श्रीराम: सगुण या निर्गुण

Acharya Prashant

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श्रीराम: सगुण या निर्गुण
हम अपने आराध्यों की कथा, चरित्र, मूर्ति, छवि अपने ही हिसाब से बना देते हैं। हम अपनी सहूलियत, मान्यता और स्वार्थ के अनुसार कालातीत को भी बदल डालते हैं। यह समस्या राम के निर्गुण–निराकार रूप के साथ बिल्कुल नहीं है क्योंकि जो निर्गुण और निराकार है, उसकी कोई मूर्ति ही नहीं, कोई छवि ही नहीं; तुम उसको कैसे ख़राब कर लोगे? इसलिए ज्ञानियों ने कहा कि उनको तो ब्रह्मस्वरूप ही मानना — “राम ब्रह्म परमारथ रूपा, अबिगत अलख अनादि अनूपा।” मात्र वही राम हैं जो कालातीत हैं। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मैं आपको पिछले कुछ महीनों से सुन रहा हूँ। मेरे मन में श्रीराम को लेकर एक दुविधा है। आप कहते हैं, कि आप दशरथ पुत्र राम को नहीं बल्कि जो सत्य है उसे राम कहते हैं। तो दुविधा ये है कि दशरथ पुत्र राम को कर्म मानने में या राम मानने में क्या समस्या है? कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: नहीं, समस्या कोई नहीं है। न उनको कहा जा रहा है कि राम मत मानो। प्रश्न में भाव निहित है, जैसे दशरथ पुत्र राम को राम मानने में कोई बाधा है, वर्जना है, समस्या है। ऐसा कुछ नहीं है। लेकिन मुद्दा हमें श्रीराम से हटाकर स्वयं पर लाना पड़ेगा न। हम कैसे हैं? बात उनकी नहीं है, बात हमारी है। प्रश्न सुनो तो ऐसा लगता है जैसे राम, जो कि ब्रह्मस्वरूप हैं, और राम, जो कि दशरथ पुत्र हैं, इन दो की तुलना की जा रही हो, है न? लेकिन मुद्दा राम नहीं है, मुद्दा हम हैं, हमारा अहंकार, हम कैसे हैं?

हम ऐसे हैं कि मैं आपसे कोई साधारण-सी बात भी बोलूँ या मैं आपके सामने कोई साधारण-सा काम भी करूँ और आपसे कहूँ कि लिखो मैंने क्या कहा, क्या किया, तो आप सब अलग-अलग लिख दोगे। तो आपके कहे में आपके व्यक्तित्व का कुछ अंश आकर मिलावट कर देता है। कई बार थोड़ी मिलावट, कई बार बहुत ज़्यादा। दशरथ पुत्र राम स्वयं अपनी कोई जीवनी लिखकर गए नहीं न। उनके बाद दर्जनों प्रकार की अलग-अलग रामायण लिखी गईं। रामचरित्र अलग-अलग। उत्तर भारत में हम दो से परिचित हैं, वाल्मीकि रामायण और संत तुलसीदास का रामचरितमानस। इन्हीं दोनों में ज़बरदस्त भिन्नताएँ रहती हैं, बहुत भिन्नताएँ हैं, इतनी कि आप गिनने लगें तो बड़ी लंबी सूची बनेगी।

तो वहाँ फिर जो सत्यनिष्ठ व्यक्ति होगा, वो पूछेगा न कि यहाँ से जो वृत्त उभर रहा है राम का, वो अलग है, यहाँ जो उभर रहा है वो अलग है। और फिर अगर दक्षिण भारत की ओर चले जाएँ या दक्षिण-पूर्व एशिया की ओर चले जाएँ तो वहाँ पर भी अनगिनत रामचरित्र हैं, रामायणें हैं। उनमें और जो रामचरित्र है और जो पूरी कहानी है, कथा है, वो अलग ही रूप, रंग, मोड़ लेती है। और वो जितने रूप-रंग हैं, वो श्रीराम के नहीं हैं, वो कथाकारों के हैं जिन्होंने लिखा। वाल्मीकि जो बात कहना चाहते थे, उनमें से बहुत बातों को तुलसीदास ने स्वीकार नहीं किया, उन्होंने वो हिस्से हटा दिए अपने रामचरितमानस से। ये निर्णय श्रीराम का नहीं है, ये निर्णय किसका है? तुलसीदास का है। ये समस्या है। समझ में आ रही है बात?

