कुसंगति कैसे दूर करें?

Acharya Prashant

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कुसंगति कैसे दूर करें?
पहली कुसंगति आंतरिक होती है। मन ऐसा कुसंगी है जिसे बाहर कुसंग नहीं खोजना पड़ता। मन को अगर मन का साथ मिल जाए तो इससे बड़ा कुसंग नहीं। बाहर का कुसंग हटाना आसान है, पर भीतर वाला कुसंग, जहाँ आदमी अपने ही विचारों में फँसा है, "मैं हूँ और मेरे विचार हैं" - इससे बड़ी कुसंगति क्या हो सकती है? आंतरिक कुसंगति न हो तो बाहर का कुसंग कुछ नहीं कर सकता। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मन को कुसंगति से दूर रखने का क्या तरीक़ा है?

आचार्य प्रशांत: एक तो ये है ही कि मन को सफ़ाई में रखोगे तो सफ़ाई में रहेगा और कीचड़ में रखोगे तो कीचड़ में रहेगा। आप मन को कीचड़ में न भी रखिए, आप कहिए कि मैं किसी से मिलती-जुलती नहीं हूँ, मैं तो अकेले रहती हूँ, तो मन वहाँ भी कीचड़ ढूँढ़ ही लेता है। क्योंकि बहुत सारी कीचड़ तो मन ने पहले से ही सोख रखी होती है अपने भीतर।

तो भले ही आदमी अपना जीवन ऐसा कर ले कि बहुत सामाजिक न हो, बहुत लोगों से मिलता-जुलता न हो, अकेले भी रहता हो, लेकिन अकेलेपन में भी भीतर तो कीचड़ है न। मन उसी को बार-बार सोखता रहेगा, उसी की उल्टी करेगा, फिर उसी को सोखेगा फिर उसी की उल्टी करेगा, फिर उसी को सोखेगा।

निदान व समाधान तो सिर्फ़ एक है कि सार्थक काम में अपने आप को पूरी तरह से डुबो दो। क्योंकि कुसंगति बाहरी ही नहीं होती, पहली कुसंगति तो आंतरिक होती है।

मांसाहारी मानवा, प्रत्यक्ष राक्षस अंग। ताकि संगति न करो, पढ़त भजन में भंग।।

प्रश्नकर्ता: अपनी कुसंगति मत करो।

आचार्य प्रशांत: पहली कुसंगति तो आंतरिक होती है। मन ऐसा कुसंगी है जिसे बाहर कुसंग नहीं खोजना पड़ता। मन को अगर मन का साथ मिल जाए तो इससे बड़ा कुसंग दूसरा नहीं है। (मुस्कुराते हुए) मैं दोहराता हूँ इसको — मन को संसार का साथ भी नहीं चाहिए, मन को तो बस अगर मन का साथ मिल गया तो इससे बड़ा कुसंग कोई दूसरा नहीं है। असल में ये जो बाहर वाला कुसंग होता है उसका हटना तो आसान होता है।

प्रश्नकर्ता: ये और सूक्ष्म है।

आचार्य प्रशांत: ये जो भीतर वाला कुसंग होता है, जहाँ आदमी अपने ही विचारों की कुसंगति में फँसा हुआ है कि मैं हूँ और मेरे विचार हैं, इससे बड़ी कुसंगति क्या हो सकती है? जहाँ आदमी अपनी ही कुसंगति में है, उससे बड़ा कुसंग दूसरा नहीं हो सकता। और अगर आंतरिक कुसंगति नहीं है तो फिर बाहर का कुसंग कोई नुक़सान करता नहीं।

जे रहीम उत्तम प्रकृति का करी सकत कुसंग। चंदन विष व्यापत नहीं लिपटे रहत भुजंग।।

अगर अन्दर विचारों की कुसंगति नहीं है, तो बाहर अगर साँप भी आपसे लिपटे रहें, तो आपका कुछ बिगाड़ नहीं सकते।

पहली कुसंगति तो भीतरी है। इसका मतलब कि जो सुसंग है या सत्संग है, वो भी प्रथमतया तो भीतरी ही होगा। इसका मतलब सबसे पहले तो जो भीतर परमात्मा है उसकी संगति करनी पड़ेगी, फिर बाहर जो हम संगति करेंगे वो अच्छी संगति होगी। असली सत्संग या असली सुसंग भीतरी है। वो तभी होगा जब आप अपनेआप को किसी भगवत्कार्य में डुबो दें।

