तुम्हारा असली घर कहाँ है? || आचार्य प्रशांत, संत रूमी पर (2018)

Acharya Prashant

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तुम्हारा असली घर कहाँ है? || आचार्य प्रशांत, संत रूमी पर (2018)

आचार्य प्रशांत: कहानी है तीन मछलियों की, पूरी नहीं पढूँगा, संक्षेप में बताए देता हूँ। तो कहानी तीन मछलियों का ज़िक्र करती है जो रहती थीं एक तालाब में। उस तालाब से एक बड़ा दुर्गम रास्ता समंदर की ओर भी जाता था पर उस रास्ते का किसी मछली को पता नहीं था। वो रास्ता था भी बड़ा कठिन।

तो एक बार तीनों मछलियाँ देखती हैं कि मछुआरे आ गये हैं और मछुआरे बिलकुल डटे हुए हैं कि मार के ही जाएँगे, इस तालाब की मछलियों को लेकर ही जाएँगे। ये देखते ही उनमें से एक मछली तुरन्त वो कठिन यात्रा करके निकल जाती है सागर की ओर। और वो यात्रा कठिन ही नहीं, नदी की बाक़ी मछलियों को असम्भव लगती थी। तभी तो वो उस तालाब में थीं। अगर वो यात्रा उन्हें सम्भव ही लगी होती तो वो कब का सागर को निकल गयी होतीं।

पर ये मछली कहती है, 'न, कुछ दिखा है मुझे, कुछ समझ में आया है मुझे।' वो कठिन-से-कठिन यात्रा करने की हिम्मत जुटाती है, उसी को अपना एकमात्र विकल्प मानती है और निकल जाती है।

फिर एक दूसरी मछली होती है जो पहली मछली की मुरीद होती है, पहली मछली से प्रेरित होती है। पहली मछली के जाने के बाद वो ज़रा दिशाहीन हो जाती है और पहली मछली जितना न वो सामर्थ्य उठा पाती है न संकल्प जुटा पाती है तो वो पीछे ही छूट जाती है। लेकिन उसे पहली मछली की कुछ बातें याद रह जाती हैं तो वो क्या करती है? वो मृतवत हो जाती है। मछुआरे उसे देखते हैं और छोड़ देते हैं, कहते हैं कि मरी मछली, ये हमारे किस काम की।

तीसरी मछली होती है, उसको पहली दोनों से कोई लेना-देना नहीं, उसे तो अपने पर पूरा भरोसा है। वो मछुआरों को देखती है, वो कहती है, 'होंगे ये मछुआरे, हम भी कुछ हैं।' वो भागने की और अपने हिसाब से जान बचाने की पूरी कोशिश कर लेती है। उसका क्या हश्र होता है? वो पकड़ी जाती है। हाँ, पकड़े जाने के बाद वो भी तरह-तरह की युक्तियाँ चलाती है। वो भी अभिनय करती है जैसे वो मर गयी हो, इत्यादि-इत्यादि। पर मछुआरे भी इतने बेवकूफ़ नहीं, वो उसे ले ही जाते हैं, खिला देते हैं बिल्ली को।

अब आपने कहा है कि दूसरी और तीसरी मछली के बीच में अपनी स्थिति पा रही हूँ। सही समय पर मृत होना क्या है? सही समय पर मृत होना है कि कम-से-कम तालाब के साथ अपने सारे सम्बन्ध तोड़ दो। ये जो तीन तरह की मछलियाँ थी, ये तीन तरह के मन हैं, ये तीन तरह के मनुष्य हैं, इनको समझना होगा।

पहली मछली थी जिसने तालाब को छोड़ा भी और सागर को पाया भी। उसने सीमा से, सीमित जगह से अपना नाता तोड़ा और फिर अथक प्रयत्न किया अपना नाता जोड़ने का किससे? असीमित से। भले उसमें उसकी जान चली जाए। कौन जाने कि तालाब से सागर तक की यात्रा कितनी दुर्गम है, कितना श्रम मांगती है, पर इस मछली ने कहा, 'नहीं, दोनों बातें बराबर ज़रूरी हैं और दोनों में से सिर्फ़ पहली बात करी तो बात अधूरी रह जाएगी।'

