लिविंग इन द मोमेन्ट (Living in the moment) - एक खतरनाक झूठ

Acharya Prashant

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लिविंग इन द मोमेन्ट (Living in the moment) - एक खतरनाक झूठ
लिविंग इन द ट्रुथ होता है। द मोमेंट इज़ जस्ट अ स्टोरी, फैंटास्टिक स्टोरी कुछ नहीं है। मोमेंट कुछ है ही नहीं, लिविंग इन द प्रेज़ेंट फिर भी बोल सकते हो क्योंकि वो प्रेज़ेंट का मतलब हो जाएगा सत्य 'वर्तमान', दैट विच इज़ प्रेज़ेंट, उपस्थित जो सचमुच है। वो तो फिर भी हो जाएगा। लिविंग इन द प्रेज़ेंट का मतलब ये नहीं होगा कि लिविंग इन दिस मोमेंट, लिविंग इन द प्रेज़ेंट का मतलब हो जाएगा लिविंग ट्रुथफुली, लिविंग ट्रुथफुली। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

आचार्य प्रशांत: आप सोचते हो कि जो आप हो वही आप भविष्य में रहोगे, तभी तो आज आप भविष्य के लिए कामना करते हो न। आपको ये पता हो कि आप जो हो अगले क्षण वो आप रहोगे ही नहीं तो क्या आप आगे के लिए कामना करोगे? आप आज इस घर में हो, आपको पता है कि अगले क्षण आपको ये घर छोड़ देना है, तो क्या आप इस घर के पते पर खाना मँगाओगे? क्या आप ये कामना करोगे कि इस घर में पुताई हो जाए, आपको पता है अगले क्षण ये छोड़ देना है?

तुम्हारी जितनी कामनाएँ होती हैं, होती तो भविष्य के लिए हैं और जितने आप काम करते हो वो भी करते तो भविष्य के लिए हो। कुछ काम आप इसलिए करते हो कि भविष्य में अच्छे परिणाम आ जाएँ। कुछ कामनाएँ पाने की होती हैं, कुछ कामनाएँ न पाने की होती हैं कि आपने कुछ ऐसे काम कर दिए जिसका आपको पता है गड़बड़ परिणाम आएगा, तो कामना ये रहती है कि कर्म तो कर दिया है, कहीं उसका परिणाम न भुगतना पड़े। सारी कामनाएँ लेकिन होती भविष्य को लेकर ही हैं।

समझ में आ रही है बात?

जो कर दिया वो याद रखते हो --- कृतम्। क्यों याद रखते हो? कुछ इसलिए याद रखते हो कि अभी कर तो दिया है पर अभी उसका परिणाम तो भोगना बाकी है न, अच्छा परिणाम। कुछ इसलिए (याद) रखते हो कि कर तो दिया है पर अभी उसके परिणाम से बचना तो बाकी है न। चोरी तो कर ली है पर अभी उसके परिणाम से बचना भी तो बाकी है, परिणाम न भुगतना पड़े। तो किए हुए को इसलिए याद रखते हो। और अकरे को क्यों याद रखते हो? कि अरे! कामना अभी अधूरी है, कुछ करूँगा तब तो कामना पूरी होगी। तो कृतम्-अकृतम्, अकृतम्-कृतम् सबको हम याद रखते हैं।

जो कर दिया उसको इसलिए याद रखते हो कि याद रखोगे तभी तो आगे परिणाम मिलेगा। हमने कुछ भी सिर्फ़ इसलिए तो किया नहीं होता कि करने से प्रेम है, हमने तो इसलिए किया होता है कि उससे कुछ पाएँगे आगे। तो जो किया है वो याद भी रखते हो।

समझ में आ रही है बात?

लगभग वैसे जैसे कि आपने लॉटरी का टिकट खरीदा हो तो खरीदने के लिए थोड़े ही खरीदा था। वो टिकट बचाकर रखते हो न कि आगे उसमें से कुछ मिलेगा। छोड़ थोड़े ही दोगे, उसको रखोगे कि भविष्य में इससे कुछ प्राप्ति होगी।

समझ में आ रही है बात ये?