हम लोग ऐसे हैं, हम लोग अच्छे लोग नहीं हैं। ये जो मनुष्य पैदा होता है न, दुनिया में कहीं भी, मैं सिर्फ़ भारत की नहीं बात कर रहा हूँ, वो अपनी वृत्तियों का ग़ुलाम होता है मनुष्य। तो इस कारण वो अपने आदर्शों और महापुरुषों को भी सब अपनी ही छवि में ढाल लेता है। आपको जो-जो काम अच्छे लगते होंगे, उदाहरण के लिए आप अगर मेरा सम्मान करते हैं तो आप ये सोचना चाहेंगे कि जो-जो काम आपको अच्छे लगते हैं, मैं भी करता हूँ। ऐसा है कि नहीं? आपको जो-जो काम अच्छा लगता है, आपकी बड़ी मान्यता है कि ये काम अच्छा है और अगर आप मेरा सम्मान करते हो तो आप ये सोचना चाहोगे कि वो काम मैं भी करता हूँ।

तो अगर आपको कभी मौक़ा मिले मेरा चरित्र लिखने का, तो उसमें जाने-अनजाने आप मेरे बारे में कुछ वो सब लिख ही दोगे जो आपको अच्छा लगता है। अब वो सब मैं करता नहीं, पर आपको अच्छा लगता है तो आप लिख दोगे, हो गई न मिलावट। और ये मिलावट आपने कोई दुर्भावना से प्रेरित होकर नहीं करी है, ये बस मनुष्य की वृत्ति ऐसी है। और आपको जो बुरा लगता है, आप ये मानना चाहोगे कि मैं वो सब नहीं करता। तो अगर मैं वैसा कुछ करता भी हूँ, पर आप अगर मेरी जीवनी लिखोगे तो मेरी जीवनी से वो सब कुछ हटा दोगे। आप कहोगे, ये तो गंदी बातें हैं ये थोड़ी करते होंगे। तथ्य का ख़्याल नहीं करोगे, अपने आग्रह का ख़्याल कर लोगे। उसमें भी कोई दुर्भावना नहीं है। आप मेरा सम्मान करते हो, इसीलिए आप मेरे बारे में कुछ ऐसा नहीं लिखना चाहोगे जो आपको लगता है, आपकी मान्यता के अनुसार कि गलत है। गलत है कि नहीं, ये कुछ निश्चित नहीं, पर आपकी मान्यता है कि गलत है तो आप नहीं मानना चाहोगे। समझ में आ रही है बात ये?

हम जैसे हैं आज, हम जैसे होते हैं किसी भी काल में, अतीत के अपने सब महापुरुषों को हम उस समय और उस काल की अपनी मान्यता और मूल्यों के अनुसार ढाल लेते हैं। हम जैसे आज होते हैं न, तो आज हमारे कुछ मूल्य हैं। मूल्य माने वैल्यूज़। हमें कुछ अच्छा लगता है, कुछ बुरा लगता है। कुछ थोड़ा अच्छा है, कुछ थोड़ा बुरा है। ये पूरा क्या कहलाता है? वैल्यू सिस्टम, (मूल्य व्यवस्था)। तो जो हमारी आज की मूल्य व्यवस्था होती है, हम उसके हिसाब से हज़ारों साल पहले के चरित्रों को भी ढाल लेते हैं। वो कल्पना ही है बस। वो सचमुच कैसे थे, हम इसका ख़्याल नहीं रखना चाहते। ये हमारी गलती है। ऐतिहासिक महापुरुषों की गलती नहीं है, वो हमारी गलती है कि हम इस बात का नहीं ख़्याल करना चाहते वो सचमुच कैसे थे। हम इसका ख़्याल करना चाहते हैं कि आज हमें क्या अच्छा-बुरा लगता है।

उदाहरण के लिए पिछले बीस-पच्चीस सालों में भारत में ये बहुत हो गया है कि शरीर तगड़ा होना चाहिए। तो आप पहले के मंदिरों में चले जाइए और वहाँ पर राम, लखन, सीता हैं, आप उनकी मूर्तियाँ देखिए, तो वो सब कैसे दिखाए गए हैं? उनको बहुत ज़्यादा बाहुबलयुक्त नहीं दिखाया गया है। मैंने पहले भी कहा था कि तुलसीदास ‘सुकुमार’ और ‘सुकोमल’ इन शब्दों का प्रयोग करते हैं, कई बार करते हैं। और सीता जी के लिए ‘सुकुमारी।’ तो उनको वैसा दिखाया भी गया है फिर पुरानी मूर्तियों में और चित्रों में सुकोमल, सुकुमार।

पर अब ज़रा हम में उग्रता ज़्यादा आ रही है पिछले कुछ दशकों से। तो अब जो राम, लक्ष्मण, हनुमान की हमको छवियाँ दी जाती हैं, हम बनाते हैं नई-नई छवियाँ, उन छवियों में हम क्या बनाते हैं? मज़बूत मांसपेशियाँ, पेट में भी दिखाई दें मांसपेशियाँ, ये पुराने मंदिरों में तो कभी नहीं था। क्योंकि वो मंदिर पुराना है तो वो अठारहवीं शताब्दी में बना था, तो अठारहवीं शताब्दी के लोगों ने अपने हिसाब से राम का वृत्त मूर्ति में प्रदर्शित कर दिया। और अब इक्कीसवीं शताब्दी है तो इक्कीसवीं शताब्दी के लोग जो सोच रहे हैं, उसके हिसाब से वो अपने अनुरूप राम की छवि बना लेते हैं। ये समस्या है।

