पीड़ा पैगाम परम का || आचार्य प्रशांत (2014)

Acharya Prashant

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पीड़ा पैगाम परम का || आचार्य प्रशांत (2014)

आचार्य प्रशांत: किसी मुर्दे को आज तक बीमार पड़ते देखा है तो इसका क्या अर्थ है? बीमारी कहाँ से उठती हैं? प्राणों से उठती है। बीमारी प्राण का सन्देश है तुम्हें, कुछ गलत हो रहा है। बीमारी प्राण का सन्देश है कि करीब आओ, मेरे पास रहो, मेरे जैसे हो जाओ, नित स्वभाव में जियो।

बीमारी के करीब जाओ, उसका तिरस्कार मत करो, उसको गलत मत मानो, उसको भ्रम मत बोलो, उसको मिथ्या मत बोलो, उसे झूठ मत बोलो, उसे नहीं है मत बोलो। उसके पास जाओ। वो तुम्हें कहीं को ले जाना चाहती है।

श्रोता: मुझे लगता है कि जैसे जितनी भी चीज़ें हो गयीं जैसे, गुस्सा, ईर्ष्या या सेक्शुअलिटी (कामुकता)। इन सब चीज़ों को जब हमें कन्डिशनिंग (संस्कार) के द्वारा पता चलता है कि ये ऐसी हैं, हमें एक विशेष व्यवहार बता दिया जाता है कि ऐसे व्यवहार करना है, विरोध करना है जो करना है।

तो कहीं-न-कहीं मन में हो जाता है कि हम उन्हें जानते हैं। हमें पता है कि ये ए-टू-बी फ़ॉर्मूला है, इसके तहत इन पर काम करना है। और ये जब हमें लगता है कि हम उन्हें जानते हैं तब हम उनसे खेल नहीं पाते हैं। उनसे एक बातचीत नहीं कर पाते हैं, मतलब एक बात नहीं कर पाते हैं। और वो बहुत फ़ियरफ़ुल (भयभीत करने वाला) हो जाता है एक तरीके से।

आचार्य: कब तक नहीं जाओगे उसके पास, कब तक डरे हुए ही रहोगे। जब तक ये मानोगे कि दुनिया में कोई वैकल्पिक सत्ता चल रही है। एक बार ये बात गहरे बैठ जाए कि एक ही सत्ता है जो चल रही है। तो उसके बाद अब डरने की ज़रुरत किससे है? ये बता दो।

श्रोता १: तो फिर आप सत्ता के करीब जाने की कोशिश करोगे, मतलब वही चल रहा है?

आचार्य: बिलकुल ।

श्रोता १: तो फिर आप हर चीज़ स्वीकार करना शुरू कर दोगे?

आचार्य: जो भी कुछ कर रहा है वो मेरा दोस्त कर रहा है। तो अब डरने की ज़रुरत किससे है? ये हो सकता है कि वो जो कर रहा हो वो मुझे समझ में न आ रहा हो। जब मुझे समझ में नहीं आता तो वो मुझे मैसेजेस भेजता है। तो मैं उन मैसेजेस का क्या करूँ? मैं कहूँ कि ये मैसेज़ किसी दुश्मन ने भेजे हैं या मैं ये श्रद्धा रखूँ कि भेजे तो दोस्त ने, मुझे समझ में नहीं आ रहे हैं तो मैं उससे पूछूँगा?

जल्दी से बोलो!

श्रोता १: पूछूँगा।

आचार्य: यही धार्मिक दृष्टि होती है। कि एक सन्देश आया मेरे पास जो मुझे समझ में नहीं आ रहा तो मैं जल्दी से ये न मान लूँ कि मुझे समझ में नहीं आ रहा इस कारण ही किसी दुश्मन का है। मैं कहूँ कि समझ में नहीं भी आ रहा तो भी किसका है?

श्रोता १: दोस्त का है।

आचार्य: दोस्त का है। पूछूँगा, है दोस्त का ही। जो भी है उसमें मेरा कल्याण ही है। मुझे समझ में नहीं आ रहा होगा, बस इतनी सी बात है। मेरी मुक्ति में तो मेरा कल्याण है ही। क्या होगी अगली पंक्ति? मेरे बन्धन में भी मेरा कल्याण है।

पूछूँगा उससे! जाकर के पूछ लेंगे।

श्रोता १: सर, तो क्या बन्धन को समझना मुक्ति तक पहुँचने का; लक्ष्य को हासिल करने के लिए ज़रूरी है या मतलब कैसे?

