गुणानुरक्त्तं व्यसनाय जन्तो: क्षेमाय नैर्गुण्य मथो मन: स्यात्। यथा प्रदीपो घृत्वर्तिमश्रन् शिखा: सधूमा भजती ह्यन्यदा स्वम्।। पदं तथा गुणकर्मानुबद्धं वृत्तीर्मन: श्रयतेऽन्यत्र तत्त्वम्।।
विषयासक्त मन जीव को संसार-संकट में डाल देता है विषयहीन होने पर वही उसे शान्ति में मोक्ष पद प्राप्त करा देता है। जिस प्रकार घी से भीगी हुई बत्ती को खाने वाले दीपक से तो धुएँ वाली शिखा निकलती रहती है और जब घी समाप्त हो जाता है तब वह अपने कारण अग्नि तत्वों में लीन हो जाता है।
~ परमहंस गीता, अध्याय दो श्लोक 8
प्रश्नकर्ता: मन तो दुनिया में आसक्त होता ही रहता है और इसी कारण परेशान रहता है। और श्लोक कह रहा है कि विषयहीन होने पर मोक्ष प्राप्ति होती है। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि आसक्ति हो ही न? मन विषयहीन कैसे बने? मन का घी कैसे खत्म होगा? क्योंकि बिना तपे व धुआँ किये क्या इस अग्नि को शान्त किया जा सकता है?
आचार्य प्रशांत: विषयहीन सीधे-सीधे नहीं हो पाओगे भाई। कह रहे हैं कि मन विषयों में आसक्त रहता है और इसीलिए परेशान रहता है। और मोक्ष की प्राप्ति तो विषयहीन होने पर होती है तो हमें बता दीजिए कि कैसे विषयहीन हो जायें? विषयहीन नहीं हो पाओगे सीधे-सीधे। विषयहीन होने का तरीका ये है कि मन की विषयों से जो आसक्ति है, उसी का प्रयोग कर लो। सकारात्मक प्रयोग कर लो।
मन को किसी-न-किसी के पास जाकर तो बैठना ही है। यही कहलाती हैं न विषयों से आसक्ति? मन को कुछ चाहिए। किसी न किसी से तो मन को जाकर जुड़ ही जाना है। तुम सही जगह जाकर जुड़ जाओ। सही जगह जाकर के जुड़ोगे तो वो तुमको सब गलत जगहों से टूटने पर, हटने पर, कटने पर विवश कर देगा। और जब तुमको सब व्यर्थ जगहों से हटा देगा वो सही विषय, तो फिर वो स्वयं भी अदृश्य हो जाएगा, मिट जाएगा। ये सही विषय की निशानी होती है। तो विषयहीन होने का ये तरीका होता है।
ये एक सीधा तरीका नहीं है। ये टेढ़ा तरीका है। पर इस टेढ़े तरीके के अलावा टेढ़े मन के पार जाने का और कोई साधन नहीं है। मन कहता है न बार-बार, ‘बाहर जाना है! बाहर जाना है! बाहर जाना है! कोई तो चाहिए! कोई तो चाहिए! कोई तो चाहिए!’ तो जब मन बोले कोई तो चाहिए तो मन को कुछ ऐसा, कोई ऐसा लाकर के दे दो जो मन की चाहने की वृत्ति पर ही प्रकाश डाल दे। बात समझ में आ रही है?
वो ऐसा ही है जैसे कि कोई बच्चा है छोटा। और उसको बार-बार बाहर घूमने की आदत लग गयी है। घूमने की आदत इसलिए लग गयी है क्योंकि बाहर बाज़ार है और बाज़ार में मीठा मिलता है। कभी टॉफी, चॉकलेट, मिठाई, ये सब वो अपना माँगता रहता है। कहता है, ‘बाहर चलो! बाहर चलो!’ बाहर जाने से उसका आशय बस कुल इतना रहता है कि बाहर जाएँगे तो कैंडी मिलेगी। तो वो बार-बार बोलता है, ‘बाहर जाना है! बाहर जाना है!’ मन समान बच्चा है। ‘बाहर जाना है, बाहर जाना है, मीठा पाएँगे।’ मीठे से आसक्ति हो गयी है। ये नहीं कहता सीधे कि मीठे के पास जाना है। वो अपने बाप को बार-बार, माँ को बार-बार बोलता यही है, ‘बाहर चलते हैं न! बाहर चलते हैं!’
