सबसे श्रेष्ठ कौन? || आचार्य प्रशांत (2017)

Acharya Prashant

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सबसे श्रेष्ठ कौन? || आचार्य प्रशांत (2017)

आचार्य प्रशांत: कमलेश ने अभी रूमी से कुछ पढ़ा और कह रहे हैं कि एक स्थान पर रूमी कहते हैं कि बुद्धि, श्रद्धा और विनय, विनम्रता में से श्रेष्ठ है बुद्धि। कहीं से इन्होंने अनुवाद पढ़ा होगा, रीज़न (बुद्धि) फेथ (श्रद्धा) ह्यूमिलिटी (विनम्रता) लिखा हुआ है। तो इनको शंका उठी है, कहते हैं, 'सत्य तो अज्ञेय है, कोई कारण उसे समझा नहीं सकता। तो फिर सत्य कैसे सर्वोच्च—बुद्धि कैसे सर्वोच्च हुई? बुद्धि के पीछे-पीछे कैसे श्रद्धा चली आएगी?'

कमलेश, अभी मेरी ज़बान फिसली थी, है न? मैं क्या बोल गया था?

प्र: 'सत्य सबसे सर्वोच्च है।'

आचार्य: वही है, जब बाप के साथ होते हो तो फिसलते भी तुम शुभ कारणों से ही हो। जो मैंने बोला वही बात है, फिसलकर सच बोल गया।

न बुद्धि श्रेष्ठ है, न श्रद्धा श्रेष्ठ है और न विनय अथवा भक्ति श्रेष्ठ है। श्रेष्ठ तो एक ही होता है, उसको सत्य कहते हैं। वो नहीं है तो तुम्हारी विनम्रता झूठी होगी, वो नहीं है तो तुम्हारी बुद्धि और भक्ति झूठी होंगी, वो नहीं है तो तुम्हारा तर्क झूठा होगा, वो नहीं है तो तुम्हारी श्रद्धा झूठी होगी। और बहुत आसान है, बहुत सम्भव है कि तुम खोखली श्रद्धा लेकर घूमो, बहुत आसान है कि तुम्हारी बुद्धि चलती तो खूब हो पर वो कुबुद्धि हो और बहुत सम्भव है कि तुम भक्ति अथवा विनम्रता के नाम पर बस अपने अहंकार के ही सामने झुक रहे हो।

ये सब-के-सब आचरण की वस्तुएँ बन सकते हैं, ये सब-के-सब तुम्हारा सहारा बन सकते हैं सच्चाई की ख़िलाफ़त करने में। एक-से-एक लोग मिल जाएँगे तुम्हें जिन्हें देखोगे तो कहोगे, ‘वाह! कितनी विनम्रता है इनमें, क्या अदब से बात करते हैं, बड़े झुके हुए रहते हैं।’ और भीतर उनके खड़ा होगा पहाड़ जैसा अहंकार। यह उन्होंने बस साध लिया है विनय को, विनय उनके लिए सिर्फ़ एक व्यवहारगत बात है। यह विनम्रता ऊपर से थोपी हुई है, भीतर के किसी स्रोत से झरने की तरह नहीं बह रही। यह सींची हुई विनम्रता है कि ऊपर से सींच दिया, धरती के भीतर से रस नहीं फूटा है।

ऐसे ही है बुद्धि। सद्बुद्धि और दुर्बुद्धि में अन्तर ही यही होता है कि सद्बुद्धि जाती है सच्चाई की ओर और कुबुद्धि तर्कों का सहारा लेती है सच्चाई कि मुख़ालफ़त करने में। प्रक्रिया दोनों की एक होती है, बस प्रधान दोनों में अलग-अलग होता है। प्रक्रिया दोनों में एक ही होती है, तर्क खोजो। बस सद्बुद्धि तर्क खोजती है क्योंकि उसे सच जानना है और कुबुद्धि तर्क खोजती है क्योंकि उसे सच को झुठलाना है। और तर्क मिल तुमको दोनों दिशा में जाएँगे, तर्क बड़ी उपलब्ध चीज़ होती है, जिस दिशा में फेंकना चाहोगे उस दिशा हेतु मिल जाएँगे। आ रही है बात समझ में?