आचार्य: तुम ऐसे कहना चाहते हो तो कह लो। पर इसमें भी तुम सोच ये रहे हो कि जैसे मुक्ति बन्धन से कोई बेहतर सी चीज़ है, तभी बन्धन एक साधन भर है मुक्ति तक पहुँचने का, कुछ ऐसी सी बात कह रहे हो। तुम ऐसा कहना चाहते हो तो कह लो।

श्रोता १: सर, मन की विकृतियों को समझना भी मन की विकृतियों से दूर जाने का उपाय है।

आचार्य: कुछ नहीं है, बस खेल है।

‘रूमी’ एक कहानी सी कहते हैं, हम करेंगे आगे अभी चर्चा। जिसमें वो कहते हैं कि कपड़े धोने वाले घाट पर दो धोबी हैं। एक कपड़े को गीला कर रहा है और पटक रहा है और दूसरा कपड़े को सुखा भी रहा है और बड़े नज़ाकत के साथ उसको तह भी कर रहा है। और आप दूर से देखो तो ऐसा लगता है कि ये दोनों क्या कर रहे हैं। विपरीत काम कर रहे हैं। लेकिन सही बात तो ये है कि दोनों एक ही काम कर रहे हैं।

मुक्ति ठीक वही काम करती है जो बन्धन कर रहा है। जब तक दोनों धोबी नहीं होंगे काम चलेगा नहीं। एक चाहिए जो उसे पटके कपड़े को खूब और गीला कर दे। और एक चाहिए जो फिर उसे सुखा भी दे और बड़ी नज़ाकत के साथ उसको तह करके रख दे, दोनों होने चाहिए। जो भी हो रहा है वो उसकी दिशा सत्य की ही दिशा है, उसके अलावा और कोई दिशा होती नहीं है।

जो भी हो रहा है वो इशारा सत्य की ओर ही कर रहा है। तुम कहीं भी चले जाओ तुम्हारा केन्द्र तो वही रहेगा। तुम्हारा हर विचार उसकी ओर इशारा करेगा। तुम्हारी हर भावना उसकी ओर इशारा करेगी। तुम जिस भी रास्ते के करीब जाओगे, तुम जिस भी चीज़ को समझने की कोशिश करोगे, तुम ये पाओगे कि इशारा उधर को ही हो रहा है। उसके अलावा और कहीं कोई इशारा होता ही नहीं।

तुमने अगर कत्ल भी किया है तो वो परमात्मा की पुकार है तुम्हारे लिए। तुम घोर अनैतिक आदमी हो सकते हो, ये आमन्त्रण भेजा गया है तुम्हें वापस आने के लिए। तो कुछ भी निषिद्ध मत मान लेना, कुछ भी ऐसा मत मान लेना कि जो सत्य से बाहर है, जो नहीं है। जो भाषा यामाओका बोल रहा था कि एम्प्टी है, खाली है। अरे, कुछ नहीं खाली है भाई, क्या खाली है? सब वही है।

यामाओका जैसे लोग जब बोलते हैं कि कुछ खाली है तो उनका आशय ये होता है कि कुछ भरा हुआ भी है। वो ‘नहीं है’ को ‘है’ के विपरीत के तौर पर खड़ा करते हैं। और गुरु कह रहा है, ‘सब है तो भी ठीक है या सब नहीं है तो भी ठीक है।’

श्रोता १: पर एक वो आता है कि देख कर कि तुम कितना दूर हो अपनेआप से? तो ऐसा तो नहीं है सर, वापस जाने का इशारा हो? पर, मतलब लगता है ऐसे है कि उससे भी जगते नहीं हैं।

आचार्य: जब जगोगे नहीं तो क्या होगा?

श्रोता १: तो और सिग्नल मिलेंगे।

आचार्य: और बड़ा वाला सिग्नल आएगा। पहले सिरदर्द की कितनी गोली खानी पड़ती थी?

श्रोता १: एक।

आचार्य: अब कितनी खानी पड़ेगी?

