प्रश्नकर्ता: सर, आपने कहा कि कॉज़ एंड इफेक्ट (कारण और प्रभाव) अगर न हो तो टाइम नहीं कहलाता है। कोई चीज़ हम पढ़ रहे हैं और हम वो चीज़ फिर भूल जाते हैं कि आगे हमें बहुत चीजें पूरी करनी हैं। लोग इंटरोडक्टिव पार्ट (परिचयात्मक भाग) जल्दी पढ़ लेते हैं। मैं उसमें थोड़ा टाइम देती थी और फिर ऐसा होता था कि मैं फर्स्ट पेज पर ही रहती थी और मुझे पता नहीं चलता था कि काफ़ी टाइम कैसे चला गया। तो सर इज़ इट लाइक यू सेड इमरशन इज़ गुड? (जैसे कि आपने कहा कि विलय होना शुभ है तो क्या ये वही है?)
आचार्य प्रशांत: देखो दोनों चीजें हो सकती हैं। एक तो ये है कि मन ऐसा भागा हुआ है इधर-उधर, बिलकुल छिटका हुआ कि आगे बढ़ा ही नहीं जा रहा और ज़्यादातर लोग जिनकी रीडिंग स्पीड (पढ़ने की क्षमता) लो (धीमी) होती है वो बहुत छिटके हुए मन के होते हैं, उनका मन ध्यानस्थ हो नहीं पाता। इसीलिए एक पन्ने से आगे बढ़ना मुश्किल हो जाता है। अधिकांश मामलों में यही होगा।
यही कारण है कि जब विवेकानन्द के व्यक्तित्व की बात होती है तो अक्सर ये कहा जाता है कि इतनी किताबें और इतनी उनकी रीडिंग स्पीड (पढ़ने की गति) थी, वो फटाफट पढ़ जाते थे। ओशो को ज़ब याद किया जाता है तो जितना उनको एक गुरु के रूप में याद किया जाता है उतना उनको एक रीडर के रूप में याद किया जाता है, दैट ही वाज़ द बिगेस्ट बुक मैन (कि वो सबसे बड़े किताबी आदमी थे)। सुबह उनके पास ट्रे में रखकर चार किताबें लायी जाती थीं, कहानियाँ हैं, कि हर सुबह उनके पास ट्रे में रखकर चार किताबें लायी जाती थीं, और शाम तक वो किताबें वापस चली जाती थीं और उनमें बाकायदा नोट्स बना दिये जाते थे, सब हो जाता था।
आप कितनी रीडिंग कर पाते हो उससे पता चलता है कि आपके पूरे जीवन की क्वालिटी (गुणवत्ता) क्या है। छितराए हुए मन के साथ रीडिंग नहीं होती।
लेकिन एक दूसरी बात भी है। बुल्लेशाह का एक कथन है कि एक अलफ़ पढ़ो छुटकारा है। एक शब्द में ही छुटकारा है। एक दूसरा व्यक्तित्व भी हो सकता है जो इतना पारखी हो जाये कि कहे कि मुझे झूठ ज़रा मंज़ूर नहीं, ये हज़ार में एक होगा, नौ सौ निन्यानवे मामलों में वो जो पढ़ नहीं पा रहा, उसको थोड़ा अपने मन को देखना चाहिए। ये बीमारी है।
पर हज़ार में एक मामला ऐसा भी होगा, जब आप आगे इसलिए नहीं बढ़ पा रहे क्योंकि सच आपको आगे बढ़ने दे नहीं रहा है। पहला ही शब्द है, प्राक्कथन है, इंट्रोडक्शन है, उसमें पहला ही शब्द है, मैं आपसे ये कहना चाहता हूँ कि…..अक्सर ऐसे ही शुरू होते हैं। पर आप अटक गये। मैं… अब ये नहीं है कि मन छितराया हुआ है पर ये मन सच का ऐसा अन्वेषक है, कह रहा है, ‘नहीं समझा ही नहीं हैं मैं माने क्या, मैं आगे कैसे बढ़ूँ?’ ये मैंने एक बिलकुल एक्स्ट्रीम केस (चरम परिस्थिति) ले लिया है पर इशारा कर रहा है।
बात समझ में आ रही है न?
