प्रश्नकर्ता: आचार्य जी शिविर में आपके सानिध्य का समय रात्रि के समय निर्धारित है जब नींद और थकान हावी होती है, क्या इसके पीछे कोई खास कारण है?
आचार्य प्रशांत: आज देखा है कुछ लोग ग़ायब हैं। अब तो फिर भी चीज़ें बड़ी बँध गयीं, क्योंकि संस्था बड़ी हो गयी। आठ-दस साल पहले, शिविर हम बताते थे तीन दिन का है और चलाते थे सात दिन। तो लोग आते थे, तीन दिन की छुट्टी लेकर आते थे, फिर उनको तीसरे दिन की रात बताया जाता था कि चौथा दिन है और जो स्वेच्छा से रुकना चाहता है वो रुके। चौथा दिन चलता था। तो मान लो तीस जने आये हैं, तो चौथे दिन बीस रुक जाएँ, पच्चीस रुक जाएँ।
टिकट कैंसल करा दिया लोगों ने अपना लौटने का। रुकने में कुछ राशि भी लगी, लोगों ने वो भी जमा करा दी। चौथे दिन की रात बताया जाता था कि एक दिन अभी और है और स्वेच्छा की ही बात है, रुकना हो तो रुको नहीं तो जाओ। तो फिर पता चलता था पन्द्रह रुके। फिर बताया जाता था कि अभी एक दिन और है, फिर बताया जाता था एक दिन और है। और सातवें दिन की आधी रात को जो दो घंटे का सत्र होता था, बस वही एक सत्र था असली। और जो उसमें बैठ लेते थे, उन्होंने बैठ लिया, बाक़ी सब छँट गये।
कोई भी क़ीमती चीज़ मुफ़्त नहीं मिलती, पात्रता दर्शानी पड़ती है। हमारे सारे तीर्थ, देखा है कहाँ-कहाँ बनाये गये — कोई दूर समुद्र किनारे, कोई हिमालय की चोटी पर, कोई देश के एक कोने में, ताकि वहाँ वही पहुँचें जो पहुँचने लायक़ हैं, बाक़ी छँट जाएँ और रास्ते से ही वापस लौट जाएँ।
जो सो सकते हों सत्र में, उनको मैं कहता हूँ, ‘तुम ख़ुद सोओ, इससे पहले मैं ही सुला दूँगा तुमको।’ भला है कि तुम सो ही जाओ, छँटो, हटो! जो मैं दे रहा हूँ, वो सबके लिए है ही नहीं। जो थक सकते हैं, वो थक ही जाएँ। हटो! फिर जो बचेंगे, उनके साथ गुरू का आत्मिक सम्बन्ध स्थापित होता है। बाक़ी तो भीड़ है, उसे छँटना चाहिए। भीड़ के लिए यूट्यूब है।
इस वक़्त कुछ नहीं तो अब तक हज़ारों में लोग देख चुके होंगे इस प्रसारण को। भीड़ के लिए उतना ही बहुत है, लो देखो! जो असली हों, वो सामने आयें। और जो सामने भी आयें, उन्हें सिर्फ़ सामने आने भर से निकटता नहीं मिल जानी है, उनकी भी परीक्षा होगी। आज रात है परीक्षा। आपको क्या लग रहा है कि ये सत्र आख़िरी है, इसके बाद कुछ और भी है। और सब में दम नहीं होगा उस आख़िरी प्रक्रिया में शामिल होने का। पर जो शामिल होंगे, उनकी मौज मत पूछिए। यूट्यूब वालों से हम माफ़ी चाहेंगे, उसका कोई यूट्यूब सीधा प्रसारण नहीं होने वाला है। वो तो उन्हीं के लिए है जो आयें — जो आये सो खाये।
अचानक इस पूरे दल का जागरण कोशेंट (भागफल) बढ़ गया है, कुछ अधखुली आँखें पूरी ही खुल गयीं, ‘क्या होगा, क्या होगा!’