हम सच के नहीं पारखी होते न। हमें इस बात से कम मतलब होता है कि वो सचमुच क्या हैं, श्रीराम सचमुच क्या हैं, या सत्य सचमुच क्या है। हमें इससे कम मतलब होता है। हमें अपने आग्रहों से ज़्यादा मतलब होता है, और आग्रह हर काल में बदलते रहते हैं, हर शताब्दी में बदलते रहते हैं। बाईसवीं शताब्दी के राम कैसे होंगे? अनुमान लगाना मुश्किल है। वो इस पर निर्भर करता है कि बाईसवीं शताब्दी में ये सब जो छोटे-मोटे ये सब लोग हैं अपने, ये जब बड़े होंगे तो ये किस चीज़ को वैल्यू करेंगे। ये जिस चीज़ का मूल्य करेंगे, उसी के अनुसार राम मूर्ति बना देंगे। समझ में आ रही है बात?

बिल्कुल ऐसा हो सकता है, इसमें कोई आज से 100 साल पहले लोगों को बहुत विचित्र लगता कि तुम इतनी मांसपेशियाँ क्यों दिखा रहे हो श्रीराम की। बहुत अजीब लगता। और आज आपको ये सुनने में बहुत अजीब लगेगा कि हो सकता है ये अगली पीढ़ी या इसकी अगली पीढ़ी बड़ी हो, तो राम मूर्ति में टैटू खुदवा दें। ये बात सुनने में अजीब लगी न। वैसे ही आज से 100–200 साल पहले हमारे पूर्वजों को ये बात बहुत अजीब लगती, कि इतने मस्कुलर राम क्यों बनाएँगे कोई, नहीं बनाएगा। पर हम कर रहे हैं ऐसा। जो बात उन्हें अजीब लगती है, वो हम कर रहे हैं। जो बात हमें अजीब लग रही है, हमारे बाद की दो पीढ़ियाँ करेंगी। ये समस्या है।

ये समस्या राम के निर्गुण निराकार रूप, जो उच्चतम है, उसके साथ बिल्कुल नहीं है। क्योंकि जो निर्गुण है और निराकार है, उसकी कोई मूर्ति ही नहीं, उसकी कोई छवि ही नहीं, तुम उसको कैसे ख़राब कर लोगे? मात्र वही राम हैं जो कालातीत हैं। बाक़ी सब जो हमने छवियाँ बनाई हैं, वो काल के अनुसार बदलती हैं। क्योंकि हम बदलते हैं काल के अनुसार, तो हम अपने आदर्शों, महापुरुषों की छवियाँ भी बदल देते हैं काल के अनुसार।

मैं ननिहाल में, गाँव है पास में पाडर, मैं छोटा था, वहाँ गया था। वहाँ पर महादेव का बहुत पुराना चित्र मिला मुझे, बहुत पुराना। उनके इतनी लंबी दाढ़ी पूरा, जटाएँ तो हमने देखी हैं, पर आपने दाढ़ी कम देखी होगी या शायद देखी न हो, पर थी। जब वो चित्र बना था, उस समय की अवधारणा थी या उस क्षेत्र की अवधारणा थी। क्षेत्रों के हिसाब से तो बदलता है न। अब किस क्षेत्र की धारणा को हम सच मान लें? हर क्षेत्र की अपनी अलग-अलग धारणा है। हर क्षेत्र की अपनी अलग रामायण है। किसको मान लें? समझ में आ रही है बात?

तो इसलिए हम कहते हैं कि जो ऊँचे से ऊँचे हैं, जैसे श्रीराम, वो कहीं हमारे हाथ का खिलौना बनके न रह जाएँ। इसका कुछ बंदोबस्त करना होगा। इसका बंदोबस्त ये है कि राम के मर्म को ले लो।

राम के मर्म को ले लो, और वो जो मर्म है, वो काल से अनछुआ रहता है। उसको काल नहीं ख़राब कर सकता।

अब हमने क्या करा? अब हमने राम को अपने हाथों से गंदा होने से बचा लिया, नहीं तो हम ही उन्हें गंदा कर देते। मूर्ति, छवि, कथा — ये तो हमारे हाथ की चीज़ है न। मूर्ति किसने बनाई? कथा किसने लिखी? और हम गंदे लोग हैं, हम मूर्ति को भी बिगाड़ देंगे, कथा को भी भ्रष्ट कर देंगे। और हम करते आए हैं, करते आए हैं न।

