धार्मिकता का सही अर्थ: स्थान और समय का भेदभाव मिटाना

Acharya Prashant

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धार्मिकता का सही अर्थ: स्थान और समय का भेदभाव मिटाना

प्रश्नकर्ता: सब ही भूमि बनारसी, सब नीर गंगा तोय। ज्ञानी आतम राम है, जो निर्मल घट होय।। ~गुरु कबीर साहब

आचार्य जी, मेरी समझ से इस दोहे का ये अर्थ है कि ज्ञानीजन कोई भेदभाव नहीं करते। उनके लिए सिर्फ़ गंगाजल ही पवित्र नहीं होता, बल्कि हर जगह का जल पवित्र होता है। उनके लिए राम केवल अयोध्या में नहीं बसते हैं, बल्कि राम तो उनके भीतर ही बसते हैं। कृपया अर्थ स्पष्ट करें।

आचार्य प्रशांत: “सब ही भूमि बनारसी, सब नीर गंगा तोय।” ये छोटे मन की बात है कि वो किसी खास जगह को पवित्र देखता है और किसी खास जगह को गन्दा देखता है। वो हमेशा बाँटकर रखता है; बाँटना उसका काम है। दुनिया में हमेशा वो कुछ अच्छा, कुछ बुरा बनाता है; कुछ पवित्र, कुछ अपवित्र बनाता है; कुछ अपना, कुछ पराया बनाता है। ये छोटे मन का काम है — बाँटना।

सन्त का मन बाँटता नहीं है। वो फिर ये नहीं कहता कि कोई खास जगह है जिसे मन्दिर-मस्जिद बोलेंगे। उसके लिए हर जगह फिर पवित्र है। समझ रहे हो? वो ये नहीं कहेगा कि जब मन्दिर पहुँचेंगे, तभी मन में धार्मिकता उठेगी। वो जहाँ भी बैठा है, उसको लगातार सच्चाई याद है।

देखो, आदमी का मन इतना गड़बड़ होता है न कि वो धर्म के नाम पर भी अपनी ही सुविधा चलाता है। उदाहरण लो। तुम बोलते हो कि हर धर्म में होता है — हिन्दू और मुसलमानों में — कि जब पूजा के लिए जाओ, जब दुआ के लिए जाओ तो साफ़ होकर जाओ। गन्दे होकर जाने को ठीक नहीं मानते। तुम कबीर साहब से पूछोगे तो कबीर हँस देंगे। कबीर कहेंगे कि वज़ू (नमाज़ पढ़ने से पहले हाथ-पैर धोना) क्या सिर्फ़ नमाज़ के समय किया जाए, और स्नान क्या सिर्फ़ मन्दिर के लिए किया जाए।

वो क्या कहेंगे? कबीर साहब क्या कहेंगे?

प्र: वज़ू क्या सिर्फ़ नमाज़ के लिए किया जाए?

आचार्य प्रशांत: तो वो क्या कहेंगे? आगे अगली बात क्या कहेंगे?

प्र: कहेंगे ही नहीं कुछ।

आचार्य प्रशांत: नहीं, वो कहेंगे, ‘बेटा! हमेशा साफ़ रहो।’ यही मत कहो कि आज मंगलवार है, आज मन्दिर जा रहे हैं तो आज ज़रा नहा लिया जाए।

नहीं समझ रहे हो बात को?

प्र: समझ रहे हैं।

आचार्य प्रशांत: इसी तरीके से तुम कहते हो कि भाई! मन्दिर में हो तो मन में उल्टे-सीधे खयाल न आये। इसका मतलब ये कि जब मन्दिर से बाहर निकलो तो?

प्र: आ सकते हैं।

आचार्य प्रशांत: फिर तो आ सकते हैं। इसलिए कबीर फिर से हँसेंगे। वो कहेंगे, ‘तुमने क्या ये एक छोटी सी जगह बना रखी है मन्दिर! मन्दिर बिलकुल बेकार जगह है, क्योंकि तुमने मन्दिर बनाकर अपनेआप को सुविधा दे दी है कि मन्दिर के बाहर तुम जो चाहो वो करो। तुम कहते हो मन्दिर भगवान का अड्डा; और मन्दिर से बाहर?

