प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जब हम हेयर एंड नाउ और प्रेजेंट मोमेंट (यहीं और अभी, और वर्तमान के क्षण) की बात करते हैं तो उसमें भी हमारा माइंड (दिमाग) तो एक्टिव (सक्रिय) रहता ही है हर चीज़, मेमोरी (स्मृतियाँ) तो कलेक्ट (एकत्र) हो ही रही है न। डिसीज़न मेकिंग (निर्णय लेने) के लिए, वो तो मेमोरी से ही आ रहा है न। जहाँ पर मतलब प्लानिंग, फॉरकास्टिंग, डिसीज़न मेकिंग ( योजना बनाना, पूर्वानुमान लगाना, निर्णय लेना)
आचार्य प्रशांत: तो ठीक है उसमें क्या बुराई है? हेयर एंड नाउ का मतलब ये नहीं होता है कि सब स्मृतियाँ वगैरह हटा दें। हेयर एंड नाउ वो बिन्दु है, जिस पर मन केन्द्रित है। केन्द्रित रहने के बाद वो कहीं को भी आये-जाए, उससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। तो अगर आप कहीं से ये बात सुन रहे हैं कि इसी पल में रहना है, न आगे जाना है, न पीछे जाना है, तो वो बात निरर्थक है। जहाँ जाना हो जाइए।
पतंग उड़ती है न आसमान में, कहीं को भी उड़ सकती है, आगे, पीछे, दाएँ, बाएँ, ऊपर, नीचे, और ज़रूरी नहीं है कि उड़ती भी रहे। नीचे भी आ सकती है। सब ठीक है। जब तक डोर सही हाथों में है। आपको अतीत में जाना है, जाइए, आपको भविष्य में जाना है, जाइए। आपको यहाँ के बारे में सोचना है, सोचिए। आपको कहीं और के बारे में सोचना है, तो सोचिए। सही होकर सोचिए। सही जगह से सोचिए।
आप कैसे अतीत को छोड़ देंगे? ये शरीर ही अतीत है। शरीर ही अतीत से तो आ रहा है। इसको छोड़ दिया है क्या? और अतीत भी रहेगा, भविष्य भी रहेगा। न अतीत की स्मृतियों में बुराई है, न भविष्य की सोच में बुराई है, श्रद्धा हीनता में बुराई है, केन्द्र हीनता में बुराई है। अगर श्रद्धा युक्त हैं आप और भविष्य के बारे में सोच रहे हैं, तो वो सिर्फ़ एक खयाल होगा। उस खयाल में एक डरा हुआ मैं नहीं मौजूद होगा। और श्रद्धा नहीं है, केन्द्र नहीं है, तो आप जब भी भविष्य के बारे में सोचेंगे, डर-डरकर सोचेंगे। अपनी सुरक्षा के प्रति चिन्तित होकर सोचेंगे।
मैं आप लोगों से बात करता जा रहा हूँ, और मुझे पता है कि सूरज ढलने से पहले वापस जाना है, तो क्या मुझे भविष्य का कोई खयाल नहीं है? बिलकुल है। किसने कह दिया कि अध्यात्म में भविष्य के लिए कोई जगह नहीं है। और मैं आपसे बात करता जा रहा हूँ, मुझे ये भी खयाल है कि कल और परसों जब हमने बात करी थी, तो किसने क्या कहा था, पूछा था, किसका कैसा मन और आचरण था। और उन बातों को ध्यान में रखकर के मैं आज की बात कर रहा हूँ। तो क्या मुझे अतीत का कुछ पता नहीं है। मुझे अतीत का भी पता है, मुझे भविष्य का भी खयाल है और मैं वर्तमान में भी हूँ। कोई गुनाह थोड़ी हो गया, पीछे का सोच लिया तो, और कोई गुनाह थोड़ी हो गया कि आगे चले गये तो।
पर ये आजकल आध्यात्मिक फैशन है कि लिविंग इन द प्रेजेंट मूमेंट (वर्तमान के क्षण में जीना) और ये बात निहायत बेवकूफ़ी की है। समय की धारा है, पीछे भी है, आगे भी है, यहाँ भी है। इस बिन्दु में क्या खास है कि मैं कहूँ कि मुझे इसी में रहना है, और वहाँ नहीं रहना है, और वहाँ नहीं रहना है। पानी यहाँ भी है, पानी वहाँ भी है, पानी वहाँ भी है। तटस्थ होकर तीनों को देखिए। भूत, भविष्य और वर्तमान। तीनों काल की धारा के अंग हैं। आप तटस्थ रहिए। जो सत्य को समर्पित है, समय उसका क्या बिगाड़ लेगा? उसको क्या खौफ़ लगेगा कि अरे! मैं तो अतीत के बारे में सोच रहा हूँ?
