प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। सर, मेरा प्रश्न ये है जैसे कई लोगों को सांसारिक दुख बहुत मिलते हैं या जैसे माया में भी जिन लोगों को दुख बहुत मिलते हैं, तो उन्हें भक्ति मार्ग की तरफ़ ज़्यादातर जाते हुए देखा जाता है। या तो उन्हें संसार में कुछ नहीं मिल सका इसलिए भक्ति मार्ग की तरफ़ चले गयें। क्योंकि उन्हें कुछ-न-कुछ तो करना था।
इस विषम परिस्थिति को, और इस कष्ट को कैसे दूर किया जाए? अज्ञान को भी कैसे दूर किया जाए, कि सच में राम मिल जाएँ और दुविधा न रहे कि “माया मिली न राम।”
आचार्य प्रशांत: नहीं, राम नहीं मिलते हैं, जो राम को माँगने वाला होता है वो समाप्त हो जाता है; राम नहीं मिलते। राम क्या हैं, खिलौना हैं, “लोगन राम खिलौना जाना” कि मिल जाएँगे? छोटे बच्चे को, झुन्नू ने झुनझुना बजा दिया राम का? राम कैसे मिल जाएँगे? राम को मिलने का कुछ मतलब ही नहीं होता। ये थोड़े ही है कि संसार में और कुछ नहीं मिला तो चलो अब राम को पाने निकल पड़े। राम की प्राप्ति जैसा कुछ नहीं होता, अहंकार को मिटाना होता है इसी को ‘रामत्व’ तो कहते हैं।
प्र: जी।
आचार्य: जिज्ञासा क्या है गहरी वो बताइए।
प्र: सर, जिज्ञासा यही ही है, कि अपना अन्धकार कैसे मिटाया जाए?
आचार्य: नहीं, दिख गया है कि अगर अन्धकार है तो फिर अन्धकार कहाँ रहा? अन्धकार सामने नहीं होता, अन्धकार आँखों के पीछे होता है। और जिसको अन्धकार दिख रहा है इसका मतलब उसको दिख रहा है तो अब अन्धकार तो बचा ही नहीं। तो आपको दिख रहा है क्या? अन्धकार।
अन्धकार कैसे मिटाया जाए? ये जानकर कि अन्धकार है। अन्धकार क़ायम इसलिए रहता है क्योंकि आपको अन्धकार दिख ही नहीं रहा होता है, आपको अन्धकार ही लग रहा होता है, यही तो जगमग रोशनी है।
जब आप कहते हो, ‘मैं अन्धकार कैसे मिटाऊँ’, उसमें एक बड़े आपने दुस्साहस की बात कह दी है कि मुझे पता तो है अन्धकार है।
प्र: अन्धकार है।
आचार्य: आपको कहाँ पता अन्धकार है बताइए? होता तो अब तक मिट गया होता। अन्धकार का मिटना लगभग वैसा ही है कि कमरे में अन्धेरा था तो जाकर बटन दबाया; कितनी देर लगती है अन्धकार मिटने में? अन्धकार का मिटना वैसे ही है, कमरे में अन्धकार था जाकर पर्दा हटाया, और दोपहर है कितनी देर लगती है अन्धकार मिटने में? अन्धकार तो मिट जाता है जानते ही कि अन्धकार है। और अन्धकार है ये जानना ही आत्मज्ञान कहलाता है।
अपनी रोज़मर्रा की हरक़तों को देखिए, इसके अलावा धर्म और कुछ नहीं है। इधर–उधर भागने-दौड़ मचाने, कूदने–फाँदने, ये करने, वो करने से कुछ नहीं होगा, धर्म वो सब नहीं है। वो सब क्रिया–कलाप है, रीति-रिवाज़ है, धर्म नहीं कहलाते हैं वो।
धर्म है ― स्वयं को देखना, सुबह से शाम तक क्या कर रहे हो, क्या सोच रहे हो, क्या अनुभव कर रहे हो, क्या महसूस कर रहे हो, किधर को भाग लिये, किन शब्दों का चयन कर रहे हो, किससे रिश्ता बना रहे हो, क्या खा रहे हो, कहाँ बेईमानी की, कहाँ बहुत ज़ोर लगा दिया यही सब देखना होता है। और जब इसको देखो तो पता चलता है, बड़ा अन्धकार है।
कहते हो, ‘राम मिल जाएँ’, राम क्या मतलब? राम मिल जाएँ मतलब क्या मिल जाएँ? क्या माँगना चाहते हैं हम? क्या? ये दिमाग में वही सांसारिक छवियाँ बिलकुल भर गयी हैं, कूट–कूटकर लोगों ने डाल दी हैं, ठूस दी हैं। हम इतने भाव परायणता से बोलते हैं, ‘बस राम मिल जाएँ’ माने क्या मिल जाएँ! राम क्या हैं?
