सीता मैया नहीं कमाती थीं, तो हम क्यों कमाएं?

Acharya Prashant

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सीता मैया नहीं कमाती थीं, तो हम क्यों कमाएं?

आचार्य प्रशांत: (प्रश्न पढ़ते हुए) कह रहे हैं कि आप कहते हैं कि महिलाओं का कमाना उनकी आन्तरिक और भौतिक प्रगति के लिए ज़रूरी है, पर हमारी प्राचीन देवियाँ जैसे माँ सीता, देवी अनुसुइया, यहाँ तक कि साध्वियाँ जैसे मीराबाई भी कभी कमाती तो नहीं थीं, तो क्या वो सब गलत थीं?

(समाधान देते हुए) दो बातें समझनी पड़ेंगी। पहली ये कि मैंने कहा कि किसी भी व्यक्ति को किसी भी दूसरे व्यक्ति पर आश्रित होकर के नहीं जीना चाहिए। जीवन का उद्देश्य ही है आज़ादी। और कौन सी आपको आन्तरिक आज़ादी मिलेगी, अगर आप बाहरी तौर पर ही अपनी रोटी-पानी के लिए भी किसी और पर आश्रित हैं।

यही बात महिलाओं के सन्दर्भ में मैंने कही कि उम्र के पहले हिस्से में आप पिता पर आश्रित रहती हैं, उसके बाद आप पति पर आश्रित हो जाती हैं और कई बार उम्र के आखिरी पड़ाव पर आप अपने बेटे-बेटियों पर आश्रित हो जाती हैं। ये बात बिलकुल ठीक नहीं है। खास तौर पर पति पर आश्रित रहना ये कहकर के कि मेरा काम तो घर पर रहना और घर चलाना है।

तो इसीलिए मैं बार-बार प्रोत्साहित करता हूँ, निवेदन करता हूँ कि बहुत ज़्यादा नहीं तो कम-से-कम इतना आप ज़रूर अर्जित किया करें कि आपको अपनी रोटी किसी से माँगकर न खानी पड़े। और भी कारण हैं, घर में जो लगातार बैठा हुआ है वो घर में कैद सा है। उसका फिर दुनिया से सम्पर्क टूट जाता है। पता चलना बन्द हो जाता है कि ये संसार वास्तव में चलता कैसा है। जब आप बाहर जाकर के काम करते हैं तो आपको दुनिया की खबर लगती है।

‘अर्थ क्या है, रुपया? अर्थव्यवस्था कैसे चलती है? व्यापार कौनसी चीज़ है? पैसा आता कहाँ से है? संस्था क्या चीज़ होती है? कम्पनियों की व्यवस्थाएँ कैसे चलती हैं?’ जब आपको ये सब बातें पता चलती हैं तो उससे आपकी मानसिक तरक्की भी होती है।

तो इन कारणों से मैं कहा करता हूँ कि पति पर आश्रित न हों। पति भी एक साधारण इंसान ही है, वो कोई आध्यात्मिक रूप से मुक्त पुरुष तो है नहीं। और जो भी इंसान एक साधारण संसारी होगा, उसमें स्वार्थ लोलुपता भी होगी, उसमें लालच भी होगा और वो अपने हर काम में, अपने हर रिश्ते में अपना फायदा भी ज़रूर गिनेगा।

तो अगर आप अपने पति के आश्रित होकर के घर पर बैठी हैं और कह रही हैं कि नहीं, वो मुझे जो लाकर के दे रहा है, प्रेम में दे रहा है। तो अच्छे से समझिए कि क्या आपका पति अभी ऐसा है कि किसी से निस्वार्थ प्रेम कर सके। उसके जीवन को देखिए, वहाँ आपको कहाँ-कहाँ निस्वार्थता दिखाई देती है। क्या उसकी चेतना का स्तर इतना ऊँचा हो गया है? क्या उसका प्रेम, उसकी करुणा इतने शुद्ध हो गये हैं कि वो किसी से भी बिना लाभ की अपेक्षा करे निस्वार्थ प्रेम कर सकता है, आपका पति। कर सकता है क्या?