कोई पढ़ रहा है आजकल? एम. स्कॉट पेक की किताब है, ‘द रोड लेस ट्रैवल्ड’ (सड़क जिस पर कम चला गया) , कौन पढ़ रहा है? हम में से कोई पढ़ रहा है। और उसकी पहली जो लाइन है वो ये है, ‘लाइफ़ इज़ डिफ़िकल्ट’ (ज़िन्दगी मुश्किल है)। बिलकुल ये हो सकता है कि अगर कोई सच्चा आदमी है तो वो इस पहले स्टेट्मेंट (वक्तव्य) से आगे ही न बढ़े।
रोड लेस ट्रैवल्ड का पहला ही स्टेट्मेंट है लाइफ़ इज़ डिफ़िकल्ट। और एक आदमी निश्चित रूप से ऐसा हो सकता है जो इससे आगे बढ़े ही न। वो कहे, ‘न, न मैं समझा, न मैं मानता हूँ और न मैं इस बात को जानता हूँ कि लाइफ़ इज़ डिफ़िकल्ट। इसका अर्थ क्या हुआ? वो रुक जाएगा वहीं पर। पर उसका रुकना छितराये हुए मन से नहीं है। ये कुछ और बात है। ये बिलकुल दूसरी बात है। यहाँ कुछ और हो रहा है।
प्रश्नकर्ता: सर, अगर इस तरह से है तो क्या छितराए हुए मन से क्या इमर्शन (तल्लीनता) प्राप्त किया जा सकता है?
आचार्य प्रशांत: नहीं, बिलकुल नहीं।
प्रश्नकर्ता: क्या ऐसा हो सकता है कि आप टाइम ही भूल जायें कि क्या फिर उसके बाद कुछ करना है।
आचार्य प्रशांत: छितराये हुए मन से इमर्शन (तल्लीनता) नहीं हो सकता। जहाँ इमर्शन (तल्लीनता) हो रहा है वहाँ तो मन पूरा ही डूबा हुआ है। वहाँ छितराये हुए मन से नहीं हो सकता।
प्रश्नकर्ता: तो फिर टाइम का पता क्यों नहीं लगता?
आचार्य प्रशांत: पर देखो टाइम का पता भी न लगना एक स्थिति में नहीं, दो स्थितियों में होता है। तुम सोये हो तब भी समय का कहाँ पता लगता है और तुम गहरे आनन्द में हो तब भी समय का नहीं पता लगता। तो समय का पता नहीं लग रहा है, इससे कोई एक निष्कर्ष नहीं निकाल लेना।
अभी भी दो सम्भावनाएँ हैं, तुम्हें देखना पड़ेगा कि हो क्या रहा है। हो क्या रहा है? आप बैठे हो कल्पनाओं में, खोये हो और घंटा बीत सकता है, और आपको नहीं समय का पता लग रहा है। इसका अर्थ ये नहीं है कि आप जीवन में डूबे हुए हो। इसक अर्थ ये है कि आप जीवन से बिलकुल कटे हुए हो।
तो दोनों सम्भावनाएँ खुली हुई हैं। दोनों में से बात हो क्या रही है वो देखना पड़ेगा। बहुत शुभ बात होगी अगर वहाँ पर खड़े हैं जहाँ पर, बुल्लेशाह का नाम लिया था, उन्होंने तो किताबों को खूब गालियाँ दी हैं, बार-बार। एक जगह तो उन्होंने ये कहा ही है कि, ‘यार तू पढ़ना- लिखना बन्द कर, ये पढ़ाई-लिखाई बन्द कर, इसी से तेरा नुकसान हो रहा है’।
वो हमने कहा ही कि ‘अलफ़ पढ़ो छुटकारा है’। पर वो आदमी फिर लाखों में एक है जो एक अलफ़ पर ही इतनी ईमानदारी के साथ रुक गया है कि आगे नहीं बढ़ूँगा।
