तोहि मोहि लगन लगाय रे फ़कीरवा तोहि मोहि लगन लगाय रे फ़कीरवा सोबत ही मैं अपने मंदिर में सबद बान मार जगाये रे फ़कीरवा डूबत ही मैं भव के सागर में बहियाँ पकर समुझाये रे फ़कीरवा एकै बचन बचन नहीं दूजा तुम मोसे बंध छुड़ाये रे फ़कीरवा कहै कबीर सुनो भाई साधो प्राणन प्राण लगाये रे फ़कीरवा।
~ संत कबीर साहब
आचार्य प्रशांत: बढ़िया। तो वही तीन हैं पुराने और सारी बात उन्हीं के बारे में है। अहम् — जिसको सबकुछ संबोधित किया जाता है, जिसको ही सब सुख है, सब दुख है, पीड़ा है सारी और वही अकेला है जिसको मुक्ति की चाह भी है, उसे कहते हैं अहम्। अहम् वो जिसके लिए सबकुछ है। आत्मा भी अहम् के लिए ही है, प्रकृति भी अहम् के लिए ही है और मुक्ति की सारी बात भी अहम् के लिए ही है। अहम् रहता लगातार प्रकृति के क्षेत्र में है।
प्रकृति माने क्या? वो सबकुछ जिससे अहम् संबंधित है उसको प्रकृति कहते हैं। वो सबकुछ जिसका मन विचार कर सकता है, जिसका अनुभव या कल्पना कर सकता है उसको प्रकृति कहते हैं, ये प्रकृति की परिभाषा है। अहम् हेतु जो कुछ अस्तित्वमान है उसका नाम प्रकृति है।
अब अहम् की छटपटाहट भले ही मुक्ति की हो, लेकिन उसकी हस्ती तो प्रकृति में ही है। चाहता होगा वो आकाश में खुला उड़ जाना, लेकिन ज़िंदगी उसकी प्रकृति में ही है।
उसकी स्थिति को ध्यान से समझिए! अहम् माने हम सब, ‘मैं’, ये जो ‘मैं’ है, भले ही इसकी कितनी भी कामना हो, ख़्वाहिश हो कि ये आज़ाद हो जाए, मुक्त हो जाए, आत्मा के आकाश में उड़ जाए लेकिन इसका यथार्थ तो यही है कि ये प्रकृति से ही आबद्ध है।
ये जिन भी विषयों से संबंधित है, जिधर को भी देखता है, जिसका भी अनुभव करता है, जिधर भी जा सकता है, जिसको भी सोच सकता है, वो सबकुछ तो ज़मीन पर ही है। ज़मीन माने प्रकृति, आकाश माने आत्मा — प्रतीक के तौर पर ले रहे हैं।
तो एक पक्षी है, एक चिड़िया है, जिसकी नियति यही है कि वो आकाश में उड़ जाएगी। लेकिन किसी ने उसके पंख बाँध दिए हैं, और पैर बाँध दिए हैं, जिस कारण वो पंख फैला नहीं सकती, पाँवों से भी ज़ोर से दौड़ नहीं सकती। तो वो जितनी गति कर रही है, फिलहाल तो धरती पर ही कर रही है।
ये चिड़िया कौन हुई? अहम्। धरती माने?
श्रोतागण: प्रकृति।
आचार्य: और धरती पर जो सब तमाम तरह के लोग हैं, चीज़ें हैं, पेड़-पौधे, पत्थर, नदी, पहाड़ हैं, ये सब क्या हैं?
श्रोतागण: प्रकृति।
आचार्य: प्रकृति के विषय, जिन से चिड़िया संबंधित हो सकती है। और जिस आकाश पर उस पक्षी को उड़ना है वो क्या है? आत्मा। आकाश से पक्षी का जो रिश्ता है, उसको कहते हैं — प्रेम। और आकाश पर पहुँच जाने को कहते हैं — मुक्ति।
पक्षी का आकाश से जो रिश्ता है उसको कहते हैं?
श्रोता: प्रेम।
आचार्य: पक्षी आकाश पहुँच ही गया — उसको कहते हैं?
श्रोता: मुक्ति।
आचार्य: उसी को नियति भी कहते हैं। तो तुम जो होने के लिए हो वो तुम हो गए, इसे कहते हैं नियति। स्वभाव को पा लिया, यही नियति है। पक्षी अगर विवश है धरती पर ही बस चलने को, तो स्वभाव से बहुत दूर है। आप उसकी वेदना का ज़रा सोचिए।
एक ऐसी चिड़िया जो बहुत ऊँचा उड़ सकती है, उसको आपने बाँध दिया है। कहाँ? धरती नामक पिंजड़े में उसको क़ैद कर दिया है। ये जो पूरी प्रकृति है, ये पिंजड़ा ही है; और पक्षी को जाना है आकाश।
इसीलिए जो भीतर बैठा है, जो लगातार कहता रहता है कि आकाश से प्रेम है, आकाश से, उसको बहुत बार पक्षी कह कर ही संबोधित किया गया है। "उड़ जाएगा हंस अकेला", सुनते हैं? भीतर एक पक्षी है जो उड़ने को आतुर है लेकिन ये (शरीर) जो पिंजड़ा है, कितने द्वार का पिंजड़ा है?
श्रोता: दस।
आचार्य: ये जो द्वार हैं ये क्या होते हैं सब?
श्रोता: इन्द्रियाँ।
आचार्य: तो आप जानते हैं न, शास्त्रीय तौर पर कहा गया है — इतनी कर्मेंद्रियाँ हैं, पाँच, इतनी ज्ञानेंद्रियाँ हैं। तो ये पक्षी पिंजड़े में बंद है जिसमें ये सब द्वार हैं लेकिन कोई भी द्वार ऐसा नहीं है जिससे पक्षी उड़ सके। उन द्वारों से बस इतना होता है कि उसको झलक मिलती रहती है।
अब अगर इस चिड़िया को आसमान में उड़ना है तो कैसे करे? किसी ने इसके पंख बाँध रखे हैं। ये क्या करे? ये चल तो ज़मीन पर ही सकती है, तो ये क्या करे? इसको उड़ना आकाश में है, पर इसकी गति सारी बस भौतिक क्षेत्र में है, भूतल पर है। तो ये करे क्या?
