कैसे पता चले कि साधक सही राह पर है? || आचार्य प्रशांत, हंस गीता पर (2020)

Acharya Prashant

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कैसे पता चले कि साधक सही राह पर है? || आचार्य प्रशांत, हंस गीता पर (2020)

अहंकारकृतं बन्धमात्मनोअर्थ‌ विपर्ययम्। विद्वान निर्विद्घ संसारचिन्तां तुर्ये स्थितस्त्यजेत्।। ~हंस गीता (श्लोक-२९)

आचार्य प्रशांत: हंस गीता, श्लोक क्रमांक उन्तीस, यह बन्धन अहंकार की ही रचना है और यही आत्मा के परिपूर्णतम सत्य, अखण्डज्ञान और परमानन्दस्वरूप को छिपा देता है। इस बात को सुनकर विरक्त हो जाए और अपने तीन अवस्थाओं में अनुगत तुरीयस्वरूप में होकर संसार की चिन्ता को छोड़ दे।

कह रहे हैं कि श्रीकृष्ण इस श्लोक में कहते हैं, ‘संसार में आत्मा को छिपाने वाले सारे बन्धन अहंकार की ही रचना हैं। जीवन में यह बन्धन बढ़ रहे हैं या काम हो रहे हैं यह जानने के लिए कसौटी क्या है? और एक साधक अपने रोजमर्रा के जीवन का अवलोकन किन गुणों के आधार पर करे, जिससे उसे पता चले कि वह सही राह पर है या नहीं?’

दुख ही कसौटी है। सारे अध्यात्म का कुल एक लक्ष्य है — तुम्हें दुख से मुक्ति दिलाना। बन्धन भी बुरे इसीलिए हैं क्योंकि वह तुमको दुख देते हैं, तो आप जीवन में आध्यात्मिक रूप से कितने उन्नत हैं, उसको जानने का सीधा तरीका यही है कि देख लीजिए कि तड़प, बेचैनी, दुख यह सब जीवन में किस परिमाण में है।

लेकिन यह देखना कई बार इतना सहज नहीं होता, वज़ह यह है कि हमने भाषा की चालाकी कर रखी है, हमने दुख को बड़े सुसज्जित, आभूषित नाम दे रखे हैं। हम दुख को दुख मानते नहीं, दुख के साथ हमने ऐसी धारणाएँ जोड़ दी हैं जो दुख को करीब-करीब आवश्यक घोषित कर देती हैं। दुख के साथ एक गौरव जोड़ देती हैं और गौरव में सुख है। तो दुख के गौरव के नीचे दुख दब जाता है।

इसलिए हमें पता नहीं लगने पाता कि हम कितने दुख में हैं। व्यक्ति कितने दुख में है यह जानने के लिए उसे बहुत ईमानदार होना होगा, उसे अपनेआप से पूछना पड़ेगा, मैं जो सोच रहा हूँ, मैं जो कर रहा हूँ, मैं जैसे जी रहा हूँ; इसमें मजबूरी कितनी निहित है? अगर मेरे ऊपर कोई बाध्यता न हो, कोई ज़ोर, कोई बल न हो, तो भी क्या मैं वैसे ही जिऊँगा जैसे मैं जी रहा हूँ।

सबसे बड़ी जो बाध्यता हमारे ऊपर होती है वह तो होती है समय की और स्थान की। समय की बाध्यता तो यह है कि आपको कुछ चाहिए और वह आपको एक साल, दो साल के बाद ही मिल सकता है और वो भी अगर आप मेहनत करें तो।

तो समय और स्थान की बाध्यता के साथ एक और तीसरी बाध्यता जोड़ दीजिए, संयोग की, कि जो मिलेगा आगे, बाद में मिलेगा वह भी पता नहीं कि मिलेगा या नहीं मिलेगा; संयोग बैठेगा तो मिलेगा। हो गयी न बाध्यता। आपका बस चलता तो आप अभी पा लेते न और निश्चित रूप से पाते, आप यह थोड़ी न कहते कि दो साल बाद मिले, वो भी पता नहीं मिले-न-मिले, क्या सम्भावना कितनी।

तो हर व्यक्ति के ऊपर समय की बाध्यता है, संयोग की बाध्यता है और स्थान की बाध्यता है। आप कितना भी चाह लो, आप इस वक्त उस जगह पर नहीं हो जहाँ पर आप चाहते हो होना, और अगर आप उस जगह पर हो तो वह जगह वैसी नहीं है जैसा आप चाहते हो कि वह हो। ये स्थान की बाध्यता है।

अपनेआप से पूछिए कि अगर बाध्यताएँ न हों जीवन में, तो क्या सब समय, संयोग, स्थान आपके लिए वैसे ही हैं जैसे होने चाहिए? कि क्या आपके जीवन से कामनाएँ जा चुकी हैं? कामनाओं की मौजूदगी यह बताती है कि दुख है, क्यों? क्योंकि कामना हमेशा भविष्य के लिए होती है।

समय की मजबूरी न होती तो आप कामना को भविष्य पर क्यों डालते, आप अभी पूरी कर लेते न। जो व्यक्ति कह रहा है कि मेहनत करूँगा, तो दो दिन बाद पैसा कमाऊँगा, उसे कोई एतराज होगा क्या, अगर आज ही पैसा मिल जाए? वह तो मजबूरी में उसे पैसे की प्राप्ति को दो दिन बाद के लिए टालना पड़ रहा है। भई, मजबूरी है। उसे कोई एतराज होगा क्या कि उसे बिना मेहनत किए पैसा मिल जाए। उसे जो श्रम करना पड़ रहा है वह भी बस एक बाध्यता ही है।

तो कामनाओं की मौजूदगी ही बताती है कि जीवन में दुख है। आप अपनेआप से पूछ लीजिए कि भविष्य को लेकर के कितने अरमान हैं आपके पास, उससे आपको पता चल जाएगा। इसी तरीके से कामना का जो बड़ा रूप होता है वह है महत्वाकाँक्षा, ये बन जाऊँ, वो पा लूँ, ऐसा कर लूँ, वैसा कर लूँ। कई बार उसको हम सुन्दर बनाने के लिए और सम्मानीय बनाने के लिए एम्बीशन (महत्वाकांक्षा) न बोलकर विजन (दृष्टिकोण) बोल देते हैं।

यही सब धोखे तो ख़ुद के साथ कर करके हम छिपा ले जाते हैं बात को, कि हम भीतर से तड़प रहे हैं। यह सब चीज़ें हैं क्या आपके साथ? पूछिए अपनेआप से— क्या आपकी ज़िन्दगी में ऐसी चीज़ें हैं जो आपको चैन से सोने भी नहीं दे रही हैं? अगर हैं तो जान लीजिए कि आप दुख में हैं।

पूछिए कि क्या आपके पास कुछ ऐसा है जो अगर छिन जाए तो आपको मृत्यु तुल्य कष्ट होगा? अगर है तो फिर देख लीजिए अपनी हालत। पूछिए अपनेआप से परिस्थितियों में क्या कुछ भी ऐसा है, जो बन जाए या बिगड़ जाए तो आप पर प्रभाव पड़ेगा? अगर है तो आप दुख में हैं।

यही सब तरीके होते हैं दुख को जाँचने के। मन अगर अभी पूरी तरीके से अपने केन्द्र पर अवस्थित नहीं हुआ, आत्मस्थ नहीं हुआ तो मन अभी असुरक्षित है, दुख उस पर लगातार आक्रमण करता रहेगा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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