं आया।' अस्तित्व आपके चारों तरफ़ नाच रहा है और आप एक अपने किसी विशेष की अनुपस्थिति का ग़म मना रहे हो! अब ये बड़ा अजीब लगेगा पर ऐसा तो होता ही है न। चारों ओर से बौछारें आ रही हैं और आप रो रहे हो, 'मेरी वाली बूँद! मेरी वाली बूँद! वो क्यों नहीं दिख रही?'
इसी तरह से माया क्या है? जब हम कानाताल में थे तो याद है न क्या कहा था कृष्ण ने? "मम् माया, मेरी माया। जिन्हें मैं उपलब्ध नहीं हो पाता हूँ, वो मेरी माया के पास पहुँच जाते हैं।”
तो माया क्या है? माया परम का विकल्प है। यहाँ भी बात वही है। माया कोई बीमारी नहीं है। आप यदि माया की ओर आकर्षित होते हैं तो इससे इतना ही पता चलता है कि जो असली है वो आपको मिला नहीं है। मधुसूदन नहीं मिले तो माया ही सही! कुछ ऐसी हालत है। असली मिल जाए तो फिर आदमी माया की ओर क्यों जाएगा?
असली का अभाव माया का आकर्षण है।
ठीक वही बात प्रकृति की ओर आकर्षित होने में भी है जिसको कह रहे हैं ‘मद, माया और स्त्री’। प्रकृतिजन्य जितने भी सुख हो सकते हैं, उनकी ओर आकर्षित हो क्यों आप? सुखों का सुख, परम सुख जिसे मिला ही हुआ है, वो और नहीं इधर-उधर देखता। जिसकी जेब में हीरे पड़े हों, वो कंकड़-पत्थर की ओर नहीं आकर्षित होता। उसने कोई नियम नहीं बाँधा है कि कंकड़-पत्थरों से मेरी दुश्मनी है। कोई दुश्मनी नहीं है, खेल लेगा उनके साथ। पर उसे अच्छे से पता है कि जो भी क़ीमती है वो तो मेरी जेब में है।
“हँसा पायो मानसरोवर, ताल तलैया क्यों डोले।” उसे ताल-तलैया से कोई दुश्मनी नहीं है। उसे क़सम नहीं खिलायी गयी है कि देखो ताल-तलैया जाओगे तो विधर्मी हो जाओगे। बस बात इतनी सी है कि मानसरोवर मिल गया है। जिसे मिल गया है, वो नहीं इधर-उधर भागता। यही उसका राज़ है बस, इसमें और कोई बड़ी बात नहीं है।