कुविचार और सुविचार में अंतर कैसे करें? || आचार्य प्रशांत (2020)

Acharya Prashant

19 min
74 reads
कुविचार और सुविचार में अंतर कैसे करें? || आचार्य प्रशांत (2020)

प्रश्नकर्ता: दो शिविर पहले मैं जब नोएडा आश्रम आया था तो वहाँ भजन का जो सेशन हुआ था उसमें कबीर साहब का भजन था, उसमें एक दोहा था

"माया-माया सब कहे, माया लखे न कोय। जो मन से न उतरे, माया कहिए सोय।"

~ कबीर साहब

तो आज वो पुस्तक मेरे साथ ही है, मैं पढ़ रहा था। और कल हमको यहाँ से लिटरेचर (साहित्य) दिया गया था ज़िम्मेदारी के बारे में। उसमें डर और आसक्ति के बारे में भी उल्लेख था। तो मन में तो अच्छा-बुरा कभी-कभार तो चल ही रहा होता है। तो अच्छा भी हो और चल रहा हो तो हमें पता कैसे चलेगा कि यह माया है? और क्या यह आसक्ति की तरफ़ इशारा है? क्योंकि 'माया' शब्द भगवद्गीता में भी आता है।

आचार्य: सवाल यह है कि कबीर साहब अपने एक दोहे में, साखी में कहते हैं कि "माया-माया सब कहे, माया लखे न कोय। जो मन से न उतरे, माया कहिए सोय।" तो आप पूछ रहे हैं कि मन में तो अगर बुरा चलता है तो अच्छा भी तो चलता है। अच्छी बातें भी तो मन में घूमती ही रहती हैं न। तो दोहे के हिसाब से जाएँ तो क्या मन में अच्छी बातों का चलना भी माया ही है? यही प्रश्न है न?

जिसको हम सुविचार या सदविचार कहते हैं, अच्छी बात और जो कुविचार होता है, आम भाषा में बुरी बात। दोनों में एक मौलिक अन्तर होता है। मौलिक अन्तर यह है कि कुविचार विचारक को, विचारकर्ता को बचाने के लिए होता है। बल्कि ऐसे कहिए कि विचारक का जो यत्न है ख़ुद को बचाये रखने के लिए वो कहलाता है कुविचार।

हम सबके भीतर एक विचारक बैठा हुआ है न, विचारक जो सोचता है। वो जो विचारक है वो दो तरीक़े से सोचता है। दो तरीक़े से वो अपने सारे कर्म करता है। एक तरीक़ा यह है कि कुछ ऐसा करूँ कि मैं बचा रह जाऊँ। भीतर-ही-भीतर पता है कि मैं झूठा हूँ, खोखला हूँ, लेकिन फिर भी मैं बचा रह जाऊँ। एक तो यह कोशिश होती है उस विचारक की।

जब विचार करे तो उसको बोल देते हैं 'विचारक', जब कर्म करे तो उसी को बोल देते हैं 'कर्ता', वो एक ही बात है। तो कुविचार वो जिसकी चेष्टा है कि विचारक बचा रहे, विचारक बचा रहेगा तो कुविचार भी चलता रहेगा। तो कुविचार की पहचान हम इस तरीक़े से कर सकते हैं। वो रुकने का नाम नहीं लेता, क्योंकि उसका तो काम ही है उसके पीछे जो विचारकर्ता बैठा है उसको बचाने का। तो कुविचार कभी थमेगा नहीं, वो चक्रवत चलेगा, वो गोलाकार होगा।

एक ही बात पर आप बार-बार घूम-फिरकर के आएँगे, जैसे ग्रामोफोन का रिकॉर्ड अटक गया हो। जिन्होंने वो पुराने रिकॉर्ड देखे होंगे वो जानते होंगे, कई बार उन पर सुई अटक जाती थी। तो क्या होता था फिर? एक ही वाक्य को बार-बार दोहराया जा रहा है, एक ही वाक्य को बार-बार दोहराया जा रहा है। ऐसी सोच का अनुभव हम सब ने कई बार किया है न, यह कुविचार है। इसमें से कुछ निकलकर नहीं आ रहा है, इसमें कोई तत्व नहीं है, इसमें सार की एक बूँद भी नहीं है, बस इसका लगातार चक्रण हो रहा है। हो बहुत कुछ रहा है और उसमें से कुछ निकलकर नहीं आ रहा। ठीक है?