प्र: हमारा अड्डा।

आचार्य प्रशांत: शैतान का अड्डा। अगर भगवान मन्दिर में रहता है तो मन्दिर के बाहर कौन रहता है भाई? अगर मस्जिद ख़ुदा का घर है तो मस्जिद के बाहर किसका घर है?

प्र: शैतान का।

आचार्य प्रशांत: पर हमें तो ये पता था कि पूरी कायनात ख़ुदा की है।

बोलो।

प्र: जी।

आचार्य प्रशांत: पर तुम एक छोटी सी मस्जिद बना देते हो और तुम कहते हो ख़ुदा को याद करने के लिए यहाँ आना है। अगर ख़ुदा को याद मस्जिद में करना है, तो फिर तो बात पक्की हो गयी कि मस्जिद से बाहर निकलते ही ख़ुदा को?

प्र: भूल जाओ।

आचार्य प्रशांत: और क्या बिलकुल यही नहीं हो रहा है?

प्र: जी आचार्य जी।

आचार्य प्रशांत: दो उदाहरण लो। अभी नवदुर्गा बीती है। और उससे दो महीने पहले रमज़ान बीता था। तुम किसी भी हिन्दू से जाकर पूछो तो तुमको साफ़ बता देगा कि नवदुर्गा के दिनों में तो बहुत बातों का लोग खयाल रख लेते हैं — शराब नहीं पीते, माँस नहीं खाते, और कई दुर्गुणों से बचे रहते हैं। पर जिस दिन नवदुर्गा खत्म होती है, उस दिन?

प्र: सब चालू हो जाता है।

आचार्य प्रशांत: मुर्गा कन्ज़म्प्शन (भोग) बिलकुल बढ़ जाता है। जो नौ दिन किसी तरीके से अपनेआप को रोककर रखा होता है, दसवें दिन आदमी टूट पड़ता है। ठीक इसी तरीके से अगर तुम जाओ और मौलवियों से बात करो, तो तुमको बताएँगे कि जिस दिन रमज़ान खत्म होता है, उसके अगले दिन से मस्जिद में भीड़ छँट जाती है।

अब ये बात तो हमें कुछ समझ में ही नहीं आयी। ये तुम्हारी कैसी धार्मिकता थी कि तीस दिन तो तुम कहते थे कि रोज़ा है, और अल्लाह को याद कर रहे हैं, और पानी भी नहीं पी रहे हैं। और इकतीसवें दिन क्या हो गया? ईद गयी और तुम्हारी दुनिया वापस, तुम्हारे ढर्रे वापस! ऐसी बातों पर कबीर हँसते हैं। कबीर कहते हैं कि हमारे रोज़े तो...।

अब देखो न, तुम कहते हो कि गंगा पवित्र है, तो आमतौर पर हिन्दू गंगा में तेल वगैरह भी नहीं लगाते। साबुन, शैम्पू नहीं लगाएँगे। कहते हैं कि इसको गन्दा मत करो। अब ये अलग बात है कि सबसे गन्दी नदी दुनिया की वही है। लेकिन फिर भी मान्यता यही है कि गंगा को साफ़ रखना चाहिए। अगर गंगा को साफ़ रखना चाहिए तो इसका मतलब क्या ये नहीं हुआ कि बाकी जहाँ कहीं नदी मिले, पानी मिले, उसको गन्दा करने का लाइसेंस है।

जल्दी बोलो!

प्र: हाँ।

आचार्य प्रशांत: और तुमने तो यही कर दिया न! बाँट दिया दुनिया को। तो सन्त कौन? जिसका मन दुनिया को बाँटकर नहीं देखता। जो ये नहीं कहता कि इतना ख़ुदा का राज है, और बाकी शैतान का राज है। सन्त वो, जो कहता है कि लगातार हर जगह और हर समय किसका राज है? ख़ुदा का। और इंसान का मन क्या करता है? इंसान का मन कहता है, ‘एक महीना ख़ुदा का, ग्यारह महीने हमारे।’ ये तो बड़ी अच्छी डील है! भाई, एक महीना आप रख लो, ग्यारह ज़रा इधर दे देना।

नौ दिन की नौ दुर्गा आपकी, बाकी सब ज़रा इधर लाइए आप। हमें हमारे हिसाब से जीने दीजिए, इंटरफ़ेयर (दख़्ल) मत करिएगा। देखिए, आपकी नवदुर्गा जब चल रही थी तो हमने आपके हिसाब से काम किया न। अब बीत गयी अब यार! थोड़ा माफ़ करो, दरवाज़ा उधर है। जाओ, अपने मन्दिर में बैठो। मन्दिर काहे के लिए बनवाया है? तुम्हारे लिए। मन्दिर तुम्हारा घर या हमारा? तुम्हें कहाँ रहना चाहिए?