चलो उदाहरण लेते हैं। एक रामायण, महाभारत वो थी जो दूरदर्शन पर आपने देखी थी अस्सी और नब्बे के दशक में। और उसके बाद से भी तीन, चार, पाँच और आई हैं अभी हाल में। देखा इनमें ही कितना अंतर आ गया, बीस साल के अंदर-अंदर कितना अंतर आ गया। वो जो बी. आर. चोपड़ा की आती थी महाभारत, उसके कर्ण को याद करो, उसके भीष्म को याद करो, वो कैसे थे। उसके सारे चरित्र कैसे दिखते थे। और अभी जो हाल वाली आती हैं, वो कैसे हैं, वो देखो। वो भीष्म भी उसमें ऐसा लगता है सोलह साल के हैं। क्योंकि एक अपरिपक्वता पूरे समाज पर छा गई है, तो सब टीवी वाले किरदारों में भी दिखाई देती है, इमैच्योरिटी। कर्ण याद करो कैसे थे वो, और अभी के जो कर्ण आते हैं वो कैसे रहते हैं। हमने बदल दिया न। दोनों में असली कर्ण कौन सा है? कोई भी नहीं। ये समस्या है।

सब कथाएँ हमारे हाथ की हैं, हम बदल डालते हैं। हम अपनी सहूलियत, अपनी मान्यता, अपने काल स्वार्थ के अनुसार जो कालातीत है, हम उसको भी बदल डालते हैं। ये गड़बड़ है। राम में कोई गड़बड़ नहीं है, हम में गड़बड़ है। तो इसलिए फिर ज्ञानियों ने कहा कि उनको तो ब्रह्मस्वरूप ही मानना, “राम ब्रह्म परमारथ रूपा, अबिगत अलख अनादि अनूपा।”

अबिगत – जो बीत नहीं सकते, पुरानी चीज़ मत मानना, उन्हें ऐतिहासिक मत मानना।

अलख – अलख माने जिसकी कोई कल्पना नहीं हो सकती, जिसे लक्ष्य नहीं बनाया जा सकता।

अनादि – माने जिसका कभी जन्म नहीं हुआ, जो शरीर ही नहीं है।

अनूपा – जिसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता, जिसकी कोई उपमा नहीं, वो है राम।

असली राम वो हैं, बाक़ी तो फिर आप अपनी मर्जी, अपने स्वार्थ, अपनी कल्पना से कुछ भी वृत्त रच सकते हो। हम रच ही रहे हैं।

कोई ज़िला ऐसा नहीं है भारत में जहाँ ये न हो कि जब राम अयोध्या से निकले थे वनगमन को, तो यहाँ पर विश्राम करा था। ऐसा हो सकता है क्या? हो सकता है? बंगाल में ऐसा है, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ऐसा है, वहाँ पहाड़ों पर ऐसा है। अयोध्या से निकले हैं लंका जाने को तो हिमालय काहे को जाएँगे? पर वो कहेंगे पांडव गुफा है या पांडव पत्थर है या पांडव ये है, हर जगह। ये श्रीराम ने ख़ुद आकर तो बताया नहीं, न पांडवों ने ख़ुद आकर बताया, पर हमने रच दिया। हम ऐसे ही हैं, हम कुछ भी रच देते हैं।

आज जो पाकिस्तान है, अफ़ग़ानिस्तान है, आप वहाँ चले जाइए। वहाँ भी मिलेंगे कि यहाँ पर श्रीराम लखन बैठे थे। यहाँ सब पांडव बैठे थे। भारत के हर ज़िले में, हर कस्बे में ये सब रहता है कि नहीं रहता है? कश्मीर में भी है, असम में भी है। हम लोग गड़बड़ हैं, और ये नहीं कि जानबूझकर गड़बड़ हैं उसमें हो सकता है भावना मीठी ही हो। जिसको हम अपना मानते हैं, जिसको पूज्य मानते हैं, मन करता है कि उसको अपने ही घर के पास कहीं बसा लें। मन करता है न? तो फिर हम एक कथा रच लेते हैं, उसको अपने घर के पास बसा लेते हैं। कुछ कथा रच लेंगे।

पर वो जो कथा होती है उसमें राम कम होते हैं, हम ज़्यादा होते हैं, ये समस्या है। हम ये नहीं मानते कि उस कथा में हम ज़्यादा हैं, हम कह देते हैं ये राम कथा है। अब ये समस्या हो गई। जिस कथा में हम ज़्यादा हैं, अगर हमने उसको राम कथा बोल दिया, तो हमने अपने आप को क्या बना दिया? राम। ये गड़बड़ है। हमारी क्या औक़ात है, हम राम की बराबरी करें। पर जिस कथा में हमारा ही अंश ज़्यादा है, हमारी ही कल्पनाएँ, हमारे ही आग्रह, हमारी ही भावनाएँ, जिस कथा में ये सब ज़्यादा है, उसको हम कह देते हैं साहब ये तो राम की कहानी है। ये कह के हमने स्वयं को श्रीराम के समतुल्य खड़ा कर दिया। ये गड़बड़ बात है न? ये है दिक़्क़त।