श्रोता १: दो।

आचार्य: पहले सोने के लिए कितनी खानी पड़ती थी?

श्रोता १: एक।

आचार्य: अब कितनी खानी पड़ेगी?

श्रोता १: दो।

आचार्य: बीमारी नहीं बढ़ रही है।

श्रोता १: सिग्नल बढ़ रहा है।

आचार्य: पुकार बढ़ रही है कि आओ मेरी तरफ़। दमन मत करना उस बात का। कोई तुम्हें बहुत प्यार करता है, वो तुम्हें बहुत ज़ोर से बुला रहा है। ये उसका प्रेम-पत्र भेजने का तरीका है। फ़रीद कहते हैं कि सब विरह-विरह करके रोते हैं और मैं कह रहा हूँ कि विरह से अच्छा कुछ नहीं होता। बात समझ रहे हो?

तुम किस बात पर रोते हो? कि विरह में क्या बुराई है? मैं कह रहा हूँ, ‘विरह से अच्छा कुछ होता ही नहीं है।’ फ़रीद का शब्द है ये कि विरह सुल्तान है। कहते हैं, ‘विरह सुल्तान है।’ और कहते हैं,

बिरहा बिरहा सब करें, बिरहा तूँ सुल्तान। जिस तन बिरहा न उपजे, सो तन जानूँ मसान।। ~ बाबा फ़रीद

वो कह रहे हैं, ‘कष्ट होना चाहिए क्योंकि ये कष्ट शुभ कष्ट है। ये कष्ट सत्य की पुकार है। वियोग में ही तो योग छुपा है, वियोग ही योग है। बिना योग के वियोग कैसे होगा?’ बात आ रही है समझ में?

कुछ नकली नहीं है। आपकी सारी धूर्तताएँ, आपकी सारी चेष्टाएँ, वो सारी बातें जिनको आप डेमोलिशिंग द सीक्रेट्स (रहस्य को ध्वस्त करना) में बर्बाद करके आ गये थे। कुछ नकली नहीं है। आप घर बनाते हो, आप दो-चार लोगों का परिवार बनाते हो, जानते हो क्यों? प्रेम चाहिए और डरे हुए हो कि छीन जाएगा। तो उस परिवार बनाने से यही समझो कि प्रेम मुझे चाहिए।

और दीवारें खड़ी करते हो — समाज की दीवार खड़ी करोगे, भाषा की खड़ी करोगे, फिर राष्ट्र की खड़ी करोगे। इनको बीमारी कहने से बेहतर है कि इनको तुम्हारी छटपटाहट कहा जाए। ये बीमारी नहीं है, ये हमारी छटपटाहटें हैं। किस बात की?

श्रोता १: चाहिए।

आचार्य: चाहिए, अपनापन चाहिए। पूरी दुनिया से एक नहीं हो पा रहा तो कम-से-कम कुछ लोगों से एक हो जाऊँ, ऐसा भाव चाहिए। अपने से बड़ा कुछ चाहिए कि नहीं, मैं अपने क्षुद्र स्वार्थों के लिए काम नहीं कर रहा। मैं अपने समाज के लिए काम कर रहा हूँ, अपने से बड़ा कुछ। देख नहीं रहे हो क्या हो रहा है? अहंकार तलाश कर रहा है अपने से किसी बड़े की।

तो तुम समाज बनाते हो या समुदाय बनाते हो, वहाँ भी तुम तलाश परमात्मा की ही कर रहे हो। जिन बातों को हम तिरस्कृत करते हैं, वहाँ भी घूम-फिरकर के पुकार तो परमात्मा की ही है। पर उसे तिरस्कृत करते रहोगे तो ऐसा ही होगा कि जैसे डाकिया या कुरीयर वाला प्रेमपत्र ला रहा है और आप उस डाकिये को भगा रहे हो।

उसे तिरस्कृत मत करो, उस पैगाम को स्वीकार करो। पढ़ो उसे और पूरी श्रद्धा के साथ पढ़ो कि है ये प्रेमपत्र ही और कुछ आता ही नहीं है उसकी ओर से, वो सिर्फ़ प्रेमपत्र भेजता है।