श्रोतागण: धरती से आकाश की ओर बढ़े।
आचार्य: हाँ पर क्या करे, अब चिड़िया को तो आप जानते ही हैं, दो ही उसके होती हैं टांगें और हाथ की जगह उसके पास होते हैं दो पंख। पंख भी बाँध दिए और टांगें बस हैं, वो भी अध-बँधी हैं तो उनसे वो थोड़ा-बहुत आगे-पीछे कर लेती है। तो वो क्या करे? व्यावहारिक होकर सोचिए, क्या करे? हाँ बोलो (एक श्रोता से कहते हैं।)
श्रोता: प्रकृति में ऐसा विषय खोजे।
आचार्य: हाँ, तो उसको कोई ऐसा विषय प्रकृति में ही खोजना पड़ेगा जो उसके बंधन खोल दे। जो उसके परों को खोल दे, उसे कोई ऐसा विषय प्रकृति में ही खोजना पड़ेगा।
ये जो अभी आप कबीर साहब की वाणी सुन रहे हैं, ये सत्संग के विषय में है। इसका विषय है कि चिड़िया किसी ऐसे को पा ले जो उसके पंख खोल सके। और जो जीव रूपी चिड़िया के पंख खोल सके उसको यहाँ पर संत शिरोमणि कह रहे हैं 'फ़कीर'। अन्यत्र वो कहते हैं — "फ़िकर ही सबको खा गयी, फ़िकर ही सबका पीर। और फ़िकर का फ़ाका करे, ताका नाम फ़कीर।।"
फ़िक्र सभी को खा गया, फ़िक्र सभी का पीर । जो फ़िक्र का फाका करे, ताका नाम फ़कीर ॥
~ कबीर साहब
चिड़िया जिनके भी पास जाती है वो सब स्वयं भी बँधे हुए हैं। किस चीज़ से बँधे हुए हैं? वो चिड़िया की मदद नहीं कर पाएँगे क्योंकि वो स्वयं भी वैसी ही कोई चिड़िया हैं। जिसके अपने हाथ-पाँव, पंख बँधे हुए हों, वो दूसरे के हाथ-पाँव कैसे खोलेगा? बताओ। आप स्वयं बेड़ियों से आबद्ध हो, आप किसी दूसरे की बेड़ियाँ खोल पाओगे क्या?
तो ज्ञानियों ने कहा है कि ये बेड़ियाँ फ़िक्र की होती हैं। और किसकी फ़िक्र? संसार की ही फ़िक्र। आपके ऊपर और कोई बेड़ी नहीं है, ये जो आप दिन-रात घुटन का अनुभव करते हो, वो घुटन कुछ और नहीं है बस दुनियादारी की चिंता है — दुनिया में फ़लानी चीज़ खो न जाए, दुनिया में जो इकट्ठा किया है, उसे कुछ हो न जाए!
और यही फ़िक्र आपको खा जाती है, यही फ़िक्र आपका बंधन है — "फ़िक्र ही सबको खा गयी, फ़िक्र ही सबका पीर।" जिसको लगातार सोचते रहो, वही पीर है तुम्हारा। हर आदमी लगातार किसको सोच रहा है — अपनी फ़िक्र के विषय को ही सोच रहा है।
आपको चिंता हर समय लगी रहती है न किसी-न-किसी चीज़ की? कभी आतुरता है, कभी आशंका है। और जिनकी चिंता रहती है, वो सब प्रकृति के ही विषय हैं न, उन्हीं का तो हम मनन करते रहते हैं। तो फिर वही हमारा जप है।
तो हमने अपना आराध्य किसको बना रखा है? प्रकृति को ही हमने अपना आराध्य, अपना प्रेम बना रखा है — "फ़िक्र ही सबका पीर। और फ़िक्र का फांका करे ताका नाम फ़कीर।" जिसने दुनिया की असलियत जान ली है क्योंकि उसने अपनी असलियत जान ली है और इसलिए दुनिया के प्रति अब वो उदासीन, अनासक्त, बेपरवाह हो गया है, उसको फ़कीर कहते हैं।
तो ये जो अभी आपके सामने है ये चिड़िया का गीत है। एक चिड़िया है, वो ये गा रही है। कौन मिल गया उसको? फ़कीर मिल गया है। ये चिड़िया न जाने कितने सालों, कितनी शताब्दियों, कितने कल्पों से अपने पंख गॅंवाए घूम रही थी।
जो आपके पास हो लेकिन आप उसका प्रयोग न कर सकते हों, कैसे कह दें कि वो वस्तु आपके पास है? आपके पास कोई चीज़ है लेकिन आप उसका प्रयोग कर ही नहीं सकते, तो क्या वो आपके पास है भी?
तो चिड़िया तो जैसे पंखहीन हो गई थी लेकिन एक काम उसने जारी रखा; क्या? प्रयास करना, चेष्टा। उसने कहा, 'ऊपर नहीं जा सकती लेकिन धरातल पर तो गति कर सकती हूँ।' तो वो धरा के तल पर ही गति करती रही। खोजती रही, खोजती रही, खोजती रही; और उसकी आँखों में अनुनय था, हृदय में प्रेम था।
वो कह रही थी, ‘अधिकतम मैं अभी यही कर सकती हूँ कि सहायता के लिए किसी को खोज लूँ। मेरा पुरुषार्थ अभी उतने में ही है। वो ये कहे कि उड़ नहीं रही हूँ स्वयं, तो मैं कैसे उड़ जाऊँ? मुझे कुछ पता ही नहीं! लेकिन मेरी नीयत साफ़ है और मेरी नीयत ये है कि सहायता खोज निकालनी है। मेरी नीयत ये है कि जब सहायता मिले तो वो जिस भी क़ीमत पर मिल रही हो उसको स्वीकार करना है।’
क्योंकि भूलिएगा नहीं कि ये बेड़ियाँ ले-देकर के हैं तो हमारा चुनाव ही। तो जब कोई मिलेगा जो आपकी बेड़ियाँ खोलने में आपकी मदद करेगा, तो वो आपसे यही कहेगा, ‘तुम्हें अपना चुनाव बदलना पड़ेगा। पहले जो चुनाव करा था उसमें कोई स्वार्थ था तुम्हारा, तुम्हें वो स्वार्थ छोड़ना पड़ेगा।' स्वार्थ छोड़ना हमेशा अखरता है।
तो ये चिड़िया कह रही है कि ठीक है। जो भी चीज़ त्यागनी पड़ेगी, छोड़नी पड़ेगी, मूल्य चुकाना पड़ेगा, चुका देंगे, लेकिन स्वभाव छोड़ना स्वीकार नहीं है। इतना सूत्र उसे न जाने कैसे पता है।
"स्वार्थ छोड़ा जा सकता है, स्वभाव नहीं छोड़ा जा सकता" — ये वो जानती है।
तो ये फ़कीर मिल जाता है उसे, आज़ाद, मस्तमौला! और यूँही नहीं मिल जाता। कहते हैं कि जब भी वो मिलता है, तो अनायास ही मिलता है। पर अनायास ही मिलता होता तो सबको मिल गया होता। मिलता उसी को है जिसने अपनी पात्रता विकसित करी है।
हाँ, पात्रता विकसित करके कोई सूत्र, कोई फार्मूला नहीं है, कोई एल्गोरिदम नहीं है कि आप कहें कि पात्रता विकसित हो गई है, तो फ़लाने दिन, फ़लानी जगह पर इतने बजे हमें मिल जाएगा। नहीं। मिलेगा वो अपनी मर्ज़ी अनुसार ही, लेकिन मिलेगा उसी को जिसने सर्वप्रथम अपनी नीयत साफ़ रखी हो और अपनी पात्रता का विकास करा हो।