खेल है, अतीत के बारे में भी सोच लिया। खेल है, आगे के बारे में भी सोच लिया। हाँ, अतीत से हमें कुछ चाहिए नहीं। भविष्य से भी हमें कुछ चाहिए नहीं। जो चाहिए था, वो मिला हुआ है। तो स्मृतियों के माध्यम से कोई चाहत नहीं पूरी कर रहे हैं। भविष्य के माध्यम से कोई क्षतिपूर्ति नहीं कर रहे हैं।
कोई आपसे पूछे, कल क्या है? तो आप कहोगे, अरे! ये तो आध्यात्मिक गुनाह कर दिया तुमने। ये क्या पूछ दिया, कि कल क्या है। अरे! कल अगर सोमवार है तो बोल दो कि कल सोमवार है। या ये बताओगे कि मैं तो सिर्फ़ प्रेजेंट (वर्तमान) में जीता हूँ। आगे की सोचना गड़बड़ बात है। कल सोमवार है तो है। कल सोमवार है इस बात से न हम छोटे हो गये, न हम बड़े हो गये। उसका हमारे मैं से कोई लेना-ही-देना नहीं। तथ्य मात्र है कि कल सोमवार है। और बीते कल में क्या था? शनिवार था। शनिवार न हमको छोटा कर गया, न बड़ा कर गया। एक बात है। बात खत्म।
देखो, आसक्ति बुरी है। आसक्ति तो किसी भी चीज़ से बुरी है। पत्थर से भी बुरी है और पानी से भी बुरी है। तो आसक्ति अतीत से भी बुरी है और भविष्य से भी बुरी है और समझना, आसक्ति वर्तमान से भी बुरी है।
तो अगर कोई कहे कि नहीं साहब वर्तमान में जियें आप, भूत और भविष्य को छोड़ें। भूत और भविष्य नहीं बुरे हैं। आसक्ति बुरी है। भूत की ओर भी देखो, हाँ, ये भूत है। देख रहे हैं, ठीक। आसक्त नहीं हैं। स्मृतियाँ पड़ी हुई हैं, जहन में स्मृतियाँ कुछ हैं, पड़ी हुई हैं। कुछ समय तक रहती हैं, फिर चली जाती हैं, पड़ी हुई हैं। और इधर भविष्य है, हाँ, भविष्य की ओर भी देख लेते हैं, ठीक। आसक्ति न इधर से है, न उधर से है, और-तो-और हमें आसक्ति, वर्तमान से भी नहीं है।
प्रश्नकर्ता: यही मुक्ति है।
आचार्य प्रशांत: यही मुक्ति है। भूत से भी मुक्ति भविष्य से भी मुक्ति और वर्तमान से भी मुक्ति।
प्रश्नकर्ता: 'कर्म कर और फल की चिन्ता मत कर', क्या ये भी वही है?
आचार्य प्रशांत: फल की चिन्ता तो जो भूखे हैं वो करें। हमारा पेट भरा हुआ है, हम फल की क्या चिन्ता करेंगे। हमारा पेट?
श्रोतागण: भरा हुआ है।
आचार्य प्रशांत: अगर पेट भरा हुआ है तो कर्म क्यों कर रहे हो? हम थोड़ी कर रहे हैं। वो तो होता रहता है। कर्म तो प्रकृति का खेल है। कर्म तो लगातार चल ही रहा है। हाँ, ये मूर्खतापूर्ण उम्मीद हमने नहीं रखी हुई है कि प्रकृति के खेल से हमारा पेट भर जाएगा। प्रकृति के खेल से प्रकृति का पेट भरता है, हमारा नहीं। प्रकृति में भूख है, प्रकृति में प्यास है, प्रकृति में पेट खाली है और प्रकृति में पेट भरा हुआ है। हम जो हैं, हमारा पेट नहीं खाली होता।
तो जो कर्म करके फल की उम्मीद करते हैं, वो दो गलतियाँ करते हैं। पहली गलती तो ये कि वो अपनेआप को कर्ता मानते हैं जबकि कर्ता वो है नहीं, कर्म तो प्रकृति में हो ही रहा है। कर्म तो प्रकृति में लगातार हो ही रहा है। तुम्हारी खुराफ़ात है कि तुम अपनेआप को कर्ता मान लो। बुद्धि कुछ कर रही है, तुम कहते हो, मैं कर रहा हूँ, तुम नहीं कर रहे हो, वो मस्तिष्क कर रहा है। तभी तो तुम्हारे कितने सारे काम तुम्हारे बावजूद हो जाते हैं।
तुम्हें क्रोध आ जाता है अचानक से, तुम सोच-समझकर गुस्सा करते हो क्या। तो तुम गुस्से के कर्ता कहाँ हुए। वो तो प्रकृति का काम है। प्रकृति का और रसायनों का काम है। समझ में आ रही है बात? तो पहली बात तो, तुम कर्ता हो नहीं, कर्ता है प्रकृति और तुम अपनेआप को व्यर्थ कर्ता मन रहे हो। और दूसरी बात, उन सब कर्मों का जो फल है, वो उन कर्मों के कर्ता को ही मिलेगा। जो कर्ता, वो भोक्ता। कर्ता कौन है?