तुम महा झूठे हो, एक नम्बर के डरपोक हो, अरे! बिलकुल लुच्चे हो। ये कुछ नहीं है, ये उसका बहुत बड़ा वाला डाकिया है। अब वो छोटे-मोटे पत्र नहीं ला रहा है, वो पूरा पार्सल लेकर आया है तुम्हारे लिए, इतना असीम प्यार है उसका। पूरा पार्सल भेजा है उसने।

भाई, ऐसा होता है। घर में देखा होगा माएँ होती हैं, एक बच्चा स्वस्थ है और एक बच्चा बीमार रहता है। माँ बार-बार किसको देखने जाती है? माँ बार-बार ध्यान किस पर देती है? तो तुम जितने अस्वस्थ होगे, तुम जितने बीमार होगे, तुम्हें उतने पैगाम आते हैं उसके। वो तुमसे प्यार करता है न।

जो स्वस्थ हैं, उन्हें उनके कोई पैगाम आते ही नहीं क्योंकि वो तो उसी के पास बैठे हैं। तो उनसे पूछो, ‘तुम्हें कोई पैगाम आता है?’ कहते हैं, ‘कुछ नहीं आएगा, हमें तो नहीं आता।’ जो अस्वस्थ हैं उन्हें ही पैगाम आते हैं। जम कर आते हैं, एक के बाद एक आते हैं। वो कभी कपट करेंगे, कभी रोएँगे, कभी किसी का कुछ चुरा लेंगे, कभी किसी को गाली दे देंगे, कभी झूठ बोल देंगे, हत्या करेंगे, बलात्कार करेंगे — ये सब वही हो रहा है।

श्रोता १: ये जो नीच-से-नीच विचार आ रहे हैं मन में, वो भी यही हैं।

आचार्य: बिलकुल वही है। अब जब नीच-से-नीच विचार आये। तो उस विचार से कहना, ‘तुम मुझे यूँ बना न पाओगे।’ तुम प्रेमपत्र हो, तुम परम की पुकार हो। किसी की हत्या क्यों करना चाहते हो? ताकि शान्ति मिले न। देख नहीं रहे हो कि शान्ति पुकार रही है?

किसी से बलात्कार भी क्यों करना चाहते हो? अगर तुम उससे प्रेम कर सकते तो बलात्कार नहीं करते, याद रखो। बलात्कार गहरे में प्रेम की अभीप्सा है और अक्सर जो ये नाकाम प्रेम होता है, ऐसा प्रेम जिसे उत्तर नहीं मिला, कोई प्रत्युत्तर मिला नहीं, जो एकतरफ़ा रह गया — ये बलात्कार में परिणीत हो जाता है। समझ रहे हो बात को?

तो हत्या करते हो क्योंकि शान्त होना चाहते हो। बलात्कार भी करते हो तो उसमें कहीं-न-कहीं प्रेम की चाह है। तुम और चाहते ही कुछ नहीं हो, तुम सिर्फ़ परम को चाहते हो। अब जब हत्या का विचार उठे तो कहना — आइ लव यू। और कुछ नहीं हो रहा है, वही हो रहा है।

श्रोता १: लेकिन, लेकिन तो आ ही जाता है। पर, परन्तु, ये चीज़ प्रयोग के साथ बहुत बार कोशिश करी है। लेकिन जब मन तर्क देता है क्योंकि बहुत जगह सुना है, पढ़ा है कि इस तरफ़ बढ़ने की जो एक यात्रा है, इट्स अबाउट एक्युमुलेशन ऑफ़ एनर्जी (ये ऊर्जा संचय के बारे में है)। कृष्णमूर्ति भी बहुत बार बोलते हैं कि अब आप ये मना नहीं कर सकते।

आचार्य: कौन? तुम कौनसी वाली, तुम उस दिशा में जा रहे हो क्या, वो जो रागदरबारी की है?

श्रोता १: हाँ!