तो इस चिड़िया को मिल गया फ़कीर।
फ़कीर जैसे चिड़िया की सदियों की प्रार्थनाओं का उत्तर है। चिड़िया जो कुछ माँग रही थी बहुत साफ़ मन से, बहुत समय से, उसी के फलस्वरूप ये मुलाक़ात हुई है। और जब मुलाक़ात हुई है तो फ़कीर ने हँसकर के चिड़िया के बंधन खोल दिए हैं।
जब बंधन खुलते हैं तो आनंद बाद में होता है कष्ट पहले होता है। क्योंकि किसी सुख, किसी स्वार्थ की वजह से ही तो हमने बंधन पहन रखे होते हैं न। जब बंधन टूटते हैं तो सबसे पहले स्वार्थ पर चोट लगती है; जब बंधन टूटते हैं तो सुख छिनता है।
आपमें से जो लोग बंधनों को तोड़ने के आकांक्षी हों, कृपया ये कल्पना न रखें कि बंधन टूटेंगे तो यकायक बहुत सुख की अनुभूति होगी। बात बिलकुल उल्टी है। जब बंधन टूटेंगे तो रोष और आक्रोश उठेगा क्योंकि बंधनों के साथ रहने का अभ्यास हो गया है, आदत डाल ली है। बंधनों के साथ एक सुख विकसित कर लिया है, कुछ सुविधा, कुछ कंफ़र्ट (आराम) आ गया है। जब बंधन जाते हैं तो वो सुख-सुविधा भी जाती है, बुरा लगता है। जिसने बंधन खोले होते हैं, वो शत्रु-सा लगता है।
चिड़िया सब झेल गई, कष्ट हुआ होगा!
आप अपने शरीर की कोई मांसपेशी कुछ महीनों तक न चलाएँ और उसके बाद अचानक उसको चलाएँ, तो क्या होता है? दर्द होता है न! हाथ टूट जाता है, प्लास्टर बाँध दिया जाता है और जब खुलता है प्लास्टर एक महीने, तीन महीने बाद और आपसे कहा जाता है, 'अब चलाओ', तो कैसा दर्द होता है? क्योंकि तीन महीने में मांसपेशी ने आदत त्याग दी होती है, सिकुड़ गई होती है। फिर आप धीरे-धीरे अभ्यास करते हो तो दस-पंद्रह दिन में हाथ फिर चलने लगता है।
जिसके पंख न जाने कब से बंधे हुए हैं, उसको उड़ने का क्या अभ्यास बचा है! उसके पास तो बस उड़ने की आकांक्षा बची है, अभ्यास नहीं बचा है। वो तो उड़ेगी तो गिरेगी। और गिर करके वो ये भी कह सकती है कि ये देखो मुझे गिरा दिया। बड़ी सहूलियत से, सुविधा और सुरक्षा से ज़मीन पर चलती थी, कोई चोट नहीं लगती थी, इसने आकर के पंख खोल दिये, बोल रहा है, 'आकाश तुम्हारा है'; आकाश की ओर उड़ी, झट से गिरी, चोट लगी। और प्राण भी जा सकते हैं, क्योंकि आकाश में कई तरह के और ख़तरे भी हैं, गिरना ही भर नहीं है।
वो ये सब झेल गई। फ़कीर के प्रति रोष की जगह उसके पास अनुग्रह है, एक गहरे धन्यवाद का भाव। वही भाव अभी आपके सामने व्यक्त हुआ।
‘न जाने कहाँ से तुम मिल गए और ये तुमने क्या दे दिया मुझे! मुझे तो बस ये पता था कि पीड़ा है मेरे पास और पीड़ित नहीं रहना चाहती; तुमने तो मुझे आनंद का आकाश दे दिया।’
जब ये हो जाता है तो फिर ऐसा गीत उदित होता है — "तोहि मोहि लगन लगाय रे फ़कीरवा।"
तुम जो मिले हो मुझको तो तुमने मुझे प्रेम सिखा दिया। मैं तो वरना जिस स्थिति में थी, उसमें जिए ही जा रही थी, कोई मौत थोड़े ही आ रही थी। शरीर भी चल ही रहा था, जीवन भी चल ही रहा था, दिन कट रहे थे लेकिन तुमने कुछ बहुत अनूठा दे दिया मुझे, तुमने प्रेम सिखा दिया।
"सोबत ही मैं अपने मंदिर में, सबद बान मारि जगाये रे फ़कीरवा।"
मंदिर मौजूद था लेकिन मैं तो सो ही रही थी, तुमने शब्द का बाण मारकर जगा दिया मुझको।
ये साधारण शब्द की बात नहीं हो रही है। संत साहित्य में जब ‘शब्द’ या ‘शबद’ कहा जाए तो उसका बहुत विशेष अर्थ होता है। उसका अर्थ होता है — ध्यान से समझिएगा — वो शब्द जो मौन की ओर ले जाए, पहली बात; दूसरी बात, वो शब्द जो मौन से उठता है। तो कभी कोई आपसे कहे, 'गुरुओं का शब्द', तो ये मत समझ लीजिएगा कि किसी साधारण बोल की बात हो रही है।
बाण मार के किसी को जगाओ तो जगेगा तो बाद में, पहले तो उसको पीड़ा ही होगी न। बढ़िया, सुंदर, पवित्र जगह पर, सुरक्षित जगह पर चिड़िया सो रही थी। मंदिर उपलब्ध था पर उस मंदिर का प्रयोग किसलिए हो रहा था? सोने के लिए। मंदिर नहीं जगा पाया था चिड़िया को, फ़कीर ने जगाया।
मंदिर का तो सदुपयोग बहुत कम लोगों ने करा है। इतिहास में मंदिरों का, सब प्रकार के धर्म-स्थलों का उपयोग तो अधिकांशत: नींद को ही और गहरा करने के लिए किया गया है।
"सोवत ही मैं अपने मंदिर में, सबद बान मारि मोहे जगाये रे फ़कीरवा।"
कुछ आ करके तुमने मुझसे ऐसा कह दिया जो पहले मैंने कभी सुना नहीं था। और उस कथन में सिर्फ़ शब्द ही नहीं शामिल हैं, कहने वाले के जीवन की प्रामाणिकता भी शामिल है।
‘उठ बैठी हूँ मैं! और उठने के बाद, पीड़ा को सहने के बाद ये प्रतीति हो रही है कि लगन लगाने के लिए, प्रेम सिखाने के लिए पीड़ा से गुज़रना भी पड़ता है और गुज़ारना भी पड़ता है।’
जो पीड़ा से नहीं गुज़र सकता, वो प्रेम कभी नहीं सीख पाएगा। और जो सहारा देकर के पीड़ा से गुज़ार नहीं सकता, वो प्रेम कभी सिखा नहीं पाएगा।
जो आपके लिए सही संगति होगा, उसकी एक पहचान ये भी होगी कि आप तय नहीं कर पाएँगे कि इसके साथ रहना है कि इसको छोड़ना है। उसके साथ आपका दो-तरफ़ा रिश्ता होगा। जितना आनंद उससे मिलता होगा, उतना अन्यत्र दुर्लभ है। और जितनी पीड़ा उससे मिलती होगी, वो भी कोई और न देता होगा।
कभी भीतर से बिलकुल द्वेष की आग उठेगी — कितनी तकलीफ़! कितनी असुविधा! कितनी पीड़ा! छोड़ ही क्यों नहीं देते! और कभी अनुग्रह का सागर लहराने लगेगा कि अपूर्व मोती मिल गए हैं, जितना माँग नहीं सकते थे उससे कहीं ज़्यादा मिल गया है, छोड़ कैसे दें!