कहीं आप गए, आपको कूपन मिल गया कि ये ले आना बाद में तो इससे मुफ़्त सामान मिलेगा, तो कूपन बचाकर रखते हो न। तो हमारे पास ये दोनों चीज़ें घूम रही होती हैं — हमने क्या करा, हमने क्या नहीं करा।

जो नहीं करा वो हम करना चाहते हैं, जो कर दिया उसका परिणाम भोगना चाहते हैं। जो अभी तक करा ही नहीं वो करना चाहते हैं क्योंकि कामना अभी शेष है। लगता है कि कुछ करेंगे तो ही तो कामना पूरी होगी। जो नहीं करा वो करना चाहते हैं। जो कर दिया, उसका परिणाम या तो भोगना चाहते हैं या परिणाम से बचना चाहते हैं। दो बातें हुईं।

तो हम इसलिए याद रखते हैं। लेकिन चाहे ये हो कि अभी करना बाकी है, चाहे ये हो कि कर दिया है, परिणाम भोगना बाकी है, दोनों में बात किसकी हो रही है? भविष्य की। और भविष्य की बात आप तभी कर सकते हो जब आपको पूरा भरोसा हो, गहरी मान्यता हो कि भविष्य में आप जो आज हो, वही रहोगे कल भोगने के लिए। है न? यही तो मान्यता है।

फिर समझो, वही जो सवाल थोड़ी देर पहले पूछा था, जिस घर से तुम्हें पाँच मिनट में निकल जाना है, क्या तुम उस घर के पते पर खाना मँगाओगे? खाना आना है कम-से-कम एक घंटे बाद, मँगाओगे क्या? और अगर कोई खाना मँगा रहा है तो एक बात निश्चित है, उसकी मान्यता क्या है? वो एक घंटे बाद वहाँ रहेगा।

ऋषियों ने बार-बार समझाया कि तुम्हारी मान्यता गलत है, तुम काल के बाहर की बात हो भाई। तुम नहीं रहोगे एक घंटे बाद, तुम बस अभी हो। तुम वो हो जो अभी हो, तुम बस इसी क्षण हो, अगले क्षण तुम तुम नहीं रहते। अगले क्षण को लेकर कोई कामना मत करो। प्रकृति में सब कुछ परिवर्तनशील है, अगले क्षण कुछ और होगा। प्रकृति में कुछ भी ऐसा बता दो जो एक क्षण भी स्थायी रहता है। पर तुम ये मानने को ही नहीं तैयार हो कि तुम प्रकृति के बुलबुले मात्र हो। तुम मानते हो कि तुम्हारे भीतर कोई स्थायी, नित्य तत्व है, उसी को तुमने क्या नाम दे दिया भूल से? आत्मा। तुम्हें लगता है कि मैं तो हूँ, मैं अभी हूँ और मैं दो साल बाद भी रहूँगा। नहीं।

ऋषि कह रहे हैं, ‘जो तुम अभी हो वो दो साल बाद नहीं रहोगे। जो तुम अभी हो, तुम दो पल बाद भी नहीं रहोगे तो तुम्हें अकृतम्-कृतम् की याद रखने की कोई ज़रूरत नहीं है। तुम्हें ये भ्रम क्यों हो जाता है कि जो मैं अभी हूँ वही मैं थोड़ी देर बाद भी रहूँगा?’ क्योंकि जैसा तुम्हारा शरीर अभी है, एक घंटे बाद तुमको लगता है कि वैसा ही तो है। तुम अभी जैसे हो अपनी तस्वीर खींचो और एक घंटे बाद की तस्वीर लो, दोनों तस्वीरें लगभग एक जैसी होती हैं। तो ये जो शरीर है न ये हमें भ्रम दे देता है कि हम जो अभी हैं वही हम थोड़ी देर बाद रहेंगे। जो हम अभी हैं वही हम थोड़ी देर बाद रहेंगे।

बस इसलिए हम लगातार भविष्योन्मुखी रहते हैं। मुझे लगता है मैं जैसा हूँ, एक साल बाद भी मैं ही तो होऊँगा। तुम नहीं होओगे। दो बातें हैं, तुम क्यों नहीं होगे। पहली बात, तुम यदि आत्मा हो तो शरीर से तुम्हारा कोई संबंध नहीं। तो शरीर की ये बात करना कि शरीर अभी है, एक साल बाद भी रहेगा, ये बात ही व्यर्थ है। पर तुम अगर प्रकृति भी हो तो प्रकृति भी लगातार बदल रही है। तुम अभी जैसे हो, एक साल बाद तुम वही नहीं रहोगे। तो तुम किसके लिए खाना मँगा रहे हो? तुम किसके लिए कामना कर रहे हो? जब तक तुम्हारी कामना का परिणाम आएगा, जिसने कर्म करा था वो विदा हो चुका होगा, तो परिणाम भोगने के लिए बचेगा कौन?