उसमें से अगर किसी लक्ष्य की प्राप्ति हो रही है तो वो लक्ष्य यही है कि गति बनी हुई है और गति के कारण जो गतिमान विचारक है वो किसी तरीक़े से सुरक्षित बैठा हुआ है। अगर यह गति रुक गयी विचार की तो वो जो पीछे विचारक है वो ढह जाएगा। समझ रहे हैं? यह कुविचार की पहचान है। जो विचार बार-बार, बार-बार आता हो और आगे न बढ़ पाता हो, उसमें किसी तरीक़े की ऊँचाई, उत्कर्ष, बेहतरी, प्रगति न आ पाती हो, उसी विचार को जान लीजिएगा कि वो कुविचार है।

सुविचार की बात दूसरी होती है। सुविचार विचारक का यत्न है कि वो मिट जाए। सुविचार विचारक की कामना है हट जाने की, विलीन हो जाने की। तो सुविचार की पहचान यह होगी कि वो क्रमश: क्षीण पड़ता जाएगा। वो आगे बढ़ता जाएगा और जितना आगे बढ़ता जाएगा उतना सूक्ष्म होकर के क्षीण होता जाएगा। समझ रहे हैं?

कुविचार ऐसा जैसा कि कोई पक्षी आपके सिर पर चक्कर काट रहा हो या कह लीजिए कि जैसे मच्छर आपके सिर पर मंडरा रहे हों, भिन-भिन, भिन-भिन-भिन। ठीक है? वो मंडराते ही जा रहे हैं, मंडराते ही जा रहे हैं। दृश्य बदल ही नहीं रहा। वो पहले भी मंडरा रहे थे, अभी भी मंडरा रहे हैं और कुल वो कह क्या रहे हैं? 'भिन-भिन, भिन-भिन-भिन।' न इससे कुछ कम कह रहे हैं, न इससे कुछ ज़्यादा कह रहे हैं। वो पहले भी यही बात कह रहे थे, वो आज भी यही बात कह रहे हैं। आप जहाँ चले जाइए, वो आपके सिर पर मंडरा ही रहे हैं।

देखा है कभी, साँझ वगैरह का समय हो और आप किसी खुली जगह पर हों जहाँ मच्छर हों तो सिर पर मंडराने लगते हैं। आप जहाँ को जाएँ उनका झुंड आपके पीछे-पीछे चल देता है, उसे सिर पर ही होना है। कुविचार ऐसा होता है, वो कोई नयी बात भी नहीं बोलता। चलो भाई तुम साथ लगे हुए हो, सिर पर मंडरा ही रहे हो तो कोई नयी कहानी ही सुना दो। मच्छरों, कोई नया गीत ही गा दो। पर उनके पास कोई नया गीत भी नहीं है, एक ही 'भिन-भिन, भिन-भिन-भिन।' यह कुविचार है।

सुविचार ऐसा है जैसे कबूतर छोड़ा और वो उड़ा, उड़ा, उड़ा, दूर जाता गया, गया, गया, गया, छोटा होता गया, होता गया, होता गया और फिर बादलों के पार जाकर मिट ही गया। अन्तर समझ में आ रहा है? कुविचार का काम है बने रहना और सुविचार का काम है मिट जाना। सुविचार अपना काम करके हट जाता है। सुविचार ऐसा हठ, ऐसा आग्रह नहीं करता कि वो बना ही रहेगा। कोई भी विचार आपके लिए लाभ का है या आपके नुक़सान का है यह आप इसी से जाँच लीजिए कि वो आपको प्रेरित करके, वो आपको कुछ समझा करके बदल रहा है या नहीं। उस विचार में कुछ बेहतरी, कुछ तरक़्क़ी, कुछ आरोहण हो रहा है या नहीं।

तो अब इन्होंने पूछा कि कबीर साहब तो बोल गये "जो मन से न उतरे माया कहिए सोय।" बात स्पष्ट हुई? सुविचार मन पर चढ़कर बैठेगा ही नहीं। सुविचार की पहचान ही यही है कि वो चलेगा, चलेगा और फिर मिट जाएगा। वो मिट जाएगा, वो चक्की की तरह घूमेगा ही नहीं मन में। जो बात मन में निरंतर घूम रही हो उस बात का उद्देश्य समाधान तक पहुँचना है ही नहीं, उस बात का उद्देश्य ही घूमना मात्र है। वो अपना उद्देश्य पूरा करे तो ले रही है न।

