प्रश्न: हमारा मन शांत कैसे होगा?
वक्ता: अशांति कहाँ से पाई? पूछ रहे हो कि “हमारा मन शांत कैसे होगा?” ये बताओ कि अशांति कहाँ से पाई?
श्रोता १: वातावरण से।
वक्ता: हाँ, तो ये पक्का है न कि “पाई”?
श्रोता १: जी सर।
वक्ता: ऐसा तो नहीं है कि स्वाभाव है तुम्हारा? कहीं से पाई, इकट्ठा करी। जिन बातों को ले कर अशांत हो, उन बातों को ले कर पैदा तो नहीं हुए थे? या पैदा होते ही चिल्लाए थे कि “नौकरी! नौकरी!” ऐसा तो नहीं। इकट्ठा करी न? ये याद रखो बस कि “ये मैं नहीं हूँ”। ये तो एक इकट्ठा की हुई चीज़ है, और जो भी कुछ मैंने इकट्ठा किया है वो मुझसे तो कम ही महत्वपूर्ण होगा। घर में आग लगी हुई हो – तुम हो, और तुम्हारी बहुत सारी चीज़े हैं, सब कुछ छोड़ सकते हो, एक चीज़ नहीं छोड़ सकते – क्या?
श्रोता १: सर,
वक्ता: वो भी छूट जाएगी।
श्रोता २: खुद को?
वक्ता: खुद को तो नहीं छोड़ोगे न? क्योंकि तुम्हारी कोई भी चीज़ तुमसे कम ही महत्वपूर्ण होगी। तुम पहले हो। जब ‘मैं’ आएगा, तभी तो ‘मेरा’ आएगा न? अगर मैं ही नहीं तो मेरा का कोई प्रश्न ही नहीं पैदा होता। अगर वो चीज़ ऐसी हो कि ‘मैं’ के भाव को ही ख़त्म किये दे रही हो, तो उस चीज़ का कोई फ़ायदा?
तुमने जो भी कुछ इकट्ठा किया है दुनिया में आ के, जिसे तुम कहते हो जन्म लेना, उस जन्म के परांत, वो अगर तुम्हारे होने के भाव को ही नष्ट किये दे रहा हो, गंदा किये दे रहा हो, तो उसको लिए फिरने से क्या फ़ायदा? और ये मत समझना कि दुनिया में शांति भी इकट्ठा की जा सकती है और अशांति भी इकट्ठा की जा सकती है तो तुमसे कोई चूक हो गयी है तो तुमने अशांति इकट्ठा कर ली है। एक राज़ की बात कहता हूँ, दुनिया से सिर्फ़ अशांति ही इकट्ठा की जा सकती है। तुमसे कोई चूक नहीं हो गयी है। ये मत सोचना कि तुमने कुछ गलत निर्णय ले लिए। पहले तुम जिन चीज़ों से आकर्षित हो गए और जो तुमने संचित कर लिए, वो गलत थीं। तुम जो भी कुछ इकट्ठा करोगे, वही तुम्हें अशांत करेगा।
तुम काला-काला इकट्ठा करो, वो पीला-पीला इकट्ठा करे, तुम सफ़ेद-सफ़ेद इकट्ठा करो। जो, जो भी इकट्ठा करेगा, उसी में अशांति पाएगा। क्योंकि बिना अशांत हुए इकट्ठा किया ही नहीं जा सकता। देखो! कि क्या क्या इकट्ठा किया है और देखो कि जो कुछ इकट्ठा किया है, उसको किन तरीकों से पकड़े ही हुए हो, महत्व दिए जा रहे हो। और पूछो अपने आप से कि ये ना भी हो तो मेरा बिगड़ क्या जायेगा? शुरू में थोडा डर लगेगा, क्योंकि उससे पहचान बना ली है। ऐसा लगता है कि ये ना रहा तो मेरा क्या होगा? तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ेगा। ज़रा यकीन रखो, थोड़ी श्रद्धा रखो। तुमको अपूर्ण नहीं बनाया गया है।
ये पूरी कायनात है, इसमें तुम्हें कुछ ऐसा दिखता है जो अधूरा हो? जिसमें खोट हो? तसल्ली कर लो। अच्छे से देख लो! कुछ ऐसा दिखता है जिसमें खोट हो?