विज्ञान की दृष्टि से भी देखो तो तुम्हारी जो कोशिकाएँ हैं, वो सब लगातार बदल रही हैं। जिन आँखों से तुमने अभी देखा, घंटे भर बाद वो आँखें थोड़ी सी बदल जाती हैं, पुरानी कोशिकाएँ हट जाती हैं, नई कोशिकाएँ आ जाती हैं। क्या आप जानते हैं, सिर्फ़ कुछ सालों के भीतर-भीतर आपके शरीर की जितनी कोशिकाएँ हैं उनमें से एक भी नहीं बचती, बताइए आप हैं कहाँ?

आप यहाँ बैठे हुए हो, चार-छः साल बाद या सात साल बाद, नाम तो होगा अनुपम, अनमोल पर वो जो अनुपम होगा उसमें एक भी वो कोशिका नहीं होगी जो इस वाले में है, तो बताओ तुम बचे?

अगर तुम्हें ये देख पाने में तकलीफ़ हो रही है कि आत्मा हो, आत्मा का जिस शरीर से कोई संबंध नहीं है। तुम अपने आप को यदि शरीर भी मानते हो, तो ये तो शरीर भी पूरा-का-पूरा बदल जाता है। हर कुछ साल में शरीर पूरा बदल जाता है।

और ये तो मैं पूरा बदल जाने की बात कर रहा हूँ कि सौ प्रतिशत, कि अभी जितनी कोशिकाएँ हैं उसमें से एक भी नहीं होगी कुछ सालों बाद, वो सब अलग होंगी, दूसरी होंगी। तो बताओ तुम किसके लिए रो रहे हो? बताओ तुम किसके लिए भविष्य के सपने बुन रहे हो? वो जो होगा वो तो बिल्कुल दूसरा होगा, तुम किसके लिए परेशान हो?

समझ में आ रही है बात ये?

पर हम शरीर को देखते हैं, हमें लगता है कि वो एक ही कोई है जो पीछे से चला और आगे तक चलता रहेगा। और शरीर में ही एक चीज़ बैठी हुई है स्मृति, जो कि होती है आधी-अधूरी, सिलेक्टिव (चयनात्मक)। मेमोरी डिसीव्स विद फॉल्स कंटिन्यूटी (स्मृति झूठी निरंतरता से धोखा देती है)। ये सूत्र है — फॉल्स कंटिन्यूटी, आपको लगता है, आप ही हो जो पीछे से चले आ रहे हो और यात्रा कर रहे हो और आगे तक जाओगे, फिर मृत्यु हो जाएगी।

मृत्यु प्रतिपल हो रही है। कोई नहीं है जो चला है, कोई नहीं है जो अंत तक जाने वाला है। यदि अभी कोई है तो वो वो है जो बस इसी क्षण में है, उसको आगे के लिए कुछ उपलब्ध होना नहीं है। आगे कोई होगा पर दूसरा होगा कोई। और आप जो कुछ कर रहे हो आगे वाले के लिए कर रहे हो, आगे वाला दूसरा होगा।

मैं एक उदाहरण देता हूँ। एक तीन साल के बच्चे ने अपने लिए एक खिलौना मँगाया है, तीन साल के बच्चों जैसा खिलौना मँगाया है। खिलौना दस साल में आएगा। बड़ा बढ़िया उसने एकदम अपनी कामनाओं का सपन-सलोना खिलौना तैयार करके मँगवाया। ऐसा बिल्कुल एकदम दिल खुश हो जाए। तो ऐसा जब खिलौना मँगवाओगे तो दस साल लगेगा उसको बनने में, आने में। तो आएगा कब वो खिलौना? जब बच्चा तेरह साल का हो गया।

अब तेरह साल में जब वो खिलौना आएगा, डिलीवर होगा, तो खिलौना किसी काम का है? बताओ क्यों नहीं? क्योंकि वो तीन साल के बच्चे के लिए था, तेरह साल वाला कोई और है। ये बात आपकी हर कामना पर लागू होती है। ये बात आपकी हर कामना पर लागू होती है। बस एक ही कामना सार्थक है जो इसी पल की है। बस एक ही कामना सार्थक है जो तत्काल निष्काम कर्म बन जाए। सकाम कर्म हमेशा भविष्य में होगा, निष्काम कर्म हमेशा वर्तमान में होगा।