एक सूफ़ी सन्त हुआ है ‘सरमद'। उसकी बात पहले भी करी थी। तो कुरान की एक बड़ी शुरुआती आयत है कि ‘ला इलाह इल इल्लाह’, देयर इज़ नो गॉड एक्सेप्ट वन (एक के अलावा कोई ईश्वर नहीं है), देयर इज़ नो गॉड बट गॉड। वो उसको आधा ही बोलता था।
प्रश्नकर्ता: देयर इज़ नो गॉड (कोई ईश्वर नहीं है)।
आचार्य प्रशांत: देयर इज़ नो गॉड (कोई ईश्वर नहीं है)। वो कहता था, ‘इससे आगे बढ़ूँगा ही नहीं क्योंकि आगे का मुझे पता नहीं।‘ कहता था, ‘मैंने अभी इतना ही जाना है। द फ़ॉल्स इज़ फ़ॉल्स (झूठ झूठ है)। तो मैंने अभी इतना ही जाना है कि जिन गाड्ज़ कि हम पूजा करते हैं, वो झूठे हैं। ये मैंने जान लिया है कि ये सब जो चल रहा है ये झूठ है।‘ तो कहता था, ‘मैं इसको आधा बोलूँगा बस। पूरा बोलूँगा ही नहीं। देयर इज़ नो गॉड (ईश्वर नहीं है)।‘
ये असली आदमी है। ये भी किताब में आगे नहीं बढ़ रहा है। पर ये आगे इसलिए नहीं बढ़ रहा है क्योंकि ये बड़ा ईमानदार है। ये कह रहा है, ‘आगे बढ़ूँ कैसे? अभी यही नहीं समझा आगे बढ़ने से क्या लाभ?’ उसको औरंगज़ेब ने मरवा दिया। इसी बात पर मरवा दिया कि तू कुरान का अपमान कर रहा है। बोलना है तो पूरी आयत बोल नहीं तो कुछ मत बोल। पर फिर सरमद सरमद है।
प्रश्नकर्ता: सर, एग्ज़ैक्ट्ली ऐसे ही मुझे बताया कि जैसे किताब पढ़ने बैठते हैं, कुछ लाइंस (पंक्तियाँ) पढ़ीं आगे, पढ़ रहे हैं, पढ़ रहे हैं, तो अचानक से पीछे वाला मिस (भूल) हो गया है। पढ़ चुके हैं, पढ़ रहे थे तो समझ में आ रहा था कि क्या बोला जा रहा है।
डीप (गहरा) नहीं पर हाँ! जितना यहाँ से सीखा है उसके हिसाब से पता चलता है कि किस कॉनटेक्स्ट (सन्दर्भ) में बात हो रही है और क्या कहा जा रहा है, किस तरफ़ डिरेक्ट हो रही है वो बात। आगे गये मिस हो गया है, फिर दोबारा पढ़ना शुरू किया। सब कुछ सही चल रहा है, फिर बीच में से अचानक से कुछ पार्ट फिर मिस हो गया। फिर वापस आकर पढ़ना पड़ता है। उस चक्कर में एक किताब कई दिनों में पढ़ी जाती है। बहुत ज़्यादा होता है ऐसा।
आचार्य प्रशांत: तो इसमें कोई बुराई नहीं है। इसमें कोई बुराई नहीं है बशर्ते तुमने उस किताब के साथ ईमानदारी रखी है। देखो, हर किताब एक रास्ता होती है तुम्हें कहीं और ले जाने का। महत्वपूर्ण वो रास्ता नहीं है, महत्वपूर्ण ये है कि वहाँ पहुँचे कि नहीं? अब वो पगला ही होगा जो सौ रास्तों से वहाँ बार-बार पहुँचे। कोई सौ रास्तों से वहाँ पहुँचा, कोई एक रास्ते से वहाँ पहुँच गया। पहुँचना महत्वपूर्ण है न?