जब वो किसी से अभी कोई निस्वार्थ सम्बन्ध नहीं रख सकता, तो स्पष्ट सी बात है कि वो अपनी पत्नी से भी निस्वार्थ सम्बन्ध नहीं रख सकता। तो आपको भी अगर वो आश्रय दे रहा है, और आपका पालन-पोषण कर रहा है, और आपको पैसे वगैरह भी दे रहा है तो वो आपसे कहीं-न-कहीं कुछ उम्मीदें रखकर बैठा है। कहीं-न-कहीं वो आपसे अपनी कामनाएँ पूरी करवाकर छोड़ेगा। और ये गुलामी हो गयी न फ़िर, कि आपको किसी की कामनाएँ पूरी करनी पड़ रही हैं।

बात समझ में आ रही है?

आपने कहा कि माँ सीता भी तो कुछ काम नहीं किया करती थीं। ‘अरे, तो माँ सीता के पास श्रीरामचन्द्र थे।’ अगर किसी महिला को श्रीरामचन्द्र मिल जाएँ, तो फिर उससे मैं कुछ कहूँगा ही नहीं, क्योंकि अब उन देवीजी को मेरी सलाह कि क्या ज़रूरत। उनको तो अब श्रीरामचन्द्र जी उपलब्ध हो गये।

पर बात-बात में उनका उदाहरण मत ले आया करो जो अवतारी पुरुष हैं या जो अत्यन्त विलक्षण प्रतिभाएँ हुई हैं, इतिहास में। उनका उदाहरण अपने सामान्य मसलों में बीच में लाना हमें शोभा नहीं देता। उदाहरण उसी का लिया जाना चाहिए जो हमारे जैसा हो।

न तो आज की आम स्त्री सीता है, न उसका जो पति है वो राम है। फिर ये उदाहरण देने से क्या लाभ होने वाला है कि सीता मैया भी तो बाहर जाकर नहीं कमाती थीं, तो आचार्य जी आप सब स्त्रियों को कमाने की सलाह क्यों देते हो। इसीलिए देता हूँ क्योंकि वो स्त्रियाँ सीता मैया नहीं हैं और न उनके पास श्रीरामचन्द्र जैसे पति हैं।

रामचन्द्र आदर्श पति थे, बहुत मायनों में। आपको कभी सुनने को नहीं मिलेगा कि श्रीराम ने माँ सीता का शोषण किया। लेकिन आज के पति तो हज़ारों तरीकों से अपनी पत्नियों का शोषण करते हैं। पत्नियाँ भी पलटकर शोषण करती हैं, पतियों का। तो कहाँ राम सीता की जोड़ी और कहाँ ये आज के चिमटे और हथौड़ी। क्या तुलना कर रहे हो?

पर जहाँ तुम्हें अपना कोई तर्क जायज़ ठहराना होता है वहाँ तुम तुरन्त कभी राधा-कृष्ण, कभी राम-सीता को उठाकर के ले आते हो। ‘कि सीता माँ भी तो नौकरी नहीं करती थीं, आचार्य जी। इसीलिए तो मैं अपनी बीवी को नौकरी करने नहीं देता।’ तुम श्रीरामचन्द्र हो? तुम श्रीरामचन्द्र हो? कितने रावण तोड़े तुमने आज तक?

चलो, तुम उत्तर प्रदेश थे और लंका तक पैदल जाकर दिखाओ ज़रा। चलो, तुम जो दुनिया का सबसे मज़बूत, ताकतवर देश हो, उस समय का सुपरपावर (महाशक्ति), उसके खिलाफ़ जनजातीय लोगों की एक सेना बनाकर जीत हासिल करके दिखाओ ज़रा।

श्रीरामचन्द्र जी ने तो बिलकुल यही कर था।

उस समय का जो सुपरपावर था, कौन? लंका। उससे जाकर के भीड़ गये थे। और वो भी किसकी सेना बनाकर? वो सब जनजातीय लोगों की सेना बनाकर। उनमें से कुछ लोग ऐसे थे जो वानरों को पूजते थे, कुछ थे जो रीछों को, भालुओं को पूजते थे। कुछ प्रकृति के अन्य तत्वों के उपासक थे। वो सब जंगल में रहने वाले लोग थे।

तो उन्होनें उन सब लोगों को लिया, संगठित किया और सेना ही बना दी। और सेना बनाकर के वो सीधे फिर सुपरपावर से लड़ गये। और जीत भी हासिल कर ली और छुड़ा लाये अपनी सीता को। और उद्देश्य फिर सिर्फ़ ये भी नहीं था कि अपनी पत्नी भर को वापस लाना है, उद्देश्य ये भी था कि धर्म की स्थापना करनी है।

तुम हो श्रीरामचन्द्र जैसे क्या?