जो मुक्त हो गया इस भ्रम से कि देह बदल रही है और देह के भीतर कोई शाश्वत आत्मा बैठी हुई है। यही भ्रम है न। विशेषकर हिंदुओं में ये भ्रम बहुत पाया जाता है कि देह बदलती रहती है लेकिन देह के भीतर कोई आत्मा बैठी हुई है। जो इस भ्रम से मुक्त हो गया, मात्र वही श्रीकृष्ण के निष्काम कर्म को उपलब्ध हो पाता है। जब तक ये भ्रम बना रहेगा कि देह बदल रही है और देह के भीतर कोई आत्मा बैठी हुई है, तब तक आप धार्मिक नहीं हो सकते।

आत्मा क्या है? ये जो देह है न, इसी प्राकृतिक देह में एक प्राकृतिक तत्व होता है जिसको कहते हैं अहंकार। सांख्ययोग में जब गणना की जाती है, जब संख्याएँ बताई जाती हैं प्रकृति की, तो उनमें एक संख्या अहंकार भी होती है। तो जैसे यहाँ सबकुछ प्राकृतिक है — ये नाक प्राकृतिक है, ये बाल प्राकृतिक है, स्मृति प्राकृतिक है, बुद्धि प्राकृतिक है, वैसे ही अंतःकरण में एक वस्तु है अहंकार, वो भी प्राकृतिक ही है।

अंतःकरण, तुम्हारे भीतर क्या है? तो कहते हैं, ‘मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार और चारों प्रकृति के अवयव हैं।’ अहंकार भी प्राकृतिक ही है तो जैसे शरीर होता है वैसे शरीर में अहंकार होता है, जैसे शरीर में उँगली है वैसे शरीर में अहंकार है और शरीर के साथ ही पैदा होता है।

प्रश्नकर्ता: आपने जब समय की बात की तो आपने कहा, ‘न भूत कुछ होता है और न ही भविष्य जैसा कुछ होता है।’ ये बात सुनने में ऐसी लग रही है कि लिविंग इन द मोमेंट (वर्तमान में जीने) की बात कर रहे हैं। तो क्या वो वही बात है?

आचार्य प्रशांत: मोमेंट (पल) में कोई लिविंग (जीवन) हो ही नहीं सकती। काल के तीन टुकड़े नहीं होते हैं, काल के दो ही टुकड़े होते हैं। ये कितनी बार तो मैं चर्चा कर चुका हूँ। काल में मोमेंट जैसा कुछ नहीं होता न, दो ही टुकड़े होते हैं — अतीत और भविष्य, पास्ट एंड फ्यूचर काल में प्रेज़ेंट (वर्तमान) होता ही नहीं तो मोमेंट-वूमेंट कहाँ से आ गया? वर्तमान, काल के प्रस्तुत टुकड़े को नहीं बोलते हैं, वर्तमान, काल के प्रस्तुत टुकड़े को नहीं बोलते हैं। वर्तमान, काल की धारा से अलग हो जाने का नाम है।

काल की धारा के तो दो ही टुकड़े होते हैं, एक पीछे का, एक आगे का — अतीत और भविष्य। आप ऐसे सोचते हो कि आप सड़क पर खड़े हुए हो, है न? और आपसे आगे जो है सड़क वो क्या है? भविष्य। आपसे पीछे जो सड़क है वो क्या है? अतीत। और आप जहाँ खड़े हुए हो, वो क्या है? वर्तमान। उसी को प्रेज़ेंट बोलते हो, द मोमेंट बोल देते हो। ये सब है।

ये मॉडल गलत है, फॉल्टी (दोषपूर्ण) है। ऐसा नहीं है। वर्तमान का मतलब होता है — काल की धारा से तटस्थ हो जाना। इधर, बाहर हो जाना। जो काल की धारा में है उसके लिए वर्तमान जैसा कुछ नहीं होता। जो काल की धारा में है उसके लिए कुछ अतीत होगा, कुछ भविष्य होगा।