प्र: मन्दिर में।

आचार्य प्रशांत: मन्दिर के भीतर। और बाहर मत निकल आना, बताये देते हैं। इज़्ज़त करते हैं तुम्हारी, पर लिमिट में रहा करो। इतना न हम पर प्रेसर डालो कि किसी दिन इज़्ज़त तोड़ दें। मर्यादा कायम रहे तो ही ठीक है। बड़ों को बड़ों की तरह रहना चाहिए। ये सब डायलॉग सुना है कि नहीं?

प्र: हाँ।

आचार्य प्रशांत: तो ये सब डायलॉग यहीं से तो निकलकर आ रहे हैं। देखिए, आप बड़े हैं, पूजनीय हैं, पर अपने कमरे में रहा करिए। बता दीजिए, कैसा कमरा चाहिए? संगमर्मर लगवा दें, एसी लगवा दें? पर बाहर मत निकला करिए।

प्र: गेट के अन्दर रहा करिए।

आचार्य प्रशांत: गेट के अन्दर रहा करिए। आदमी ने यही किया है।

बाँटो नहीं, लगातार एक से रहो। अब बाँटने का एक तरीका ये भी है कि चार दिन कैम्प के चल रहे हैं, तो उसमें मन एक रखा है। और जिस दिन कैम्प खत्म हो, उस दिन कुछ और हो गये। ऐसे नहीं।

जो असली आदमी होगा, वो कहेगा कि अगर अब मन साफ़ हुआ है तो लगातार साफ़ रहे। ऐसा नहीं है कि जब तक रीडिंग कर रहे हैं, तब तक एक मन है, और जब रीडिंग नहीं कर रहे तो — बताना भाई, आजकल इंटरनेट पर गर्म क्या है, चार दिन मिस कर दिया। कइयों को तो याद आ गया होगा।

गये कबीर साहब, खत्म! कहाँ के कबीर साहब! वाइ-फ़ाइ..।

सन्त में और आम आदमी में यही अन्तर है। आम आदमी भगवान को याद करता है साल में चार दिन, और सन्त को सिर्फ़ भगवान ही याद रहते हैं तीन-सौ-पैंसठ दिन। बात समझ रहे हो? आम आदमी के लिए मन्दिर होता है छोटा सा, और सन्त के लिए मन्दिर है एक-एक इंच ज़मीन। बात आ रही है समझ में बेटा? आम आदमी के लिए प्रार्थना करने के समय नियत होते हैं। वो कहेगा, ‘ब्रह्म मुहूर्त में प्रार्थना करनी है, या पाँच दफ़े नमाज़ करनी है।’ और सन्त प्रार्थना कर रहा होता है?

प्र: चौबीस घंटे, तीन-सौ-पैंसठ दिन।

आचार्य प्रशांत: उसकी प्रार्थना रुकती ही नहीं। वो बाहर-बाहर कुछ भी कर रहा हो, अन्दर से ही प्रार्थना कर रहा होता है। वो दिन को बाँटता नहीं है, कि इतना समय प्रार्थना का और बाकी समय शैतान का। वो बाहर-बाहर कुछ भी कर रहा हो, भीतर से उसके दुआ ही चल रही होती है। बाहर से खा रहा है, खेल रहा है, दौड़ रहा है, मज़े भी कर रहा है, हँस रहा है, रो रहा है, पर भीतर से सज़दा है।

करते रहो बाहर जो भी करना है, भीतर सिर लगातार झुका हुआ है। भीतर से सच्चाई हमेशा याद रहे, वो न भूलें; बाकी बाहर के काम तो चलते रहेंगे। रोज़ सोओगे, रोज़ उठोगे, खाना बनाओगे, हँसोगे, बोलोगे, चलोगे; भीतर-भीतर लेकिन सफ़ाई लगातार बनी रहे।

कुछ समझ में आ रही है बात?