वो बात मन में इसलिए नहीं घूम रही थी कि उस बात के घूमने के कारण मन किसी समाधान या शांति तक पहुँचे। वो बात मन में घूम ही इसीलिए रही है ताकि मन व्यस्त रहे, व्यर्थ की बात में व्यस्त रहे। लगता रहे कि कुछ कर रहे हैं क्योंकि व्यस्त हैं। क्या कर रहे हो? 'सोच रहे हैं।' विचारक का कर्ताभाव बना हुआ है। क्या कर रहे हो भाई? 'सोच रहे हैं।' लेकिन कुछ ऐसा कर रहे हो जिससे प्राप्त कुछ नहीं होने वाला। कुछ ऐसा कर रहे हो जो जीवन में किसी तरह की खुशहाली नहीं लाने वाला। सोच रहे हो, यह सोच कहीं पहुँचाएगी नहीं। और इस बात का पर्याप्त अनुभव है क्योंकि यही बात जो अभी सोच रहे हो, छ: महीने पहले भी सोच रहे थे, कहीं पहुँचे? स्वयं सोच भी क्या आगे बढ़ी? वही 'ढाक के तीन पात।' आ रही है बात समझ में?

सुविचार यह सुविधा देता ही नहीं कि सुविचार करते भर रहो, सुविचार इतनी मोहलत नहीं देगा। सुविचार की पहचान ही यही है कि वो तुम्हें ऊर्जा से, प्रेरणा से भर देगा और बदलाव के लिए विवश कर देगा।

उसका काम यह नहीं है कि वो मन में घूमता भर रहे, उसका काम है कि वो जीवन में बदलाव ला दे। क्योंकि सुविचार का तो स्रोत ही है न वो मन, वो विचारक जो बदलने के लिए तैयार है बल्कि आतुर है।

तो सुविचार आएगा और घूमता ही नहीं रहेगा, कुछ बदल कर जाएगा। दोनों बातें, कुछ बदल देगा और चला जाएगा। जो विचार कुछ बदले नहीं, बस घूमता भर रहे, उसको तुरन्त जान लीजिएगा कि कुविचार है। पूछिएगा, यह बात कोई मैं पहली बार सोच रहा हूँ, यह बात मैं बीस बार पहले सोच चुका हूँ। और वो बात क्या है? ‘यहाँ से चलेंगे, चौराहे तक जाएँगे, चौराहे पर कुछ मिलेगा नहीं तो वापस आ जाएँगे। नहीं, वापस आना ठीक नहीं लग रहा। तो यहाँ से चलेंगे, चौराहे तक जाएँगे, पर वहाँ तो कुछ मिलेगा नहीं तो वापस आ जाएँगे। नहीं, वापस आना ठीक नहीं लग रहा। तो यहाँ से चलेंगे, चौराहे तक जाएँगे।’

यह फँस गये, यह सुई अटक गयी। वहीं गोल-गोल, गोल-गोल घूम रही है। यह कुविचार है। यह मन की साज़िश है अपने ही ख़िलाफ़। यह एक तरीक़ा है झूठी व्यस्तता में फँसे रहने का। यह एक तरीक़ा है सुविचार को दूर रखने का।

हमारे लिए उम्मीद की बात यह है कि विचार जैसा भी हो, उसे चुनने की छूट हमें हमेशा उपलब्ध है। आप तय करते हैं कि कुविचार के साथ आपको बने रहना है या नहीं और आप ही तय करते हैं कि सुविचार को ऊर्जा देनी है या नहीं।

विचार की शुरुआत अकस्मात् हो सकती है पर विचार का मंडराना अकस्मात् नहीं होता, विचार का घूर्णन अकस्मात् नहीं होता। कोई चीज़ अगर आप दो घंटे से सोचे ही जा रहे हैं तो यह सोचना यकायक, अकस्मात् नहीं हो गया।

हाँ, वो ख़याल हो सकता है आपको यकायक आ गया हो पहली बार। पहली बार अकस्मात् हो सकता है। लेकिन दो घंटे से चल रहा है यही खेल तो फिर यह अकस्मात्, अनायास नहीं है, यह तो आप चाह रहे हो। यह मत होने दीजिए। ठीक है?