आचार्य: रागदरबारी एक उपन्यास है जिसमें एक ‘वैद्य जी’ नाम का चरित्र है। वो बच्चों को समझाता है कि ऊर्जा कैसे संचय की जाती है, कुछ वैसी सी बात तो नहीं करना चाहते? (सभी हँसते हैं)

श्रोता १: नहीं, मैं वो नहीं। शायद अभी वो पढ़ा नहीं है लेकिन मैं सिम्पल ये कह रहा हूँ कि अपने जो भी डर हैं, जो भी चीज़ हमें पीछे ढकेलती है या विचार है जो उनको देखने के लिए, उनसे बात करने के लिए एक बहादुरी तो चाहिए, वो एक डरपोक आदमी नहीं कर सकता।

आचार्य: श्रद्धा चाहिए। उसके लिए तुमको गहरे में इस बात को मानना पड़ेगा कि एक ही सत्ता है। फिर से कह रहा हूँ, ‘दूसरा कोई नहीं है।’ अरे भाई, जब एक ही है तो फिर जगत में कल्याण के अलावा दूसरा हो क्या सकता है? अभी गाकर आये हो, "वहद हू, वहद हू"; वहद का मतलब समझते हो क्या होता है? वहद का यही मतलब होता — है एक ही है, अद्वैत, दूसरा नहीं है।

श्रोता १: अच्छा, इसलिए कहते हैं कि द्वैत से बाहर आओ।

आचार्य: एक ही है। एक घर है, उसमें तुम्हें पक्का पता है कि सिर्फ़ तुम्हारा प्रेमी रहता है। और उस प्रेमी की ही सत्ता चलती है उस घर में। तुम उस घर में घुसो और पाओ कि अन्धेरा है। तो इसका क्या अर्थ होगा? वो तुम्हें कष्ट देना चाहता है? अगर तुम आश्वस्त हो कि प्रेमी ही है तुम्हारा। तो तुम कहोगे कि ये अन्धेरा भी?

श्रोता १: अच्छा है।

आचार्य: मेरे भले के लिए होगा। ये अन्धेरा भी मेरे भले के लिए होगा। पर ये कह पाने के लिए तुम्हें पूरा-पूरा यकीन होना चाहिए कि इस घर में सिर्फ़ मेरे प्रेमी की सत्ता है।

श्रोता १: आचार्य जी, फिर उस यकीन के लिए एक्शन चाहिए होगा?

आचार्य: उस यकीन के लिए पता नहीं क्या चाहिए? वहाँ पर आकर के सब रुक जाता है।

श्रोता १: सर, शुरुआत में अगर यकीन भी हो कॉन्सेप्ट लेवल (अवधारणा के स्तर) में, जैसे मैंने अभी बहुत सारे अपने जीवन में ही देखा है — कभी-कभी ऐसा हो जाता है तो एक खयाल आता है कि ये भी वही है। दुख आता है कोई भी मैं खुश हूँ या दुखी, जो भी मेरे जीवन में आता है। ये एक लाती हूँ मैं, ये मुझे लग रहा है कि ज़बरदस्ती में लाती हूँ।

जैसा आपने कहा, ‘कभी ऐसा उठे तो बोल देना, तुम यूँ न बना पाओगी।’ पर उस क्षण में जब लाते हैं तब तो वो नहीं रुकता है। आचार्य: देखिए, एक बात बताइए मुझे, ये भी तो आपने सोच-सोचकर ही पक्का करा है न कि मेरा कुछ बुरा हो रहा है। जब सोच-सोचकर ये पक्का कर सकते हो कि मेरा कुछ बुरा हो रहा है तो सोच-सोच कर उसको हटा भी लो। अब उसमें इतनी मजबूरी कहाँ से आ गयी? जब इकट्ठा कर रहे थे तब मजबूरी नहीं बतायी।

श्रोता १: मैं कुछ दिनों से ये अनुभव भी कर रहा हूँ कि अगर एक बार-बार स्मरण रहे तो काम आ जाता है।

आचार्य: बिलकुल।

श्रोता १: तुम मुझे बेवकूफ़ न बनाओ, ये आशय है।

आचार्य: सिर्फ कानों से सुन-सुनकर इतनी बातें हैं जो मन में पक्की हो गयी हैं। तो कानों का ही इस्तेमाल कर लो यार, कुछ दूसरे शब्द हैं उन्हें बार-बार सुन लो। जप और क्या होता है? जब कानों से सुन-सुनकर ग्रन्थियाँ बैठा सकते हो तो कानों से ही सुन-सुनकर हो सकता है कुछ और हो जाए। श्रवण मनन बने, मनन अध्यासन बन जाए।

लेकिन ये मानना पड़ेगा कि सत्ता एक ही है। उसके अलावा जब तक दूसरा कुछ मान रहे हो, जब तक ये मान रहे हो कि दो हैं, ‘ब्रह्म है तो माया भी है’ तो फँसोगे। और ज़्यादातर धर्मों ने यहाँ पर कुछ उलट-पुलट कर ही दिया है। भारत में ये बात बहुत निकली ‘माया’ है। माया कहा हैं? ‘ब्रह्म’ ही तो है। देखने की बात है बस। जब तक ठीक से देखा नहीं तो क्या लगी?