प्र: जी आचार्य जी।

आचार्य प्रशांत: सन्त का ये मतलब नहीं है कि जो हर समय भजन गा रहा हो। पागल मत बन जाना। बाहर से तुम्हें जो करना है, करो। कोई पाबन्दी नहीं है कि हर समय बैठकर तुमको राम नाम लेना है। कोई ऐसी पाबन्दी नहीं है। सन्त माने वो, जो हर समय सच्चाई पर कायम है; वो सन्त है।

कबीर साहब कहते हैं एक जगह पर, “न माला फेरूँ न जप करूँ, मुख से कहूँ न राम।” वो कहते हैं, ‘बाहर से तो मैं कुछ करूँगा ही नहीं। करता ही नहीं हूँ। न मैं माला फेरता हूँ, न जप करता हूँ, न मुँह से राम बोलता हूँ। मुझे नहीं करना।’

बाहर से कुछ क्यों नहीं करना मुझे?

प्र: अन्दर से याद है।

आचार्य प्रशांत: क्योंकि अन्दर से तो लगातार याद ही है न। अब बाहर से क्या प्रदर्शन करना है! जो दिल में बैठा हुआ है, उसको ज़बान पर क्या लाना!

बात समझ में आ रही है?

तुम असल में डर जाते हो। जैसे किसी ने बोला था न कि घरवालों ने गीता पढ़ते देख लिया तो परेशान हो गये। वो इसलिए, क्योंकि दुनिया के मन में सन्त की इमेज ये बनी हुई है कि वो जो किसी काम का नहीं रहा, और बैठकर भजन गा रहा है। ‘ससुरा किताब पढ़ता है! एक पैसे का काम नहीं कर सकता। उसको बोल दो कि पानी पिला दो, पानी नहीं पिलाएगा। वो कहेगा, ‘अभी तो हम ख़ुदा का नाम ले रहे हैं।’ कोई मर रहा होगा, उसको सहारा नहीं देगा। कहेगा, ‘नहीं! नहीं! अभी तो हमारा पूजा का समय है।’

सन्त ऐसा नहीं होता। सन्त वो होता है जो बाहर कुछ भी करे — तुम बाहर से इंजीनियर हो सकते हो, मैनेजर हो सकते हो, स्पोर्ट्समैन हो सकते हो, पॉलिटिशियन हो सकते हो; तुम बाहर से कुछ भी हो सकते हो, भीतर से लगातार सच्चे बने रहो।

सच्चे बने रहने का क्या मतलब है? कि आँख ऐसी हो जो झूठ को झूठ और सच को सच देख पाये। बहकावे में न आ जाओ। और सबसे बड़ा बहकावा किसी बाहर वाले का नहीं, अपने ही मन का होता है।

तो ये मत समझ लेना कि जो एक खास तरीके के कपड़े पहने, वही सन्त है; माला हाथ में लिये हो, वही सन्त है; जो दाढ़ी बढ़ाये हो, वही सन्त है। सन्त हो सकता है कि सूट-पैंट-टाई में घूमता हो, फ़्लूएंट (फ़र्राटेदार) अंग्रेज़ी बोलता हो, किसी बड़े ऑफ़िस में पाया जाए, वो भी सन्त हो सकता है। क्यों नहीं हो सकता?

अभी तुम सब यहाँ बैठे हो, ध्यान से सुन रहे हो। सच्चे मन से अगर सुन रहे हो, तो तुम सन्त ही तो हो। भले तुमने स्पोर्ट्स शूज़ पहन रखे हों, भले हम ये डिस्कशन अंग्रेज़ी में कर लें। पर अभी सब सच्चे मन से साथ बैठकर सुन रहे हैं तो सब सन्त हो। और जब तक सच्चाई के साथ हो, उस मोमेंट तक सन्त हो। और जैसे ही सच्चाई छूटेगी, फिर शैतान बन जाओगे।

आ रही है बात समझ में? शैतान आ गया है।

प्र: सर , नींद आ रही है।

आचार्य प्रशांत: ये नींद भी शैतान की बड़ी सहेली है। ये तुम पर ठीक तब आक्रमण करती है जब इसे आक्रमण नहीं करना चाहिए। वैसे तुम्हें बताऊँ, मुझे बड़ी देर से प्यास लग रही है। तुमने नींद कहा तो मुझे याद आया। और मुझे पता है कि पानी की मुझे कोई बहुत ज़रुरत नहीं है। मैं क्यों रोकूँ अपना बोलना? इतना थोड़ी प्यासा हूँ कि बेहोश हो जाऊँगा!

