समर्पण सुविधा देख के नहीं || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

Acharya Prashant

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समर्पण सुविधा देख के नहीं || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

टोटे में भक्ती करै, ताका नाम सपूत। मायाधारी मसखरै, केते गये अऊत।।

वक्ता: भक्ति का अर्थ ही होता है कि कुछ पाना है, कुछ है जो भजने योग्य है। और वो जो है, जो भज्य है, उसको पाना है। तलाश पाने के लिये ही होती है लेकिन उस तलाश में दम कितना है, आप खुद उस तलाश के प्रति गम्भीर हैं कि नहीं, वो उस खोज पर या तलाश पर दो-चार कदम चल कर ही पता चलता है। भगवान को ‘हरि’ यूँ ही नहीं कहा गया है, वो हरते हैं। ‘तोटे’ से आशय ही यही है कि अब हरा जाने लगा है, अब छिनने लगा है।

क्या दम है तुम्हारी भक्ति में, क्या दम है तुम्हारी मुमुक्षा में, वो पता उसी समय लगता है जब तुम्हारा साध्य, तुम्हारा भगवान, तुम्हारा प्रेमी ‘हरि’, हरना शुरू कर देता है। जाते इसलिये हो उसके पास कि कुछ मिले, पर वो तो हरेगा, और तब परीक्षा शुरू होती है।

मायाधारी से आश्य है कि वो जिसने खूब एकत्रित कर रखा है। जो गुरू के पास, जो परम के पास भी एकत्रित करने ही जाना चाहता है। मसखरा माने वो जिसे हंसना पसंद है, हंसना सुख का द्योतक है। वो सुख की तलाश में जा रहा है। ये जब तक गुरू के पास हंस पायेंगे तब तक तो उसके साथ रहेंगे और जैसे ही शब्द का वार होगा इनका कहीं अता-पता नहीं चलेगा, ये भागते नज़र आऐंगे। ‘केते गये अऊत’। अरे! कहाँ गये? अभी तो हँस रहे थे। हंसने के लिये बड़े इच्छुक हैं, पाने के लिये बड़े इच्छुक हैं, संग्रह का बड़ा आग्रह है इनका। माया क्या? जो इकट्ठा होती जाए। जब तक लगेगा कि मिल रहा है तब तक ये बने रहेंगे लेकिन वो तो देता नहीं है, वो तो छीनता है और ऐसा छीनता है कि लगता है कि प्राण ही छिन जाएंगे।“सूली ऊपर सेज पिया की”,

जैसे ही छिनने की बारी आएगी, जैसे ही इकट्ठा किया हुआ धन, सब छिनने लगेगा, तुरंत भागेंगे, इन्हें सब बुरा-बुरा लगने लगेगा। तो काहे का प्रेमी, काहे का परम और काहे का गुरू। हमारी सुविधानुसार जब तक हो रहा है सब ठीक है, पर ज्योंही वो हाथ बढ़ाएगा कि वास्तव में कुछ कर डाले, ‘केते गये अऊत’, गधे के सिर से सींग गायब। हाँ! मसखरों की जमात बैठी हो, हंसी मज़ाक चल रहा हो, तो ठिठोली में शामिल होने के लिये आ जाऐंगे। बड़ा अच्छा-अच्छा लग रहा है लेकिन जैसे ही कोई असली परीक्षा आऐगी ये पीठ दिखा देंगे। भक्त सिर्फ वही है जो तब भी भक्त बना रहे जब सब छिनने लगता है। और छीनती सिर्फ़ परिस्थितियाँ नहीं हैं। इस भ्रम में मत रहियेगा कि विपरीत परिस्थितियों में भी जो है वो भक्त है। परिस्थितियाँ नहीं छीनती हैं, जिसकी भक्ति कर रहे हो वही छीनता है।