ग़ौर करिएगा कभी भी, मैं जब भी बोलता हूँ, खिड़की-दरवाज़े खुले रखता हूँ। सिर्फ़ इसलिए नहीं कि हवा आती-जाती रहे, ताकि तुम भी रुख़्सत हो सको जब निकलना चाहो। बल्कि जब मुझे दिखाई देता है कि कोई भाग नहीं रहा तो मैं समझ जाता हूँ कि आज बात में धार नहीं है। जब तक कोई भागा नहीं, तब तक सत्संग हुआ कहाँ। ये कोई हँसी-मज़ाक नहीं है, धर्म-युद्ध होता है ये। गुरू की आवाज़ में तलवार की झंकार होनी चाहिए, ताकि जितने कायर हैं, वो सब लोट जाएँ, भाग जाएँ, धराशायी हो जाएँ।
और आप लोगों ने तो मौक़े का पूरा लाभ उठाया भी नहीं, मुझे रात में डेढ़-दो बजे ही छोड़ देते थे। ऐसी भी टोलियाँ मिलती थीं जो भोर होने से पहले छोड़ें ही न। ये तो अपनी-अपनी उत्कंठा पर है। मेरे ख़याल से चेन्नई में था, तो वहाँ पर महिलाएँ आयी हुईं थीं। तो ऐसे ही बज गये डेढ़-दो, बोलीं, ‘इतनी देर कर दी।’ तो मैंने कहा, ‘फिर?’ बोलीं, ‘और क्या, अब सुबह तक चलेगा, ये कोई समय है घर जाने का। अब जब रोशनी हो जाएगी तब घर जाएँगे, अब चलने दीजिए बात। भले घर की औरत कोई दो बजे घर जाती है, हम तो नहीं जाएँगे।’
सत्संग सोफ़े पर बैठकर टीवी सीरियल (धारावाहिक) देखने जैसा थोड़े ही है कि आधे बैठे हैं, आधे लेटे हैं, पॉपकॉर्न खाते जा रहे हैं, फ़ेंटा पीते जा रहे हैं और वहाँ टीवी चल रहा है, और जब पसन्द नहीं आया तो चैनल भी बदल दिया। इसमें आपकी सक्रिय भागीदारी चाहिए होती है। और वो भागीदारी आपको प्रतिपल गुनती भी है, प्रतिपल आपकी परीक्षा लेती है।
गुरू के साथ होने का मतलब ही होता है परीक्षा केन्द्र में होना लगातार — समय सीमित होता है, जितने अंक लूट सकते हो, लूटो। तीन घंटे में उत्तर पुस्तिका तो छिन ही जाएगी, उसके पहले जितना लूट सकते हो, लूटो। जो सो रहे हैं, वो क्या पाएँगे, तीन घंटे तो बीत ही जाएँगे। तो जाकर परीक्षा केन्द्र में बैठ भर जाने से सत्संग नहीं हो जाता, लगातार सक्रिय रूप से कुछ करना भी पड़ता है। या बस बैठ जाओगे तो उत्तीर्ण कहलाओगे, ऐसा होता है? तो यहाँ भी बैठ बस जाओगे तो उत्तीर्ण नहीं हो जाओगे। परीक्षा देनी पड़ेगी, तब पास कहलाओगे।
अब समझ गये होंगे कि क्यों बहुत लोग जो सैकड़ों सत्संगों में बैठते हैं, इतना कुछ देख-सुनकर भी अनाड़ी ही रह जाते हैं। क्योंकि बैठना नहीं काफ़ी होता, अपनी योग्यता सक्रिय रूप से प्रदर्शित भी करनी होती है।
प्र: प्रणाम आचार्य जी। आपका ज़ोर प्राचीन ग्रन्थों पर होता है। मैं आपकी दिनचर्या को आयुर्वेद के नियमों के बिलकुल विपरीत पाता हूँ। तो आप इस तरह से सत्रों को आयोजित इसलिए करते हैं ताकि हमारी धारणाएँ टूट सकें या ये हमें आपकी जीवन-शैली के अनुसार ढालने के लिए है? इसके पीछे आपका क्या मनोविज्ञान है और आप हमें क्या सन्देश देना चाहते हैं?