नहीं समझ रहे बात को?

शरीर का तो काम है बकलोली करना। कभी यहाँ खुजली होगी, कभी वो खड़ा हो जाएगा। क्या बोल रहे थे तुम उसे? रोंगटा। कब तक सुनोगे तुम इस शरीर की? कितनी सुनोगे? बोलो। कोई भी काम करने निकलोगे, परेशान ही करेगा तुम्हें। सुबह उठना है। हँ! फावड़ा उठाना है। हँ! पेड़ की तरफ़ जाना है। हँ!

क्यों? कितनी सुनें इसकी ससुरे की! और एक बार सुन ले, फिर शान्त हो जाए, ऐसा भी नहीं है। इसकी जितनी ज़्यादा सुनो, ये उतना ज़्यादा सिर चढ़ता है। मानते हो कि नहीं?

जितना इसको तुम आराम-परस्त बनाओगे, उतना ही ये होता जाएगा। और टायर-पर-टायर फिर! कतई डनलप की फ़ैक्ट्री बन गये! सिएट टायर! इसमें गैंडा आता है न, दौड़ रहा होता है। इसका मतलब समझो गैंडे का।

मूल बात क्या निकलकर आयी? हर समय, हर जगह क्या?

प्र: मन सत्य की तरफ़।

आचार्य प्रशांत: पहली बात तो जगह का बँटवारा मत करना। कभी मत कहना कि अभी तो कॉलेज में हैं, ये सब बातें तो घर की हैं। जगह मत बाँटना; और दूसरा, समय मत बाँटना। ये मत कहना कि अभी तो इंटरव्यू दे रहे हैं यार, ये कोई सन्तई का टाइम है, बाद में करेंगे। अभी तो लड़की के साथ हैं यार, अभी तो शैतान हो लेने दो, सन्तई लौटकर करेंगे ब्रेकअप के बाद। जैसे हम हैं, तो ब्रेकअप तो होगा ही, उसके बाद सन्तई कर लेंगे।

ऐसे नहीं। हर समय, हर जगह। याद रखोगे? हर समय...।

प्र: हर जगह।

आचार्य प्रशांत: और हर जगह। कोई शर्त नहीं बाँधनी है, कोई बँटवारा नहीं करना है। बिलकुल अपनेआप को ये छूट नहीं देनी है कि ज़रा दो घंटे बदमाशी कर लें, उसके बाद फिर ठीक हो जाएँगे। न! हर समय और हर जगह।

प्र: सत्य, ईमानदारी लगातार।

आचार्य प्रशांत: ईमानदारी लगातार?

प्र: बनी रहनी चाहिए।

आचार्य प्रशांत: लगातार। देखो, ईमानदार सब होते हैं, पर टुकड़ा-टुकड़ा ईमानदार होते हैं। दुनिया में कोई ऐसा आदमी नहीं है जो पूरा बेईमान हो। तुम पूरा बेईमान आदमी खोजने निकालोगे तो मिलेगा नहीं। सब ईमानदार होते हैं, पर उनकी ईमानदारी बँटी हुई होती है।

सन्त कौन है, योगी कौन है? जिसकी ईमानदारी..?

प्र: कन्टिन्युअस (लगातार) है।

आचार्य प्रशांत: अब कन्टिन्युअस है, बँटी हुई नहीं है, टुकड़ा-टुकड़ा नहीं है।

(एक श्रोता जम्हाई लेते हुए आह की आवाज़ मुँह से निकालते हुए) ये आह क्यों निकल रही है? सन्त की ईमानदारी कन्टिन्युअस है, और संसारी की आह! (आचार्य जी व्यंग्य करते हुए)

अब देखो, खेल क्या चल रहा है? देखना, खेल समझना। मैं सुबह आया। तुम्हें इस बात पर बड़ा नाज़ था कि तुम तीन घंटा सोकर उठ गये। तो पहले तुमने मज़ा इस बात का लूटा कि तुम प्राउड फ़ील कर पाये कि तुम कम सोये। तो तुम वसूली कर चुके हो। सुबह तुम गर्व में थे कि तुम कम सोये। रात के कम सोने की वसूली तो तुमने कर ली न?