जब तुम नहीं हो श्रीरामचन्द्र जैसे, तो ये तर्क क्यों दे रहे हो कि जब श्रीरामचन्द्र जी की पत्नी नौकरी करने नहीं जाती थीं तो हम अपनी पत्नी को नौकरी क्यों करने दें। ये बेहुदा तर्क है। ये तर्क देकर के जानते हो तुम्हारा अहंकार कर क्या रहा है। तुम्हारा अहंकार, तुम्हारी तुलना श्रीराम से करवा रहा है। इतने बड़े अहंकारी हो तुम।

तुम कह रहे हो कि जब श्रीराम ने अपनी पत्नी से नौकरी नहीं करवायी, तो मैं कोई श्रीरामचन्द्र से कमज़ोर हूँ क्या, मैं भी तो अवतारी आदमी हूँ। वो होंगे विष्णु के अवतार, मैं भी पीछे-पीछे हूँ ही, विष्णु का इक्यावनवाँ अवतार मैं ही हूँ। ये है तुम्हारा अहंकार।

बात समझ में आ रही है?

तो या तो किसी स्त्री को पति मिला हो श्रीराम जैसा, तो फ़िर मैं बिलकुल नहीं कहूँगा कि चलो नौकरी करो। पर ईमानदारी से रहिएगा, भावना की आवेग में मत कह दीजिएगा कि हाँ, मेरे पति तो श्रीरामचन्द्र ही हैं, बिलकुल। वो भावना के आवेग में तो सब स्त्रियों को अपने पति श्रीराम और श्रीकृष्ण ही लगते हैं। वो तो बाद में पता चलता है कि मामला कुछ और था।

या फिर लिख रहे हो कि मीराबाई जैसी साध्वियाँ भी तो कभी कमाती नहीं थीं। या तो स्त्री के पास हो राम जैसा पति, तो मैं कुछ नहीं बोलूँगा। या फिर स्त्री मीराबाई जैसी हो, तो उससे भी नहीं कहूँगा कि कमाओ। क्योंकि मीरा अब वो हो गयीं जिन्हें अब गुलाम बनाया नहीं जा सकता। जो अब किसी के आश्रित रहीं नहीं, क्योंकि अब वो आन्तरिक तौर पर श्रीकृष्ण के आश्रित हो गयीं। तो अब उन्हें कमाने वगैरह की कोई ज़रूरत नहीं।

भई, कमाना अपनेआप में कोई अनिवार्यता थोड़े ही है। अगर मैं कहता हूँ, ‘कमाओ,’ तो इसीलिए कहता हूँ न, कमाओ ताकि तुम्हें किसी पर आश्रित होकर के न रहना पड़े। अगर तुम मीराबाई जैसी हो गयी कि बिना कमाये ही आश्रित नहीं हैं, क्योंकि अब हमने तो पकड़ लिया है श्रीकृष्ण को, तो मैं नहीं कहूँगा कि कमाओ वगैरह। फिर तो कमाने में कुछ नहीं है, बिलकुल नहीं है।

सामान्य व्यक्ति से मैं कहूँगा, ‘कमाओ।’ पर कोई हो जाए बिलकुल संन्यस्त और जाकर के बैठ गया हिमालय की गुफा में, ढोंग करते हुए नहीं, क्योंकि वास्तव में अब उसे, उस जगह की शान्ति से प्यारा और कुछ है ही नहीं।

वो कह रहा है कि मुझे यहाँ की शान्ति से ज़्यादा प्यारा कुछ है ही नहीं। मुझे रुपया-पैसा चाहिए ही नहीं। थोड़ी बहुत मेरी ज़रूरतें हैं वो मैं किसी तरीके से पूरी कर ही लेता हूँ। तो उसको मैं थोड़े ही कहूँगा कि नहीं-नहीं, चलो-चलो, नौकरी करो, कमाओ।

उसको क्यों नहीं कहूँगा? क्योंकि वो आश्रित है ही नहीं।

कमाने की सलाह मैं उनको देता हूँ जिनके सिर पर तलवार लटक रही होती है। क्या तलवार? कि अगर नहीं कमाया तो किसी की गुलाम बन जाओगी। जिनके सिर पर ये तलवार लटक रही है कि अगर कमाओगी नहीं तो किसी की गुलामी करोगी, उनको मैं कहता हूँ कि कमाने निकलो।