दोनों बातें कौनसी? तालाब छोड़ो भी और सागर तक पहुँचो भी। तालाब क्या है? तालाब है हमारा सीमित जीवन, हमारे छोटे-छोटे रिश्ते, हमारे काम करने के, जीने के ढर्रे-ढाँचे, हमारी छोटी चाहतें, हमारी छोटी-छोटी आशाएँ, हमारी निराशाएँ, हमारे नन्हे लक्ष्य, हमारी नन्ही खुशियाँ — ये है वो तालाब जिसमें हम जीते हैं।

इस तालाब को सिर्फ़ तालाब मत मान लेना। तुमने इस तालाब को जाना नहीं जब तक तुमने तालाब का वो चित्र नहीं देखा था जिसमें तालाब के साथ मछुआरे भी हैं। ये तालाब सिर्फ़ तालाब नहीं है — ये है तालाब और मछुआरे। पहली मछली को समझ में आ गया था कि तालाब में जीने का मतलब ही है मछुआरों की निगाह में जीना, मौत के साये तले जीना।

ये तालाब नहीं है, मृत्यु लोक है, यहाँ प्रतिपल मछुआरों के दाव हैं। और चूँकि मैं सीमित जगह में जी रही हूँ तो पक्का है कि आज नहीं तो कल मछुआरे मुझे ले ही जाएँगे, हावी पड़ेंगे ही। मैं कितना भागूँगी, नन्हा सा तो तालाब है! और मछुआरों का कुछ पता नहीं वो किस-किस दिशा से आते हैं और रोज़ आते हैं। और उनके पास बड़े जाल हैं, बड़ी तरकीबें हैं। कुछ-न-कुछ करके मुझे वो पकड़ ही लेंगे।

पहली मछली वो है जिसने कुछ देख लिया जिसे अब वो अनदेखा करेगी नहीं। अब वो अपनेआप को ढांढस, सांत्वना नहीं देगी कि अरे भाई! दूसरी मछलियाँ फँसती होंगी, हम नही फँसेंगे। वो इस तरह की कुतर्की बातें नहीं करेगी। वो ये नहीं कहेगी कि चार दिन जीना है, क्या पता बिना फँसे ही जी जाएँ। भाई, रोज़ ही हर मछली तो नहीं पकड़ी जाती है न, कुछ मछलियाँ बचती भी हैं। क्या पता जैसे एक रोज़ कुछ मछलियाँ बचती हैं, हम रोज़-रोज़ ही बच जाएँ।'

और ये तर्क तुम अपनेआप को दे सकते हो कि हम तो बड़े सयाने हैं। दूसरी मछलियाँ फँसती होंगी, हम तो बच जाएँगे। पहली मछली को अपनी सीमाओं का पूरा-पूरा ज्ञान था।

इस बात को समझना!

असीम की ओर आकर्षित वही होगा जिसने पहले ईमानदारी से अपनी सीमाओं का ज्ञान कर लिया, स्वीकार कर लिया।

पहली मछली वो है जो जान गयी है कि मैं नन्ही, मैं छोटी, मैं सीमित, मैं दुर्बल और ये जो तालाब है ये मौत का घर है। यहाँ रही तो मेरी इतनी क़ाबिलियत नहीं कि मैं बची रहूँगी। अगर मैं इसी तालाब को घर मानती रही और इसी में जीवनयापन करती रही तो पक्का ही है कि मेरी दुर्दशा होगी।

वो ये नहीं कहेगी कि हम होशियार हैं, हम अपनेआप ही रास्ता बना लेंगे; वो कहेगी, 'न-न-न, ख़ूब देख लिया, बड़े-बड़े यहाँ पर निपट लिये, हम क्या हस्ती हैं!' तो पहली मछली सिर झुकाकर के वो निर्णय करती है जो एक दुर्बल व्यक्ति जो अपनी दुर्बलता से परिचित हो गया है, फिर अपने पूरे आत्मबल में करता है।

ये वाक्य तुम्हें थोड़ा जटिल लगता होगा, इसको समझना। जब तुम अपनी व्यक्तिगत दुर्बलता से परिचित हो जाते हो तब तुम्हें तुमसे आगे का कोई और बल उपलब्ध हो जाता है, उसे आत्मबल बोलते हैं। आत्मबल बोलो, ब्रह्म बल बोलो, उपलब्ध लेकिन उन्हें ही होता है जो अपनी व्यक्तिगत दुर्बलता से परिचित हो जाते हैं, सिर झुकाकर स्वीकार कर लेते हैं, हठ नहीं दिखाते, अकड़ नहीं दिखाते, ये नहीं कहते कि हमें कमज़ोर कैसे बोल दिया। वे कहते हैं कि मान लिया हम कमज़ोर हैं। तो उनके साथ जादू घटता है।

