सहज जीवन जीने के सूत्र

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सहज जीवन जीने के सूत्र

प्रश्नकर्ता: मेरा प्रश्न नोट्स में से है: "बीइंग अवेयर ऑफ़ डिमांड्स ऑफ बॉडी, बीइंग अवेयर ऑफ़ स्ट्रे थॉट्स, दिस इज़ इंटेलिजेंस। इट ऑकर्स थॉट् इज़ एन इनेडिक्वेट रिस्पांस टू स्टिमुलस। एन एडीक्वेट रिस्पांस इज स्पॉनटेनिटी।" ("शरीर की माँगों के प्रति जागरूक होना, आवारा विचारों से अवगत होना, यह बुद्धिमत्ता है। ऐसा होता है कि विचार उत्तेजना के लिए एक अपर्याप्त प्रतिक्रिया है। सहजता एक पर्याप्त प्रतिक्रिया है।") हमने देखा था कि हम ख़ुद भी ख़ुद को पास्ट में ही देख रहे हैं तो स्पॉनटेनिटी (सहजता) को कैसे समझें यहाँ पर?

आचार्य प्रशांत: स्पॉनटेनिटी का यही अर्थ होता है जो एकदम सीधा है, स्पष्ट ही है, उसको स्वीकार कर लेना, सिर झुका देना। बीच में मान्यता नहीं ले आना।

उदाहरण के लिए, आप किसी धार्मिक जगह पर किसी जानवर का क़त्ल होता देखें। बच्चा भी उसको देखकर रो पड़ेगा और बच्चा भी तुरंत बोल देगा कुछ ग़लत हो रहा है। लेकिन जो धार्मिक-मज़हबी आदमी होता है, उसे लगता ही नहीं कुछ ग़लत हो रहा है, क्यों? क्योंकि उसके और घटना के बीच में एक पूर्व निर्धारित विचार आ गया है। वह विचार नहीं आया होता तो वो व्यक्ति तत्काल बोल देता कि यह चीज़ ग़लत है। वह विचार क्या बोल रहा है? विचार यह बोल रहा है कि यह जो यहाँ पर कृत्य चल रहा है, क़ुर्बानी दी जा रही है, यह एक धार्मिक चीज़ है।

इस विचार ने उसको जो स्पष्ट था, सामने था, बिलकुल ऑब्वियस , प्रत्यक्ष, उसको देखने से भी वंचित कर दिया। है तो चीज़ आँखों के सामने पर अब दिखायी नहीं दे रही है क्योंकि मान्यता का पर्दा पड़ गया है।

आपको बात समझ में आ रही है?

प्र: फिर तो स्पॉनटेनिटी भी सबके साथ नहीं होगी न? वो भी कंडीशनल हो जाएगी। जिसके ऊपर मान्यता का पर्दा पड़ा है उसको तो नहीं विचार आएगा।

आचार्य प्रशांत: हाँ, उसको कैसे आएगा? तो इसीलिए तो इस मान्यता के पर्दे को बार-बार चुनौती देने का ही नाम अध्यात्म है; बार-बार, बार-बार।

वो मान्यता हो सकती है, वो कुछ और हो सकता है। वो राजा की कहानी सुनी है न? राजा को कुछ लोगों ने बेवकूफ़ बनाया। वो बोले आपके लिए बड़ा हम झीना वस्त्र सिल रहे हैं। और उससे पैसा लेते रहे, लेते रहे, लेते रहे। बोले वो इतना झीना होगा, इतना झीना होगा कि आज तक दुनिया में बनाया नहीं गया।

बाद में कई महीनों बाद वो राजा के पास आये और बोले अब वो तैयार हो गया है आपके लिए, आप पहनें उसको। वो था कुछ नहीं, उसके सारे कपड़े उतार दिये, उसको नंगा कर दिया। बोले, ‘अब आपको तो पूरी प्रजा के सामने अपनी प्रदर्शनी लगानी चाहिए। लोग देखें कि राजा के पास यह कितना वैभव वाला उत्कृष्ट अपूर्व वस्त्र है।‘ साथ में उन्होंने शर्त और जोड़ दी थी, बोले कि आपको हम ये बात बताये देते हैं उसको पकड़ लीजिएगा। जो एकदम पापी लोग होते हैं उनको ये वस्त्र दिखायी नहीं देता।