"अंतर हाथ सहार दे, बाहर मारे चोट।" सहारा भी मिलेगा, चोट भी मिलेगी। और चूँकि दोनों मिले रहते हैं इसीलिए आप संशय में आकर छोड़ नहीं पाते। आप कहते हैं, 'छोड़ना तो है, पर एक-आध महीना रुककर के।' जिस चिड़िया को छोड़ना हो वो जल्दी छोड़ दे, एक-आध महीना रुकने के बाद छोड़ना और मुश्किल हो जाता है।
इसने भी ऐसा ही सोचा होगा, ‘चलो ठीक है। अगली बार ज़्यादा परेशान करेगा तो छोड़ देंगे। इस बार झेले लेते हैं, माफ़ किया। पर बता रही हूँ, अगली बार अगर फिर आया न सोते से जगाने के लिए, वो भी बाण मार के — ये कोई तरीक़ा है, कोई मर्यादा नहीं, कोई तमीज़ नहीं, सोते आदमी को बाण मार रहा है! और मैं तो आदमी भी नहीं हूँ, मैं तो स्त्री हूँ, चिरैया। सोती चिरैया को बाण मारा! ग़लत बात; दोबारा नहीं करना।’
दोबारा वो भाला ले के आ जाता है। बोलता है, 'बाण मारने को मना करा था, इस बार भाला।' बड़ी तकलीफ़ होती है और बड़ा क्रोध उठता है। पर आप कहते हो — अगली बार। इस बार भी छोड़ देते हैं, आदमी बुरा नहीं है। ये छोड़ने-छाड़ने में नौबत फिर ये आ जाती है कि ये सब (प्रेम का गीत) गाना पड़ता है। देखिए वो क्या गा रही है बेचारी!
कुछ समझ में आ रही है बात?
आकाश के प्रति कितना प्रेम है उसका प्रमाण बस वो पीड़ा है जो तुम धरती पर किसी फ़कीर से झेल सकते हो। जिस अनुपात में आपमें आकाश के लिए प्रेम होगा, उसी अनुपात में आप धरती पर मुक्ति के लिए पीड़ा झेल पाओगे। नहीं तो आकाश कुछ होता तो है नहीं। कोई चीज़, कोई वस्तु तो है नहीं।
कोई मुँह नहीं है आकाश का, कोई देह नहीं है आकाश की, आप कैसे जाकर के कहोगे कि मैं तुमसे इतना (दोनों हाथों को फैलाते हुए) प्यार करती हूँ? कोई है ही नहीं वहाँ जिसके सामने जाकर के प्रेम की अभिव्यक्ति की जाए। तो कैसे दर्शाओगे, कैसे जताओगे अपना प्यार?
उसका एक ही तरीक़ा है : वहाँ (आकाश में) प्यार जताने की बातें भूल जाओ, यहाँ पीड़ा पी जाओ। यहाँ जो पीड़ा पी रहे हो ज़मीन पर, वही वो प्यार है जो जता रहे हो आसमान को।
जितनी बार सच के लिए और आज़ादी के लिए आप ज़मीन पर पीड़ा पीते हो, उतनी बार आप चुपचाप एक मौन संदेश ऊपर भेज देते हो — 'प्यार है तुमसे।' हर कराह 'आई लव यू' होती है। क्योंकि प्रेम नहीं होता तो दर्द झेल कैसे जाते? कुछ भी और नहीं है प्रेम के सिवा जो आपको ताक़त, हौसला दे दे सही दर्द को झेलने का।
समझ में आ रही है बात?
"डूबत ही मैं भव के सागर में, बहियाँ पकरि समझाये रे फ़कीरवा।" मैं तो डूब ही गई थी भव के सागर में। भव माने वो वस्तुएँ जो अस्तित्वमान हैं; सागर — क्योंकि अनंत वस्तुएँ हैं प्रकृति में। भव माने वो सबकुछ जो है, जो दिखता है। मैं तो इसमें डूब ही गई थी, इतनी सारी चीज़ें हैं, मैं छोटी-सी चिड़िया, कभी एक चीज़ के पास जाऊँ कभी दूसरी चीज़ के पास जाऊँ।
जीवन छोटा-सा है और इधर-उधर भटकने के लिए जगहें और चीज़ें और लोग बहुत हैं, मैं तो डूब ही गई थी, मैंने तो समय गँवा ही दिया था। पर तूने आकर के बाँह पकड़ ली मेरी और समझाया। मैं अपनेआप को क्या श्रेय दूँ, जो करा है तूने करा है। पूरा गीत ही अनुग्रह के ज्ञापन का है — जो करा है तुमने करा है।
पर हम तो कहते हैं कि सबकुछ हमारा चुनाव होता है। तो हम अभी भी ध्यान रखेंगे कि चिड़िया ने क्या करा है। चिड़िया ने क्या करा है? चुना है; क्या चुना है? दर्द चुना है।
समझाने वालों ने ख़ूब कहा है हमसे कि आप गुरु को नहीं चुनते, गुरु आपको चुनता है। आप गुरु को चुनने जाओगे तो आप गुरु घंटाल चुन लाओगे। क्योंकि आप गुरु को चुनने जाओगे तो वैसे ही चुनोगे जैसे आपने जीवन में अपने सब चुनाव करे हैं। गाड़ी खरीदी, वो ग़लत खरीद लाए, एक महीने बाद पता चला ये मॉडल ग़लत निकला।
टूथपेस्ट तक ग़लत खरीद लाए। बोले, ये क्या ले आए, ज़हर; बाद में पता चला कार्सिनोजेनिक (कैंसर कारक) था, उसी से कर रहे थे दस साल से।
नहीं पता? उसमें भी होते हैं कार्सिनोजन्स। उसको घिसे जा रहे हैं बीस साल से और जब घिसते हैं तो अंदर भी जाता है। पता ही नहीं चला कैंसर हुआ क्यों? वो सुबह-सुबह जो स्वाद लेते थे, वही था।
जिसे टूथपेस्ट चुनना नहीं आता, जिसे एक शर्ट (कमीज़) चुननी नहीं आती, जिसे एक नौकरी चुननी नहीं आती, जिसे ये चुनना नहीं आता कि मेरे लिए सही भोजन क्या है, कुछ का कुछ खाता रहता है, वो गुरु कहाँ से चुन लेगा? जिसने ज़िंदगी में कोई एक ढंग का चुनाव नहीं करा, वो गुरु सही चुन लाएगा अपने लिए क्या?