अब समझ में आया कि क्यों "जो मन से न उतरे, माया कहिए सोय”? सही विचार मन पर चढ़ा नहीं रहेगा, वो आपको सही कर्म करने पर मज़बूर कर देगा। सही विचार एक बार मन में आ गया तो आपको उस सही विचार को जीवन में उतारना पड़ेगा। लो, विचार का काम पूरा हो गया। विचार का काम पूरा हो गया तो अब विचार चला जाएगा। आ रही है बात समझ में?

प्र: प्रणाम आचार्य जी। जब हम विचार चुनते हैं तब हमें कैसे पता चले कि अभी यह विचार हम चुन रहे हैं ताकि हम कुविचार को न चुनें?

आचार्य: जब दिखाई दे कि कोई विचार बहुत देर से घूम भर रहा है और उसका कुल उद्देश्य घूमना भर है, तब चुन लो कि इसके घूमने में मुझे सहायक नहीं बनना है, ऐसे चुनो।

कौनसा विचार उठेगा, इसमें हमारे पास बहुत चुनाव नहीं होता, क्योंकि विचार भीतर की प्रवृत्तियों से उठते हैं। यकायक हो जाता है मामला, हम जान नहीं पाएँगे। आ तो वो सकता है अचानक, मैं नहीं कह रहा हूँ कि वो आएगा या नहीं आएगा इसमें आपके पास बड़ी चुनाव की सुविधा है। आ तो कुछ भी आ सकता है अचानक, लेकिन जो आया है आप उसकी ख़ातिरदारी करोगे या नहीं करोगे इसमें आपके पास सुविधा है, यह आपको चुनना है।

मेहमान तो कोई भी आ सकता है। आप तय कर सकते हो क्या कौन आपके दरवाज़े आएगा, कौन नहीं आएगा? कोई भी खटखटा सकता है। आपके पास किस बात का चुनाव है उपलब्ध? मेहमान-नवाज़ी करनी है कि नहीं करनी है। जो व्यर्थ का विचार है उसकी ख़ातिरदारी मत करो। और व्यर्थ के विचार को पहचानने का तरीक़ा अब हम जान चुके हैं। उसे कुछ करवाना नहीं है, उसे जीवन में कोई बदलाव लाना नहीं है, उसे बस समय ख़राब करना है और सिर भारी रखना है, उसे बस चक्कर काटना है। बल्कि उस विचार से आप पूछ लीजिए कि अच्छा ठीक है तुम ऐसी-ऐसी बातें कह रहे हो तो बताओ करें क्या। तो वो चुप हो जाएगा, क्योंकि आप कुछ करें, ऐसा वो विचार चाहता ही नहीं।

वो यह नहीं चाहता कि आप कुछ करें वो बस यह चाहता है कि आप सोचें। सोचो, सोचो और अपनेआप को ही इस भ्रम में रखो कि बड़े व्यस्त हो, कुछ कर रहे हो। और कर कुछ नहीं रहे। क्या कर रहे हैं? 'सोच रहे हैं।' वहाँ घड़ी टिक-टिक कर रही है, समय ख़राब हो रहा है और यहाँ सोच-सोच कर भेजा भी गर्म हो रहा है, तनाव भी बढ़ रहा है। सोचने में कोई बुराई नहीं अगर वो सोच जीवन में प्रगति लाती हो। कुविचार की पहचान यह है कि किसी तरह की प्रगति का उसका कोई इरादा नहीं होता। आ रही है बात समझ में?

प्र२: प्रणाम आचार्य जी। आपने विचारक के बारे में बताया, क्या विचारक है सचमुच? क्योंकि कृष्णमूर्ति जी कहते हैं देअर इज़ नो थिंकर (कोई विचारक नहीं है), चेतना की सामग्री है और उसमें अतीत की बातें हैं। उनमें से किसी को हम पकड़ लेते हैं।

आचार्य: अपनी बात करो न। जब तुम कहते हो, ‘विचार आ रहा है’, तुम्हारे लिए वो एक विचार भर होता है जो कहीं से आ रहा है यूँही घूमता-फिरता, टहलता हुआ या उसे तुम कहते हो, 'यह मेरा विचार है'? वो तुम्हारे लिए सिर्फ़ विचार होता है या तुम्हारे लिए 'मेरा विचार' होता है? तुम क्या कहते हो, 'ख़याल आया है' या ये कहते हो 'मुझे ख़याल आया है'?