अब वो सब जो जितने थे दर्जी, वो भी रहे होंगे धार्मिक बन्दे ही। तो उन्होंने धर्म की पूरी हेकड़ी, धर्म की पूरी अथॉरिटी के साथ ये बात कही होगी कि ये जो वस्त्र है ये पापियों को दिखायी नहीं देता। तो अब राजा भी कैसे कहे कि नहीं दिखायी दे रहा, तो राजा ने भी कहा ठीक है। उन्होंने कहा चलिए आप प्रजा के सामने नुमाइश लगाइए अपनी। राजा ने कहा वो भी ठीक है। राजा बोल रहा है, ‘अहा! क्या बढ़िया, ख़ूबसूरत है।‘ जितने मंत्री-पार्षद थे वो भी जान गये थे कि जो पापी है उसको नहीं दिखायी देगा तो वो भी बोल रहे हैं कि क्या ख़ूबसूरत है! प्रजा के सामने निकल रहा है, प्रजा में सब लोग एक-दूसरे को देख-देखकर के तारीफों के पुलिंदे बाँध रहे हैं ‘क्या बात है! क्या बात है!’

बच्चा था एक छोटा सा। वो चिल्ला पड़ा, "हेहे नंगा, ये तो नंगा है।"

तो जब मान्यता सामने आ जाती है न, तो एकदम जो प्रत्यक्ष है आदमी उसको भी नहीं देख पाता एकदम नहीं दिखायी देता। और जो नहीं है वो दिखायी देने लग जाता है।

आप यकीन रखिए, बहुत सारे ऐसे लोग रहे होंगे जिन्हें सचमुच लग रहा था कि राजा ने कुछ पहन रखा है। इसी को तो माया की विक्षेप शक्ति कहते हैं। वो आपको वो दिखा देती है जो है ही नहीं। और जो है बिलकुल, वो नहीं देखने देती। तो आप मान्यता को ही माया कह सकते हैं एक तरह से।

जिस स्पॉनटेनिटी की बात यहाँ कृष्णमूर्ति कर रहे हैं वो वही है, आँखों के आगे से माया का पर्दा हटा करके सहज अवलोकन। सब दिख जाता है तब, कोई दिक्क़त नहीं आती।

एक फ़िल्म आयी थी। तो उसमें चार-पाँच बैचमेट्स थे। तो उस कहानी की शुरुआत हुई थी किसी कॉलेज के कैंपस से। तो उसमें चार-पाँच बैचमेट्स थे। जिसमें से चार पुरुष थे, एक महिला थी, जो कैंपस में लड़के-लड़कियाँ हुआ करते थे। फिर कहानी आगे बढ़ती है, उनके घर का एक दृश्य दिखाया जाता है जिसमें जो चारों बैचमेट्स हैं, जो लड़के हैं वो अपना सोफ़े पर बैठे हुए हैं। वो कुछ बातें कर रहे हैं, कुछ विचार-विमर्श, हँसी-ठट्ठा कर रहे हैं। मुझे ठीक से याद नहीं, कुछ बातें कर कर रहे हैं, सोफ़े पर बैठ गये हैं। और उन्हीं की बैचमेट् जो लड़की है, वो पीछे खड़े हो करके कुछ चाय-पानी, खाना वग़ैरा बना रही है।

तो आँखों से मान्यता का पर्दा हटाइए, तो उसको देखते ही मैंने कहा ये क्या हो रहा है। ये चार बैठे किस आधार पर हैं और वो अकेली खड़ी किस आधार पर है? तो लोगों को ताज्जुब हुआ। लोगों ने कहा, पर वो तो घर की महिला है, गृहिणी है। अब ये सब हैं तो वही तो चाय-पानी बनायेगी न।

मान्यता जब आ जाती है तो आपको जो बहुत विकृत होता है वो भी अजीब नहीं लगता। वो चीज़ बहुत-बहुत विकृत हो सकती है पर नहीं लगती अजीब, आप नहीं कोई विरोध करते। आपके भीतर किसी भी तरह के आश्चर्य की ज़रा सी भी लहर नहीं उठती।

आप सती प्रथा पर जाइए। एक औरत जलायी जा रही है। किसी को कुछ अजीब थोड़ी लग रहा है। लग रहा है? स्पॉनटेनिटी का गला घोंट दिया न? कोई ऐसा व्यक्ति जो कंडिशन्ड (संस्कारित) न हो उस बात को सही मानने के लिए, जिसको आपने वो मान्यता न पहना रखी हो, आप उसको लेकर के आइए वो चिल्ला उठेगा, ‘ये क्या कर रहे हो?’ पर वहाँ जो लोग खड़े हैं सौ, दो सौ, हो सकता है पाँच सौ लोग खड़े हों, किसी को कुछ नहीं लग रहा, कुछ भी नहीं।