तो जैसे हम सब उल्टे-पुल्टे चुनाव करते हैं, वैसे ही अगर हमें कह दिया जाए कि तुम जा के गुरु चुनो, तो हम भी पता नहीं क्या माल उठा लाएँगे बाज़ार से।
तो इसलिए जिन्होंने जाना है उन्होंने कहा है कि तुम नहीं चुनते, वो अपनी ओर से चुनता है। तुम्हारे प्रयास से तुमको वो नहीं मिलता, उसके प्रयास से तुम उसे मिल जाते हो। वो कोशिश कर रहा होता है कि तुम आओ उसके पास, वो पुकार रहा होता है। और जिन्हें थोड़ा मज़ाकिया अंदाज़ में कहना था, उन्होंने ये तक कहा कि उसने जाल बिछा रखा होता है कि तुम फँसो। किन्हों ने कहा है कि वो तुमको लुभाता है, रिझाता है; ’सेड्यूस’ शब्द का इस्तेमाल करा, कि वो ऐसे बुलाता है।
ये सब क्यों कहा गया? यही आपको स्मरण दिलाने के लिए कि आप अपनी ओर से कहीं कोई ग़लत चुनाव न कर बैठें। तो ये सब कहा गया है कि गुरु को पाने में आपका प्रयास काम नहीं आता। लेकिन मैं उससे थोड़ा हट के एक बात कह रहा हूँ — प्रयास गुरु का होता होगा, पीड़ा आपकी होती है। तो चुनाव तो फिर भी आपका ही हुआ।
जो आपको बचाना चाहता है, हो सकता है बहुत प्रयास करके वो पहुँचा हो आप तक कि तुम तो अपनेआप मुझे कभी खोजोगे नहीं, मैं ही तुम तक आ जाता हूँ, जो भी तरीक़ा हो सकता है वो तरीक़ा अपनाकर के। लेकिन फिर भी वेदांत की मूल बात है कि जीवन आपका चुनाव है। गुरु आप तक स्वयं आ भी जाए तो भी वो जो दर्द आपको देगा उसको आप बर्दाश्त करोगे या नहीं करोगे — ये चुनाव तो आपका ही रहा न। तो ले-देकर चुनाव किसका है? आपका ही है।
नहीं तो गुरु तो सत्य को माना गया है, आत्मा ही गुरु है। सत्य को सूर्य-सा कहा गया है। तो गुरु का प्रकाश तो वैसा ही है जैसे सूरज चमक रहा हो। लेकिन अगर कोई घुस ही जाए किसी गुफ़ा के अंदर तो उसे कैसे मिल जाना है प्रकाश? तो सूर्य भी चमक रहा हो, तो भी प्रकाशित हो जाने का चुनाव तो आपका ही रहता है। वहाँ भी है तो चुनाव आपका ही ले-देकर के। आप नहीं चाहोगे तो काम नहीं होगा।
गुरु अपनी चेतना से, अपने प्रयास और अपने प्रेम से आपके पास आया होगा, लेकिन जब पास आ जाएगा तो बाण ही तो मारेगा। और बाण खा के आप (चुटकी बजाते हुए) चंपत हो जाओ तो गुरु क्या कर लेगा? प्रयास कर सकता है, ज़बरदस्ती तो नहीं। तो चुनाव आपका ही है।
"डूबत ही भव के सागर में, बहियाँ पकरि…" बोलिए!
श्रोतागण: "बचायो रे फ़कीरवा।"
आचार्य: "बचायो रे फ़कीरवा।" बाँह पकड़ के बचा लिया, नहीं तो मैं तो आत्मघाती हो चली थी। मैंने तो जैसे ठान ही लिया था कि ज़िंदगी बर्बाद करनी है।
जब बोलना भर काम नहीं आया तो तुमने निकट आकर के बाँह ही पकड़ ली। बाँह पकड़ना निकटता का प्रतीक है, प्रेम का प्रतीक है, परवाह का प्रतीक है। तुमने वो भी कर दिया जो तुम्हें नहीं करना चाहिए था। बाँह पकड़ने की ज़िम्मेदारी तो तुम्हारी नहीं, तुम्हारा तो काम है समझाना-बुझाना, पर तुम समझाने-बुझाने से भी आगे निकल गए। इसी बात का अनुग्रह है।
"एकै बचन, बचन नहिं दूजा, तुम मोसे बंध छुड़ाये रे फ़कीरवा।"
क्या तुमने सूत्र दिया मुझे? तुमने सूत्र ये दिया कि ये जो दुनिया भर की चीज़ें हैं, जिनमें तुम खोई हुई हो, इनके पीछे जो एक है, बस उस एक से प्रीत जोड़ो; जो दूजा है उसको दूजा ही रखो।
दूजा माने? इन तीन में दूजा कौन है? अहम्, आत्मा, प्रकृति — इसमें दूजा कौन है?