जादू क्या है? कि फिर एक कमज़ोर आदमी अपने लिए ऊँचे-से-ऊँचा लक्ष्य रखता है, एक नन्ही सी मछली फिर अपने लिए लक्ष्य रखती है कि सागर जाना है।

आमतौर पर तुम कहोगे कि सागर तक जाने का लक्ष्य वही मछली रखेगी जिसे अपनी क़ाबिलियत पर बड़ा भरोसा हो। ये बात उल्टी है, इस मछली को अपनी व्यक्तिगत क़ाबिलियत पर भरोसा नहीं है। अगर होता इसे अपनी व्यक्तिगत क़ाबिलियत पर भरोसा, तो ये क्या करती? ये जाती ही नहीं, वहीं अटकी रह जाती। कहती, 'हम यहीं रास्ता निकाल लेंगे।'

ये वो मछली है जिसे अपने व्यक्तिगत बल पर भरोसा नहीं है और चूँकि इसे वो भरोसा नहीं है, इसने ईमानदारी से देख लिया कि हम अगर इसी दुनिया में रहे तो हम तो गये। जैसे ही इसने ये कहा, जैसे ही इसने अपने सीमित सामर्थ्य से भरोसा उठाया, वैसे ही इसे अपने से आगे का कोई और सहारा उपलब्ध हो गया। वो सहारा है जो इसे सागर तक ले जाएगा।

इस मछली के बारे में कुछ बातें समझ में आ रही हैं न, ये होशियार बहुत है। किस अर्थ में होशियार बहुत है? कि देखते ही समझ गयी कि नन्हा तालाब और इतने मछुआरे और मछुआरों का रोज़ का धावा, मैं बचूँगी नहीं। और ये इतनी होशियार है कि समझ गयी कि मछुआरे मुझसे ज़्यादा होशियार हैं। ये ऐसी होशियार नहीं है कि अकड़ जाए, ये इतनी होशियार है कि अपनी होशियारी की सीमा जानती है।

होशियार कौन? जो अपनी होशियारी की, अपनी व्यक्तिगत होशियारी की, अपनी बुद्धि की, अपनी चेतना की सीमा से परिचित हो। जो जान जाता है कि मेरा अपना ज़ोर, मेरा जाति ज़ोर इतनी ही दूर तक चलेगा, वो फिर अपने से आगे की ख्वाहिश नहीं करता। वो फिर अपनेआप को किसी और के हाथों में सौंप देता है। मछुआरों के हाथों में नहीं। किसके हाथों में? समुद्र के हाथों में। ये पहली कोटि के मनुष्य हैं, पहली कोटि का मन है। ऐसे लोग ज़रा कम होते हैं।

दूसरी कोटि की थी दूसरी मछली। ये दूसरी मछली इतना तो समझ गयी है कि तालाब से रिश्ता रखना मौत को दावत देने की बात है। अगर तालाब में ही फँसी रही और तालाब से ही रिश्ता रखा तो यहीं कब्र खुदनी है।

लेकिन वो काम अधूरा कर रही है — तालाब से नाता तोड़ रही है और समंदर से नाता जोड़ने का श्रम नहीं कर रही। इसीलिए उसको मिश्रित फल मिलता है। मिश्रित फल क्या मिलता है? मछुआरों से जान तो बच जाती है पर समंदर की सुरक्षा और आनंद उसे उपलब्ध नहीं होते। अगर तुम ऐसे जी रहे हो कि जानभर बची हुई है तुम्हारी, लेकिन जीवन में फूल नहीं हैं, बहार नहीं है, सुरक्षा नहीं है, उत्सव नहीं है तो तुम्हारे जीने को जीना तो नहीं बोला जा सकता।

