वर्तमान में जीना: अध्यात्म या औद्योगिक छलावा?

Acharya Prashant

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वर्तमान में जीना: अध्यात्म या औद्योगिक छलावा?

प्रश्नकर्ता: कोई काम करते हैं या कोई बुक पढ़ते हैं, तो मन उस समय नहीं होता, वो भविष्य या भूतकाल में चला जाता है। ज़्यादातर प्रेज़ेन्ट (वर्तमान) में नहीं रहता है। तो क्या करें कि वो अधिकांशतः वर्तमान में ही रहे?

आचार्य प्रशांत: क्या करोगे तुम वर्तमान में रहकर?

प्र: जैसे कोई काम करते हैं।

आचार्य प्रशांत: क्या काम करते हो?

प्र: जैसे बैंक में केश बाँट रहे हैं।

आचार्य प्रशांत: क्यों बाँट रहे हो?

प्र: काम है सर।

आचार्य प्रशांत: तो करो, मुझसे क्यों पूछ रहे हो! ये किसने सीखा दिया कि प्रेज़ेन्ट में रहने का मतलब होता है कि कुछ भी कर रहे हो तो उसमें डूब ही जाओगे। ये सब अमेरिकन अध्यात्म है। वहाँ से एप्पल ले लो, फेसबुक ले लो, अध्यात्म मत ले लेना। गूगल वगैरह तक ठीक है कि अमेरिका से उठा लाये, ये प्रेज़ेन्ट-व्रेज़ेन्ट कहाँ से उठा लाये!

ये सब जो है, इंडस्ट्रियल इकोनॉमी (औद्योगिक अर्थव्यवस्था) के जुमले हैं। कि जो कर रहे हो उसको डूबकर करो। ये बात जब बतायी जाएगी इम्प्लॉइज़ (कर्मचारी) से तो उन्हें क्या प्रेरणा मिलेगी, कि काम कर रहे हो डूबकर करो, प्रोडक्टिविटी (उत्पादकता) बढ़ेगी। ठीक वैसे जैसे तुम कह रहे हो कि बैंक में हैं, केश गिनते तो हैं, और गिनेंगे, दबाकर गिनेंगे, लाभ किसको होगा? बैंक। बैंक ने तो इस शिविर में कोई अनुदान दिया नहीं है। मैं बैंक का लाभ क्यों कराऊँ! या तो जाए, बैंक भी कुछ डोनेशन दे मुझे।

बड़े भोले लोग हो, लगे हुए हैं बैंकों का लाभ कराने में। लिव इन द प्रेज़ेन्ट (वर्तमान में जिओ)। या शीतल पेय कम्पनियों की ओर से आ रहे हो? वहाँ भी यही रहता है, ओ यस अभी, लिव इन द प्रेज़ेन्ट ! अभी खोलकर पी डालो बिलकुल, अभी ठोक दो।

ये सब किसने सीखा दिया भाई! ये किस उपनिषद में लिखा है, किस धर्मग्रन्थ में लिखा है कि आगे का और पीछे का तो कोई विचार करो ही मत बस लिव इन द प्रेज़ेन्ट ?

माने अभी प्रेज़ेन्ट में हत्या कर रहे हो तो डूबकर करो, बलात्कार कर रहे हो तो डूबकर करो। घटिया कर्म कर रहे हो, तो सोचो भी नहीं कि इसका अंजाम क्या आना है। धर्मग्रन्थों ने तो सौ बार कहा है कि अरे! पीछे की भी देख, आगे की भी देख भाई, क्या कर रहा है। मेरी भी पूरी यही सीख है कि देखो तो कि कर क्या रहे हो और अपने लिए क्या पैदा कर रहे हो।

ये जो पूरी बात है, बी इन द प्रेज़ेंट , ये भोगवाद को प्रोत्साहन देती है, और कुछ नहीं। न आगे की सोचो न पीछे की सोचो। खा रहे हो तो दबाकर खाओ, ये देखो ही नहीं कि बिल कितना आएगा। जाकर रेस्तराँ में बोलना यही, ‘*आइ ईट इन द प्रेज़ेन्ट*‘ (मैं वर्तमान में खाता हूँ)। भाई, आगे की तो सोचनी ही नहीं चाहिए न।

अभी तुमने कहा मन फ़्यूचर में चला जाता है। तो जितनी वहाँ चीजें हों, सब मँगवा लिया करो, सब में मुँह डाल दिया करो। फ़्यूचर की तो सोचना गुनाह है। ये सोचो ही मत कि ये जो मँगाया है इसका भुगतान करने के लिए जेब में कुछ रकम है कि नहीं, ये सोचो ही मत। और ये भी मत सोचो की अभी जो खाये ले रहे हैं, तो उसको पचाना भी हमें ही है, फिर निकालना भी हमें ही है। बिलकुल मत सोचो। *आई ईट इन प्रेज़ेन्ट*।

एक बड़ी सीख चलती है कि जब तुम खा रहे हो, तब तुम सिर्फ़ खाओ। ये क्या बेवकूफ़ी है! जब तुम खा रहे हो, तब तुम खाओ और बगल में तुम्हारा भाई मर रहा हो तो, तो कहोगे आइ एम ईटिंग इन द प्रेज़ेन्ट , तू मर रहा है तो मर, हमें तो एक वक्त में एक ही काम करना है? ये सब सीखें चल रही हैं। ये अमेरिकन अध्यात्म है। बगल में भैया मर रहा हो तुम्हारा, तो तुम बोलोगे कि मैं तो एक वक्त में एक काम करता हूँ, डूब करके इमर्शन के साथ?