और जगह एक ही है जहां पहुँचते हैं सब। जगह एक ही है। तो, एक किताब भी.. और ये तो अब हुआ है कि तुम्हें हज़ारों किताबें उपलब्ध भी होने लग गयी हैं। आज से सिर्फ़ सौ साल पहले तक भी, तुम अगर बहुत पढ़ना चाहो तो बड़ी दिक्कत आ जाती। बहुत घूमना पड़ता इधर-उधर किताबें इकट्ठा करने के लिए। और अगर उससे भी सौ दो सौ साल पहले चले जाओ तो असम्भव था कि तुम्हें बहुत किताबें मिल जायें।
आज से सौ साल पहले तो मेहनत कर के मिल जातीं। लाइब्रेरीज़ (पुस्तकालय) होने लग गयीं थीं, पर उससे सौ दो सौ साल पहले भारत की जो स्थिति थी, उसमें बहुत किताबों का मिल पाना ही करीब-करीब असम्भव था। आप बहुत कोशिश करते तो सौ-पचास, दो सौ किताबें आप जुगाड़ लेते जीवन भर में। इससे अधिक तो किताबें आप जुगाड़ भी नहीं पाते। छपती ही कितनी थीं। जब प्रिंटिंग प्रेस ही नहीं है तो कितनी ही किताबें छप रही हैं। सोचो न प्रेस नहीं है, सब काम मैन्यूअल (हाथ से किए जाने वाला) है, तो कितनी किताबें हैं जो सरकुलेशन (प्रचलन) में होंगी।
तो, लोगों के पास पढ़ने के बहुत विकल्प थे भी नहीं। कोई दो ही चार, एक-दो किताबों में ही अपना सब उनको दिख जाता था, पूरा जीवन। एक गीता को लेकर के पूरा जीवन…. हो गया बस, ये काफी है, और नहीं चाहिए कुछ। ये अब एक रूढ़िवादिता नहीं है। ये बाईगोट्री (हठ) नहीं है कि मुझे और कोई किताब पढ़नी ही नहीं है।
इसमें अगर ध्यान से देखा जाये तो ये एक डूबने की निशानी है। मैंने इसको ही इतने ध्यान से देखा कि सब पता चल गया। इसको ही इतने ध्यान से देखा कि सब जान गये। मैं इसकी वकालत नहीं कर रहा हूँ कि एक के बाद दूसरी किताब पर जाओ ही नहीं। पर मैं एक सम्भावना बता रहा हूँ।
आप एक में ही अगर ध्यान से डूबो, तो आपको घाट-घाट पर नहीं जाना पड़ेगा। पर उसके लिए फिर बहुत श्रद्धा चाहिए और उतनी श्रद्धा हम में है नहीं। उसके लिए एक ऐसा मन चाहिए जिसमें सन्देह कभी उठता ही न हो। जिसमें शक जैसी कोई चीज़ ही न हो। जो समर्पित हो तो ऐसा हो कि….और फिर वो समर्पण सिर्फ़ एक किताब के प्रति नहीं हो पाएगा, उसको जीवन के प्रति समर्पित होना पड़ेगा।
आप ऐसे नहीं हो सकते कि ज़िन्दगी में तो आप शक्की हैं, बात-बात में आपको डाउट्स (शंकाएँ) उठते रहते हैं, ससपिशन (सन्देह) रहता है ये हो जाये, वो हो जाये और आप एक ग्रन्थ के प्रति समर्पित हो जायें। ऐसा आप कर नहीं पाएँगे। जो आदमी बात-बात पर दुनिया भर पर सन्देह करता है वो एक ग्रन्थ पर कैसे नहीं सन्देह करेगा। वो कोशिश भी कर ले, न करने की, तो भी उसके मन का जो कीड़ा है वो तो बुलबुलायेगा ही।