ये जो दूसरी कोटि की मछली है इसने पहली मछली से नीचे का साधन उपयोग किया है। वो ज़रा निम्नतर साधन क्या है? उस दुनिया से तो रिश्ता तोड़ लो जिस दुनिया में दिखता है कि दुख है, भ्रांति है, मृत्यु है और कष्ट है लेकिन ये छलांग नहीं ले पायी है, ये दूसरी दुनिया को अपना नहीं पायी है। क्योंकि दूसरी दुनिया को अपनाने की क़ीमत देनी पड़ती है न। क्या क़ीमत देनी पड़ती है? साधना।

पिछली दुनिया को छोड़ने के लिए क्या चाहिए? विवेक और वैराग्य। विवेक से तुम्हें दिख जाता है कि कहाँ मौत है, कहाँ जीवन है और वैराग्य से तुम मौत को छोड़ देते हो। विवेक और वैराग्य तो है इसमें, इसी कारण इसने क्या किया? ये तालाब के प्रति मृत हो गयी। लेकिन इसमें एक चीज़ की कमी रह गयी, किसकी? श्रद्धा की और मुमुक्षा की।

श्रद्धा क्यों चाहिए? ताकि तुम कहो कि मैं सागर तक पहुँच सकती हूँ। और मुमुक्षा क्यों चाहिए? ताकि तुम कहो कि मुझे तालाब में नहीं जीना, मुझे मुक्ति चाहिए तालाब से। तो ये जो दूसरी कोटि की मछली है, इसमें विवेक है, वैराग्य है लेकिन मुक्ति की ज्वलंत अभीप्सा नहीं है। और श्रद्धा नहीं है अपने सामर्थ्य पर कि मैं अगर यहाँ से निकली तो समंदर तक पहुँच जाऊँगी। लेकिन फिर भी कुछ तो है न उसमें और जो उसमें है उसका उसे फल भी मिलता है। क्या फल मिलता है? मछुआरे उसे छोड़ देते हैं, जान बच जाती है उसकी।

अब आते हैं तीसरी कोटि की मछली पर जिससे ये संसार भरा हुआ है। ये तीसरी कोटि की मछली क्या है? ये तीसरी कोटि की मछली वो है — अब क्या-क्या कहा जाए इसकी तारीफ़ में! पहली बात तो ये इतनी बेवकूफ़ है कि इसे समझ में नहीं आ रहा कि तालाब में रहकर मछुआरों से बचना सम्भव नहीं है। ये अपनी हैसियत को बहुत ऊँचा आँक रही है।

ये बढ़-चढ़कर अपना आंकलन कर रही है। और ये मछुआरों को और उनके दावों को और उनकी ताक़त को, उनके इरादों को भाँप ही नहीं पा रही है। न जाने किन सपनों में जी रही है, न जाने किसने इसे बता दिया है कि तालाब ही स्वर्गलोक है। न जाने किसने इसे बता दिया है कि मछुआरे तो यार हैं हमारे। और दूसरी इसकी ये बेवकूफ़ी कि संगत इसकी बहुत बुरी है।

पहली बात तो ये कि आप भीतर से बुद्धू हो, मूर्ख हो। और दूसरी बात, आपको अपनी मूर्खता लाँघने की कोई ख्वाहिश भी नहीं है। इसके सामने-सामने दो मछलियाँ थीं जो पलायन कर गयीं — एक सशरीर और एक मन मात्र से। सशरीर कौनसी मछली भाग गयी?

प्र: पहली मछ्ली।

आचार्य: और मन से कौन भाग गयी?

प्र: दूसरी वाली।

आचार्य: दूसरी वाली। ये देख रही है उन दोनों को लेकिन फिर भी अपनेआप को इतना चतुर समझती है कि कह रही है कि वो निकल गयी होंगी, हम तो साहब अपने में ही रहेंगे। क्या कह रही है ये? वो निकल गये होंगे, हम तो अपने में ही रहेंगे। और नतीजे में क्या मिलती है इसको? एक दर्दनाक मौत।

समझ रहे हो बात को?