श्रद्धा के नाम पर तुम विश्वासी हो सकते हो, श्रद्धा के नाम पर तुम सत्य की अपनी ही किसी धारणा में यक़ीन करने लग सकते हो। सच्चाई तक तुम्हें पूरा जाना नहीं था तो रास्ते में ही रुक कर तुमने सच्चाई की एक छवि बनायी, एक मूर्ति बनायी और उस मूर्ति के प्रति तुमने अपना सारा समर्पण उड़ेल दिया और अब तुम कह रहे हो, ‘मैं श्रद्धालु हूँ।’ हाँ, बिलकुल तुम श्रद्धा दिखा रहे हो, निष्ठा पूरी है तुम्हारी, जाँचो तो सही किसके प्रति निष्ठा है। सत्य कोई नाम तो होता नहीं, सत्य कोई मूर्ति तो होता नहीं।

सच्चाई तो अपनेआप को पीछे छोड़कर निरन्तर चलते रहने की बात है। उधर कुछ है जो अभी जानना है, उधर कुछ है जिसकी अभी बेचैनी है, उससे पहले अगर रुकूँ तो बेईमानी है। और रुक तुम कभी भी सकते हो, कहीं भी सकते हो। मार्ग प्यारा है लेकिन साथी असुविधा-भरा है, जैसे जंगल प्यारा होता है लेकिन असुविधा-भरा होता है। कभी भी तुम रुक सकते हो और तुम जहाँ ही रुकोगे तुम उसी जगह को सत्य का दर्जा दे दोगे, वो तुम्हारा व्यक्तिगत सत्य हो जाएगा। और तुम बैठ जाओगे पालथी मारकर, तुम कहोगे, ‘ठीक है, यही सच्चाई है, मैं जान गया हूँ इसको दुनिया कहते हैं, यह संसार होता है, रिश्ते इसलिए होते हैं, आदमी का जीवन इसलिए होता है, इतने लोग मेरे हैं, इतने लोग पराये हैं, पैसा इतना आवश्यक होता है, मुझे इतना कमाना है।’

सत्य क्या है, मैं इतनी देर से जिसकी बात कर रहा हूँ? जिस किसी को तुम अटल जान लो, जिस किसी को तुम अपरिवर्तनीय जान लो, अन्तिम जान लो, वो तुम्हारे लिए सत्य हो गया। जिसको भी तुम पूरे भरोसे के साथ कह सको, वो तुम्हारे लिए सत्य हो गया। और देखो न तुम पूरे भरोसे के साथ कितनी बातें कह जाते हो, कभी शक उठता है अपने ऊपर? तुम्हें पूरा भरोसा है कि सुबह-सुबह उठकर रोज़ाना तुम जो करते हो वही करना चाहिए। कभी शक उठता है कि यह क्या है, क्यों करे जा रहा हूँ?

सत्य वही है जो अचिन्त्य है, अचिन्त्य मतलब वो कि जिसके बारे में चिन्तन किया नहीं जा सकता, जिसके बारे में अब चिन्तन करने की ज़रूरत नहीं रही। सत्य वो है जो असन्दिग्ध है कि जिस पर अब कोई शक नहीं किया जा सकता। और देखो तुम्हें भी अपने जीवन पर कोई शक है क्या? पूरी तरह से तो आश्वस्त हो कि जैसे चल रहा है मामला ऐसे ही चलना चाहिए। साफ़-साफ़ पता है तुमको कि मशीन की तरह ऐसे करना है, ऐसे जीना है। अभी कैसे चलना है यह तो पता ही है, अगले दो साल, पाँच साल, दस साल कैसे चलना है यह भी तुमने क़रीब-क़रीब तय कर ही लिया है।

