प्रेम प्रथम या ध्यान? || आचार्य प्रशांत (2013)

Acharya Prashant

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प्रेम प्रथम या ध्यान? || आचार्य प्रशांत (2013)

वक्ता: ऐसा कैसे हो गया कि हर गोपी को लग रहा है कि कृष्ण मेरे ही पास हैं? ऐसा कैसे हो गया?

हम जिस द्वैत की दुनिया में जीते हैं, यहाँ हमारा हर संबंध किसी दूसरे संबंध की कीमत पर होता है| माँ से संबंध बहुत अच्छे हो गये, तो बीवी से संबंध ख़राब होने का ख़तरा है| बीवी के बहुत निकट आ गये तो माँ का रूठना निश्चित है| दोस्तों के साथ ज़्यादा समय गुज़ार दिया तो परिवार से दूर हो जाओगे, बॉस की बहुत सुन ली तो पिता से अनबन हो जाएगी, और पिता के कहने में आ गये तो बॉस कहेगा की मुझे अपना समय दो| समय तो सीमित है, एक के साथ गुज़रेगा तो दूसरे के साथ नहीं गुज़रेगा|

हमारा हर संबंध दूसरे किसी संबंध की कीमत पर होता है, सभी संबंध जीत-हार वाले संबंध हैं| ‘तुम्हारे करीब आऊँगा तो निश्चित ही किसी से दूर जाना पड़ेगा’- ये हमारे संबंध हैं| और हमारे संबंध इसलिए ऐसे हैं क्योंकि उनमें पूर्णता नहीं है| हमारे संबंध इसलिए ऐसे हैं क्योंकि वो इसी बिनाह पर नापे जाते हैं कि तुम दूसरों से दूर कितने हो, इस बात को समझियेगा| आपके जो क़रीबी हैं, आपको बहुत अच्छा लगता है कि वो आपके क़रीबी हैं क्योंकि वो आपके क़रीब हैं, दूसरों की अपेक्षा| आपका क़रीबी आपके उतने ही करीब रहे, पर कहीं दूसरों के ज़्यादा क़रीब न आ जाये, और अगर आ गया तो आपका क़रीबी, क़रीबी नहीं रह जायेगा| बात समझ रहे हैं?

जिनको आप अपना क़रीबी बोलते हो कि ये हमारे दोस्त हैं, संबंधी हैं, पति या पत्नी हैं, उनका आपसे वही संबंध रहे जो है, और अगर किसी दूसरे से प्रगाढ़ संबंध हो जायेगा, तो आपका उनसे संबंध ख़राब हो जायेगा| समझ में आ रही है बात? हमारे संबंध तुलनात्मक हैं, आप मेरे कितने निकट हैं, दूसरे की निकटता के सापेक्ष| ‘तुम मेरे तभी क़रीब हो जब मेरे तुम्हारे बीच का फ़ासला अगर दो इकाई का है, तो बाक़ी सब से तुम्हारा फ़ासला कम से कम पाँच ईकाई का होना चाहिए| मेरा तुम्हारा फ़ासला तो दो ही इकाई का है, पर तुम किसी और के इतने करीब आ गये कि बस एक इकाई दूर हो, तो मेरा तुम्हारा संबंध टूटा’| ये बात आप समझ रहे हैं? हम ये नहीं कहते कि तुम मेरे क़रीब आओ, हम शर्त ये रखते हैं कि…?

सभी श्रोतागण(एक स्वर में): दूसरों से दूर हो जाओ|

वक्ता: कि दूसरों से दूर हो| दुनिया की सारी ईर्ष्या इसी बात पर टिकी हुयी है| ‘तुम मेरे क़रीब हो मुझे इससे फ़र्क नहीं पड़ता, पर किसी और के क़रीब मत आना’| आप समझाते हार जायेंगे| आप कहेंगे, ‘मेरे तुम्हारे प्रेम पर कोई आँच नहीं आई है, मैं तुम्हारे लिए अभी भी वही हूँ जो कल था’, वो कहेगा, ‘फ़र्क ही नहीं पड़ता| तुम किसी और के क़रीब कैसे हो गये?’ इसका अर्थ यही है कि वो रिश्ता बड़ा मुर्दा है, उस रिश्ते में ‘अपना’ कुछ नहीं है, उस रिश्ते में सिर्फ़ एक तुलनात्मकता है, एक नापने का भाव है |