हममें से ज़्यादातर लोग कैसे हैं? तीसरी मछली की तरह ही हैं। जिस तालाब में पैदा हुए, उसमें से बाहर ही नहीं आना चाहते। हम कहते हैं, ‘हमारी सारी सगी-सम्बन्धी मछलियाँ इसी में तो हैं। जब वो इसी में जी रही हैं मर रही हैं, तो हम भी इसी में जी लेंगे मर लेंगे। मछुआरों को तो हम समझते हैं कि जीवन का हिस्सा हैं।’

ये तीसरी मछली भी शायद गयी होगी, कभी इसको भी ज़रा हल्की सी आहट मिली होगी अपने अन्त की, अपनी स्थिति की। तो इसने भी जा करके अपनी माँ-बहन, भाई-बाप, दोस्त-यार से पूछा होगा तो उन्होंने कहा होगा, 'भाग पगली! मछुआरों को बुरा थोड़ी कहते हैं। अरे! जीवन ही ऐसा होता है।' सुना है न तुमने ये वाक्य, कि ज़िन्दगी ऐसी ही होती है? ‘देख न हम सबने भी तो ऐसी ही जी है। देख तेरे ताऊ भी तो मरे थे मछुआरों के हाथों। ताऊजी बेवकूफ़ थे क्या?' और इस मछली को ये साहस नहीं उठा कि ये ज़ोर से बोल दे कि ‘हाँ, ताऊजी बेवकूफ़ थे।’

और यही ग़लती तुम भी करते हो जब तुम्हें बताया जाता है कि बाक़ी सब भी तो ऐसे ही जी रहे हैं, पूरी दुनिया बेवकूफ़ है क्या। तो तुम ज़ोर से नहीं बोल पाते हो कि हाँ, पूरी दुनिया बेवकूफ़ है और मुझे बेवकूफ़ बनकर नहीं जीना। तब तुम्हारी ज़बान बंध जाती है। तब तुम भीड़ के दबाव तले आ जाते हो।

फिर तुम कहते हो कि एक-दो लोगों को बेवकूफ़ हम कह भी देते, पर जब हमसे सवाल ये पूछा गया है कि क्या सारी दुनिया ही बेवकूफ़ है तो कैसे हम कह दें कि हाँ-हाँ-हाँ, सब बेवकूफ़ हैं।

और तुम जो ये सवाल पूछ रहे हो तुम सबसे बड़े बेवकूफ़ हो क्योंकि तुमने सत्य का, सद्बुद्धि का और विवेक का पैमाना बना लिया है लोगों की संख्या को, भीड़ के आकार को। ये कोई पैमाना होता है, ऐसे मापा जाता है सच्चाई को, सत्यता को? ऐसे, कि कितने लोग कह रहे हैं? पचास लोग कहेंगे तो झूठी बात सही हो जाएगी? दुनिया के आठ-अरब के आठ-अरब लोग भी बोल दें, तो क्या असत्य सत्य हो जाएगा?

पर ये सब तुम्हारे सामने ऐसे ही आते हैं कि देख न पूरे तालाब की मछलियाँ हैं, तालाब ही में तो जी रहे हैं। वो एक पगलिया थी कोई, वो भाग गयी सागर को। और फिर वो तुम्हारे सामने बड़े कुतर्क देंगे, वो कहेंगे, 'अच्छा बताओ, अगर सारी मछलियाँ सागर को भाग जाएँ तो तालाब का क्या होगा? तालाब कैसे चलेगा?'

सुना है न ये तर्क — सब बुद्ध हो गये तो दुनिया कैसे चलेगी? ठीक यही तर्क इस मछली के रिश्तेदारों ने दिया था, तीसरी मछली के, क्या? कि सब मछलियाँ अगर सागर को भाग गयीं तो तालाब का कारोबार कैसे चलेगा। लो, चला लो अब तालाब का कारोबार! तुम्हारा कारोबार नर्क का कारोबार है, भला है कि बन्द हो जाए, कल बन्द होता हो तो आज बन्द हो जाए। पर तुममें ये कह पाने की हिम्मत नहीं आती।

वो तुमसे पूछते हैं कि बेटा तू अगर चला गया कोई ढंग का काम करने तो दुकान पर कौन बैठेगा? और तुम तुरन्त पलटकर कह नहीं पाते कि बन्द कर दो दुकान अपनी, ये तो भूल जाओ मैं बैठूँगा तुम्हारी दुकान पर, तुम्हारी दुकान पर तो ख़ुद तुम्हें भी बैठना नहीं चाहिए। ये दुकान मेरे लिए तो बुरी है ही, ये दुकान तुम्हारे लिए भी बुरी है, बन्द करो इसे।