और यही हम तब भी बोल रहे थे, बोला तो ― “लोगन राम खिलौना जाना”। यही हम तब भी कि बस राम मिल जाएँ। क्या राम के नाम पर क्या? कुछ कहानी ले ली है? कोई छवि ले ली है? कुछ सोच ले ली है? ‘राम मिल गयें’ कैसे मिल गयें? क्या कर लिया राम को, हाथ में ले लिया? कैसे किया? क्या विषय हैं? वस्तु हैं? विचार हैं? कौन हैं राम? क्या बना लिया राम को?
स्वयं को जानने से अन्धकार मिटता है। अन्धकार मिटने पर जो शेष रहता है उसको ‘राम’ बोलते हैं। "राम ब्रह्म परमारथ रूपा, अविगत अलख अनादि अनूपा। सकल विकार रहित गत भेदा, कहि नित नेति निरुपहिं बेदा।।” ~ रामचरितमानस
“अनूपा।”
जब लोग जाते हैं न, बोलते हैं, ‘मुझे ईश्वर मिल जाए, मुझे भगवान मिल जाए, गॉड मिल जाए।’ वो लगभग उसी अन्दाज़ में, और उसी भाव में बोलते हैं जैसे कोई बोलता है, ‘मुझे जलेबी मिल जाए’ और चेहरे पर मुस्कान भी वैसे ही आती है।
“लोगन राम खिलौना जाना।”
जो हो रहा है, वो जाना जा रहा है कि नहीं, ये सवाल होना चाहिए। क्योंकि आप जानो, न जानो होनी तो हो रही है। अभी आप उत्तर सुन रहे हो, इससे आप थोड़े मायूस हो रहे हो (प्रश्नकर्ता से कहते हुए)। क्या आप देख पा रहे हो इस बात को? क्या आप देख पा रहे हो आपके होठ सूख रहे हैं, आपको जीभ फेरनी पड़ रही है। क्यों हो रहा है ये? ये आत्मज्ञान है।
टू वॉच वनसेल्फ़ इस्टेंटेनियसली (स्वयं को तुरन्त देखना), तत्क्षण। नहीं तो कुछ हो रहा है, मुझे पता भी नहीं क्या हो रहा है। तो मैं इंसान कहाँ हूँ फिर, मेरे साथ हो रही हैं फिर चीज़ें! और किसी के साथ तो फिर कुछ भी हो सकता है, पत्थर के साथ भी कुछ हो सकता है। आप पत्थर को लात मारते हो, पत्थर उछल जाता है कि नहीं उछल जाता; देखो, पत्थर के साथ कुछ हो गया। उसमें पत्थर ने कुछ करा क्या? पत्थर को कुछ पता है?
पत्थर का सार्वभौम, सुवर्ण निर्णय था मैं उछलूँगा? पत्थर के साथ कुछ हो गया, वैसे ही हमारे साथ होता है अधिकांशतः। हो रहा है, उसमें हमारी कोई हिस्सेदारी नहीं और हिस्सेदारी तो सिर्फ़ चेतना की हो सकती है। ऐसे थोड़े ही की पत्थर भी तो हिस्सेदारी है, पत्थर का वज़न भाग ले रहा है उछलने की प्रक्रिया में।
ऐसे नहीं बोला जाता, आप मनुष्य हैं आपकी हिस्सेदारी मात्र चेतना के मार्ग से हो सकती है। समझते हो तो हिस्सेदार हो, नहीं समझते तो बस वहाँ भोग रहे हो। कुछ हुआ जिसके तुम अनुभोक्ता हो गये। अनुभव करना एक बात होती है, समझना बिलकुल दूसरी बात होती है। जीवनभर हम अनुभव करते रह जाते हैं, समझते कुछ नहीं है। और हमें लगता है अनुभव में ही बड़ी समझदारी आ गयी; अनुभव से क्या समझ जाओगे?