अधिकांशतः आप जो काम कर रहे होते हैं न, वो आ ही अतीत से रहा होता है। अगर आप देख लें ये बात कि आप अभी जो कर रहे हैं, वो सीधे-सीधे अतीत से आ रही है, तो अभी आप जो कर रहे हो, वो काम कर ही नहीं पाएँगे। ज़्यादातर लोग इस तथाकथित प्रेज़ेन्ट में जो कुछ कर रहे हैं, वो करने लायक ही नहीं होता, तो उनसे मैं कैसे कह दूँ कि *लिव इन द प्रेज़ेन्ट*। कोई घटिया नौकरी कर रहा है, कोई घटिया ज़िन्दगी जी रहा है, कोई घटिया बातें कर रहा है, कोई घटिया संगति में है, कोई घटिया विचार कर रहा है, कोई घटिया जगह पर रमण कर रहा है — यही सब तो चल रहा हैं न प्रेज़ेन्ट में।

आप जिसको प्रेज़ेन्ट बोलते हो, उसका मतलब तो बताओ मुझे। बिलकुल ज़मीन पर आकर बताओ, प्रेज़ेन्ट माने क्या? एक आदमी कान में उँगली डालकर खुजा रहा है, यही तो है उसका *प्रेज़ेन्ट*। तो क्या बोलूँ लिव इन द प्रेज़ेन्ट ? एक आदमी गंदी डकार मार रहा है, यही तो उसका प्रेज़ेन्ट है। एक आदमी किसी दूसरे से जलकर-फुँककर राख हुआ जा रहा है, यही तो उसका प्रेज़ेन्ट है न, बोलो। एक आदमी एक घटिया मीटिंग अटेंड (भाग लेना) कर रहा है और अपने बॉस के तलवे चाट रहा है, यही तो उसका प्रेज़ेन्ट है न। यही है न? तो मैं क्या बोलूँ लिव इन द प्रेज़ेन्ट ?

आप जिस को प्रेज़ेन्ट बोलते हो, वो क्या है? यही जीवन के एक के बाद एक व्यर्थ जाते हुए शून्य गुणवत्ता के पल। उनमें टिक करके या उनमें डूब करके तुम्हें क्या मिल जाएगा भाई, उनसे तो बचो! आग लगे ऐसे प्रेज़ेन्ट को। तुम उसमें और गहरे जाना चाहते हो। एक आदमी दलदल में है, वो कह रहा है ‘*आइ वॉन्ट टू लिव डीपली*’ (मैं गहरायी में जीना चाहता हूँ)। दलदल में अभी उसकी मुंडी बाहर है कम-से-कम और वो बोल रहा है, ‘नहीं, हमें गुरुदेव बता गये हैं कि डूबकर जीओ।‘ तो डूब जा!

अरे! गंगा में डुबकी मारना एक बात है। कोई गंगा में हो, तो उसको कह सकते हैं कि डूब। जो दलदल में हो, उसको मैं कैसे कह दूँ कि डूब, बोलो। कैसे कह दूँ? लेकिन सही रहता है। चार दोस्त बैठ करके दारू पी रहे हैं, कबाब खा रहे हैं, पचास ठो पिज़्ज़ा मँगा लिया है। उसमें से एक है थोड़ा सा विवेकी, वो कह रहा है कि यार, ये सब हम क्या कर रहे हैं, ये बेकार के काम नहीं हैं। तो बाकी सब उसको बोलेंगे, ‘ओ छड़ न यार! मेक इट लार्ज, लिव इन द नाउ ( बड़ा बना, अभी में जी)।‘ यही है न तुम्हारा लिविंग इन द प्रेज़ेन्ट , छड़ न यार, आगे-पीछे की छड़ न यार?

क्यों छड़ भाई! हम जीवन मुक्त तो हो नहीं गये कि हमारी अब कोई अगली सुबह नहीं आएगी। जो जीवन मुक्त होता है, वही ऐसा होता है कि उसकी कोई अगली सुबह नहीं होती। आपकी तो अगली सुबह आएगी। आपके लिए तो अभी भविष्य है। जो कोई मुक्त नहीं हुआ उसके लिए भविष्य है न अभी। तो आपके लिए भविष्य है और आप के लिए भविष्य है तो आपको भविष्य का खयाल भी करना पड़ेगा। आप क्यों अपनेआप से झूठ बोल रहे हो कि मैं भविष्य की परवाह नहीं करना चाहता? ये बातें सन्तों को शोभा देती हैं कि वो कहें कि मैं भविष्य की परवाह नहीं करता। आप तो करते हो।

चूँकि आप करते हो इसलिए सही ढँग से करो। व्यर्थ का नाटक मत करो कि फ़्यूचर का कोई मतलब नहीं है और पास्ट का कोई मतलब नहीं है। सही ढँग से अगर फ़्यूचर की परवाह करोगे, तो फिर एक दिन ऐसा भी आएगा, जब फ़्यूचर से मुक्त हो जाओगे। पर वो तुम्हारा दिन अभी नहीं आया है। ढोंग में मत फँस जाना। जो स्वस्थ हो गया हो वो दवाई छोड़ दे अच्छी बात है। और जो अभी स्वस्थ हुआ ही नहीं, वो कह दे कि मैं तो दवाई छोड़ रहा हूँ, तो मरेगा।

आप विचार करिए। अतीत का भी करिए और भविष्य का भी करिए। सच्चा विचार करिए। अपनी भलाई को केन्द्र पर रखकर विचार करिए। ईमानदारी से देखिए ज़िन्दगी को।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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