आप जिसको बोलते भी हो न कि अभी हुआ, वो अभी नहीं हुआ, वो अतीत में हुआ था। वो सूचना आप तक पहुँचने में काल थोड़ा-सा लग गया न, तो वो अतीत बन गया। तुम मुझसे स्क्रीन से कुछ बोल रहे हो, अब दो चीज़ें हैं — तुम्हारी छवि वो प्रकाश की गति से आ रही है पर वो भी कुछ तो समय लेगी न और तुम्हारी आवाज़, वो तो बहुत ही हल्की गति से चलती है। आवाज़ तो जिस गति से चलती है उससे तेज़ी से तो ये अब हमारे सब फाइटर जेट चलते हैं, सब सुपर-सोनिक होने लगे हैं।

तो जितनी देर में तुम्हारी आवाज़ मुझ तक पहुँचती है, उतनी देर में वो पल बीत गया जब तुमने बात बोली थी। तुमने अतीत में कुछ कहा था वो मुझे अब सुनाई दे रहा है। हा..., ये क्या हो गया! तुमने अतीत में जो कहा था वो मुझे अभी सुनाई दिया क्योंकि जब तक सुनाई दिया तब तक थोड़ा समय चला गया न।

इसी तरीके से तुम अभी जो मुझे दिखाई दे रहे हो, जितनी देर में मैं तुम्हें देख पाता हूँ उतनी देर में तो तुम बचते ही नहीं। तो जो हमें दिखाई देता है वो सब अतीत होता है, वर्तमान तो कुछ है ही नहीं। वर्तमान क्या है? ये जो ऊपर ट्विंकल-ट्विंकल लिटिल स्टार करते हो, ये ज़्यादातर तारे जो हैं वो हैं ही नहीं जो तुम्हें दिख रहे हैं क्योंकि ये इतनी दूर हैं, इतनी दूर हैं कि इन्हें तुम तक पहुँचने में बहुत समय लग जाता है। जब तक ये तुम तक पहुँचते हैं, इतने लाइट ईयर (प्रकाशवर्ष) तुमसे दूर हैं ये, लाखों लाइट ईयर, करोड़ों लाइट ईयर, इतनी दूर हैं। जब तक ये तुम तक पहुँचते हैं तब तक तो ये जल-जुलाकर भस्म हो गए, ब्लैक होल (कृष्ण विवर) बन गए, कुछ नहीं बचा।

कुछ नहीं बचा और तुमको क्या लग रहा है? ट्विंकल-टविंकल लिटल स्टार और कह रहे हो, ‘देखो-देखो, दैट स्टार इज़ शाइनिंग इन द प्रेज़ेंट’ (वो तारा वर्तमान में टिमटिमा रहा है)। ओ, दिस ग्रेट मोमेंट आई कैन सी सो मेनी ऑफ़ देम ट्विंकलिंग (ओह, इस महान क्षण में, मैं उनमें से कई को टिमटिमाते हुए देख सकता हूँ)! नन ऑफ़ देम आर इन द मूमेंट, सो मेनी ऑफ़ देम आर रिड्यूस्ड टू ऐशिज़ (उनमें से कोई भी इस समय मौजूद नहीं है, उनमें से कई जलकर राख हो गए हैं)। इन फैक्ट नॉट इवन ऐशिज़ (वास्तव में, राख भी नहीं), ब्लैक होल में तो ऐश (राख) भी नहीं बचती। दे वर रिड्यूस्ड टू एब्सलूट नथिंगनेस मिलियंस ऑफ़ इयर्स बैक (वे लाखों वर्ष पहले पूर्णतः शून्य हो गए हैं) और अभी आपको उनकी *ट्विंकलिंग * (टिमटिमाना) दिखाई दे रही है। आप कह रहे हो, ‘आई कैन सी दैट स्टार राइट नाउ (मैं उस तारे को इस क्षण देख सकता हूँ)।’

राइट नाउ (अभी का क्षण) तो कुछ है ही नहीं। वो तुम जिसको देख रहे हो वो दस-लाख साल पहले तारा बुझ गया। वर्तमान तो धोखा है, कुछ भी नहीं है वर्तमान में। वर्तमान जैसी कोई चीज़ नहीं होती। काल में बस अतीत होता है और भविष्य होता है।