बैठे हुए हो एसीचल रहा है, बढ़िया अपना शीतलता अनुभव हो रही है न, हो रही है न? तो मैकेनिकल इंजीनियर बन गये? समझ गये एसी को? मोबाइल चलाते रहते हो ज़िन्दगीभर, मोबाइल समझ गये? अनुभव करना एक बात है, समझना बिलकुल दूसरी बात है।
रूसी भाषा में कोई बात हो रही हो, वो अनुभव तो कर ही लोगे बात हो रही है। समझ गये क्या? और पेट में दर्द हो रहा है, अनुभव तो होता ही है न। पर दर्द को समझ गये क्या? क्यों हो रहा है, कहाँ हो रहा है, किस वजह से हो रहा है, कैसे हटेगा कुछ भी जानते हो? पर अनुभव तो कर ही लोगे, पेट में दर्द हो रहा है।
अनुभव पशु भी कर सकते हैं। जो हो रहा है उसमें प्रवेश करो, उसको ध्यान से देखो, बिना डरे और बिना किसी ख़ास परिणाम की अपेक्षा के। जो हो रहा है समझो, क्या है। ‘मौक़ा मिला है, देखूँ तो।’
इसको जीवन का एक तरीक़ा बना लो। जो हो रहा है उससे कतराना नहीं है, नज़र नहीं चुरानी है, जानना है।
प्र: जी। सर मेरा यही प्रश्न था कि ये जो आध्यात्मिक मार्ग है कि हमने बहुत सी किताबे पढ़ लीं, ‘गीता कोर्स’ ले लिया और ये भी सिर्फ़ एक भोग की ही वस्तु बनकर न रह जाए सर, आत्मज्ञान न आ पाये, मतलब जीवन ऊँचे स्तर तक न पहुँच पाये।
आचार्य: तो ज्ञान कहाँ बाहर से थोड़े ही आएगा! आत्मज्ञान बाहर से नहीं आएगा, आत्मज्ञान आपके हाथ की चीज़ है। कोई भी पुस्तक आपको बस आत्मज्ञान के लिए प्रेरित करती है, वो आपको कहती है कि आत्मज्ञान के अलावा दूसरा रास्ता नहीं है। तो बाक़ी सब रास्ते छोड़ दो, एक रास्ता है बस आत्मज्ञान।
लेकिन कोई पुस्तक आत्मज्ञान आपको दे थोड़े ही देगी! कोई पकी–पकायी चीज़ थोड़े ही है, कोई दे देगा! आत्मज्ञान इंस्टेंटेनियस होता है, तात्कालिक होता है, लाइव होता है, लाइव उसी क्षण होता है वो। कोई कैसे दे देगा बताओ? कोई किताब बताओ, अभी कोई मैच चल रहा है मान लो। ठीक है न, अभी ऑस्ट्रेलियन ओपन चल रहा है। उसमें मान लो कोई मैच चल रहा हो, कोई किताब बताओ जो आपको मैच का लाइव स्कोर बताती हो?
प्र: नहीं।
आचार्य: तो आत्मज्ञान मैच के लाइव स्कोर जैसा है। वो किसी किताब में कैसे लिखा होगा, वो तो मैच देखना पड़ेगा, उसी समय देखना पड़ेगा अगर लाइव जानना है तो। जब हो रहा है तभी देखो, किसी किताब में पहले से नहीं छपा हुआ है। हाँ, किताब आपको प्रेरित कर सकती है कि मैच बढ़िया चीज़ होती है भाई, देखा करो! पर किताब में पहले से हाल थोड़े ही लिखा होगा मैच का।
कुछ नहीं बचा, सारी उम्मीदें ध्वस्त हो गयीं, पूरा गीता समागम किसी काम का नहीं रहा।
प्र: नहीं सर, आप से ही उम्मीद है।
आचार्य: आप इतनी बातें करने के बाद आख़िर में एक ही बात बोल देते हैं, ‘जाओ, ख़ुद करो।’ जब ख़ुद ही करना है तो काहे को रात के एक बजे मैं आँख फोड़ रही हूँ स्क्रीन पर! मैं चली सोने। जब ख़ुद ही करना है तो तीन-तीन, छः-छः घंटे इनकी बक़वास काहे को सुनो।
क्यों भई?