ये देखिए अजीब सी बात है न, दुनिया में किसी में महत्वाकांक्षा जगानी हो तो कितना आसान होता है। किसी को ये कहना हो कि भाई, तुम्हारी पाँच दुकानें हैं, छठी दुकान अब तुम उस नये इलाके में खोल लो। तो कितना आसान होता है! आपको उसको बस थोड़ा सा व्यापार समझाना है, ज़रा लालच दिखाना है, काम हो जाएगा। पाँच के बाद छठी दुकान खुल जाएगी। और वो बात बड़ी ज़ाहिर भी लगती है। ऐसा लगता है कि ठीक ही तो है, यही तो होना चाहिए। तरक़्क़ी का मतलब यही तो है कि पाँच दुकानें हैं, छठी खुल गयी।

लेकिन भगवत्कार्य में, सीधे-सीधे कहें तो राइट एक्शन (सही कर्म) में प्रवेश करना कितना मुश्किल हो जाता है, छठी दुकान खोलना कितना आसान है।

एक होता है छोटा डर और एक होता है बड़ा डर। दुकान खोलने में छोटा डर होता है — ग़ौर से समझिएगा — दुकान खोलने में छोटा डर होता है असफलता का और हार का कि कहीं व्यापार में घाटा न हो जाए। अहंकार छोटा डर झेलने के लिए तैयार हो जाता है। छोटा डर है न?

बड़ा डर होता है मिट जाने का — छोटा डर होता है हार जाने का, बड़ा डर होता है मिट जाने का। जब आप संसार में महत्वाकांक्षी हो रहे होते हैं, तो छोटा डर सताता है कि जो कर रहा हूँ कहीं उसमें हार न मिले। और जब आप भगवान की आकांक्षा करते हैं, तो आपको फिर बड़ा डर रोकता है कि कहीं ये काम करके मैं मिट न जाऊँ। तो आलस नहीं है, बड़ा डर है।

समझ रही हैं?

इसीलिए किसी की दुकान खुलवाना आसान है, पर किसी को किसी दैवीय मिशन में लगाना मुश्किल है। क्योंकि दुकान खोलने में ख़तरा छोटा है। अधिक-से-अधिक क्या होगा? घाटा हो जाएगा, दुकान बन्द हो जाएगी, थोड़ी प्रतिष्ठा गिरेगी, थोड़ा रुपये-पैसे का नुक़सान होगा। इतना ही तो होगा अधिक-से-अधिक। लेकिन भगवान के काम में अगर लग गये तो मिटना पड़ेगा, वो बड़ा डर है। इंसान इससे बहुत डरता है।

तो इसीलिए लोग तैयार हो जाते हैं स्पेस (अंतरिक्ष) में जाने को। इंसान चाँद पर पहुँच गया, एस्ट्रोनॉट (अंतरिक्ष यात्री) मंगलग्रह पहुँच गये, ये सब डरावनी बातें ही तो हैं, पर ये फिर भी छोटे डर हैं। इंसान समुद्र की गहराइयों में चला जाता है, एवरेस्ट पर चढ़ जाता है, कैसे-कैसे ख़तरनाक काम कर लेता है। वो काम बड़े ख़तरनाक हैं, फिर भी उनमें सिर्फ़ छोटा डर है हार का। अधिक-से-अधिक शारीरिक मृत्यु का डर है।

लेकिन भगवत्कार्य में लगना महामृत्यु का डर है। वो बहुत बड़ा डर है कि अगर इस मिशन में लग गये तो मिटना पड़ेगा। अभी आपको सम्बन्धियों और मित्रों के डर ने एक पहचान दे रखी है न, तभी तो आप उनकी परवाह कर रही हैं कि अगर मैंने ये बात ज़ाहिर कर दी कि मेरे अतीत में क्या था, तो उनको थोड़ा बुरा लग सकता है या थोड़ा भूचाल आ सकता है। इस बात से आपकी पहचान क़ायम है। इस बात से एक मित्र के रूप में और एक सम्बन्धी के रूप में आपकी आइडेंटिटी (पहचान) क़ायम है।