वर्तमान बहुत बड़ा धोखा है, काल में नहीं होता वर्तमान। वर्तमान होता है काल की धारा से बाहर आ जाना। काल में खड़े हो, जहाँ खड़े हो उसको नहीं वर्तमान बोलते। काल के तट पर आ गए, बाहर आकर खड़े हो गए तो उसको बोलते हैं वर्तमान। और वहाँ जहाँ तुम खड़े हो जाते हो वहाँ फिर कोई परिवर्तन नहीं होता क्योंकि सारे परिवर्तन कहाँ हो रहे हैं? काल में।

जब तुम काल से बाहर आ जाते हो तो कोई परिवर्तन नहीं होता। जब कहा, कोई परिवर्तन नहीं होता तो उसको फिर बोलते हैं नित्य। क्योंकि वो नित्य है इसीलिए सत्य है। इसीलिए वर्तमान सत्य है। वर्तमान सत्य है। उसका नाम ही है वर्तमान, वर्तमान का अर्थ ही होता है — जो सचमुच है, यानी सत्य है।

वर्तमान माने अस्तित्वमान, जो सचमुच है; जो वर्तता है वो सत्य है। तो काल की धारा बह रही है वो झूठ है, अनित्य है और उस काल की धारा से बाहर अगर तुम खड़े हो तो तुम वर्तमान में हो, वो सत्य है, वो नित्य है। ठीक है? लिविंग इन द मोमेंट (वर्तमान के क्षण में जीना) बेकार का जुमला है। एकदम पागलपन की बात है, कुछ नहीं होता लिविंग इन द मोमेंट।

लिविंग इन द ट्रुथ (सत्य में जी रहे हैं) होता है। लिविंग इन द ट्रुथ होता है, द मोमेंट इज़ जस्ट अ स्टोरी, फैंटास्टिक स्टोरी (वर्तमान का क्षण सिर्फ़ एक कहानी है, एक मज़ेदार कहानी) कुछ नहीं है। मोमेंट कुछ है ही नहीं, लिविंग इन द प्रेज़ेंट (वर्तमान में जी रहे हैं) फिर भी बोल सकते हो क्योंकि वो प्रेज़ेंट का मतलब हो जाएगा सत्य 'वर्तमान', दैट विच इज़ प्रेज़ेंट, उपस्थित जो सचमुच है। वो तो फिर भी हो जाएगा। लिविंग इन द प्रेज़ेंट का मतलब ये नहीं होगा कि लिविंग इन दिस मोमेंट (अभी के क्षण में जीना), लिविंग इन द प्रेज़ेंट का मतलब हो जाएगा लिविंग ट्रुथफुली, लिविंग ट्रुथफुली (सत्यनिष्ठा के साथ जीना)।

मैं आगे की नहीं सोचता, पीछे की भी नहीं सोचता, मैं बस अभी मौज मारता हूँ – ज़्यादातर लोगों के लिए लिविंग इन द प्रेज़ेंट यही हो जाता है। लिविंग इन द प्रेज़ेंट और लिविंग इन द मोमेंट ये दो बहुत अलग-अलग बातें हैं। लिविंग इन द मोमेंट एकदम मूर्खतापूर्ण बात है और लिविंग इन द प्रेज़ेंट का बहुत मूर्खतापूर्ण अर्थ भी हो सकता है अगर उसको लिविंग इन द मोमेंट मान लिया। और लिविंग इन द प्रेज़ेंट उच्चतम बात भी हो सकती है अगर उसको लिविंग इन द ट्रुथ मान लिया।

प्रश्नकर्ता: जी आचार्य जी, लिविंग इन द मोमेंट नहीं होता, ये बात समझ में आती है पर आपने आगे कहा, ‘लिविंग इन द ट्रुथ’ तो सत्य में जीना, इसको कैसे समझें?

आचार्य प्रशांत: काल में न जीना। अतीत और भविष्य दो ही हिस्से हैं काल के, जो इनमें नहीं जीता वो लिविंग इन द प्रेज़ेंट है। लिविंग इन द प्रेज़ेंट ही लिविंग इन द ट्रुथ है। काल के तो दो ही हिस्से हैं न? हाँ। तो अहम् या तो अतीत से आकर जुड़ेगा, ‘मैं ज़मींदार की औलाद हूँ,’ अतीत से जुड़ गया। या भविष्य में आकार बैठ जाएगा, ‘मेरा लड़का प्रेसिडेंट (राष्ट्रपति) बनेगा।’