जब ख़ुद ही करना है तो ― डीआइवाइ। कुछ पूछने आओगे अध्यात्म से एक ही जवाब मिलेगा, क्या? डू इट योरसेल्फ़ (इसे स्वयं करें) बस। बुद्ध के पास ये भाषा नहीं थी, तो वो बोल गये ― “अप्प दीपो भव।” वो बोल यही रहे थे, ’डू इट योरसेल्फ़’।
घोर निराशा, आचार्य धोख़ेबाज़, कह रहा है, ’डू इट योरसेल्फ़’। तो फिर ठीक है डू इट योरसेल्फ़। चलिए। (हँसते हुए)
श्रोता: प्रणाम आचार्य जी, मैं एक भजन गाना चाहूँगी कबीर साहब का।
आचार्य: हाँ।
श्रोता: (श्रोता भजन गाते हुए)
जो मैं बौरा तो राम तोरा लोग मरम का जाने मोरा ।
मैं बौरी मेरे राम भरतार ता कारण रचि करो स्यंगार
माला तिलक पहरि मन माना लोगनि राम खिलौना जाना।
थोड़ी भगति बहुत अहंकारा ऐसे भगता मिलै अपारा।
लोग कहें कबीर बौराना कबीर का मरम राम जाना।
आचार्य: सुन्दर।
प्र२: प्रणाम सर। जब से आपको सुनना शुरू किया, पिछले सत्र में वो बात आयी थी जिसमें हमने ये बात किया था कि जो भी हम में कमियाँ होती हैं, व्हाट आर द डिप्राइड ऑफ़ डेड बीकम ऑफ़ प्रोजेक्शन देन मी, सी एवरीथिंग प्रोजेक्शन ऑफ़ दैट। (वो हमारा प्रक्षेपण बन जाती हैं और हम उसी प्रक्षेपण के जरिये सबकुछ देखते हैं।) ये दुविधा थी कि जब मैं बाक़ी चेतनाओं को देखता हूँ, मेरे आसपास तो क्या वो भी प्रक्षेपण है?
आचार्य: आपको चेतना चाहिए होगी तो आप चेतना को देखोगे, नहीं तो बड़ी भारी चेतना भी खड़ी हो तो उसको देह ही देखोगे न। या उसको धर्म से देखोगे, या उसको जाति से देखोगे, उम्र से देखोगे, उसकी पृष्ठभूमि से देखोगे और पचास तरीक़े हैं किसी को भी देखने के। किसी को चेतना मात्र देखना तो तभी सम्भव है जब भीतर ‘चिद्’ मात्र बचा हो।
तो हमारे ऊपर है कि हम अपनेआप को क्या समझते हैं, उसी अनुसार हम दुनिया को देखते हैं। एक जगह गया था इंटरव्यू लेने, उनके पास कुछ चन्द मिनट थे मुझसे बात करने के लिए; इंटरव्यू देने। आधा घंटा रहा होगा, उसमें उन्होंने बहुत सारा समय इसी बात पर निकाल दिया कि आप पहनते क्या हैं, आपके कपड़े कैसे हैं।
अब ये तो आप पर है न कि आप सामने वाले को चेतना की तरह देख रहे हो या अलमारी की तरह देख रहे हो।
कुछ और समझना चाहते हैं?
प्र२: नहीं सर। इस पर थोड़ा ग़ौर करूँगा।
आचार्य: देखिए, वृत्ति जो है न, वृत्ति। वो स्थूल विषयों का निर्माण करती है। ठीक है? तो अगर दीवार सामने है तो दीवार रहेगी भले ही आप मुक्त पुरुष हो गये हैं, कुछ हो गये हैं। क्योंकि वो आपकी वृत्ति आ रही है, वही वृत्ति जो बताती है कि ये देह है (अपने शरीर की ओर इशारा करते हुए) जैसे ये देह है फिर वैसे ही वो दीवार है। आप ये नहीं करोगे कि आपकी आँखें इस देह का तो संज्ञान ले रही हैं पर आँखें दीवार को नहीं देख पा रहीं।
जिन आँखों से ये देह देखोगे, उन आँखों से दीवार भी दिखेगी-ही-दिखेगी कितने भी मुक्त हो जाओ। देहभाव से मुक्त भी हो जाइए, बॉडी आडेंटिफिकेशन न भी रहे तो बॉडी है ये तो परसीव करोगे न? देयर एग्ज़िस्ट अ बॉडी इफ़ नॉट माय बॉडी (अगर मेरा शरीर न हो तो भी शरीर तो है)। वैसे दीवार भी दिखेगी देयर एग्ज़िस्ट अ वॉल (एक दीवार का अस्तित्व है)। लेकिन आप उसको अर्थ क्या देते हो, सूक्ष्म अर्थ क्या देते हो, ये फिर आपकी चेतना पर निर्भर करता है ― आप कौन हो, कैसे हो।
अब वृत्ति के तल पर तो सब एक ही हैं क्योंकि अहम् वृत्ति सब में होती है तो इसलिए दीवार सबको दिखती है, पर दीवार के अर्थ सबके लिए अलग-अलग होते हैं। और जब तक देह है तब तक दीवार है। कोई बोले कि मैं ऐसा अब मुक्त हो गया हूँ, पहुँचा हुआ इनलाइटेंड (प्रबुद्ध) हो गया हूँ कि दीवार मुझे दिखती ही नहीं, या मैं दीवार के पार निकल जाता हूँ, तो ढोंगी!