आचार्य: पहली बात तो जब मैं कह रहा हूँ कि शास्त्रों को पढ़ों, तो शास्त्र क्या है ये ग़ौर से समझो। शास्त्र किसको कहना है, उसकी एक ही कसौटी है — जो अहम् को गलाये सो शास्त्र, जो सत्य से तुम्हें मिला दे सो शास्त्र। तो आयुर्वेद कोई शास्त्र नहीं है। आयुर्वेद कोई शास्त्र नहीं हो गया। अध्यात्म का आयुर्वेद से कोई लेना-देना नहीं है।
थोड़ी देर में तुम कहोगे कि आप जो कर रहे हैं, वो होम्योपैथी के ख़िलाफ़ जाता है। जाता हो तो जाए मेरी बला से। आयुर्वेद आ कहाँ से गया, आयुर्वेद की चर्चा ही कैसे छिड़ गयी, ये आध्यात्मिक शिविर है। थोड़ी देर में अगर तुम कहो कि यहाँ पर नासा (राष्ट्रीय वैमानिक और अन्तरिक्ष प्रबन्धन) के नियमों का पालन नहीं हो रहा, मैं क्यों करूँ?
आयुर्वेद तो ये भी बताता है कि स्वस्थ होने के लिए कबूतर के माँस का रस भी पी सकते हो और सुअर के माँस का रस भी पी सकते हो। मैं तो कभी न बताऊँ। किसने कह दिया कि आयुर्वेद की बड़ी प्रामाणिकता है या बड़ी उच्चता है? सिर्फ़ इसलिए कि उसके साथ वेद शब्द जुड़ा हुआ है, बहक मत जाना! आयुर्वेद अपनेआप में बहुत ऊँची चीज़ है, लेकिन उसका अध्यात्म से कोई सम्बन्ध नहीं है भाई, ये पहली बात।
दूसरी बात, तुम कह रहे हो कि तुम्हारा रूटीन तोड़ा। रूटीन में तो ज़िन्दगी भर चलते रहे हो, पा क्या लिया है? रूटीन का अर्थ होता है दायरा, चक्र, वृत्त। चल तो रहे थे उसमें, क्या पा लिया? रूटीन ही अगर काम आ रहा था तो सत्संग की आवश्यकता क्या थी? सत्संग तुम्हारे रूटीन का हिस्सा बन जाए, ये चाहते हो? बड़े पागल हो, होश में आओ, क्या बात कर रहे हो!