प्रश्नकर्ता: एक चीज़ सामने आयी है कि कितनी भी बुक्स, ज़्यादा बुक्स तो नहीं पढ़ीं हैं। ख़ैर, जितनी भी पढ़ी हैं समझ में आता है पर जो आप अभी कह रहे हो कि श्रद्धा नहीं है, जो भी है, कुछ चीज़ सामने आ जाती है कि सिर्फ़ बुक को बुक की तरह लो। और बड़ी स्ट्रोंग नहीं होती है वो, कैसे मैं बोलूँ कि उसको इतनी स्ट्रोंग फीलिंग नहीं होती है वो पर वो अन्दर से रहता है कि ये बुक को मैं रीड कर पा रही हूँ, समझ पा रही हूँ। और एक होती है कि बुक को बुक की तरह ही लो। और जितनी भी बुक्स पढ़ी हैं सबमें ही यही होता है।
आचार्य प्रशांत: नहीं, बुक को बुक की तरह लेने का तो कोई मुझे अर्थ समझ में नहीं आया कि क्या कहना चाहती हो।
प्रश्नकर्ता: मतलब श्रद्धा नहीं है, आप उसी चीज़ को कह सकते हैं। क्योंकि बात तो समझ में आ रही है। सबकुछ सामने दिख रहा है। साफ़-साफ़ दिख भी रहा है, रिलेट भी कर पा रहे हो चीजों को, लेकिन उस चीज़ को ले नहीं पा रहे हो। समझ पा रहे हो पर उसे इंटर्नलाइज़ (आन्तरिक लाभ) नहीं कर पा रहे हो।
आचार्य प्रशांत: नहीं, इंटर्नलाइज़ेशन वगैरह कोई कोशिश नहीं है। वो चाह-चाहकर नहीं होता है। जब एक किताब अपना काम कर रही होगी वाकई, तो आपके अन्दर कोई ख्याल नहीं होगा कि ये मुझे फायदा दे।
प्रश्नकर्ता: उस वक्त ख्याल नहीं होता, समझ आ जाता है लेकिन फिर बुक पढ़ लिया, खत्म करने के बाद मतलब ?
आचार्य प्रशांत: नहीं दिक्कत यही है न कि तुम्हें समझ आ रहा है। मैंने क्या बोला था? जब भी तुम कहोगी तुम्हें समझ आ रहा है इसका मतलब कि तुम्हारे पास समझ का एक विचार है। तो, ये जो तुम्हारा ख्याल है न कि मुझे बात समझ में आ रही है, यही तुमको फँसा रहा है।
प्रश्नकर्ता: सर इसमें दो केसेज़ हैं, एक…दो बुक्स हैं, एक तो ‘फ़्रीडम फ़्रम दी नोन’ और दूसरी ‘ऑल एल्स इज़ बॉनडेज।‘ ‘ऑल एल्स इज़ बॉनडेज’ के जो वर्डिंग्स (शब्द) हैं वो थोड़े से डिफिकल्ट (मुश्किल) हैं, तो उसे समझने में बार-बार, बार-बार, कई बार पढ़ना पढ़ रहा है उसको। और फ़्रीडम फ़्रोम दी नोन , क्योंकि जे. डी. की पहले भी कई सारी किताबें पढ़ी हुई हैं, लाइक एक पेस बन गया है, तो वो रिलेट भी हो पा रहा है। विडीओज़ भी सुने हैं तो समझ भी पा रही हूँ। समझ फिर उसी कॉनटेक्स्ट में है। लेकिन ‘ऑल एल्स इज़ बॉनडेज’…..
आचार्य प्रशांत: देखो वहाँ खतरा भी है। चूँकि आप… आपने जब कृष्णमूर्ति को पढ़ना शुरू किया था तो आपको बड़ी तकलीफ़ होती थी, आज कृष्णमूर्ति की आप शायद तीसरी किताब पढ़ रहे हो या उनके विडीओ देख लिए हैं तो आप कहते हो कि ज़्यादा सुविधा है। अभी जो ये सुविधा है ये क्या है? ये सुविधा क्या ये है कि कृष्णमूर्ति जी ने जिस बारे में बात करी है जीवन, सम्बन्ध, प्रेम, सेलिब्रेशन(उत्सव)… तुम जीवन जान गये हो? प्रेम जान गये हो? सेलब्रेशन(उत्सव) जान गये हो? या तुम कृष्णमूर्ति की राइटिंग स्टाइल (लेखन का तरीका) जान गये हो और उससे तुम्हारी ये फ़ैमिलीएरिटी (सुपरिचय) बन गयी है?