प्र२: अगर अवेअर (सचेत) होता हूँ तो पता चल जाता कि बस ऐसे ही कुछ है।

आचार्य कितनी बार अवेअर होते हो? और जब अवेअर होते हो तब सवाल की कोई ज़रूरत ही नहीं। जब सवाल होता है तब की बात बताओ, तब यह कहते हो कि विचार है विचार या उसे कहते हो, 'मेरा विचार है', क्या बोलते हो? ऐसे बोलते हो, 'सोच ने सोचा' या कहते हो कि मैं सोच रहा था, क्या बोलते हो?

प्र२: 'मैं' भी न कहूँ तो वो तो चलेगा-ही-चलेगा।

आचार्य: बोलते क्या हो यह बताओ। फिलोसॉफी (दर्शन ) बाद में, ज़मीन पर आकर बात करो‌। क्या कहते हो कि विचार यूँही उड़ रहे हैं, बादलों की तरह उमड़-घुमड़ रहे हैं या यह कहते हो कि मैं सोच रहा हूँ, मेरा ख़याल है? क्या कहते हो?

प्र२: मैं सोच रहा हूँ।

आचार्य: पर तुम तो कह रहे हो विचारक कोई होता ही नहीं तो तुम्हारा ख़याल कैसे हो गया? जब कह रहे हो न और जब तक कह रहे हो कि मेरा विचार है तब तक विचारक मौजूद है और उस विचारक का नाम है 'मैं'। 'मेरा विचार है भई, मैं सोच रहा था।’ स्पष्ट नहीं है कि विचारक कौन है?

प्र२: वो तो फिर कभी जाएगा नहीं।

आचार्य: यह कुविचार है कि सुविचार है जो अभी आया यह ‘वो कभी जाएगा नहीं’? यह भविष्य के बारे में जो विचार किया अभी-अभी, यह मिटने की दिशा में था या बने रहने की दिशा में था? ख़ुद ही अभी कहा, 'वो तो कभी जाएगा नहीं।' यह बात मिटने की थी या बने रहने की?

प्र२: बने रहने की।

आचार्य: और हमने क्या बोला था, कुविचार क्या है? जो बना रहना चाहता है। बड़ा कुविचार कर रहे हो। अभी तो कह रहे थे विचारक ही नहीं होता, अब कुविचार पर उतर आये।

प्र२: नहीं, पास्ट (अतीत) में जो हुआ उस हिसाब से बता रहा हूँ। बहुत कोशिश की, वो जाता ही नहीं है।

आचार्य: पास्ट को तो आगे पहुँचा रहे हो न, अतीत को अतीत कहाँ रख रहे हो, उसे तो भविष्य बना दिया तुमने।

प्र२: नहीं, जैसे कल आपने कहा था ‘तुम्हारे अन्दर देखो कौन हर्ट (आहत) है।’ अब पूरा-का-पूरा ही हर्ट है तो कौन देखे, क्या देखे?

आचार्य: वो जो परेशान है आहत होने से। चोट क्या ख़ुद को परेशान करती है? कोई तो होता है न जो चोटिल होता है, कोई तो होता है न जिसे चोट लगी है। चोट ख़ुद को तो नहीं लगती न? यह तो नहीं कहते चोट को चोट लग गयी। कभी कहते हो क्या कि चोट को चोट लग गयी? क्या बोलते हो? मुझे चोट लग गयी। तो दो हैं न, एक जो चोट का तथ्य है और दूसरा वो जो उस तथ्य से अपना नाम जोड़ रहा है। दो हैं न? तो तुम यह नहीं कह सकते कि भीतर सिर्फ़ चोट-ही-चोट है। चोट के अलावा भी कोई है जो चोट खा रहा है।

प्र२: उसका होना ही चोट है।

आचार्य: होगा, पर तुम्हारे अनुभव में तो यही है कि मुझे चोट लगी है। जब यह कहना शुरू कर दो कि चोट को चोट लगी है, तब एक है बस।

प्र२: जब तक वो है, उसका होना ही नर्क है।

आचार्य: उसका होना तुम्हें इतना साफ़-साफ़ पता होता कि नर्क है तो वो फिर बचा क्यों रहता अब तक?