श्रोतागण: प्रकृति।
आचार्य: प्रकृति। प्रकृति को इसीलिए पराया बोला गया है। प्रकृति परायी है। आत्मा अनंत है, अहम् मिथ्या है; और मिथ्या तब है जब जान जाए मिथ्या, अन्यथा ऐसे कहिए — आत्मा अनंत है, अहम् अकेला है और प्रकृति परायी है।
अनंत से भी आगे कहिए, आत्मा प्रेम है। अब इसमें थोड़ी काव्यात्मक्ता आ गई — आत्मा प्रेम है, अहम् अकेला है, प्रकृति पराई है।
"एकै वचन, वचन नहिं दूजा।"
एक ही है तुम्हें जिसकी ओर जाना है। और वही वचन तुम्हारे लिए शुभ है जो उसकी ओर ले जाए। और दूजे को दूजा ही स्थान दो।
प्रकृति का भी अपना स्थान तो रहेगा ही। सारी बातें उनसे करी जा रही हैं जो देहधारी है। जो देहधारी है वो प्रकृति के क्षेत्र से हट कैसे जाएगा। चिड़िया को भी जो फ़कीर मिला वो देह के ही क्षेत्र में मिला है। तो प्रकृति रहेगी लेकिन उसका स्थान प्रथम नहीं हो सकता। दूजा स्थान रहेगा उसका।
सारा अध्यात्म यही है — पहले को पहले की जगह दो और दूसरे को दूसरे की जगह दो। जगह दोनों की है, लेकिन जिसकी सर्वोच्च है, उसे सर्वोच्च ही आसन दो। और जो नीचे का है उसे नीचे की ही जगह दो। नहीं अध्यात्म कहता कि नीचे वाले को उठाकर के बाहर फेंक दो, नहीं-नहीं, तुम्हारा भी स्थान है, नीचे है, पीछे है।
"तुम मोसे बंध छुड़ाये रे फ़कीरवा।"
यही तो बंधन था कि अनेक में खोए हुए थे। और जैसे ही बताया कि ये अनेक नहीं काम आते, एक ही काम आता है — "एक साधे सब सधे"— वैसे ही बंधन खुलने लग गए।
जब तक अनेकों की फ़िक्र रही आई, बंधन भी अनेक रहे आए। जैसे ही अनेकों को छोड़ा वैसे ही बंधन खुलने लगे। जब तक अनेकों के सामने झुकते थे, बंधन भी अनेक थे। जब एक को समर्पित हो गए तो वो एक के सामने झुकना बाक़ी सबसे आज़ाद कर गया।
"कहे कबीर सुनो भाई साधो, प्राणन प्राण लगाये रे फ़कीरवा।"
जी तो रहे थे पर जैसे ज़िंदगी न हो। ग़ालिब का है न कि —
मरते हैं आरज़ू में मरने की, मौत आती है पर नहीं आती।
~ मिर्ज़ा ग़ालिब
तो ऐसी ज़िंदगी थी। तुमने आ करके मुर्दा चेतना में प्राण भर दिए। तो इससे समझ रहे होंगे कि चेतना का प्राण क्या होता है। चेतना का प्राण है — प्रेम। जिसके पास प्रेम नहीं है, वो शारीरिक रूप से जीवित होकर भी चेतना से निष्प्राण होता है।
"जैसे खाल लोहार की सांस लेत बिनु प्राण।" और दुनिया में सब ऐसे ही जीते हैं कुछ बिरलों को छोड़ करके। "सांस लेत बिनु प्राण" — सांस तो है प्राण नहीं है। शरीर को देखोगे तो कहोगे ज़िंदा है, चल रहा है, फिर रहा है, खा रहा है, पी रहा है। चेतना को देखोगे तो कहोगे, कहाँ ज़िंदा है!
जीवन तो तभी है जब प्रेम हो। जिसमें मुक्ति की उत्कंठा है बस वही ज़िंदा है, बाक़ी सब मुर्दा हैं। अब समझ में आ रहा है — "ये मुर्दों का गाँव"? क्यों कहा मुर्दों का गाँव? वो चलती-फिरती लाशें हैं, ऐसी लाशें हैं जिनको वहम है कि वो जीवित हैं। "साधो रे! ये मुर्दों का गाँव।" ये सब मुर्दे हैं। और गुमान ये कि हम ज़िंदा हैं।
आप ज़िंदा पैदा नहीं होते, ज़िंदगी सीखनी पड़ती है। ठीक वैसे जैसे प्रेम सीखना पड़ता है। उसी तरीक़े से शारीरिक जन्म लेने के बाद जन्म सीखना पड़ता है। कोई कहे कि मैं ज़िंदा हूँ क्योंकि माँ के गर्भ से ज़िंदा पैदा हुआ था, तो अनाड़ी है। माँ के गर्भ से तो शरीर पैदा होता है और जन्म लेने की संभावना।
समझिएगा ध्यान से!
माँ के गर्भ से शरीर पैदा होता है और बस एक संभावना, पोटेंशियल्टी (संभावना) कि आपकी चेतना भी जन्म ले सकती है। अभी उसने जन्म नहीं लिया है, अभी तो बस शरीर ने जन्म लिया है। और ज़्यादातर लोग चेतना को बिना जन्म दिए ही मर जाते हैं। उनका शरीर ही पैदा होता है, शरीर ही मर भी जाता है; उनका अपना जन्म कभी नहीं होता।
जिस तन प्रेम ना संचरे, सो तन जानु मसान। जैसे खाल लुहार की, सांस लेत बिनु प्राण।
~ संत कबीर साहब
"जिस तन प्रेम ना संचरे, सो तन जानु मसान" — उनकी ज़िंदगी शमशान होती है क्योंकि उनके पास प्रेम नहीं होता। जिसके पास प्रेम नहीं है उसकी ज़िंदगी बंजर, राख, शमशान, मुर्दा।
"जैसे खाल लोहार की सांस लेत बिनु प्राण।"
लोहार की खाल क्या? पहले के समय में ऐसा होता था कि वो जो फूँकनी होती है — लोहार का काम होता है न आग को और बढ़ाना, लोहा पिघलाने के लिए। तो फूँकनी होती थी, उससे फूँकता था। तो खाल से बनता था उसमें जो ब्लोअर (फूँकने वाला) है, उसका एक हिस्सा।