प्रश्नकर्ता: एक फ़ैमिलीएरिटी बन गयी है और किस उसमें कह रहे हैं ये भी…
आचार्य प्रशांत: दो बातें हैं, कृष्णमूर्ति के शब्द और वो सत्य, शब्द जिसकी ओर इशारा करते हैं।
प्रश्नकर्ता: सर, वो सत्य क्या है वो नहीं पता पर…
आचार्य प्रशांत: तो शब्दों से…
प्रश्नकर्ता: सर, कुछ-कुछ…
आचार्य प्रशांत: हाँ तो शब्दों से परिचय हो गया है। उनकी एक स्टाइल है जो राइटिंग की वो जान गयी हो। ये तो खतरा है न? अक्सर हमें जब किसी से फ़ैमिलीएरिटी हो जाती है, जब हम किसी की आदत में पड़ जाते हैं, तो हमें ये भ्रम हो जाता है कि हम उसे जानते हैं। आप नहीं जानते। सिर्फ़ इसलिए क्योंकि उनके द्वारा प्रयुक्त शब्द बार-बार आँखों के सामने आ रहे हैं और वही-वही शब्द… ‘ऑब्ज़र्वर इज़ द ऑब्ज़र्व्ड’। वही सारी बातें घूम-फिरकर के आ रही हैं। तो मन को ये भ्रम हो जाता है कि अच्छा-अच्छा ये तो पहले भी पढ़ा था, इसको मैं जानता हूँ। तुम सिर्फ़ शब्दों के दोहराव को जान रहे हो। वो शब्द किधर को इशारा कर रहे हैं, ये नहीं समझ रहे हो।
प्रश्नकर्ता: सर! फिर लेकिन उसमें ऐसा भी होता है कि आप पढ़ रहे हैं, उसी तरह पढ़ रहे हैं कि बुक रिव्यू लिखना है, उसी तरीक़े से पढ़ा जा रहा है।
आचार्य प्रशांत: रिव्यू तो तुम वैसे भी नहीं लिख रही हो।
प्रश्नकर्ता: मतलब पूरा नहीं लिखा है…
आचार्य प्रशांत: तो अभी उसको छोड़ ही दो, दिमाग से ही निकालो।
प्रश्नकर्ता: मैं कह रही हूँ, ‘उसी हिसाब से लिख रही होती हूँ, तो फिर एकदम से….
आचार्य प्रशांत: हाँ। तो वो सोच के भी कहाँ लिख पायीं? तीन महीने तो हो गये। बुक रिव्यू तो आ नहीं रहा न। इसका मतलब ये तरीका भी काम तो कर नहीं रहा। तो, इस तरीके को छोड़ ही दो। ये तरीका अगर काम कर रहा होता तो रिव्यू कब का आ गया होता।
प्रश्नकर्ता: बिलकुल सही बात है लेकिन जैसे, लेकिन जब बैठते हैं तो अचानक से उस बुक में जो क्वेस्शन्स होते हैं, स्ट्राइक (प्रहार) कर देते हैं कि क्या कहा जा रहा है। इंटरेस्ट (रुचि), किसी भी तरह का इंटरेस्ट , जैसे हम हैं वैसा ही इंटरेस्ट होगा, लेकिन उसको ध्यान से, समझ से पढ़ने लग जाते हैं। एक हो गया वर्ड कि वर्ड को समझा देते हैं। काफ़ी कुछ सेंटेन्सेज़ (वाक्य) ऐसे भी होते हैं जो किस सेन्स में कह रहे हैं, नहीं पता चलता।
आचार्य प्रशांत: वो ठीक बात है, बिलकुल है कि जब तुम उसके ऊपर से, सिर्फ़ सतही-सतही तरीक़े से किताब को देख रहे हो तो ये बिलकुल हो सकता है कि आँखें मेकेनिकली (यान्त्रिक) अपना काम करती रहें और उसका कुछ सार आ रहा है कि नहीं आ रहा है, वो पता न चले और जब लिखने बैठो कि मैंने क्या जाना, तो सारी कलई खुल जाये कि जाना कुछ नहीं है। तो लिखना इसीलिए आवश्यक है।