जो चीज़ पूर्णतया तयशुदा हो, जिसमें अब परिवर्तन की, बदलाव की कोई गुंजाइश न हो उसको ही सच्चाई कहते हैं। सच्चाई वो जो बदले न, सच्चाई वो जो आख़िरी हो। कितनी ही बातें तुमने आख़िरी बना रखी हैं। जीवन में जो कुछ महत्वपूर्ण था, वो सबकुछ जिसने तुम्हारा समय खींच लिया, ऊर्जा खींच ली, पूरा जीवन ही सोख लिया, उसके विषय में तुमने कहाँ कभी कोई तहक़ीक़ात की, कहाँ कभी कोई शंका या जिज्ञासा की? उसको तो मान ही लिया न। जिसको ऐसा मान लिया हो कि अब किसी परीक्षण-निरीक्षण की ज़रूरत नहीं उसे सत्य कहते हैं।

और मुझे बताओ तुम, तुम करते हो कभी परीक्षण-निरीक्षण? तुम कभी ठिठक कर खड़े होते हो और पूछते हो यह क्या कर रहा हूँ? ये सब क्या है? यह थाली, यह कटोरी, यह दीवार, यह पर्दा, ये क्या हैं? पूछते हो कभी अपनेआप से ये मेरे चारों ओर जो चेहरे हैं ये क्यों हैं? और जीवन तो खुला आकाश था, बाक़ी सब पराये कैसे हो गये? आकाश अजनबी क्यों हो गया? तुम्हें सब पता है और, और जानने कि कोई ज़रूरत नहीं। तुमने अपनी यात्रा पर विराम लगा दिया है, तुम झूठमूठ ही मंज़िल तक पहुँच गये हो। और मज़ा तब आता है जब तुम आकर कहते हो कि वो जो आख़िरी बात है वो बताइए, परमात्मा के दर्शन कराइए, सत्य से परिचय कराइए। तो मैं पूछता हूँ, 'कितने सत्य चाहिए, कुल अठारह तो तुम लेकर आये हो अपने साथ, अभी उन्नीसवाँ भी चाहिए?'

सत्य के अलावा जो सबकुछ है उसकी तो पहचान ही यही है न कि छोड़ा जा सकता है, यही पहचान है न? सत्य के अलावा जो है उसको क्या बोलते हैं? झूठ। और झूठ माने वो जो है ही नहीं, जिसकी कोई हस्ती नहीं, कोई औकात नहीं, तो उसको छोड़ा जा सकता है। अठारह चीज़ें हैं तुम्हारे पास जो अब तुमसे छूटेंगी नहीं, तो तुम्हारे लिए तो सच हो गयीं न वो। अब और कौनसा सच चाहिए तुमको? अठारह सच के बाद उन्नीसवाँ सच कहाँ से दूँ? या तो तुम यह कहो कि वो अठारह छोड़ने को तैयार हो, सच तो एक होता है। वो अठारह तुमने ऐसे पकड़ रखे हैं कि यही हैं ज़िन्दगी, देखो यह पक्का पता है ये तो होने ही चाहिए।

हालत तो यह है कि बाहर जूता छोड़कर आये हो, कोई आकर बता दे कि जूता नहीं है तो तत्क्षण वियोग में चले जाओगे, परमात्मा छिन गया। (श्रोतागण हँसते हैं) जब जूता ही इतना सताता हो, जब जूता ही इतना केन्द्रीय और प्यारा हो तो कौनसी सच्चाई चाहिए भाई, मिली तो हुई है सच्चाई। सत्य तो वही कि जिसके छिनने पर ऐसा लगे जैसे मछली से पानी छिन गया हो और ऐसा तो तुम्हें मैंने बहुत बार देखा है। जाने यह कैसी मछली है, बात-बात पर इसका पानी छिनता है!