सत्संग तुम्हारी दिनचर्या का हिस्सा बनेगा या तुम्हारी दिनचर्या को परिभाषित करेगा? जवाब दो। वो तुम्हारे कमरे में रखी हुई एक चीज़ बनेगा या कमरे की बुनियाद बनेगा? पर नहीं, अहंकार की बात ही ऐसी है। वो कहता है, ‘मेरा रूटीन ऐसा है, अब भगवान भी उतरें तो मेरे रूटीन के अनुसार उतरें। मैं पहले आता हूँ न, मेरी दिनचर्या है, सत्य भी आये तो मेरी दिनचर्या देखकर आये — ‘अपॉइंटमेंट लेना भाई पहले, साहब योगी हैं, दस बजे सो जाते हैं, सत्य भी अगर ग्यारह बजे आएगा तो उठेंगे नहीं।’
क्यों साहब? कैसे सवाल कर रहे हो? (मुस्कुराकर प्रश्नकर्ता से पूछते हुए)
प्र: योगेन चित्तस्य पदेन वाचां। मलं शरीरस्य च वैद्यकेन॥ योऽपाकरोत्तमं प्रवरं मुनीनां। पतञ्जलिं प्राञ्जलिरानतोऽस्मि॥
अगर आप कहते हैं कि आयुर्वेद का अध्यात्म से कोई सम्बन्ध नहीं है तो महर्षि पतंजलि का फिर योग से भी कोई सम्बन्ध नहीं होना चाहिए, क्योंकि महर्षि पतंजलि ने ही तीनों ग्रन्थों की रचना की है।
आचार्य: अरे बाबा! तुम्हें कैसे पता कि महर्षि पतंजलि ने आयुर्वेद की रचना की है कि नहीं की है? मेरी निष्ठा योग सूत्र के प्रति है। मैं कहता हूँ कि जिसने योग सूत्र रचा, उनका नाम पतंजलि। और पतंजलि श्रद्धेय इसलिए हैं, क्योंकि योग सूत्र में दम है। योग सूत्र तुमको ले जाते हैं मुक्ति की ओर, इसलिए पतंजलि श्रद्धेय हैं।
बात को समझो, महीन है, मोटी नहीं है। योग सूत्र की क़ीमत इसलिए नहीं है कि उन्हें पतंजलि ने रचा। पतंजलि की क़ीमत इसलिए है, क्योंकि योग सूत्र जैसी बड़ी बात जिसने भी कही, वो सम्मान का पात्र होगा। तो पहले हम कर्म को देख रहे हैं, फिर हम कह रहे हैं, ‘कर्म इतना ऊँचा है, ये शास्त्र इतना सुन्दर है, ये मुक्ति देता है, तो इस शास्त्र का जो लेखक है जिससे ये उद्भूत हुआ, वो भी कोई ऊँचा ही होगा।’ तो निष्ठा योग सूत्र के प्रति है न। योग सूत्र के प्रति क्यों निष्ठा है? क्योंकि योग सूत्र देता है मुक्ति।
आयुर्वेद नहीं मुक्ति देता तो आयुर्वेद से क्या निष्ठा। तो आयुर्वेद का जो स्रोत भी है, उसके प्रति सम्मान इतना ही है कि आपने जो हमें बताया, उससे हमें एक निरामय जीवन, शारीरिक रूप से स्वस्थ जीवन जीने में मुक्ति मिलती है, तो आयुर्वेद के रचियता को हमारा प्रणाम। लेकिन यहाँ तो बात हो रही है शरीर से आगे निकलने की, यहाँ बात मेडिसिन की थोड़े ही हो रही है।
दिक्क़त ये आती है कि हम भूल ही जाते हैं कि शरीर को स्वस्थ रखने में और आध्यात्मिक मुक्ति में बहुत अन्तर है, ये एक चीज़ नहीं है। और उसका भी कारण ये है कि आज के समय योग शब्द इतना भ्रष्ट हो गया है कि उसमें सब शारीरिक ही काम कराये जाते हैं और कह दिया जाता है योग। तो ऐसा लगने लगा है जैसे शरीर को ही स्वस्थ रखने का नाम है अहंकार से मुक्ति। उसी धारणा के चलते ये आयुर्वेद की बात दिमाग़ में आ रही है।
सुखिया सब संसार है, खाये और सोये। दुखिया दास कबीर है, जागे और रोये॥ ~ कबीर साहब
जाओ, कबीर साहब को आयुर्वेद पढ़ाओ कि क्यों जाग रहे हो, क्यों रो रहे हो, तबियत ख़राब हो जाएगी। बाबा बुल्लेशाह कहते हैं कि मैं रात-रात भर जगकर गीत गाता हूँ ख़ुदा के और जैसे मैं जग रहा हूँ वैसे ही कुत्ते भी जग रहे हैं, तो मेरा तो जगना भी अभी पूरा नहीं है, बाज़ी ले गये कुत्ते। जाओ, बाबा बुल्लेशाह को बताओ कि रात में जगना घोर अपराध है, तबियत ख़राब हो जाएगी।
कौनसी बात किस जगह की है, किस तल की है, देख-समझकर करो न। भक्त की तो आँखों की नींद उड़ जाती है। वो ये थोड़े ही कहेगा कि ग्यारह बजे मुझे सो ही जाना है। जाओ, पढ़ो मीरा के पद। वो कह रही हैं, ‘नींद नहीं आती अब, आती ही नहीं।’
जहाँ समयातीत की बात हो रही है, वहाँ तुम्हें समय का ख़याल आ कैसे गया! जहाँ अकाल की, जहाँ कालातीत की बात हो रही है, वहाँ तुमने घड़ी देख कैसे ली! बहुत ज़्यादा देहनिष्ठ जीवन बिता रहे हो, बस शरीर-ही-शरीर दिखाई दे रहा है। क्योंकि समय माने शरीर, शरीर ही समय से आता है। आत्मा तो समय के पार की होती है, आत्मा का तो समय से कोई लेना-देना नहीं। कोई समय की इतनी बात करे, माने देहाभिमान बहुत है उसमें।
समझ में आ रही है बात?