श्रोता: प्रकृति।
आचार्य प्रशांत: तो उसका फल भी किसको मिलेगा।
श्रोता: प्रकृति को।
आचार्य प्रशांत: तुम्हें तो मिलेगा ही नहीं। तो तुम एक नहीं, दो गलती कर रहे हो। पहली बात तो व्यर्थ कर्ता बने, जहाँ तुम हो नहीं। और फिर कर्ता बनकर ये भी सोच रहे हो कि हमें फल मिलेगा। जैसे कोई शराबी पड़ा हो, सड़क के किनारे। सामने से बसें जा रही हों। तो पहला खयाल तो उसको ये आये कि मैं बस का ड्राइवर हूँ। और दूसरी उम्मीद वो ये पाले कि अब ये बस मुझे दिल्ली से लखनऊ पहुँचा देगी। उसने कितनी गलतियाँ करी हैं?
श्रोता: दो।
आचार्य प्रशांत: पहली गलती क्या थी?
श्रोता: शराब पी रखी है ड्राईवर ने।
आचार्य प्रशांत: (हँसते हुए)वो तो उसकी स्थिति है।(सभी हँस पड़ते हैं) पहली गलती क्या थी?
श्रोता: वो अपनेआप को ड्राईवर मान रहा है।
आचार्य प्रशांत: कि वो अपनेआप को बस का चालक मान रहा है। मैं कर्ता हूँ, वो कर्ता है नहीं। बस चलाने वाला कोई और है। और दूसरी गलती ये सोच रहा है, चूँकि मैं बस चला रहा हूँ, इसलिए मैं लखनऊ पहुँच जाऊँगा। तू कहीं पहुँचेगा कैसे? तू उस बस में है ही नहीं। पहुँचेंगे वो जो उस बस में सवार हों। प्रकृति में जो खेल चल रहा है, उसका फल भी मिलता?
श्रोता: प्रकृति को ही है।
आचार्य प्रशांत: और जो बस चल रही है, उसके द्वारा यात्रा पूरी होती है, बस के यात्रियों की। उनकी थोड़े ही जो उस बस से बाहर हैं। तुम प्रकृति की बस से बाहर हो। प्रकृति की अपनी बस है। उसको चलाने वाली प्रकृति है। और उसमें बैठा हुआ है ये सारा अस्तित्व। ये नदियाँ, पहाड़, पेड़-पौधे, सब। जीव-जन्तु, नर-नारी, ये सब हैं उसमें। वो प्रकृति की बस है। उसमें ये सब बैठे हुए हैं। तो वहाँ यात्रा चल रही है। तुम्हारी कोई यात्रा नहीं है।
तो दोनों गलतियाँ मत कर देना। न तो तुम ये मान लेना कि उस बस को चलाने वाले तुम हो। वो अपनेआप चलती है। जैसे तुम्हारी साँस अपनेआप चलती है न, वैसे ही प्रकृति की बस अपनेआप चलती है, तुम नहीं चलाते। और प्रकृति की बस में प्रकृति के तत्व ही यात्रा करते हैं, तुम नहीं यात्रा करते। तुम वो हो, जिसकी कोई यात्रा नहीं है। तुम वो हो, जिसका कोई परिवर्तन नहीं है। तुम वो हो, जिसे कभी कोई फल नहीं प्राप्त होता। जब तुम्हें कोई फल मिलते ही नहीं तो कोई फल तुम्हें आकर्षित क्यों कर रहा है? कोई फल तुम्हें क्या स्वाद दे देगा? किसी भी फल का तुम्हें लालच क्यों है? अच्छा फल, बुरा फल छोड़ो। तुम वो हो जिसे कोई फल?
श्रोता: मिलता ही नहीं।
आचार्य प्रशांत: कभी मिलता ही नहीं है। तो अच्छा फल कौनसा और बुरा फल कौनसा? फल अच्छा होगा तो किसके लिए अच्छा है? प्रकृति के लिए। फल बुरा है तो किसके लिए बुरा है?
श्रोता: प्रकृति के लिए।
आचार्य प्रशांत: तुम्हारे उपर कोई फल लागू ही नहीं होता। ये निष्काम कर्म है। निष्काम कर्म का अर्थ होता है कि तुम कर्ता ही नहीं हो बेटा। तुम कर्ता ही नहीं हो, कर्म का क्या सवाल है।