हिटलर ने कितने मार दिये। ऑस्वित्ज सुना है? लाखों में। लाखों में भी नहीं, मिलियंस में मार दिये। किसी को कुछ अजीब लग ही नहीं रहा था क्योंकि मान्यता थी कि ये जो यहूदी लोग होते हैं न, ये बड़े ख़राब होते हैं। इन्होंने ही जर्मन राष्ट्र का ख़ून पी लिया और ये अनार्य भी हैं, हटाओ इनको।

जब मान्यता सामने आ जाती है तो एकदम जो वीभत्स और विकृत बात होती है वो भी आपको साधारण लगने लगती है, स्वीकार्य लगने लगती है।

ये हो जाता है। तो वही मैं पूछ रहा था आपसे कि कुछ मान्यता का पर्दा हटा। जिन चीज़ों को आप नॉर्मल (सामान्य) समझते थे वो थोड़ी एब्नार्मल (असामान्य) दिखनी शुरू हुईं कि नहीं?

और उल्टा होगा, देखिए, आँखों पर मान्यता का पर्दा होगा तो जो बात एकदम सहज होगी, वो आपको बड़ी अजीब लगेगी, बहुत अजीब लगेगी। कोई सीधी बात बोलेगा आप कहेंगे ‘कैसी बात बोल दी, क्या बोल दी?’ सीधी सी तो बात थी, उसने क्या बोल दी। और जो एकदम टेढ़ा-टपरा कहीं कार्यक्रम चल रहा होगा एकदम विद्रूप-वीभत्स, वो आपको लगेगा ये तो ठीक ही है। इसमें क्या है? ये तो ठीक ही है न! ये तो ठीक ही है!

एक इंसान दूसरे इंसान को छू देगा तो अपवित्र हो जाएगा। किसी को आपत्ति हुई इससे सैकड़ों सालों तक? इस बात से किसी को आपत्ति हो रही थी क्या सैकड़ों सालों तक? सबको लग रहा था ऐसा तो होता ही है! ये तो ठीक ही है! ये तो होता ही है! इसमें ग़लत क्या है? आप किसी आम आदमी से बात करेंगे, वो कहेगा, ‘तुम्हीं एकदम नये आये हो? ये तो चल रहा है सदियों से, इसमें ग़लत क्या है?’

और ये जो सत्य-निष्ठा होती है "द कमिटमेंट टू ट्रुथ ओनली", वो आपसे कहती है मुझे सुनना ही नहीं है कि कितने हज़ार सालों से चल रहा है, कौन-कौन बड़े लोग इस बात को मान गये। मुझे समझाओ, और मैं कोई पूर्वाग्रहग्रस्त नहीं हूँ, मैं समझने को तैयार बैठा हूँ। बिलकुल हो सकता है कि आप जो कर रहे हों वही ठीक हो। और आप जो कर रहे हैं अगर वही ठीक है तो मैं सिर झुकाकर मान भी लूँगा, लेकिन समझा तो दो भाई। समझा तो दो!

इस बात को अच्छे से समझिएगा। आपको जो कुछ भी नॉर्मल-एब्नार्मल लगता है वो सिर्फ़ और सिर्फ़ आपकी मानसिक स्थिति पर निर्भर करता है। माने आपको कौनसे संस्कार पकड़ा दिये गये हैं, आपने किन बिलीफ (विश्वास) को, किन धारणाओं को पकड़ लिया है, वो चीज़ आपको सामान्य या असामान्य लगने लगती है। इसलिए मैं बार-बार बोला करता हूँ कॉमन सेंस (व्यवहारिक बुद्धि) से बचकर रहिए, कॉमन सेंस से बचकर रहिए।

आप आज ट्रेन में बैठते हैं तो क्या आप ये करते हैं कि आपके बगल में जो बैठा हो पहले उसकी जाति पूछें? भई आपको आपका बर्थ नंबर बता दिया गया है, उसको बता दिया, आप बगल में बैठ जाते हैं। लेकिन आपको पता है रेलवेज जब एकदम नयी-नयी आयी थी, तब इस बात से बड़ा बवाल मचा था कि पंडित जी बैठे होंगे, उनके बगल में क्या कोई भी जाकर बैठ जायेगा? तब कहा गया था कि ये हिन्दू धर्म की रीढ़ तोड़ी जा रही है रेलवेज के द्वारा। क्योंकि वहाँ यह तो बताया ही नहीं जा रहा कि आपके बगल में कौन बैठ रहा है। तो ऐसे कैसे हो जायेगा कि कोई भी किसी के भी बगल बैठ जाये?