श्रोता १: माया।

आचार्य: और जब ठीक से देख लिया तो क्या दिखाई दिया?

श्रोता १: ब्रह्म।

आचार्य: तो कहाँ है माया? क्रिश्चिएनिटी ने, इस्लाम ने कह दिया शैतान होता है, कुफ्र होता है। कहाँ है? क्या कहना चाहते हो कि एक परम सत्य है और उसके विपरीत कोई और भी खड़ा हुआ है?

श्रोता १: जो उसको चैलेंज कर रहा है।

आचार्य: जो उसको चैलेंज कर रहा है। तो फिर वहदत का क्या हुआ? अद्वैत का क्या हुआ? यदि दो नहीं है तो फिर ये शैतान कहाँ से आ गया? शैतान है ही नहीं, सिर्फ़ प्यार का सन्देश है जो शैतान जैसा दिखाई देता है। डाकिये की शक्ल डरावनी है। तुम सोचते हो कि होशियार हो न तुम, तुम बोलते हो, ‘खत का मजमूँ भॉंप लेते हैं हम डाकिया देख कर।’ और डाकिया है डरावना। तो तुम खत ही नहीं पढ़ते हो। वो जो शैतान है, वो खुदा का डाकिया है। वो खुदा के प्यार का सन्देश लेकर आया है और तुमने उसे नाम दे दिया है शैतान।

श्रोता १: तो सर, वो इस शक्ल में आया क्यों है? अच्छी शक्ल में भी तो आ सकता था?

आचार्य: उसकी शक्ल अच्छी ही है। तुम्हारी नैतिकता ने तय कर रखा है कि ऐसी शक्ल खराब कहलाती है। उसकी शक्ल में कुछ कमी-बेसी नहीं है। तुमने तय कर रखा है कि ऐसी-ऐसी शक्लों को अच्छा कहूँगा और ऐसी-ऐसी शक्ल को बेकार कहूँगा।

श्रोता १: ये कितना हल्का लग रहा है! जैसे अभी लग रहा है, इट्स लाइक सो एलीवेटिंग (ये बहुत ऊपर उठाने जैसा है), एकदम सुन्दर सा मन है हम सब चीज़ों का।

श्रोता २: वैसे राक्षस की शक्ल बुरी मानी जाती थी, सच की रोशनी आयी, उसके बाद सारे वैम्पायर बनना चाहते हैं।

आचार्य: बहुत बाते हैं। तुम लोकप्रिय संस्कृति को, फ़ैशन को ही अगर देखोगे तो बहुत कुछ जो कभी बिलकुल फूहड़ और पागलपन माना जाता था, वो अब सुसंस्कृत लोग करे जा रहे हैं।

श्रोता १: टैटू।

आचार्य: हाँ, और दस चीज़ें। ऐसे-ऐसे समय हुए हैं जब ये सज़ा मानी जाती थी अगर किसी को कह दिया जाए है कि चेहरे के बाल साफ़ करो। जैसे अभी भी होता है न कि सिर के बाल मूँड लो, ये अपमान का द्योतक होता है। ठीक उसी तरीके से दाढ़ी बनाना भी अपमान का द्योतक माना जाता था। समाज हुए हैं ऐसे!

श्रोता १: फिर वो मूँछ पर आ गया, सात समुद्र पार करके यहाँ।

आचार्य: बहुत सारी बातें हैं। तो शैतान कुछ है ही नहीं। खुदा के पैगाम को तुम ठीक से देख नहीं पा रहे, उसके पैगम्बर को तुम ठीक से देख नहीं पा रहे तो तुमने उसको नाम दे दिया है शैतान और कुछ नहीं है। शैतान होता ही नहीं है। अद्वैत है, वही है, सिर्फ़ वही और कुछ नहीं है।

YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=y6XCMcIyAUU

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