तुम देखते नहीं हो, तुम्हें जो कुछ करना होता है, वो तुम अपने कथाओं में, कहानियों में या जनश्रुति में अपने सब महापुरुषों से, आदर्शों से भी करवा लेते हो। हमें जो अच्छा लगता है, वो सब हम उनसे भी करवा लेते हैं। यहाँ संस्था में कोई है, बोले, मैं अविवाहित रह के ऊँचे से ऊँचे काम को अपना जीवन समर्पित करना चाहती हूँ। बोले घर वाले बोल रहे हैं कि तुम सीता जी से बड़ी हो गई? ब्याह तो उन्होंने भी किया था। अब बताओ, जो हम करते हैं वही हमने उनसे करवा लिया। अब उन्होंने कर दिया, फिर कहते हैं कि उन्होंने करा था इसलिए हम भी करेंगे।

तुम श्रीकृष्ण जी से बड़े हो गए, दूध मक्खन तो वो भी खाते थे। जो तुम करते हो, वही तुमने उनसे करवा लिया। अब कह रहे हो क्योंकि उन्होंने करा, इसलिए हम भी करेंगे।

एक बार जब गोवा में शिविर हो रहा था, तो आप लोगों ने विदाई की जो रस्म है उस पर बात करी। शायद आपने ही शुरू करी थी बातचीत (श्रोता को इंगित करते हुए)। उस पर खूब आया कि विदाई तो सीता जी की भी हुई थी, विदाई तो उनकी भी हुई थी। वो भी अपना घर छोड़कर अयोध्या गई थी। तो ये आज की औरतें बहुत तेज़ हो गई हैं कि विदाई के खिलाफ़ सवाल कर रही हैं।

अब मैं कहता हूँ, स्वावलंबी बनो। अपने हाथों में ताक़त होनी चाहिए, काम करो, कमाओ, खाओ। तो ये सब आपत्ति ले आते हैं, कहते हैं, हमारी इतनी देवियाँ हैं कौन ऑफिस जाती हैं? और जब हमारी देवियाँ ऑफिस नहीं जातीं तो आप क्यों बोल रहे हो महिलाओं को कि काम करो। अब क्या करें? समझ में आ रही है बात?

और मैं कोई पहला नहीं हूँ जिसने कहा है कि राम परम सत्य हैं, निर्गुण निराकार हैं, ब्रह्म मात्र है राम। ये बात जिन्होंने भी समझा है, आज भी, आज से पाँच सौ साल पहले भी, आज से हज़ार साल पहले भी सब ने एक ही बात कही है। “राम निरंजन न्यारा रे।” और अब मैं इसका उल्टा पक्ष भी बता देता हूँ, क्योंकि आप राम को व्यक्ति बनाने पर तुले रहते हो। व्यक्ति बनाने पर तुले क्यों रहते हो? क्योंकि आप स्वयं व्यक्ति हो न।

आप मुझसे पूछते हो कि दशरथ पुत्र राम से क्या दिक़्क़त है? मैं आपसे पूछता हूँ, निर्गुण निराकार राम में क्या दिक़्क़त है? आप बताओ न पहले। आपको ये दिक़्क़त है कि आपको व्यक्ति बने रहना है, पर्सन विद अ पर्सनैलिटी, व्यक्तित्व, देह भाव। क्योंकि आपको देही बने रहना है, इसीलिए आप चाहते हो कि जो उच्चतम है, वो भी देही रहे, शरीर ही रहे, एम्बॉडीड ही रहे। ये आपका आग्रह है। आप अपने आग्रह की बात नहीं कर रहे, आप मुझसे पूछ रहे हो। आप अपने आग्रह की तो बात करो न। आप क्यों बार-बार उनको देही ही बनाना चाहते हो? क्योंकि आप चाहते हो आप देही बने रहो।

और जानने वालों ने बार-बार समझाया है कि बॉडी आइडेंटिफिकेशन, देह भाव से बड़ी ही मूर्खता और बड़ा पाप दूसरा नहीं होता। सब ज्ञानियों ने, अवतारों ने हमें समझाया, तुम देह नहीं हो। हमने उनको जवाब ये दिया, हम तो देह हैं ही, हम तुम्हें भी देह बना देंगे।

श्रीकृष्ण की गीता हमें समझा रही है कि सुनो पाठकों, तुम देह नहीं हो। हमने श्रीकृष्ण को जवाब दिया, अरे, तुमने हमें छोटा समझा है, हमारी ताक़त देखो। हम तो देह हैं ही और हम देह रहेंगे, हम तुम्हें भी देह बना देंगे श्रीकृष्ण और देह के जितने किस्से होते हैं सब रच देंगे। ये श्रीकृष्ण की गीता का अपमान नहीं है?