अभी देखना, सत्र जब समाप्त होता है किसी का स्कार्फ नहीं मिल रहा है। और हमारे अंशु भाई, उसका काम ही यही है कि लोगों में ज़रा वियोग पैदा करो, जिन चीज़ों से उनका सर्वाधिक आकर्षण हो, जो उन्हें बड़ी क़ीमती और प्यारी लगती हों, उनसे उनको ज़रा जुदा करो। कितने वियोगी पैदा कर दिये हैं हमने जानते हो? यह जो बाहर तुम जूते उतारते हो, यह ध्यान की एक विधि है। इसलिए थोड़ी उतरवाते हैं कि गन्दगी होगी, इसलिए उतरवाते हैं कि जब बाहर निकलो तो?

श्रोता: ग़ायब!

(श्रोतागण हँसते हैं)

आचार्य: झूठे सच, कितनी अजीब बात है न, झूठे सच! इसमें दो बातें देखना, पहली तो झूठ और दूसरा, मैंने कहा बहुवचन में, 'झूठे' सच। झूठ भी एक नहीं, पता नहीं कितने!

कितनी ही तो रही हैं जिनसे तुमने कहा कि तू न मिली तो मर जाऊँगा (श्रोतागण हँसते हैं)। वो पूछ रही है, ‘मेरे होंठों को चूमा, कैसा लगा?’ तुम कह रहे हो, 'सबसे बढ़िया! आज तक जितने थे उन सबसे बढ़िया।' (श्रोतागण हँसते हैं)

वो सुना है न, एक की बीवी मर रही है और उसके पास भी सच है, वो कह रही है, ‘मेरी वो जो सोने वाली चूड़ियाँ हैं, मोटी-मोटी कंगन, देखो किसी और को मत दे देना।’ तो पतिदेव सुन नहीं रहे हैं, सुन नहीं रहे हैं, उसने दो-तीन बार कहा। तो झल्लाकर कहते हैं, ‘देख वो कंगन जो हैं तेरे वो न रेखा को फिट आते हैं, न शीला को, रेश्मा के लिए बहुत बड़े हैं, तो दे किसको दूँगा?’ अरे वो उठकर खड़ी हो गयी। तुम औरतों को जानते नहीं। (श्रोतागण हँसते हैं)

झूठे सच!

फ़िल्मी गीत सुन लो, "तुझमें रब दिखता है, तू ही चाहत तू ही इबादत तू ही ज़िन्दगी है।" और हम हमेशा इन बातों पर हँसते नहीं हैं, अभी हँस रहे हो, हमेशा नहीं हँसते हो। तुम बहुत गम्भीरता से बोलते हो, ‘तू ही चाहत, तू ही इबादत, तू ही रब, तू ही सब।’ बड़ी गड़बड़ हो जाती है, फिर दुख, दुख-दुख, महादुख।

तुम्हें पता न चल रहा होता, तुम्हारी सामर्थ्य की सीमा आ गयी होती, तुम मजबूर हो गये होते तो एक बात थी, फिर भी माफ़ी थी। तुम मजबूर होकर नहीं रुकते, तुम बिककर रुकते हो। तुम खेलते, तुम लड़ते और एक बिन्दु आता कि जब तुम थककर, हारकर, बेहोश होकर गिर जाते तो ठीक था, माफ़ी थी। तुम थककर नहीं रुके हो, तुम चूककर नहीं रुके हो, तुम बिककर रुके हो, तुमने हथियार डाल दिये हैं। तुम समर्पित हो गये हो वहाँ जहाँ तुम्हें समर्पित नहीं होना चाहिए था। अब सबकुछ है तुम्हारे पास, रीज़न (तर्क), फेथ (आस्था), ह्यूमिलिटी (विनम्रता), सबकुछ है तुम्हारे पास। सत्य, प्रेम, मुक्ति, सरलता, बोध, आनन्द, सबकुछ है तुम्हारे पास और वो सबकुछ झूठा है।

झूठे सच!