आप जब लगेंगी महामिशन में और आप पूरा उद्घाटन कर देंगी कि देखो ऐसा-ऐसा था, तो वो आइडेंटिटी ज़रा घुलेगी, वो महामृत्यु की बात है। मन महामृत्यु से बहुत डरता है। ऐसा इसलिए है, आलस नहीं है। मैंने लोगों को थर-थर काँपते देखा है सेशन में घुसने से पहले। मैंने यहाँ तक देखा है कि लोग आये हैं, बाहर खड़े रह गये हैं। दो घंटे का सेशन है, ख़त्म हो गया है, वो आये ही थे सत्र में शिरकत करने और खड़े बाहर रह गये। कोई नीचे गाड़ी में बैठा रह जाता है, ऊपर नहीं आ पाता।

और ये तो तमाम होता था ऋषिकेश में, धर्मशाला में, यहाँ भी। लोग स्टॉल्स पर मिलेंगे, कसम खाकर कहेंगे कि आना है। ये नहीं कि किसी और की ख़ातिर आना है, अपनी ही ख़ातिर आना है और आते हुए उनके पाँव काँप जाएँगे। महामृत्यु का डर पकड़ लेता है।

असल में सत्संग से या गुरु से जो कोई दूरी बनाये, उसे और कोई डर होता ही नहीं, वो महामृत्यु का ही डर है कि अगर इनके और क़रीब आये तो फिर शायद कभी लौटना ही न हो। अगर अब ज़रा सा और आगे बढ़े तो हमेशा के लिए खिंच जाएँगे। आख़िरी समर्पण हो जाएगा। इसके आगे फिर जो होगा उस पर हमारा नियन्त्रण नहीं रह जाएगा।

इसीलिए गुरु को भी कुछ और बना लेना आसान होता है। गुरु को आप बेटा बना लो, अब महामृत्यु का डर नहीं है। वो बेटा है न, बेटे से कौन डरता है और बेटे से क्या हानि हो सकती है। गुरु को आप मित्र बना लो या पति बना लो, अब हानि नहीं हो सकती न। मैं जिस महामिशन की बात कर रहा हूँ वो गुरु जैसा ही है। सत्य तो साहसियों के लिए ही है। जो महामृत्यु से डरते हों, उनको क्या मिलेगा! उनकी सज़ा यही है कि झूठ में जियेंगे।

जिसे किसी को कुछ समझाना हो, उसका सम्मानित होना बहुत ज़रूरी है। इसलिए नहीं कि वो सम्मान का भूखा है, बल्कि इसलिए क्योंकि अगर आप उसे सम्मान नहीं दोगे, तो आप उसकी बात भी नहीं सुन पाओगे। ये जो कथाएँ थीं, तमाम तरीक़े के रिवाज़ बनाये गये थे कि गुरु से नीचे आसन पर बैठो, गुरु को देखते ही प्रणाम करो या चरण स्पर्श करो या अन्य कई बातें। कोई भी पाठ शुरू करो तो पहले बोलो, ‘श्री गुरुवे नमः।’ सम्मान का खुला प्रदर्शन करने की प्रथा थी। वो इसीलिए थी ताकि तुम्हें भी याद रहे कि इस व्यक्ति की बातें सुननी हैं। वरना वो बातें कितनी भी क़ीमती हों, तुम सुनोगे ही नहीं।

अगर अभी आपने मन को ये कह रखा है कि इस व्यक्ति में ऐसा कुछ नहीं है जो सुनने के क़ाबिल हो, तो उस व्यक्ति से ऊँची-से-ऊँची बात भी अगर आ रही होगी, तो आप सुन ही नहीं पाओगे न। लेकिन आपका मान बढ़ेगा और जिस रुप में आप उसे देखते थे वो रूप बदलेगा। सम्मान सत्य के लिए दरवाज़ा बनता है। सम्मान सत्य का द्वार है। आपने जैसे ही गुरु को सम्मान दिया, तभी तो आपने गुरु के लिए दरवाज़ा खोला कि आइए, हम आपको सम्मान देते हैं, अब आपकी बात हमारे भीतर प्रवेश कर पाएगी, द्वार खुल गया।

मैंने भी आरम्भिक दिनों में ये खूब रखा कि नहीं-नहीं, सम्मान इत्यादि व्यर्थ की बातें हैं, यूँ ही बैठो और सुनो जैसे कि हम दोनों मित्रवत् चर्चा कर रहे हों। पर मैंने यही पाया कि वो मित्रवत् चर्चा फिर कोई असर नहीं दिखा पाती, सामने वाले के दिल में घुस ही नहीं पाती। क्योंकि द्वार नहीं खुलता न, कान नहीं खुलते। श्रवण, लिसनिंग खुलती ही नहीं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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