आपको इससे अंतर ही नहीं पड़ रहा कि आपके पास कौन है, या ये कहिये कि आप ‘पास’ शब्द का अर्थ ही नहीं जानते, आप बस नापना जानते हो| निकटता किसको कहते हैं ये आपने कभी चखा ही नहीं है, क्योंकि जिसने निकटता चख ली उसके बाद उसे फ़र्क ही नहीं पड़ेगा| मैं यहाँ तक दावा करने को तैयार हूँ कि जिस दिल में ईर्ष्या है, उस दिल ने प्रेम को कभी जाना ही नहीं है| जिस दिल में ईर्ष्या है उस दिल ने प्रेम को बिल्कुल जाना ही नहीं है|

जहाँ प्रेम हो वहाँ ईर्ष्या हो ही नहीं सकती| ईर्ष्या तब उठती है जब आप प्रेम जानते ही नहीं| प्रेम तुलनात्मक नहीं होता|

कृष्ण का सभी गोपियों के साथ एक-साथ होना, हर गोपी का ये अनुभव करना कि ये कृष्ण मेरे हैं, एक छोटी-सी बात बताता है कि कृष्ण जिसके भी साथ होते थे, पूरे होते थे| कृष्ण जिसके भी साथ होते थे, पूरे होते थे, और ये होकर रहेगा| प्रकृति में अन्यमनस्कता नहीं होती| अन्यमनस्कता समझते हैं? आप यहाँ हैं, मन कहीं और है- इसको कहते हैं अन्यमनस्कता| प्रकृति में ये होती ही नहीं, ये सिर्फ़ इंसान में होती है कि आप यहाँ हैं और मन कहीं और| ‘बैठा तो तेरे बगल में हूँ, मन कहीं और है’|

प्रकृति पूरी तरह ‘होना’ जानती है| जानवर अगर खाना खाता है तो मैं आपको आश्वस्त करता हूँ कि अगर वो तनाव में है तो खायेगा नहीं, पर अगर वो खा रहा है तो बस खा रहा है| जब वो उस स्थिति में होगा कि उसका मन विचलित है, उसके ऊपर कोई ख़तरा है, तो वो खायेगा ही नहीं, वो मना कर देगा खाने से| जिनके पास कोई पालतू जानवर है वो ऐसा प्रयोग करके देख लें| आप जानवर को तनाव में रखो और फ़िर उसके सामने खाना रख दो, वो खायेगा नहीं, पर जब वो खायेगा, तब सिर्फ़ खायेगा, तब वो विचार नहीं कर रहा होगा कि कुछ गड़बड तो नहीं है, अगर गड़बड़ है तो खाना खायेगा ही नहीं| गड़बड़ का विचार करेगा तो सिर्फ़ गड़बड़ का ही विचार करेगा| प्रकृति द्वैत नहीं जानती कि शरीर कहीं, मन कहीं| प्रकृति यह नहीं जानती, यह द्वैत आदमी जानता है|

श्रोता १: क्या इसी का नाम सभ्यता है कि आप खाते समय ध्यान रखें कि आप किसके साथ बैठे हैं?

वक्ता: बिल्कुल| जिसको आप सभ्यता बोलते हो, वो बहुत सीमा तक भ्रष्टाचार है, और इसीलिये मैं कृष्ण को पूरी तरह असभ्य कह रहा हूँ| मैं जानवर कह रहा हूँ कृष्ण को, कृष्ण असभ्य हैं| समझ रहे हैं बात को? जहाँ वास्तव में प्रेम होता है, वहाँ फिर आपको कोई अंतर नहीं पड़ता कि वो और किस-किस के साथ है, आप बस ये देखते हो कि मेरे साथ है या नहीं| गोपियों के लिए इतना ही काफ़ी है कि ‘कृष्ण मेरे साथ हैं, पूरी तरह हैं, अब कोई अंतर नहीं पड़ रहा कि दूसरी वाली के साथ हैं या नहीं, चलो देख कर आयें| अरे इतना देखने की फ़ुर्सत किसको है? मेरे पास हैं, बहुत है| इतना है कि संभाला नहीं जा रहा’|

पर जिस मन ने प्रेम न जाना हो, वो लगातार ईर्ष्या में उलझा रहेगा| वो ये तो नहीं देखेगा कि मेरी ज़िंदगी कितनी सूनी है, उसको इस बात से ज़्यादा अंतर पड़ेगा की दूसरे के यहाँ क्या चल रहा है, दूसरे की ज़िंदगी में क्या हो रहा है| वो कहेगा, ‘मेरी ज़िंदगी में आग लगती हो, तो हो, मुझे प्रेम मिले न मिले, तुझे नहीं मिलना चाहिये| मेरा जीवन प्रेम से खाली रहा है, तो रहा है, किसी और को प्रेम न मिल जाये’| उसका ध्यान अपने ऊपर नहीं होगा| इसलिए एक बात ध्यान से समझियेगा-