मत रुको, चलते रहो, बढ़ते रहो। कम-से-कम तब तो मत रुको जब जानते हो कि रुकना सौदा होगा। तुम्हारी शक्ति की सीमा आ जाए तो कोई बात नहीं, फिर कोई और है जो सम्भाल लेगा। पर तुम्हारी शक्ति की सीमा आयी नहीं है अभी, अभी बहुत कुछ है जो तुम कर सकते थे, तुमने व्यर्थ ही अपनेआप को कमज़ोर बना लिया। तुम्हारी सामर्थ्य थी अभी, तुमने झूठे ही अपनेआप को अशक्त बना लिया। अब इसकी न तो माफ़ी है और इसके बाद न ही सहायता मिलती है। सहायता देने वाला पूछता है, ‘अभी तो तेरे पास ही ताक़त बाक़ी थी, जब तूने उसका इस्तेमाल नहीं किया, जब तेरी नीयत ही नहीं, तो मैं क्यों मदद करूँ तेरी?’ अब तुम लाख हाथ जोड़ो, लाख प्रार्थना करो, कोई सहायता उतरेगी नहीं क्योंकि अभी तुम्हें सहायता की ज़रूरत ही नहीं थी।

सहायता उनको मिलती है जो अपने व्यक्तिगत सामर्थ्य के आख़िरी छोर तक पहुँच जाते हैं। सहायता उनको मिलती है जो लड़ते-लड़ते बिलकुल डूब जाते हैं। जैसे कोई उड़ा जा रहा है, उड़ा जा रहा है, उड़ा जा रहा है, जब तक फेफड़ों में ज़रा सी भी हवा बाक़ी है, जब तक पंखों में ज़रा सी जान बाक़ी है, जब तक धमनियों में रक्त की एक बूँद बाक़ी है, वो उड़ा जा रहा है, उड़ा जा रहा है। और फिर जब वो बेहोश होकर गिरता है तो कोई हाथ उसे थाम लेता है। पर तुम उतनी हिम्मत, उतनी निष्ठा दिखाओ तो! फिर जादू होता है, फिर कोई अनजाना हाथ आकर यूँही थाम लेता है तुमको।

वो तब थामता है तुमको जब तुम बेहोश हो जाते हो, उसके थामने का तुम्हें पता भी बहुत बाद में चलता है। पर तुम अभी बेहोश हुए नहीं, अभी होश बाक़ी था, अभी ताक़त बाक़ी थी और तुमने झूठ बोला। तुमने झूठ बोला कि अब मुझे रुकना है, तुमने झूठ बोला कि मंज़िल आ गयी, तुमने झूठ बोला कि सच मिल गया। अब कुछ नहीं! अब अपने झूठ के साथ जियो, यही सज़ा है तुम्हारी।

जिस झूठ को तुम सच का दर्जा दे दोगे, तुम्हें उस झूठ के साथ अब जीना पड़ेगा क्योंकि सच तो वो जो टलता नहीं, सच तो वो जो हटता नहीं, सच तो वो जो बदलता नहीं। तुमने झूठ को ही सच कह दिया तो अब झूठ भी टिका रहेगा। अब झूठ ही तुम्हारे जीवन में अमर हो जाएगा। इससे बड़ी कोई सज़ा हो सकती है? देने वाले ने तुम्हारी माँग पूरी कर दी, तुमने झूठ को ही कह दिया, ‘यही चाहिए, यही सच है’, मिल गया। उसने कहा, ‘तथास्तु! ले जा और जी इसके साथ अब, ढो इसको, झेल इसको। तुझे यही प्यारा लगता था न, अब जीवनभर झेल इसको। तेरे देखे वरदान होगा, बाद में तू समझेगा सज़ा थी।’

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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