जो चेतना के उस स्तर पर पहुँच गये हैं कि अब वो चाहें कमाएँ, चाहें न कमाएँ, वो किसी के गुलाम नहीं होने वाले, उनसे मैं बिलकुल नहीं कहूँगा कि कमाओ। पर वैसे लोग लाखों-करोड़ों में कोई एक होंगे। उनका सहारा या उनका उदाहरण लेकर के अपनेआप को धोखा मत दो। ठीक वैसे, जैसे राम-सीता का उदाहरण लेकर के अपनेआप को धोखा मत दो।

न तो साधारण स्त्री सीता जैसी होती है, न उसका पति श्रीराम जैसा होता है।

और जो तुम हो नहीं वो ज़बरदस्ती अपने आप को मानकर के तुम अपना अहित ही करते हो। सारा अध्यात्म — फिर याद दिला रहा हूँ किसलिए है — मुक्ति के लिए है। और मुक्ति पानी सबसे मुश्किल तब हो जाती है जब एक गुलाम आदमी अपने बारे में ये कल्पना बैठा ले कि मैं तो आज़ाद हूँ, मुक्त हूँ। मुक्त होना जितनी ऊँची बात है, गुलाम होते हुए भी मुक्ति की कल्पना करना उतनी ही ओछी बात है।

ज़्यादातर लोगों की रुचि, ज़्यादातर लोगों की अभीप्सा मुक्ति की नहीं होती। जानते हो किसकी होती है? वो भीतर-ही-भीतर ये महसूस करना चाहते हैं, इस कल्पना का रस लेना चाहते हैं कि हम भी तो मुक्त हैं, हम भी तो मुक्त हैं। तो तुरन्त बोल देंगे, ‘अरे, मैं श्रीराम हूँ।’ स्त्रियाँ बोल देंगी, ‘अरे, मैं भी तो सीता हूँ। सीता माता थोड़े ही जाती थीं जॉब (नौकरी) करने, तो मैं क्यों जाऊँ जॉब करने?’

फिर सीता माता ऐसी भी थीं न, कि आग से होकर गुज़र गयीं, आप भी गुज़र के दिखा दीजिए। फिर सीता माता ऐसी भी तो थीं न, कि उनको किसने चुना था? उनको श्रीराम ने चुना था। आपको चुनने श्रीराम आये? आप अगर कह रही हैं कि जब सीता जी नौकरी नहीं करती थीं तो मैं भी क्यों करुँ, तो ये भी तो देखिए न, कि सीता जी इस योग्य थीं। इतनी सुपात्र थीं कि उनका वरण, उनका चुनाव स्वयं श्रीराम ने करा था। आपका वरण किसने करा है? अपने पतिदेव की शक्ल तो देखिए ज़रा?

अपने आप को धोखे में मत रखिए।

फिर याद दिला रहा हूँ, मुक्ति निसन्देह उच्चतम आदर्श है, हमें उसकी ओर बढ़ना है। पर जब तक हम मुक्त हुए नहीं, हमें अपने आप को ये झूठी दिलासा नहीं दे देनी है कि हम बिना मुक्त हुए ही मुक्त जैसा आचरण कर सकते हैं।

मुक्त जैसा आचरण मुक्त व्यक्ति को ही शोभा देता है।

गुलाम आदमी ऐसा व्यवहार करने लग जाए जैसे मुक्त है, तो अब उसकी गुलामी सदा के लिए स्थापित हो गयी। अब उसकी गुलामी कभी नहीं खत्म होने वाली। क्योंकि उसने गुलाम बने-बने अपने आप को ये झूठा भरोसा दिला लिया है कि मैं तो ठीक हूँ, मैं तो आज़ाद हूँ, मुझे कुछ करने की ज़रूरत नहीं है।

नहीं, आप ठीक नहीं हैं। और आपको बहुत कुछ करने की ज़रूरत है। आपको बहुत कोशिश करनी पड़ेगी। आपको आग से गुज़रना होगा, आपको अपनी बेड़ियाँ गलानी हैं। तो दिवास्वप्न में मत रहिए, ताश का महल मत खड़ा करिए।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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