आज आप ये सुन रहे हो तो देखो आप कैसी इस पर मुस्कान दे रहे हो। आपको यह बात कितनी एब्नार्मल लग रही है। पर तब यह बात लोगों को नार्मल लगी थी। तो यह नार्मल-एब्नार्मल के चक्कर में मत पड़िए।

अगर डेढ़-दो सौ साल पहले की बात आज आपको एब्नॉर्मल लग रही है तो बिलकुल हो सकता है कि आज आपको बहुत कुछ जो नार्मल लगता हो वो नार्मल नहीं हो। बस आपको दिखायी नहीं पड़ रहा है क्योंकि आँखों पर मान्यता चढ़ी हुई है, संस्कार चढ़े हुए हैं। और संस्कार का अर्थ कोई धार्मिक नहीं होता है। लोग सोचते हैं संस्कार से आशय है वो जो सोलह संस्कार होते हैं और आठ उपसंस्कार होते हैं उनकी बात हो रही है। हम कंडीशनिंग की बात कर रहे हैं। हम कंडीशनिंग की बात कर रहे हैं।

एकदम चौंक जाइएगा और कहिएगा कुछ गड़बड़ हुआ है जहाँ कोई आपसे कुछ पूछे, मान लीजिए कोई बच्चा ही छोटा, कोई सवाल पूछे और आप अचकचा जायें। वो कुछ पूछे और आपके पास बस यही उत्तर हो, "पर ये तो ऑब्वियस है।" आपके पास कोई उत्तर नहीं है, बस आपने कह दिया "ये तो ऑब्वियस है न" या फिर "प..प…पर..ऐसा तो होता ही है न।" अगर आप पायें कि ऐसा कुछ हो रहा है तो इसका मतलब है बहुत गड़बड़ चल रही है। इसका मतलब है आप किसी चीज़ में बहुत गहराई से विश्वास करने लगे हैं बिना उस चीज़ को जाने। और जब किसी ने पूछ लिया, किसी बच्चे ने पूछ लिया तो आपको एकदम ताज्जुब हो गया। आप बगलें झाँकने लग गये। और आपके पास एक ही जवाब बचा है, क्या? "नहीं पर ये तो ऑब्वियस है न, ऑब्वियस है, ऑब्वियस है।"

ऑब्वियस क्या होता है? ऑब्वियस क्या होता है, समझा दो। कैसे ऑब्वियस है? जो आज ऑब्वियस लगता है वो कल ऑब्वियस नहीं होगा। जो भारत में ऑब्वियस है वो अफ्रीका में ऑब्वियस नहीं है। भारत में ही एक राज्य में जो ऑब्वियस है वो दूसरे राज्य में ऑब्वियस नहीं है। तो ये ऑब्वियस क्या होता है?

सत्य को पूजना है न, या अपनी मान्यताओं को पूजना है? बोल दो। ये अच्छे से चुनाव कर लीजिए, सच्चाई सर्वोपरि है या आपके विश्वास। और विश्वास निन्यानवे प्रतिशत मामलों में आपको सच्चाई से विमुख ही करते हैं।

सच्चाई विश्वास की विषय-वस्तु नहीं होती। सत्य कभी विश्वास से नहीं पाया गया, विवेक से पाया गया है।

तो ये एक तरह का इसमें वरीयता क्रम है – विश्वास, विचार, विवेक। सबसे नीचे आता है विश्वास; ‘बस हमें तो विश्वास है साहब, विश्वास है।‘ उससे ऊपर आता है विचार। और विचार से भी ऊपर आता है सहज विवेक। क्योंकि विचार भी ज़बरदस्त तरीक़े से कंडिशन्ड हो सकता है, संस्कारित हो सकता है। आपको जिस तरह की घुट्टी पिला दी गयी है आपको वैसे ही विचार आने भी शुरू हो जाते हैं। तो विचार, विश्वास से बेहतर तो है पर बहुत बेहतर नहीं है। सबसे ऊपर कौन है? विवेक, डिस्क्रिशन , जहाँ पर आप जानना ही चाहते हो।

YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=sMi2EPLZ3-Q&t=385s

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