क्या मैं ये कह रहा हूँ कि राम काल्पनिक हैं? नहीं, मैं बिल्कुल ऐसा नहीं कह रहा हूँ। निश्चित रूप से ऐतिहासिक चरित्र हैं, पर उन्हें अगर मात्र ऐतिहासिक चरित्र बनाकर रखोगे तो लोगों को राम तक लाना भी मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि वो बहुत-बहुत पुरानी बात है। उस समय के मूल्य और मान्यताएँ अलग थे, उस समय ठीक-ठीक क्या हुआ, किसी ने नहीं देखा। आज मैं लोगों को गीता के पास लाने की भरसक कोशिश कर रहा हूँ। बहुत लोगों का उसमें प्रतिवाद ये रहता है, “श्रीकृष्ण? अरे, ये तो वही हैं न, जिन्होंने लड़कियों के नहाते में कपड़े चुराए थे। हम ऐसे आदमी की गीता क्यों पढ़ें?”

ये होता है जब आप इतने किस्से फैला देते हो। लोगों को गीता के पास लाना मेरे लिए मुश्किल हो रहा है। मैं लोगों को योगवाशिष्ठ या सार पढ़ाना चाहता हूँ, मैं उन्हें संत कबीर के निर्गुणी भजन बताना चाहता हूँ, जिसमें बस राम-राम-राम गाया गया है। लोग कहते हैं, “राम हम नहीं सुनेंगे, राम को? राम ने सीता को वनवास दिया। राम ने अग्नि-परीक्षा ली। राम ने शम्बुक का वध किया, ऐसे राम की हम नहीं सुनते।”

लोगों को राम के पास लाना मुझे बड़ा मुश्किल हो जाता है। क्यों? क्योंकि आपने किस्से, किस्से, किस्से, इतने किस्से कर दिए कि उन किस्सों के कारण लोग अब श्रीराम और श्रीकृष्ण के पास आ नहीं रहे हैं। मज़ाक और उड़ाते हैं।

जिन लोगों को हिन्दू धर्म का मज़ाक उड़ाना होता है, वो क्या करते हैं? वो पौराणिक कथाएँ उठाते हैं और उनमें इतना मसाला है कि खूब मज़ाक उड़ाते हैं। उनमें तो यहाँ तक है कि श्रीकृष्ण ब्याह करने गए तो इतनी रानियाँ। उससे क्या बात करी? दहेज तक का उल्लेख आता है। और फिर जो नालायक लोग हैं जिन्हें सनातन धर्म को नीचा दिखाना है, वो पुराणों के वही हिस्से उठाते हैं और उद्धृत कर देते हैं। मुझे भेज देते हैं, बोलते हैं, “आप इन श्रीकृष्ण की गीता सबको पढ़ा रहे हो। देखिए, इन्होंने क्या-क्या करा हुआ है।”

फिर मैं उन्हें कुछ बोल के समझाता हूँ, किसी तरह उनको गीता में लाता हूँ। मैं कहता हूँ, गीता में आओ, तब समझोगे कि श्रीकृष्ण क्या हैं। पर बड़ी दिक़्क़त हो जाती है, काम मुश्किल हो जाता है। और ये तो तब है जब लोग थोड़ा झिझक के मारे रामायण, रामचरितमानस या पुराणों के वो हिस्से सामने लाते ही नहीं हैं, जिस पर दूसरे लोग आपत्ति करेंगे। नहीं लाते सामने। कहते हैं, ये हिस्सा सामने लाएँगे तो लोग आपत्ति करेंगे, तब है। वो सारे हिस्से सामने आने लगे तो और मुश्किल हो जाएगा लोगों को श्रीराम और श्रीकृष्ण तक लेकर आना।

अभी तो हिन्दुओं में भी कई वर्ग ऐसे खड़े हो रहे हैं जो इसी काम में लगे रहते हैं कि हिन्दुओं के ग्रंथों को लो और उसमें से आपत्तिजनक अंश निकालो और उनका मज़ाक बनाओ। ऐसे लोगों को मुझसे भी बहुत तकलीफ़ है। वो कहते हैं, कि हम चाहते हैं कि हिन्दू धर्म डूब जाए और ये सबको गीता पढ़ा रहे हैं और हज़ारों लाखों लोगों तक श्रीराम और श्रीकृष्ण को ला रहे हैं। वो मेरे पीछे भी पड़े रहते हैं हाथ धो कर। मैं उनको जवाब दे देता हूँ, पर मेरा काम कठिन हो जाता है, ये किस्से-कहानियों के मारे।