लेकिन एक आदमी के लिए दीवार का जो अर्थ होता है, वो दूसरे के लिए नहीं अर्थ होता है। जो भीतर से अपूर्ण है, वो दीवार के माध्यम से भी पूर्णता ही हासिल करना चाहेगा। कोई अगर पैसे पर बहुत मरता है तो दीवार को भी देखेगा तो सोचेगा, इस पर जो पेंट (पुताई) हुआ है वो महँगा वाला है, सस्ता वाला है।
तो विषयों को आप अर्थ क्या दे रहे हो, वो इस पर आश्रित है कि आपने कौन-कौनसी अपूर्णताएँ पकड़ रखी हैं। आप पुरुष हो आपके सामने से एक स्त्री जा रही है, कोई भी देखेगा उसे स्त्री ही बोलेगा। ठीक है? चाहे दुनियाभर के जितने भी रहे हों पुरुष, जो देह का कोई अभिमान नहीं करते, कुछ नहीं सोचते, स्त्री-पुरुष कोई भेद नहीं करते वो भी देखेंगे तो उन्हें स्त्री की काया तो दिखाई देगी ही। वो भी ये जानते हैं कि स्त्री ही है।
लेकिन स्त्री का एक आम आदमी के लिए जो अर्थ है वो उसके लिए नहीं रहेगा न? उसके लिए स्त्री सिर्फ़ एक स्त्री है। हाँ, सामने से एक मनुष्य निकला जो लिंग से स्त्री था, सामने से एक मनुष्य देह गुज़री जो लिंग से स्त्री थी। लेकिन वही कोई दूसरा आदमी हो, उसके लिए उसके दूसरे अर्थ हो जाएँगे।
कोई छोटा बच्चा है वो माँ को खोज रहा है, उसको लगेगा शायद मेरी माँ ही गुज़र गयी है। वो जाएगा, अरे मम्मी! फिर पता लगेगा मम्मी नहीं है। कोई शादी-ब्याह लिए आतुर हो उसको लगेगा मिल गयी भावी दुल्हन। तो अर्थ अलग हो जाते हैं।
प्र२: लेकिन सामने जो चेतनाएँ हमको दिखती हैं, वो तो संयोग की बात है?
आचार्य: अरे, चेतनाएँ कहाँ दिखती हैं? आपको देह दिखती हैं। आप बार-बार बोल रहे हो, ‘चेतनाएँ दिखती हैं’ कहाँ चेतना, चेतना कहाँ देखी है आपने? बताओ चेतना कैसी होती है? किस रंग की होती है? चेतना का क्या वज़न होता है? दिखती तो देह ही है।
प्र२: उससे बात कर सकते हैं।
आचार्य: बात तो आप दीवार से भी कर सकते हो, अक्सर आप जिनसे बात कर रहे होते हो वो दीवारें ही होती हैं या ईको चेम्बर्स होते हैं। तो जिससे बात कर रहे हो उससे कोई निश्चित थोड़े ही है कि वहाँ चेतना है ही है। बात तो आप एलेक्सा से भी कर सकते हो, और एआइ बहुत आसानी से आपसे बात कर सकती है, दो-दो, चार-चार घंटे बात कर लेगी आपको पता नहीं लगेगा कि ये पीछे मशीन है या कॉन्शियस (चेतना) है।
देह है, उस देह का आप अर्थ क्या लगा रहे हो, वो आपकी चेतना पर है।
प्र२: तो कर्ता मैं ही हूँ, इसके बारे में जानना है?
