प्रेम में तोहफ़े नहीं दिए जाते, स्वयं को दिया जाता है || आचार्य प्रशांत (2016)

Acharya Prashant

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प्रेम में तोहफ़े नहीं दिए जाते, स्वयं को दिया जाता है || आचार्य प्रशांत (2016)

प्रश्नकर्ता: आपने कहा था कि तुम्हें क्या पता कि जिसे खीर पसंद है, उसे घास भी पसंद हो सकती है। जैसे कि गीता में कहा है—“पत्रम्, पुष्पम्, फलम् तोयम्।” तो अगर हम प्रेम से भोग लगा रहे हैं, तो वो भी उसी श्रेणी की बात है क्या?

आचार्य प्रशांत: प्रेम प्रमुख है। ना पत्र, ना पुष्प, ना फल! प्रमुख क्या है? प्रेम।

अब प्रेम से देने के लिए, देखिए कोई बहुत बड़ी चीज़ें तो नहीं कही गई हैं। पत्र माने पत्ता, पुष्प माने फूल—न सोना, न चांदी—फूल-पत्ता! प्यार से फूल-पत्ता चढ़ा दो, बढ़िया है, काफ़ी है, बहुत है। और जिस समय में गीता कही गई थी, उस समय में प्रचुरता थी, पत्रम्-पुष्पम् की, फलम् की। तो जब कहा जा रहा है कि फूल, पत्ता, फल—तो यही कहा जा रहा है कि वही चढ़ा दो जो सर्वाधिक सुलभ है। जो यूँ ही मिल जाएगा कहीं चलते-फिरते। फूल, पत्ता, फल चढ़ा दो! ये कहा गया है कि जा कर के कोई विशेष फल ले कर आओ? ये कहा गया है कि जा कर के आकाश पुष्प ले कर आओ?

कोई ऐसा फूल माँगा है कृष्ण ने, जो फ्रांस में उगता हो? “जा अर्जुन!”

इतना ही कहा है कि “भाई! यही सब ठीक है। अगल-बगल, किनारे, इधर-उधर, जो मिले।”

प्र१: ये भी तो कई बार होता है न कि इंगित किया जाता है और हम लोग शब्द पकड़ लेते हैं।

प्र२: हाँ! वो तो है, पर अगर मैं खीर का भोग लगा रही हूँ, तो मैंने अपने अहम् का प्रयोग किया या प्रेम का प्रयोग किया, ये कैसे पता लगेगा? मतलब, मैंने बहुत प्रेम से बनाई, लेकिन निश्चित रूप से, मुझे तो भगवान ने आ कर नहीं कहा कि, “मेरे लिए खीर बनाओ!” फ़िर?

आचार्य: जब प्रेम प्रमुख होगा, तो फिर खीर ही नहीं देंगी आप। फिर जो होगा, सब देंगी। आपको जिससे प्रेम होता है—आपका एक नाखून बड़ा सुन्दर है। खूब आपने उसे धोया है, चमकाया है, रंगा है। अब प्रेमी के पास जाती हैं। उसे नाखून दिखाती रहेंगी? या अपना सर्वस्व दे देती हैं?

बात समझ में आ रही है?

प्र: जी!

आचार्य: जहाँ प्रेम होगा, वहाँ बस खीर ही भर नहीं दोगे, वहाँ तो पूरा दोगे। या ये कहोगे कि “खीर मीठी है तो खीर ही लो”?

“लो! तुम नाखून लो बस! बहुत चिकना है एकदम!”

(श्रोतागण हँसते हैं)

जहाँ प्रेम होता है फ़िर वहाँ लुक्का-छिप्पी नहीं होती। वहाँ ये नहीं होता कि “ये सुन्दर वाली चीज़ है, इतना देखो! ये तो तुम्हारा है। आज विशेष खीर बनी है…”

अब विशेष हो कि निर्विशेष हो, आम हो, ख़ास हो, जो हैं, जैसे हैं, पूरे हैं, तुम्हारे हैं; और ख़बरदार, अगर तुमने कुछ भी ठुकराया! और फिर ये भी नहीं होता कि साल में एक दिन हम लाए हैं खीर तुम्हारे लिए। फिर तो जब बनेगा, जो बनेगा वो तुम्हारा ही है। “आज खाना बिगड़ गया, खाओगे वो तुम भी।”

“आज नहीं बना, तो भूखे रहोगे फिर तुम भी।” फ़िर तो जैसे हम, वैसे तुम। हाँ! इतना ठीक है कि हमसे पहले खा लो! पर ये तो नहीं करोगे न कि आज तुम्हारा जन्मदिन है तो आज खीर ले लो! बाकी दिनों?

वो कैलेंडर पर चिपकी हुई है। चावल के दो दाने, दूध में, वो लेई जैसी बन कर चिपक गए हैं। अगली जन्माष्टमी तक के लिए। ऐसे ही होता है। एक जन्माष्टमी से अगली जन्माष्टमी तक वो चिपके रहते हैं।

(श्रोतागण हँसते हैं )

ये प्रेम हमें कुछ समझ में नहीं आया। साल में एक बार चटाते हो! सर्वस्व न्योछावर करो। पूरे हो जाओ।

“खीर भी तुम्हारी, भगोना भी तुम्हारा, करछुल भी तुम्हारा, चूल्हा भी तुम्हारा, आग भी तुम्हारी। हम ही तुम्हारे!”

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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