आदमी और कहाँ जीता है? या तो अतीत में होता है या भविष्य में होता है। और अतीत और भविष्य में होना माने दोनों में होना, क्योंकि भविष्य अतीत की ही छाया होता है। तो हम जहाँ रहते हैं उसको बोलना चाहिए पास्ट और फ्यूचर मिलाकर पैश्चर। क्योंकि सिर्फ़ पास्ट में रहा नहीं जा सकता, पास्ट है तो वो फ्यूचर का अपनेआप निर्माण कर देता है।

फ्यूचर और कहीं से आता ही नहीं, पास्ट से ही आता है। कुछ नया थोड़ी होता है फ्यूचर में! आपको लगता है आप अपने लिए नए भविष्य की कामना करते हो। कोई भविष्य जिसकी आप कामना या कल्पना कर सकते हो, नया हो ही नहीं सकता। सारे कल्पित भविष्य अतीत की छाया होते हैं, तो हम किसमें जीते हैं? पैश्चर में।

अतीत और भविष्य, अतिश्य में जीते हैं। है न? अतिश्य में। कहाँ जी रहे हो? अतिश्य में। हाँ, तो अतिश्य में जीना बंद कर दो बस। कम आउट ऑफ़ योर पैश्चर (अपने पैश्चर से बाहर आओ) यही है लिविंग इन द प्रेज़ेंट, लिविंग इन द ट्रुथ माने जो कुछ बदल रहा हो उससे दिल लगाना बंद करो।

काल की धारा में जो है, सब बदल रहा है और तुम उससे ये सोचकर दिल लगाते हो कि ये नहीं बदलेगा, इसका सहारा ले लूँगा। इसके मत्थे ज़िंदगी काट दूँगा। छाँव मिल गई, एंकर डाल दो। ये नहीं है। वो चीज़ ही नहीं है तुम जिसके भरोसे हो, वो खुद किसी के भरोसे नहीं है।

वो याद है न अपना दोस्त, जो अपने ही नाड़ा पकड़कर बहा जा रहा था। तुम जिसके भरोसे हो वो तुम्हारे भरोसे है। तुमने अपना नाड़ा पकड़ रखा है, कोई नाड़े से पूछता तो कहता, ‘देखो हमने इसको पकड़ रखा है,’ कोई नहीं बहेगा। दोनों बहे जा रहे हैं।

एक आदमी था वो नदी में बहा जा रहा था, उसको भरोसा था कि बहेगा नहीं, क्यों? बोलता है, ‘मैंने अपना नाड़ा पकड़ रखा है न, बह कैसे सकता हूँ।’ तो ये हरकत करना बंद करो, यही है लिविंग इन द ट्रुथ।

जो बदल सकता है, जो नित्य नहीं है, जो टाइमलेस (कालातीत) नहीं है, जो अनचेंजेबल नहीं है, अपरिवर्तनीय नहीं है, उसका भरोसा करना बंद करो, उसको बस खेल मानो। नाड़े को नाड़ा मानो, नाड़े को नाड़ी मत बना लो। “नाड़े को बनाया सहारा, ज़िंदगी का खेल हारा।” तो नाड़े को सहारा मत बनाओ, काल की धारा में नाड़े-ही-नाड़े हैं, इनको गले में नहीं डालते।

नाड़े को गले में डाल लो तो उसके कई तरीके के नाम हो जाते हैं, वरमाला। है बस वो क्या? नाड़ा। और सोच रहे हैं अब इसके भरोसे ज़िंदगी चल जाएगी, एक नहीं सात ज़िंदगियाँ चल जाएँगी। गले में नाड़ा डालकर घूम रहे हैं, लोग ताली पीट रहे हैं उनको देखकर।

क्या रखा है? नाड़े में कोई दम है! ऐसे के आश्रित मत हो जाओ जो तुम्हारे ही जैसा है, जिसको तुमने ही बनाया है, जो तुम्हारी कल्पना का मोहताज है, जो तुम्हारी निर्मिति का उत्पाद है, चाहे वो नाड़ा हो और चाहे ऊँची-ऊँची तुम्हारे आराध्यों की कहानियाँ। वो सब किसने बनाई हैं? नाड़ा भी किसने बनाया और कहानियाँ भी किसने बनाईं, इनका भरोसा मत करो, यही है लिविंग इन द ट्रुथ।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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