क्योंकि सच पूछो तो गीता के जो श्रीकृष्ण हैं और किस्से-कहानियों के जो श्रीकृष्ण हैं, इनमें कोई मेल है नहीं। बिल्कुल अलग-अलग से ही हैं ये। हाँ, कुछ ओवरलैप है। कुछ ऐसा है कि कथाएँ हैं, उन कथाओं को एक ऊँचा अर्थ दिया जा सकता है। पर वो सब भी बस मेहनत का ही काम है। ऐसा काम है जिसमें श्रम बहुत लगता है, ऐसा काम है जो अनिवार्य नहीं था पर करना पड़ता है। और एक काम हुआ है, इसकी वजह से लोगों को भ्रम हो जाता है कि वो अपने आराध्यों के निकट हैं।

उदाहरण के लिए, लोगों को श्रीकृष्ण के बारे में दो-चार किस्से पता हैं तो उन्हें लगता है, हम तो श्रीकृष्ण भक्त हो गए। उनसे कहो, गीता के दो-चार श्लोक पता? उन्हें नहीं पता। दो-चार किस्से पता हैं, श्लोक नहीं पता। उन्हें लगता है, हम तो श्रीकृष्ण भक्त हो गए, जबकि उनका श्रीकृष्ण से कोई वास्ता नहीं। इसका गीता से संबंध नहीं, उसका श्रीकृष्ण से क्या संबंध? पर चूँकि आपको दो-चार रसीली कहानियाँ पता हैं और दो-चार आपने इधर-उधर से श्रीकृष्ण से संबंधित कुछ गीत कहीं पर सुन लिए हैं, किसी कथा, किसी पंडाल में, तो आपको ये भ्रम हो जाता है कि आप श्रीकृष्ण भक्त हैं। जबकि जिसने गीता को पूरे तरीक़े से नहीं समझा, वो श्रीकृष्ण भक्त कैसे हो सकता है? ये समस्या है।

लोगों को धोखा हो जाता है कि वो श्रीराम या श्रीकृष्ण के पास हैं। मैंने रामलीलाएँ बहुत देखी हैं और बहुत मुझे दिल से बुरा लगता था जिस तरीक़े से वहाँ पर वो जो आते थे, बहुत ही विचित्र किस्म के अभिनेता, और न जाने वो क्या संवाद बोल रहे होते थे। और चूँकि आरंभिक काल में मैं घूमा भी बहुत हूँ, तो मैंने छोटे शहरों, कस्बों, गाँवों वाली भी रामलीलाएँ देखी हैं और मैंने ये तक देखा है कि उनमें कहीं पर कितना मामला अश्लील रहता है। ये करते हैं हम अपने महानायकों के साथ, हम गड़बड़ लोग हैं।

आप ये सवाल पूछ रहे हो न? आप आज भी जाकर के देखना। वहाँ पर वो बीच-बीच में फ़िल्मी गाने ही बजा देंगे। उदाहरण के लिए, शूर्पणखा रिझाने आई है, वो किसी आइटम नंबर पर नाचेगी ही नाचेगी। और वैसे ही नाचेगी जैसे रिझाने के लिए नाचा जाना चाहिए, फिर उसमें कहीं कोई शालीनता शेष नहीं रहती। अब छोटे बच्चे जो ऐसी रामलीला देख रहे हैं, उनके मन में राम का क्या चरित्र उभरेगा, बोलो। फिर मैं उन्हें निर्गुणी राम तक कैसे ले के आऊँगा? फिर उन्हें मैं सारा बोध साहित्य और संत साहित्य कैसे समझाऊँगा? उनके लिए तो अब राम और रामकथा मनोरंजन की चीज़ हो गए न।

किसी से कुछ कहो कि तुम ये क्यों कर रहे हो? तो कहते हैं, हमारे तरफ़ की मान्यता है। अरे भाई, सत्य बड़ा है या मान्यता है? और राम यदि सत्य हैं तो तुम अपनी मान्यता के अनुसार उन्हें तोड़-मरोड़ कैसे लेते हो भाई? श्रीराम यदि उच्चतम हैं तो वो तुम्हारी मान्यता के मोहताज हो गए क्या? तुम कहते हो, नहीं साहब, हमारी तरफ़ तो यही मान्यता चलती है। तुम्हारी मान्यता का क्या संबंध है सत्य से? मान्यता माने एजंप्शन। एजंप्शन का ट्रुथ से क्या लेना-देना? मान्यता माने बिलीफ़, बिलीफ़ का फ़ैक्ट से क्या लेना-देना?