मैं आइआइएम में था। तो एक बड़ी कम्पनी आई हुई है, वहाँ मेरा इंटरव्यू (साक्षात्कार) चल रहा है, तो रात में था। मैं एक नाटक कर रहा था बादल सरकार का 'पगला घोड़ा', उसकी तैयारी कर रहा था, मैं भूल ही गया कि मेरा साक्षात्कार है। मैं तो अपना ड्रेस रिहर्सल में लगा हुआ था। पागल का अभिनय करना था मुझे उसमें।

शमशान का दृश्य, एक स्त्री की चिता जल रही है और वहाँ पर चार जने बैठकर उसकी चिता के बग़ल में ताश खेल रहे हैं और चारों अपनी-अपनी प्रेम कहानियाँ याद कर रहे हैं। मैं चौथा आदमी था, जो कम बोलता है और नाटक के अन्त में ये उद्घाटित होता है कि जो जल रही है वो उसकी प्रेमिका है। बाक़ी तीन तो क़िस्से सुना रहे होते हैं, लफ़्फ़ाज़ियाँ, उस चौथे का प्रेम जल रहा होता है।

नाटक का अन्त ये था कि जब तीनों चले जाते हैं आधी रात के बाद, ताश खेलकर और शराब पीकर, तभी चौथा उठता है और कहता है, ‘तुम तीनों ने तो अपनी कहानी सुना दी, मुझे भी तो अपनी कहानी का अन्त करना है।’ तो वो जाता है और शराब के बाद ज़हर पीने लगता है। नाटक कुछ ऐसा है कि फिर उसकी प्रेमिका उठकर आती है उसके पास चिता से और बस देखती है उसको और उसके हाथ से ज़हर गिर जाता है।

नाटक का अन्त, जहाँ तक मुझे याद पड़ता है, मैंने थोड़ा संशोधित किया था। तो ये सब चल रहा था मैं अपना मशगूल, उसकी बात ही क्या है! तो कोई आता है, बोलता है, ‘आपका साक्षात्कार है, जाइए भागिए।’ तो मैं भागकर गया जैसा था वैसा ही, वो लोग बैठे इंतज़ार कर रहे हैं। रात को उनको अहमदाबाद से दिल्ली की फ्लाइट (विमान यात्रा) लेनी है। तो उन्होंने मुझे देखा, देखते ही हक्के-बक्के रह गये, बोले, ‘आइआइएम अहमदाबाद और वहाँ कोई इस तरीक़े से इंटरव्यू देने आया है!”

अब मैं वही राख मले शमशान की पहुँच गया वहाँ पर, फटा कुर्ता फटा पजामा, मुँह पर राख। उन्होंने कहा, ‘बैठो।’ मैं बैठा। पहले पाँच मिनट में ही उन्होंने कहा, ‘देखो, हम तुम्हें ये तो बता देते हैं कि तुम्हें ऑफर नहीं देंगे।’ मैंने कहा हटाइए ऑफर वगैरह, आप चाय पियेंगे बताइए। दो घंटे बातचीत चलती रही, दो घंटे। उन्हें भी कोई मेरे जैसा मिला न हो पहले क्या पता! हम भी गप मारने में तो हमेशा उत्सुक रहते हैं। गप मारे गये, मारे गये।

दो घंटे बाद वो मुझसे बोलते हैं कि तुम जैसे हो और जैसा हमने तुम्हें समझा है, हमारी नौकरी तुम्हारे लिए नहीं है। इस नौकरी को ऊँचे-से-ऊँचा, बड़े-से-बड़ा समझा जाता है, लोग इसके लिए लार बहाते हैं, तुम्हारे बैच के लोग इस नौकरी के लिए अपना हाथ कटाने को तैयार हो जाएँगे। लेकिन तुम्हारे लिए नहीं है ये नौकरी।

मैंने कहा वो तो मुझे पता ही है मेरे लिए नहीं है ये नौकरी। मैं आपसे भी एक बात कहना चाहता हूँ, दो घंटे मैंने आपसे बात करी है, आपके लिए भी नहीं है आपकी नौकरी। मुझे तो पता ही है कि मैं ये नौकरी नहीं करूँगा, आप भी कृपया कल ही त्यागपत्र दें, ये नौकरी आपके लिए ठीक नहीं है।

समझ में आ रही है ये बात?