भक्ति का अर्थ ही यही है, प्रेम का अर्थ ही यही है कि उसमें छिनेगा, और जब छिनेगा तब तुम्हारी भक्ति हवा हो जाएगी। “कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होये, भक्ति करै कोई सूरमा, जात, वरन, कुल खोये”। भक्ति सूरमाओं का काम है, मसखरों का काम नहीं। मसखरों से ठिठोलियाँ करवा लो, मज़े लिवा लो। जिस दिन असली घटना घटेगी जिसमें अहंकार छिनता है, ये तुरन्त गायब, मायाधारी मसखरे।

गुरूओं के माध्यम से प्रायः जो उनके शिष्य होते हैं, उनके अहंकार का बड़ा पोषण होता है। ‘हमें कुछ मिल रहा है, हम कुछ पा रहे हैं’। गुरुओं को अगर जाँचना हो कि उनके शिष्यों के शिष्यत्व में कितना दम है, तो उन्हें सिर्फ इतना करना है कि उनसे कुछ छीन कर देखें। मैं सिर्फ इनके लिये माध्यम था, ये मेरा इस्तेमाल कर रहे थे अपने अहंकार को बढ़ाने के लिये। जिस दिन मैंने इनसे कुछ छीनने की कोशिश की, जिस दिन वास्तव में मैं गुरु हुआ, जिस दिन मैंने वास्तव में इनसे छीनना चाहा, उस दिन इन्होंने मुझ पर ही वार कर दिया। ये मेरे ही खून के प्यासे हो लिये। ये मेरा कत्ल भी कर देंगे।

श्रोता १: यह सब कहने में कबीर का क्या लक्ष्य है?

वक्ता: कबीर जैसे लोग लक्ष्य बना कर नहीं बोलते हैं, और लक्ष्य बनाकर अगर आप सुनेंगे तो कुछ कर भी नहीं पाएंगे।

श्रोता २: ‘तोटे में जो भक्ति करे, ताका नाम सपूत’, तो हम टोटे में ही तो हमेशा भक्ति करते हैं।

वक्ता: कमी है नहीं, कम किया जा रहा है। जो कम से कमतर में भी लगा रहे, जो आँसुओं के बीच भी लगा रहे, वो है सपूत। और आँसूं वो नहीं जो पारिस्थितिक हैं, ये वही दे रहा है जिसकी भक्ति कर रहे हो। मसखरा वो जो हंसी का उतावला है। जिसका कम-कम होता जा रहा है और वो फिर भी अडिग है, वो ही भक्ति कर सकता है।

बढ़ाने के लिये तो सभी उत्सुक हैं, बढ़ाने तो सब आते हैं। बढ़ाने को उत्सुक थे और कम होता जा रहा है, तो उस प्रक्रिया पर आगे चलोगे क्या? इस कमरे में बैठे थे बढ़ाने को और कम होता जा रहा है, तो क्या इस कमरे में रहोगे? भागोगे। पर अगर टिके रह गए तो, ‘ताका नाम सपूत’। भक्ति की थी पाने की आकांक्षा से लेकिन खोता जा रहा है। तब भी जो टिका रहे तो, ‘ताका नाम सपूत’।

और यही परख है, यहीं पर जाँच लेना। तुम्हें मीठा चाहिये पर लगेगा तुम्हें कड़वा। मीठे की परिभाषा क्या है? जो तुम्हारे अहंकार को भाए। तो जो वास्तविक है उसको तो होना ही कड़वा है। और यदी कड़वा है तो क्या करोगे? ‘केते गये अऊत’। कड़वा किसको चाहिये?

कड़वे के अलावा कुछ है नहीं जो तुम्हें मिलना चाहिए, और कड़वा तुम्हें चाहिये नहीं। तुम आते क्यों हो? मीठा पाने। तुम्हें वास्तविक आवश्यकता किसकी है? कड़वे की। पर ज्यों ही कड़वा मिलेगा, तो तुम क्या करोगे? भाग लोगे।

सारा खेल ही इसी बात का है। जो कड़वा मिलते ही भाग ले, उसमें वैसे भी दम नहीं था। वो काहे का भक्त हुआ ?

-‘ज्ञान सत्र’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं ।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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