तुम्हारी दिनचर्या तुम्हारा दायरा है। तुम्हारी दिनचर्या तुम्हारे अहम् के इर्द-गिर्द बुनी हुई है। ये स्वीकार करना और सिर झुकाना बहुत ज़रूरी है कि मेरे अहम् और मेरी दिनचर्या से ऊपर और बहुत ऊपर का कुछ है। मैं भी छोटा और मेरी दिनचर्या की भी क्या औक़ात, उससे ऊपर का बहुत कुछ है। और जब वो सामने आएगा तो ख़याल ही नहीं करूँगा कि घड़ी समय क्या दिखा रही है।
और जो बहुत ख़याल करते हों घड़ी और घड़ी के समय का, उनके लिए मैंने कहा कि खिड़की और दरवाज़े दोनों खुले हैं। परेशान क्यों हो रहे हो? जाओ और आयुर्वेद के अनुसार सो जाओ। (प्रश्नकर्ता का नाम लेते हुए) कहते हो कि तीसरा शिविर है, तीन लगा लिये, यही सीखा! (आचार्य जी मुस्कुराते हुए)
प्र: इस यात्रा पर चलने के लिए आपका कहना ये है कि इन सब चीज़ों को नज़रअंदाज़ कर दिया जाए?
आचार्य: मेरा जो कहना है, मैं तीन दिन से कह रहा हूँ, बहुत साफ़ शब्दों में कहा।
पूछ रही थीं न, ये उदाहरण है। (श्रोताओं में से एक को कहते हुए) इसलिए शिविर आवश्यक होता था कि सात दिन तक चले, ताकि जिनको सोने-जगने के समय की बहुत परवाह हो, वो सो ही जाए।
बँध गये हो, फँस गये हो! जो करते हो न, वो लाभ के साथ-साथ हानि भी बहुत दे रहा है। (प्रश्नकर्ता से कहते हुए)
प्र: मेरी तो टूट गयी है दिनचर्या, लेकिन जो सवाल मुझसे पूछे जाते हैं, मैंने आगे होकर वही सवाल आपके सामने रखे हैं।
आचार्य: नहीं, ये और बड़ा अपराध है। गुरू तक सेकेंड हैंड सवाल नहीं पहुँचाए जाते। इतना ही करा तो बहुत अच्छा करा कि माध्यम बने मुझे इतने लोगों तक पहुँचाने का। अब जब मुझे पहुँचा दिया तो तुम्हारा धर्म है कि तुम कहो, ‘तुम हो और गुरुदेव हैं, अब मुझे बीच में क्यों रखते हो? मेरा काम तो पूरा हुआ न, ऊँचे-से-ऊँचा काम मैंने कर दिया।’
और ऊँचे-से-ऊँची सेवा इस दल की क्या करी है आपने कि आप ले आये, अब सवाल तो उन्हें ख़ुद पूछने दो। अब तो उन्हें सवाल ख़ुद पूछने दो और अगर ख़ुद नहीं पूछ पा रहें, तो फिर तुम उनकी सेवा नहीं कर रहे, उनके साथ कुछ गड़बड़ ही कर रहे हो। उनको प्रेरित करो — ‘अब जो पूछना है, पूछो। कल से तो अब वैसे भी नहीं रहेंगे, कल से मुझसे पूछ लेना। आज सामने हैं तो सीधे-सीधे पूछ ही लो।’