उन्होंने कुछ कहा नहीं, वो भागे, उनकी फ्लाइट छूट रही थी। ये फ्लाइट बड़ी गड़बड़ चीज़ है न, ये आदमी को तालाब में बंधक बना देती है।

जिन्हें फ्लाइट से ही उड़ने की आदत पड़ गयी, वो तालाब फिर छोड़ नहीं पाते। समझ रहे हो न? तालाब में बड़े रनवे हैं, बड़े हवाई अड्डे हैं, वहाँ बहुत कुछ मिलता है। तालाब से सागर तक की यात्रा सुविधाओं को, फ्लाइट्स को, विदाई देने की यात्रा है। ये बड़े विकट मछुआरे हैं, ये आसमान में भी बैठे हुए हैं। ये तुम्हारी फ्लाइट में सवार हैं।

मछुआरा कौन? जो तुम्हें पकड़ ले। तुम्हें अगर सुख ने, धन ने, सुविधा ने, जीने के एक ख़ास स्तर ने, एक लाइफ़स्टाइल ने अगर पकड़ लिया है, तो जिसने पकड़ लिया तुम्हें वही मछुआरा।

पहली-दूसरी मछली पर तुम ग़ौर भले मत करो। बार-बार पूछो अपनेआप से कि तीसरी क्यों नहीं भागी? हमने कहा तीसरी नहीं भागी दो कारणों से — एक तो ये कि भीतर से खोखली हो चुकी है और दूसरी ये कि बाहर संगत बहुत ख़राब है। नहीं तो ये भी कर सकती थी कि पहली मछली या दूसरी मछली का उदाहरण लेती और कहती कि या तो मैं चली जाती हूँ या कम-से-कम इस तालाब के प्रति उदासीन हो जाती हूँ। यहाँ ऐसे जीती हूँ जैसे मैं यहाँ हूँ ही नहीं। पर इस मछली को न गुरू प्यारा था, न बैरागी प्यारे थे।

गुरु मछली कौनसी है?

प्र: पहली।

आचार्य: बैरागी मछली कौनसी है?

प्र: दूसरी।

आचार्य: इस तीसरी को न गुरु पसंद थे न बैरागी आदर्श थे। इसके लिए आदर्श कौन? वही नात, कुटुंब, रिश्तेदार। इसने कहा, ‘जैसे वो जी रहे हैं, वैसे ही हम भी जियेंगे। गुरु की बात सुनने की ज़रूरत क्या है, यहाँ और मेरे रिश्तेदार मछलियाँ तो हैं।’ तो फिर तुम्हारा भी हश्र वही होगा जो सबका हो रहा है। वैसे ही जीवन जियोगे जैसे वो जी रहे हैं और वैसी ही मौत मरोगे।

पहली कोटि की मछली हो तुम तो क्या कहने! कुछ कहने की ज़रूरत ही नहीं। दूसरी कोटि की मछली हो तुम, तो तुमसे कहूँगा कि छोड़ना भर काफ़ी नहीं होता, पाओ भी। छोड़ा तुमने, भला किया, लेकिन पूरा नहीं किया, अब तुम पाओ भी। और इस तीसरी कोटि की मछली हो तुम तो मुश्किल है कि तुम मेरे सामने बैठोगे।

तीसरी कोटि की मछली तो है ही वही जो गुरु से और बैरागी से, दोनों से दूरी बनाकर रखे। अगर तुम तीसरी कोटि के होते, तो न मेरे सामने बैठे होते न तुम मुझे सुन रहे होते। तुम्हारे लिए मेरे पास कोई संदेश नहीं अगर तुम तीसरे वर्ग के हो।

अगर दूसरी कोटि के हो, तो फिर कह रहा हूँ, कटे-कटे जीने में कोई लाभ नहीं। ये तो तुमने अपने साथ बड़ा अन्याय कर लिया, जो था तुम्हारे पास उसको भी छोड़ दिया और जिसके तुम अधिकारी हो उसको पाया नहीं। तालाब छोड़ दिया, सागर से वंचित रह गये। ये क्या ज़िन्दगी हुई भाई!

जो तालाब छोड़े, उनकी क्या ज़िम्मेदारी है? कि सागर तक अब पहुँचो, जो कहानी शुरू करी है, उसे पूरा करो। नहीं तो तुम तो दोनों ओर से पिटे, न घर के रहे न घाट के। सागर तुम्हारा ठिकाना है तो चले आओ, मौज है!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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