और ये सब कह के मैं ऐतिहासिक श्रीराम की महानता और महत्त्व को कम नहीं कर रहा हूँ। निश्चित रूप से अयोध्या के युवराज श्रीराम हैं, हुए थे। इसी पार्थिव भूमि पर पार्थिव देह के साथ उन्होंने जन्म लिया था बिल्कुल, और श्रीकृष्ण भी हुए थे। लेकिन हमारे लिए उपयोगी हैं गीता के श्रीकृष्ण, या ऐसे कहिए, हमारे लिए ज़्यादा उपयोगी हैं गीता के श्रीकृष्ण। वजह बता देता हूँ।

गीता हमारे सामने रखी हुई है, तथ्य की तरह, जो है, सो है। कम से कम अब गीता में कोई मिलावट नहीं हो सकती। पर पीछे से जो पूरा नैरेटिव चला आ रहा है, हमें नहीं पता उसमें किसने क्या जोड़ा, क्या नहीं जोड़ा। और जोड़ा-तोड़ा गया है, इसके प्रमाण हैं। प्रमाण तो यही है कि जितने क्षेत्र, जितने गाँव, जितने मुँह उतनी बातें, जितने प्रांत उतनी रामायणें, जितने देश उतनी अलग-अलग रामायणें। कई बार एक-एक प्रांत में तीन-तीन अलग-अलग तरह की रामायण चल रही हैं, वो भी लिखित में।

गीता में तो बात सीधी है, श्लोक लिख दिया गया है और वो श्लोक ये नहीं कह रहा है कि मुझे इसलिए मानो क्योंकि मुझे श्रीकृष्ण ने कहा। श्लोक अपने आप में अपना मुक्त महत्त्व रखता है, स्वतंत्र महत्त्व रखता है। तो इसलिए मैं कहता हूँ, कोई पूछता है श्रीकृष्ण कौन है? मैं कहता हूँ जिसने भी गीता लिखी, वो श्रीकृष्ण है। जिसने भी गीता लिखी, किसी के माध्यम से तो आविर्भूत हुई थी न गीता, भगवद्गीता। तो जहाँ से भी भगवद्गीता आई है, उस स्रोत का नाम श्रीकृष्ण है, बस यही पहचान है श्रीकृष्ण की।

लोग कहते हैं, नहीं-नहीं, गीता को तो हम इसलिए मानते हैं क्योंकि भगवान ने दी है। कहते हैं, ये तो गड़बड़ हो गई तुम्हारे साथ, इसका मतलब तुम गीता को समझे ही नहीं। गीता का स्वतंत्र महत्त्व है। श्रीकृष्ण कौन है? गीता के जनक, गीताकार। इससे बढ़िया परिचय नहीं हो सकता श्रीकृष्ण का। समझ में आ रही है बात?

अपनी आँखों के सामने हम देख रहे हैं कथाओं को, जनमान्यताओं को बदलते हुए देख रहे हैं न, बस यही प्रमाण है। इसी से समझ लो। और जाकर के ये थोड़ा सा एक आज इसको होमवर्क की तरह करके देखिएगा कि टीवी पर ही पिछले चालीस साल में हमारे जितने कथाओं के पात्र थे, वो कैसे बदल गए, सब कुछ बदल गया। पहले की कुंती कैसी थी, अब की कैसी हैं देखो। और थोड़ा और पीछे चले जाओगे क्योंकि रामायण, महाभारत को पहले भी टीवी, सिनेमा के पर्दे पर लाया गया है, तो वहाँ और अलग पाओगे। मनुष्य अपने हिसाब से, अपने काल के हिसाब से, अपनी पसंद के हिसाब से, अपने स्वार्थ के हिसाब से अपने महानायकों का रूप-रंग और उनकी शक्लें भी बदलता रहता है।

बहुत साधारण सी बात चलती है, द वाइट मैनस् गॉड विल बी वाइट। और अगर मनुष्य के अलावा जो प्रजातियाँ हैं वो अपने ईश्वर की परिकल्पना करेंगी तो अपनी प्रजाति में करेंगी। कुत्तों का ईश्वर बिल्ली नहीं हो सकता, वो कुत्ता ही होगा। और बिल्लियों का ईश्वर सिंह नहीं हो सकता, और इनमें से किसी का भी ईश्वर मनुष्य तो नहीं होगा।

आप चीन और जापान जाएँ, वहाँ बुद्ध की मूर्तियाँ देखें, और लंका में देखें और अफ़ग़ान में देखें, आपको अंतर साफ़ दिखाई पड़ेगा, क्योंकि वहाँ के मनुष्य अलग-अलग दिखते हैं न। लंका वाला अफ़ग़ानी जैसा नहीं दिखता और अफ़ग़ानी जापानी जैसा नहीं दिखता। तो उन्होंने बुद्ध की मूर्तियाँ भी अपने हिसाब से बनाई। यही समस्या है।

हमारा हिसाब — हम अपने आराध्यों की कथा, चरित्र, मूर्ति, छवि अपने ही हिसाब से बना देते हैं। ये मिलावट है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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