देखिए, मैं आप सबसे एक बात स्पष्ट करना चाहता हूँ। होता क्या है कि विज्ञान और कलाओं के अलावा जितने क्षेत्र हैं, उनमें से अधिकांश को हम अध्यात्म का नाम देने लग जाते हैं। हमें ऐसा लग जाता है कि जो भी चीज़ ऐसी है कि विश्वविद्यालय में नहीं पढ़ाई जाती, वैज्ञानिक नहीं है, उसका ह्युमेनिटीज़ से, आर्ट्स से भी कोई सम्बन्ध नहीं है, वो शायद आध्यात्मिक ही होगी। तो हम कहने लग जाते हैं कि वास्तु शास्त्र। अब वास्तु, शास्त्र कैसे हो गया? हम कहने लग जाते हैं ज्योतिष शास्त्र। ज्योतिष, शास्त्र कैसे हो गया?
इसी तरीक़े से हमें लगने लग जाता है कि आयुर्वेद इत्यादि का भी अध्यात्म से कोई सम्बन्ध है। आध्यात्मिक ग्रन्थ मात्र वो है जो बात करे सिर्फ़ आत्मा की और अहम् की। इन दो के अलावा अगर तुम किसी तीसरे की बात पढ़ लो, तो जान लेना कि वो पुस्तक शास्त्र कहलाने के योग्य नहीं है। हो सकता है वो पुस्तक अपनेआप में बड़ी उपयोगी हो, उसकी उपयोगिता को सलाम। उपयोगी होगी, लेकिन शास्त्र नहीं है। तो आयुर्वेद कोई शास्त्र नहीं है, उपयोगी बहुत है।
बात समझ में आ रही है?
इसी तरीक़े से न जाने कितनी किताबें हैं, उनको हम सोचने लग जाते हैं कि इनमें भी कुछ पवित्रता है। खासतौर पर अगर वो पुस्तक लिखी गयी हो संस्कृत में। सिर्फ़ इसलिए कि कोई पुस्तक भारतीय है और संस्कृत में लिखी गयी है, वो शास्त्र कहलाने की अधिकारिणी नहीं हो जाती। संस्कृत में तो बहुत सारे नाटक भी लिखे गये हैं, संस्कृत में तो न जाने क्या-क्या लिखा गया है, पर हमें ऐसा लगता है कि जो कुछ भी पुरानी चीज़ है, संस्कृत इत्यादि में है, वो निश्चित रूप से सम्माननीय है। नहीं, ऐसा नहीं है।
जहाँ बात हो तुम्हारी और तुम्हारी मुक्ति की, सिर्फ़ उसको शास्त्र जानना, बाक़ी सब बातों को अलग रख देना। और जब मैं कह रहा हूँ अलग रख देना, तो दोहरा रहा हूँ, मेरा आशय ये नहीं है कि बाक़ी सब बातें कचरा हैं। मैं कह रहा हूँ कि बाक़ी वो सब बातें उपयोगी होंगी, लेकिन आध्यात्मिक नहीं हैं।
मैकेनिकल इंजीनियरिंग की कोई किताब उपयोगी हो सकती है, लेकिन वो आध्यात्मिक नहीं हो गयी। उपयोगी तो रेस्त्रां में जाओ तो फ़ूड मेन्यू भी होता है, पर वो आध्यात्मिक नहीं हो गया।