तो उसमें जब सांस अंदर खींचो तो ऐसे सिकुड़ जाएगा, कंप्रेस हो जाएगा। और फिर जब फूँक मारो तो क्या होगा? वो फूल जाएगा, जैसे सांस ले रहा हो। जैसे फेफड़े होते हैं न, पिचकते-फूलते हैं सांस लेने के दरमियान, वैसे।
तो बोले, 'अगर सिर्फ़ यही सांस का लेना और सांस का छोड़ना ही जीवन है तो फिर ये जो लोहार की खाल है ये भी ज़िंदा है।' तब उनको दृष्टांत लेना पड़ा लोहार की खाल का, आज तो उसकी आवश्यकता भी नहीं है, आज तो रोबो है।
आप जो कुछ करते हैं वो सबकुछ एक रोबो भी कर सकता है। और अगर रोबो को आप एआई (आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस) से पावर (चालित) कर दें तो फिर तो कहना ही क्या! हार्डवेअर रोबोटिक और सॉफ्टवेयर एआई और उसके ऊपर आप इंसान की खाल का मुखौटा और पहना दीजिए।
वो सबकुछ वैसा ही कर लेगा जैसा आप करते हैं, वो सबकुछ। क्योंकि हम जो करते हैं वो सब यंत्रवत ही है। बस एक चीज़ है जो कोई मशीन नहीं कर सकती और उसी के लिए अध्यात्म होता है।
किसी भी मशीन में मुक्ति की चाहत नहीं उठ सकती, कोई मशीन नहीं बोलेगी कि अब मुझे मशीन नहीं रहना। इंसान, इंसान इसलिए है क्योंकि इंसान वो मशीन है जो कह देती है कि मैं मशीन नहीं रहना चाहती।
गर्भ से तो एक मशीन ही पैदा होती है। पैदा होते ही रोएगी, फिर उसका अलार्म बजता है मशीन का — लॉ ऑन फ्यूल, लॉ ऑन फ्यूल, लॉ ऑन फ्यूल (ईंधन कम, ईंधन कम, ईंधन कम)। और उसकी पहले से ही प्रोग्रामिंग होती है कि फ्यूल किस व्यक्ति से मिलना है, तो वो तुरंत उस व्यक्ति की ओर हाथ बढ़ाएगी।
उसके बाद यहाँ (मस्तिष्क की ओर इंगित करते हुए) जो पूरी प्रोग्रामिंग है, वो उसको बता देगी कि अब सो जाओ। फिर वो अपना पोतड़ा गंदा कर देंगी, ठंड लगेगी, फिर से अलार्म बजेगा। ये किसी ने उसको सिखाया थोड़ी है, अभी तो वो बच्चा दो दिन का है, पाँच दिन का है।
फिर से उसको अलार्म बजेगा, चिल्लाओ-चिल्लाओ-चिल्लाओ-चिल्लाओ। और उधर वो दूसरी मशीन खड़ी हुई है, मम्मा मशीन। इसका अलार्म बजता है तो उसका भी अलार्म बजता है। वो फिर आकर के पोतड़ा बदल देती है। ये सब मशीनी कार्यक्रम चलता रहता है।
लेकिन इंसान वो मशीन है जो कभी ये चिल्ला सकती है कि मुझे मशीन नहीं रहना, मेरा दम घुटता है। और यही बात इंसान को इंसान बनाती है। जो इंसान चिल्लाकर के विद्रोह में कह नहीं पा रहा कि बहुत हुआ ये मशीनी जीवन, नियम-नियम-नियम, फार्मूले-फार्मूले-फार्मूले , एल्गोरिदम-एल्गोरिदम , प्रोसेस-प्रोसेस-प्रोसेस ; नहीं जीना ऐसे। ऐसे तो मशीन भी जी लेगी, ऐसे तो रोबो भी जी लेगा। ऐसे तो सॉफ्टवेयर लिखा जाता है। नहीं जीना ऐसे। सिर्फ़ वो ज़िंदा है। अन्यथा "सांस लेत बिनु प्राण।"
हाँ, आप डॉक्टर के पास जाएँगे, डॉक्टर कहेगा, ' हेल्दी (स्वस्थ); सांस बढ़िया चल रही है, लंग्स फंक्शनल; हार्टबीट नॉरमल; ईसीजी ठीक है। जाओ सारे टेस्ट (जाँच) करा के लाओ, सारे टेस्ट ठीक हैं।'
आपका एक-एक ऑर्गन आर्टिफिशियली (कृत्रिम रूप से) बनाया जा सकता है और अब बनाया जाने भी लगा है। वो भले ही चीज़ आपको कमर्शियली उपलब्ध न हो अभी, अगले बीस साल में हो जाएगी।
बताइए क्या चाहिए आपको, किडनी चाहिए? हार्ट चाहिए? लीवर चाहिए? सब मिलेगा। ब्रेन में अभी थोड़ी दिक़्क़त है, वो ज़रा ज़्यादा जटिल होता है, ब्रेन नहीं बन पा रहा आर्टिफिशियली। ब्रेन बनाने में एक दिक़्क़त ये भी है कि किसी को दूसरे का ब्रेन लगा दिया तो उसकी आइडेंटिटी (पहचान) क्या बचेगी?
वहाँ पर फिर शिप ऑफ थिसियस वाला आ जाता है समस्या। कि इसके ब्रेन ही दूसरा लगा दिया तो ये बंदा कौन है? वो जो नया बंदा निकलेगा वो कहेगा, ' बिल मैं क्यों दूँ?' (श्रोतागण हँसते हैं।) ‘जिसके लगाया था वो कोई और था, मैं तो कोई और हूँ।’ वरना तो जितने हिस्से हैं शरीर के वो सब नये लग जाते हैं।
एक चिप लगाई जा सकती है अब आपके, आपको नई मेमोरी (स्मृति) देने के लिए; और आपको बिलकुल ऐसा लगेगा कि आपके साथ वो सब घटनाएँ अतीत में हुई हैं। ये क्या हो गया? बताओ!
आपके पास जो कुछ भी है, आपकी सारी व्यवस्था को रीड (पढ़ के) करके, मशीन द्वारा रीड करके एक आपका हमशक्ल आपकी ही उम्र का खड़ा करा जा सकता है बिलकुल। उसके पास सारी वही मेमोरीज़ (स्मृतियाँ) होंगी जो आपके पास हैं। उसकी शक्ल बिलकुल आपके जैसी होगी, उसका शरीर बिलकुल आपके जैसा होगा, आपके बगल में खड़ा कर दिया जाएगा।
हम क्लोनिंग की बात नहीं कर रहे, क्लोनिंग में तो बच्चा पैदा होता है। हम बात कर रहे हैं आपका ही हमउम्र, हमशक्ल आपके बगल में खड़ा करा जा सकता है। अब बताइए, अंतर क्या रहा?