समुद्र? बादल? पहाड़? जानवर? मौसम? सूरज? धरा? ग्रह-उपग्रह? पूरा ब्रह्माण्ड? कुछ ऐसा दिखता है जिसमें कोई कमी हो कोई दिक्कत हो?
श्रोता: सर, समुद्र का पानी मीठा क्यों नहीं होता?
वक्ता: समुद्र का पानी तुम्हारे लिए ना मीठा होगा। समुद्र को कभी ऐसा लगा कि इस कोशिश में है कि अपने पानी को मीठा कर डालूँ?
श्रोता: सर, मुझे लगता है, होता है…
वक्ता: हमें तो कुछ भी लग सकता है। हमें अगर पसंद है तितली, तो हमें दूसरे रंग की तितली ना पसंद आएगी। पर क्या कभी किसी तितली को आत्म-हत्या करते देखा कि “मैं तो बेचारी!”?
(श्रोतागण हँसते हैं)
कभी समुद्र को तनाव में देखा? “डीसलिनेशन वाला इक्विपमेंट(यंत्र) काम नहीं कर रहा।” “नमक कम करना है।” वो तो जैसा है उसी में लहरा रहा है। उदास तो देखा नहीं गया। मरा से मरा कीड़ा मुँह छुपता नहीं देखा गया,”कि मैं तो क्या हूँ?”! देखा? केचुआ- ज़मीन के भीतर रहता है – उसकी कोई औकात नहीं हमारी नज़रों में, पर हमने तो नहीं देखा कि केन्चूओ ने सभा कर के घोषणा की गयी हो कि “हम व्यर्थ ही हैं। आओ सामूहिक आत्मदाह कर लें।”
(श्रोतागण हँसते हुए)
पूरे अस्तित्व में जो है, जैसा है, अपनी जगह पूरा है। बनाने वाला डिफेक्टिव पीस (दोषपूर्ण सामान) बनाता ही नहीं। आदमी अकेला है जो काफ़िर है। मैं तुम्हें काफ़िर की परिभाषा बताता हूँ, जो ये सोचे कि उसने डिफेक्टिव पीस बनाये – वो काफ़िर। और तुम सबसे बड़ा डिफेक्टिव पीस जानते हो किसको मानते हो? अपने आप को। इसीलिए तो तुम तरक्की की कोशिश में लगे रहते हो, तुम कहते हो, “मुझे कुछ और बन के दिखाना है।”
“मुझे कुछ और बन के दिखाना है!”
अच्छा? तुममें कोई कमी होगी तभी तुम्हें कुछ और बनना है। तुम्हें कुछ और बनना है?
और ये जितनी बेवकूफ़ी की बात है, उतनी ही बेवकूफ़ी का इसका अंजाम होता है। क्या अंजाम होता है? कि अच्छे भले थे, और बढ़ने की कोशिश में जो थे वो भी ना रहे। इसका यही हश्र होना था। क्योंकि ये ख़याल ही बड़ी नास्तिकता का है। ये ख़याल ही बड़ी अश्रद्धा का है। और इन शब्दों से तुम्हें परहेज़ हो तो ये समझ लो कि ये ख़याल ही बड़ी बेवकूफ़ी का है।
क्या ख़याल?
कि कुछ पाना है। यही तो अशांति है तुम्हारी न – “जो पाना है अभी मिला नहीं। जो पाना है अभी मिला नहीं।”, और आदमी की खोपड़ी इतनी उलटी है कि वो सोचता हैं कि अशांत इसलिए हूँ कि जो पाना था अभी मिला नहीं। तुम अशांत इसलिए हो क्योंकि तुमने जो पाया ही हुआ है उसके लिए तुम्हारे मन में कोई कृतज्ञता नहीं। तुम एहसानमंद नहीं हो। तुम्हारी सारी अशांति इसलिए है क्योंकि तुम धन्यवाद देना नहीं जानते। दुनिया में अशांति का ये लक्षण समझ लो साफ़-साफ़। पूछो अपने आप से कि दिन में कितनी बार दिल से ये भाव उठता है कि “इतना कुछ मिला! अनुगृहित हूँ।”?
~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।