प्र२: वो तो रहेगा ही जब तक शरीर है।

आचार्य: इतना ज्ञानी हो? जब तक शरीर है! तुमने शरीर के अंत तक जाकर के देख लिया कि वो रहेगा-ही-रहेगा? त्रिकालदर्शी महाराज एकदम! अगले पचास साल की यात्रा कर आये कि जब तक शरीर रहेगा तब तक वो रहेगा।

प्र२: वो तो केमिकल (रसायन) की तरह एकदम निकल कर आ जाता है। वो तो है ही, वो तो रहता ही है न।

आचार्य: केमिकल की तरह निकल कर आता है चोट से उठा दर्द। दर्द खाने वाला किसी केमिकल से निकल कर नहीं आता। दर्द खाने वाला तो केमिकल से अपना नाता जोड़ता है, नाम जोड़ता है।

प्र२: एक बार तो आ ही गया, उसमें रोक तो सकता नहीं कोई।

आचार्य: अगर रोक नहीं सकते होते तो यहाँ बैठे सवाल भी नहीं कर रहे होते न? अगर इतनी ही बुरी हालत होती, इतने ही मजबूर होते तो हम यह चर्चा नहीं कर रहे होते। हम यह चर्चा इसलिए कर रहे हैं क्योंकि उम्मीद है अभी कि चीज़ें बदली जा सकती हैं, स्थितियाँ सुधारी जा सकती हैं।

प्र२: जो फिर यह कहता है, ‘नहीं-नहीं, मैं यह नहीं।’ वो भी तो फिर अहंकार ही है?

आचार्य: हाँ, होगा। क्या करना है।

प्र२: जैसे आपने कल कहा, ‘कोई बात नहीं, हर्ट होते हो, कोई बात नहीं, लाओ और हर्ट लाओ।’ जो यह कह रहा है, घोषणा कर रहा है वो भी तो अहंकार ही है?

आचार्य: अहंकार कभी यह नहीं कहता कि मुझे और चोट खानी है। अहंकार के बँधे-बँधाये ढर्रे हैं, अहंकार का पूरा पूर्वानुमान लगाया जा सकता है। दिखाना मुझे कौन है प्राकृतिक रूप से जो चोट आमंत्रित करता हो। दिखाना मुझे प्रकृति में क्या है जो स्वयं मिट जाने को आतुर हो। दिखाना मुझे पूरी प्रकृति में क्या है जो स्वयं से ज़्यादा मूल्य किसी और चीज़ को देता हो।

प्र२: प्रकृति में तो नहीं है पर किसी को पता है कि उसके मिटने में उसकी भलाई है।

आचार्य: चोट को नहीं पता है यह, यह बात चोट खाने वाले को पता है।

प्र२: किसी को तो पता ही है। तो फिर वो आपस में क्या दुश्मन हैं ये सब? वही तो है एक?

आचार्य: उसे पता हो सकता है, कोई आवश्यक नहीं है कि उसे पता ही हो। उसके मिटने में उसकी भलाई है, यह बात उसको पता हो सकती है। उसके लिए चुनाव उपलब्ध है न कि वो मिटा रहे कि बना रहे। ज़्यादातर तो हम यही देखते हैं कि मिटने में उसकी कोई रुचि नहीं होती, उसकी रुचि तो बने रहने में ही होती है।

प्र२: अब आप ऐसे (एकटक) देख रहे हो तो तब भी बीच में कोई है जो निकल कर आ रहा है, कौन है यह? कोई रेजिस्टेंस (अवरोध) सी है यह?

आचार्य: आने दो, उसका काम है आना। आने दो, उसको भी तो हक़ है। होगा कोई, क्या करना है। मैं यहाँ आ रहा था तो गाड़ी के रास्ते में न जाने कितनी गाड़ियाँ आयी थीं, एक हाथी भी आ गया था, कुत्ते भी आते थे बीच में। मैं गाड़ियों का नम्बर थोड़े ही नोट कर रहा था, कर रहा था क्या? तो बीच वाले का पता करना हमेशा ज़रूरी नहीं होता। पहली कोशिश तो यही करनी चाहिए कि बीच वाले को छोड़ो, आगे निकालो।

प्र१: यह कर सकते हैं कि उससे नाता ही तोड़ लें? जो करता है करे।

आचार्य: सही जगह नाता अगर बैठा हुआ है तो बीच वाला नाता अपनेआप टूटेगा न।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
Comments
Categories