अंतर अगर दोनों में पता करना हो, कभी आप फँस जाएँ — ऐसे दो खड़े कर दिए गये, एक आप खड़े हैं, एक बगल वाला खड़ा है — बस ये देख लेना दोनों में से रो कौन सकता है। आज़ादी के लिए, प्रेम के लिए, मुक्ति के लिए दोनों में से जो रो सकता हो, वो असली है, वो इंसान है।
कोई मशीन — हम दोहराकर कह रहे हैं — रोकर नहीं बोलेगी कि मुझे मुक्ति दो। और जो रोकर नहीं बोल पा रहा है ‘मुझे मुक्ति दो’, वो अपनेआप को ज़िंदा न समझे कृपया।
इसीलिए कोई भी मशीन कभी इस गीत का प्रेमपूर्ण अर्थ नहीं कर पाएगी। अनुवाद कर देगी, अर्थ नहीं कर पाएगी। अनुवाद करने में और अर्थ करने में बहुत अंतर है। अनुवाद वो बहुत अच्छा कर देगी। आपको ये भी बता देगी कि कितने-कितने अनुवाद दुनिया में कहाँ-कहाँ करे गए हैं, उन अनुवादों में किसको श्रेष्ठ माना जाता है। उन अनुवादों की आपको तुलना करके बता देगी, सब। लेकिन कोई मशीन अर्थ नहीं कर पाएगी। क्योंकि ये जो बात बोली गई है वो जिसके लिए बोली गई है, मशीन में वही नहीं है।
ये बात बोली गई है उसको जो वियोग में तड़पता हो, मशीन के पास वियोग ही नहीं है, तो मशीन समझेगी कैसे कि ये बात क्या है। इंसान वही जिसके पास आह है। जिसके पास सही दर्द नहीं है, वो मनुष्य नहीं है। और सही दर्द आप में न उठे इसका एक बड़ा सुविधा का तरीक़ा होता है नक़ली दर्द, छोटे-छोटे दर्द।
सही चिंता आपको न उठे इसके लिए बड़ी सुविधा रहती है नक़ली चिंताएँ पाल लो — ‘कल जाकर के फ़लाना अकाउंट क्लोज़ करना है।’ ‘अरे! वो ईमेल पड़ी है, अभी जवाब नहीं दिया।’ ये बहुत बड़ी चिंता की बात है! ‘गाड़ी की सर्विसिंग की डेट बीत रही है, इन्श्योरेंस रिन्यूअल की डेट बीत रही है।’ चिंता करो, भारी चिंता करो।
‘आज लौटते हुए बॉस को बाय बोला तो उसने जवाब नहीं दिया, रात भर नींद नहीं आई, पता नहीं अब अप्रेज़ल (मूल्यांकन) में क्या होगा!’ करो भारी चिंता।
और जिसको ये नकली दुख लग गए, उसका अभाग ये कि वो असली दुख से वंचित रह जाएगा। असली दुख उसे कभी उठेगा ही नहीं। "सांस लेत बिनु प्राण।"
"कहै कबीर सुनो भाई साधो, प्राणन प्राण लगाये रे फ़कीरवा"
जो आपका एक प्राणघातक किंतु प्राणदायिनी पीड़ा से परिचय करा दे वो फ़कीर हुआ आपका। जो आपको किसी ऐसे दर्द में धकेल दे जो आपने कभी माँगा नहीं था, पर जिसको आप अब किसी क़ीमत पर छोड़ भी नहीं सकते, वो फ़कीर हुआ आपका। उसी को तलाशना होता है। सत्य और परमात्मा को कौन तलाश सकता है!
वो तो हमारी पहुँच से न जाने कितने दूर बैठे हैं। हम आसमान कह देते हैं, वो भी हमने गुस्ताख़ी कर दी। आसमान कम-से-कम दिखाई तो पड़ता है। कह तो देते हैं आसमान का रंग नीला है। उसका तो रंग भी नहीं पता चलता। वो हमसे इतनी दूर का है कि हमारी प्रार्थना भी उस तक नहीं पहुँचती होगी।
करना क्या है?
उपयोगी बात तो यही है कि इसी ज़मीन पर उनको तलाशो जो आसमान के आशिक़ हों। नहीं तो मुँह उठाकर आसमान से बातें करने से कुछ नहीं मिलने वाला। और वो न भी हों ज़िंदा तो कोई बात नहीं, उनकी बातें पर्याप्त हैं उनकी यादें पर्याप्त हैं। वो अपने पीछे अपने वचन छोड़ जाते हैं, बहुत है।
मशीनों की संगति से तो कहीं बेहतर है कि ये जो अब नहीं रहे शारीरिक तौर पर, उनके वचनों की संगति कर ली जाए। इनके वचनों में भी ज़्यादा प्राण हैं तथाकथित ज़िंदा पर निष्प्राण मशीनों से। मशीनों की घुर्र-घुर्र किसको सुननी है! जैसे कि आप कहीं सर्वर रूम में बैठ गए हो। भारी सर्वर्स हैं, पूरा उनके पास डाटा है।
ये (मस्तिष्क) जो है, ये बड़ा भारी सर्वर होता है, इसमें पता नहीं कितना डाटा है। ये प्रोसेसिंग भी करता है, सब करता है। और आप बैठ गए हो सर्वर रूम में, वहाँ पर घुर्र-घुर्र-घुर्र, यही चल रहा है। और वो सब सर्वर दावा क्या कह रहे हैं? हम ज़िंदा हैं।
वहाँ बैठना है, जो घोषणा ही भर करते रहते हैं ‘हम ज़िंदा हैं’ या इनके (संतों के) पास बैठना है जो अब नहीं हैं शरीर से लेकिन फिर भी प्राण दे देते हैं?
कुछ बात जम रही है? या बस ऐसे ही?
गायकों को समझाते हुए — आप जो गा रहे हो न, अर्थ देखकर गाओ। अब ये एकसाथ गाया जाएगा कि "सोवत ही मैं अपने मंदिर में, सबद बान मारि जगाये रे फ़कीरवा।"
सोने का जागने से संबंध है न। अब हम ये नहीं कर सकते कि "सोवत ही अपने मंदिर में, तोहि मोहि लगन लगाये रे फ़कीरवा", ऐसे नहीं कर सकते।
ये जो हैं ये जोड़े हैं — सो रही थी, जगा दिया; डूब रही थी, बाँह पकड़कर उबार लिया। एक वचन है, दूसरा वचन नहीं है, बंधन छुड़ा दिया। और कहे कबीर सुनो भाई साधो।
जो अंत में गाया था वो बहुत सुंदर गया था। कहें कबीर सुनो भई साधो…. प्राणन प्राण…. वैसे ही है।
इनको जोड़े में गाना है, ठीक है? जो टेक है उसको जोड़े के बीच में नहीं दोहराना है। जोड़ा जब हो जाए फिर टेक, फिर जोड़ा हो जाए फिर टेक, ऐसे। चलिए! समझ गए हैं? पहले आपस में बात कर लीजिए कैसे करना है।
या तो ख़ुद अच्छा गा दो, नहीं तो सज़ा ये मिलेगी कि मैं मैदान में उतरुॅंगा। और बहुत भद्दा और बहुत बेसुरा कल की तरह गाऊँगा। (श्रोतागण हँसते हैं)
सभी भजन गाते हैं।
तोहि मोहि लगन लगाय रे फ़कीरवा तोहि मोहि लगन लगाय रे फ़कीरवा सोवत ही मैं अपने मंदिर में सबद बान मार जगाये रे फ़कीरवा डूबत ही मैं भव के सागर में बहियाँ पकर समुझाये रे फ़कीरवा एकै वचन वचन नहीं दूजा तुम मोसे बंध छुड़ाए रे फ़कीरवा कहै 'कबीर' सुनो भाई साधो प्राणन प्राण लगाये रे फ़कीरवा।
~ संत कबीर साहब
YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=ns-IywQf5oY&t=328s