आचार्य: हमेशा, हमेशा। अगर बुद्ध भी सामने दिखाई दे रहे हैं। तो वो वास्तव में आपके ही छिपे हुए बुद्धतत्व का प्रक्षेपण हैं। और आप में छिपा हुआ बुद्धतत्व तो नहीं होता, तो आपको बुद्ध दिखते ही नहीं। आपको दिखाई देती एक पुरुष की देह जो गुज़र गयी। अगर आपको बुद्ध दिखे हैं तो आपको अपनी आँखों के आगे नहीं दिखे हैं, आपकी आँखों के पीछे पहले से थें, नहीं तो बुद्ध नहीं दिखेंगे आपको।
गीता में श्रीकृष्ण क्या सबको दिख रहे हैं? सिर्फ़ अर्जुन को देख रहे हैं। बाक़ियों के लिए तो वो सारथी हैं अर्जुन के। सिर्फ़ अर्जुन के लिए श्रीकृष्ण गीताकार हैं, सिर्फ़ अर्जुन के लिए श्रीकृष्ण गुरु हैं, ब्रह्म स्वरूप हैं। बाक़ियों के लिए तो वो ऐसे ही हैं। हाँ, ठीक है, वो पांडवों के पक्ष में हैं, उनके सम्बन्धी हैं श्रीकृष्ण और अभी वो अर्जुन के सारथी हैं श्रीकृष्ण।
आपके भीतर जब कृष्णत्व की तलाश होती है, तब आपको श्रीकृष्ण दिखाई देते हैं। आपके भीतर श्रीकृष्णत्व की कोई तलाश ही नहीं है, तो श्रीकृष्ण आपके सामने से भी गुज़र जाएँ तो आप कहोगे, ‘सारथी मात्र हैं’।
दुर्योधन के सामने ही तो हैं श्रीकृष्ण, उनको दिख रहे हैं क्या श्रीकृष्ण? संजय को हम बोलते हैं, ‘वो दिव्य दृष्टि से देख रहे हैं’ संजय को भी श्रीकृष्ण दिख रहे हैं क्या? किसी को नहीं दिख रहे कृष्ण। ठीक है?
आप पर निर्भर करता है कि आपको क्या दिखता है। आपका कृष्णत्व तो अगर अब जाग्रत होने के लिए अकुला रहा है, तो आपको श्रीकृष्ण दिख जाएँगे। और आपका कृष्णत्व तो सोया ही पड़ा हुआ है; वो निर्णय होता है वैसे, ऐसा नहीं है कि वो अपनेआप उठ बैठेगा। आपने निर्णय करा है कि अपने कृष्णत्व को जाग्रत करना है, तो आपको कोई श्रीकृष्ण दिखेगा। कहते हैं न कि व्हेन द स्टूडेंट इज़ रेडी दैन द टीचर अपीयर्स (जब छात्र तैयार होगा तो शिक्षक उपस्थित होंगे)। हाँ।
प्र२: जी, यही समझना था।
आचार्य: कोई किताब होती थी, उसमें बाइंडिंग होती थी; पता नहीं अब बाइंड कराते हैं कि नहीं। गत्ते से उसको बाइंड करते थे हमारे समय में। तो जब गत्ते से बाइंडिंग होती थी तो उसके कोनों पर, एजेज़ (किनारे) पर मोटे कपड़े से लाल रंग के बाँध दिया जाता था ताकि गत्ता वहाँ पर, एजेज़ पर टूटे नहीं। ठीक है?
अब वो सब कार्यक्रम करा गया है पुस्तक को सुरक्षित रखने के लिए ― पुस्तक माने ज्ञान। और मैंने कोई क्लास नहीं देखी, जहाँ एक-दो सूरमा ऐसे न हों जो उन्हीं किताबों के कोनों को लेकर दूसरे पर भाले की तरह आक्रमण न करते हों!
कह रहे हैं, यहाँ तो क्लास रूम है, यहाँ दूसरे को ठोकने के लिए और तो कुछ मिलेगा नहीं, तो कहते हैं ये बढ़िया है, नुकीला कोना किताब का। वो किताब का ही नुकीला कोना उसकी पीठ पर गाड़ दो। किसी के लिए वो ज्ञान है और किसी के लिए हथियार है। तो आप पर निर्भर करता है न? वो जो किताब है किसी के लिए ज्ञान है, किसी के लिए हथियार। तो आप पर निर्भर करता है, जो करना है करो।