प्र: हाँ।

आचार्य प्रशांत: खूब बताया तुमने, ‘देखो हम कम सोते हैं, तब भी हमें कुछ हो नहीं रहा।’ उसके बाद तुम दिन में सो लिये। एक वसूली तुमने सुबह-सुबह की ये बता-बताकर कि हम कम सोये हैं। दूसरी वसूली तुमने दिन में की ये कहकर कि कम सोये हैं, तो हमें ज़रा सो लेना चाहिए। तीसरी वसूली तुम अब करना चाहते हो कि तीन रात से सोये नहीं हैं।

मन ऐसा दुकानदार है कि एक रुपया देता है और तीन रुपया वसूल रहा है। तुम मेरे सामने तीन बार वसूल चुके हो। पहले तो सुबह-सुबह तुमने इस बात को बताने के मज़े लिये। कि देखिए सर , पहले ऐसा होता था न कि दस बजे सो जाते थे, तब भी हमें दस घंटे की नींद चाहिए होती थी। चार लोगों ने बोला मुझसे। अब ये हम दो बजे सोये थे, हम पाँच बजे उठ गये, हमें कोई अन्तर नहीं पड़ रहा है।

अच्छी बात है!

उसके बाद पता चल रहा है कि सब मालिक लोग यहाँ ग्यारह बजे पसर गये थे और चार बजे उठे हैं। तो दिन में सब कोई दो घंटे, कोई छ: घंटे, कोई पाँच घंटे सोया है। ठीक। तीसरी वसूली अब होने जा रही है। तीन रात से सोये नहीं हैं तो अब लाइसेंस है न थोड़ा ज़्यादा सोने का। दिन में कौन सो रहा था? और अगर सोना ही था तो सुबह सीना इतना चौड़ा करके काहे को बोल रहे थे कि हमने कैम्प में बहुत सीख लिया, अब हमें नींद नहीं आती। कितनी बार वसूलोगे? अब ये धोखेबाज़ी है; सन्त ये धोखेबाज़ी नहीं करता।

ईमानदारी का मतलब होता है अब एक बार वसूल लिया न, तो वसूल लिया। वो कह रहा है, ‘ये आप इधर-उधर की बातें कर रहे हैं, नींद तो आएगी। हम इन्तज़ार कर रहे हैं कि पेड़ की तरफ़ कब चलेंगे, असली एडवेंचर वहाँ है। हमे पाँव चलाना है, आप ज़बान चला रहे हो।’

हम थोड़ा अभी बिज़ी हैं। ऐसा करो, अकेले हो आओ। (श्रोतागण हँसते हैं)

श्रोता१: सर, इस समय बजरंग बली भी साथ जाएँगे, तब भी नहीं जाऊँगा।

श्रोता२: ये एडवेंचर नहीं होगा न; सुसाइड होगा।

श्रोता३: तो सर्टिफ़िकेट तो मिलेगा यहाँ से *कन्फ़र्म*। एक तो मिलेगा ही।

आचार्य प्रशांत: बेटा, एक बात बतायें तुम्हें। अगर इस समय तुम वहाँ अकेले हो आओ, तो तुम्हें जो मिलेगा, वो इतनी कीमती चीज़ होगी कि ज़िन्दगी बदल जाएगी तुम्हारी। मौत आएगी या नहीं आएगी, वो हम नहीं जानते, लेकिन ज़िन्दगी बदल जाएगी, ये पक्का है, अगर ये तुम कर पाओ। ये हज़ार आदमियों में से किसी एक के बस की बात है — इस वक्त चला जाए और वो कर पाये जो मैं कह रहा हूँ। पर अगर कर दिया तुमने, तो तुमने इस कैम्प से फिर वो पाया होगा जो और किसी को भी नहीं मिला होगा। तुम करोगे नहीं, मुझे पता है; पर अगर कर पाओ तो किस्मत वाले हो।

प्र: कोई नहीं कर पाएगा सर हममें से।

आचार्य प्रशांत: अरे! बाकियों से क्या मतलब है, तुम्हें अपनी ज़िन्दगी जीनी है न!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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