आप प्रेमपूर्ण हो सकें, आपका जीवन प्रेमपूर्ण हो सके, उसके लिए ध्यान परम आवश्यक है |

जहाँ ध्यान नहीं है, वहाँ प्रेम नहीं होगा क्योंकि ध्यान का अर्थ है- अपने आप को देखना| ध्यान का अर्थ है-स बसे पहले अपने आप को देखना| यही है ध्यानमयता, अपनी ज़िंदगी को देखना| जिसके पास ध्यान है वही ये देख पायेगा कि मेरा क्या हो रहा है, मेरे जीवन में प्रेम है या नहीं| जिसके पास ध्यान नहीं है, उसका मन लगातार इधर-उधर उलझा रहेगा, पूरी दुनिया में उलझा रहेगा| उसको ये पता भी नहीं चलेगा कि दूसरों से ईर्ष्या करते-करते उसका अपना जीवन कितना सूना हो गया है| दूसरों से ईर्ष्या निकालते-निकालते, दूसरों से दुश्मनी निकालते-निकालते उसका अपना जीवन कैसा बंजर हो गया है| उसे इसका पता भी नहीं चलेगा, क्योंकि उसके जीवन में ध्यान नहीं है| वो अपनी ही ज़िंदगी को नहीं देख पा रहा है|

आपमें से जो भी प्रेमपूर्ण जीवन जीने की इच्छा रखते हों, वो प्रेम भूल जायें, ध्यान पर आयें| प्रेम को बिल्कुल भूल जायें| प्रेम की तलाश बंद करें, ध्यान पर आयें| जीवन को देखना शुरू करें| किसका जीवन? पड़ोसी का?

श्रोता २: नहीं, अपना|

वक्ता: अपना| जहाँ ध्यान है, वहाँ प्रेम उतरेगा, पक्का उतरेगा| और ध्यान के बिना अगर प्रेम आ गया, तो बचो| जिन लोगों के जीवन में अकस्मात प्रेम आ जाता है, ध्यान के बिना, वहाँ तो बड़ी हलचलें उठती हैं, बड़ी बदबू उठती है, बदबू के धमाके होते हैं| क्योंकि आपको कुछ ऐसा मिल गया है जो आपसे संभाला ही नहीं जा रहा| आपको कुछ ऐसा मिल गया है जिसको संभाल पाने की आप में काबिलियत ही नहीं है|

प्रेम को तो ध्यानी ही संभाल सकता है, वरना आपको अगर प्रेम मिल भी जायेगा, तो आपसे संभलेगा ही नहीं| कुछ दिन पास रहेगा, फिर आपसे छिन जायेगा| आपकी लॉटरी लग तो जायेगी, पर आप पाओगे की आपके पास टिकी नहीं| मिला तो था पर छिन गया| क्यों छिन गया? क्योंकि तुम्हारे जीवन में ध्यान की बड़ी कमी थी| तुम कभी देख ही नहीं पाए की कर क्या रहे हो| अपने जीवन को देख पाने की ताक़त तुममें कभी थी ही नहीं, इसलिए मिला भी, तो भी छिन गया; ये होगा ही|

प्रेम प्रथम नहीं है, ध्यान प्रथम है| प्रेम से पहले सत्य आता है| इस बात को बिल्कुल ध्यान से समझियेगा| सत्य पहले आयेगा, फिर प्रेम| इसका विपरीत आप नहीं कर पाओगे| जो लोग आपके संपर्क में हैं, वहाँ पर भी यही ध्यान दीजिये कि क्या ये आदमी ध्यानी है| अगर ध्यानी है, तो ही प्रेम का पात्र हो सकता है| जिस व्यक्ति के जीवन में ध्यान न हो, उससे प्रेम का संबंध बनायेगें तो आप कष्ट में पड़ेंगे और उसको भी कष्ट में डालेंगे|

सिर्फ एक ध्यानी ही प्रेम में उतर सकता है| उसका प्रेम सड़ा-गला नहीं होगा, उसका प्रेम सड़ा हुआ नहीं होगा| समझ रहे हैं बात को?

सिर्फ़ एक कृष्ण में ही प्रेम की काबिलियत है|

-‘बोध-सत्र’ पर आधारित| स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं|

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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