अबकी जब वो बोले बाहर चलते हैं, तो बोलो, ‘चलो!’ और उसको ले जाओ किसी चिकित्सक के पास या उसको ले जाओ किसी ऐसे रसोईये के पास, शेफ के पास, जो कुछ ऐसा सुस्वादु बनाना जानता हो, जो बच्चे के मन से मीठे का लोभ ही हमेशा के लिए मिटा दे। या चिकित्सक हो जो बच्चे का ऐसा उपचार कर दे कि उसकी दैहिक व्यवस्था में मीठे के प्रति जो आकर्षण आ गया है, वो आकर्षण घट जाये। बच्चे की माँग भी मान ली और बच्चे को ऐसा भी कर दिया कि अब वो आगे से ये चीज़ माँगेगा ही नहीं।
तुम बच्चे को डाँट-फटकार के कब तक अनुशासन में रख लोगे? वो तुम्हारा ही जीना मुश्किल कर देगा। चाँय-चाँय करेगा दिनभर घर में! यही विधि मन पर लगानी है। उसको बाहर ले जाओ, पर सही जगह ले जाओ। इसीलिए मैं बार-बार कहता हूँ कि दो ही चीज़ें हैं- स्वाध्याय और सुसंगति। जब अपने साथ रहो तो स्वाध्याय करते रहो, पढ़ते रह! पढ़ते रहो!
और स्वाध्याय का मतलब सिर्फ़ किताब ही पढ़ना नहीं होता। स्वाध्याय का मतलब जीवन पढ़ना भी होता है। सिर्फ़ जो छपा हुआ शब्द है, उसको ही पढ़ने को स्वाध्याय नहीं कहते। लगातार तुम ज़िन्दगी का अवलोकन कर रहे हो, जीवन को पढ़ रहे हो, ये भी स्वाध्याय है। अपने साथ रहो, स्वाध्याय करते रहो। और जैसे ही मौका मिले किसी ऊँचे की संगति करने का, उसकी संगति कर लो।
उससे ज़्यादा अभागा कोई नहीं जिसको किताबें उपलब्ध हो और स्वाध्याय न करे। और उससे ज़्यादा अभागा कोई नहीं जिसको अपने निकट में ही कोई ज्ञानी उपलब्ध हो और वो उससे कतराता फिरे, उसकी संगति में न बैठे। इन दोनों से ज़्यादा अभागा कोई नहीं होता। इनमें भी ज़्यादा अभागा वो है जो ज्ञानी की उपेक्षा करे। क्योंकि किताब तो देखो, तुम्हारे हाथ की चीज़ होती है। तुम चुन लेते हो कौनसा अध्याय पढ़ना है, कौनसी कहानी पढ़नी है। किताब कभी किसी को बहुत चोट नहीं पहुंचाती। या किताब चोट पहुंचाती भी है, तो सीमित रूप से।
ज्ञानी के साथ बैठो तो काम जल्दी होता है। वहाँ उपदेश भी जल्दी मिलता है, रूपान्तरण भी जल्दी होता है और चोट भी जल्दी-जल्दी लगती है। तो इसीलिए ज़्यादा तो हम कतराते ज्ञानी की संगति से ही हैं। यही दो तरीके हैं- स्वाध्याय और सुसंगति। ये भी समझ ही गए होगे कि ये दोनों तरीके वास्तव में एक ही तरीका हैं- सुसंगति। क्योंकि जब आप स्वाध्याय कर रहे हो, तो वो भी एक परोक्ष तरीका ही है सुसंगति का।
स्वाध्याय माने क्या? कि ऊँचे आदमियों के वचनों से भरी हुई किताबें आपने पढ़ लीं। तो वो संगति ही तो हो गयी। तुम किसी ऐसे की संगति कर रहे हो जिसकी दैहिक संगति अब नहीं कर सकते। वो या तो दूर है या अब वो शारीरिक रूप से मौज़ूद नहीं है तो तुमने उसके वचनों की संगति कर ली। तो स्वाध्याय भी सुसंगति का ही एक रूप भर है। लेकिन फिर भी मैं ये दो तरीके बोल रहा हूँ, अलग-अलग करके; स्वाध्याय और सुसंगति। इसके अलावा कोई तरीका नहीं है। दोनों ही तरीके एक ही काम करेंगे कि मन को, बेचैन, बालक मन को झुनझुना दे देंगे। वो बार-बार मांग रहा है- टॉफी दे दो! खिलौना दे दो!
तुमने उसको एक बहुत ऊँची किताब लाकर के दे दी। और किताब अगर वास्तव में ऊँची है तो मन को भाएगी-ही-भाएगी। मन को पकड़ लेगी। इस भ्रम में मत रहना कि अरे! ऊँची किताबें तो उबाऊ होती हैं, बोरिंग होती हैं, कौन पढ़ेगा? कैसे उबाऊ! कैसे बोरिंग! वो यूँ व्यर्थ में ही ऊँची कहलाती हैं? अरे, उनमें बड़ा चुम्बकत्व है। वो ऐसी होती हैं कि उन्होंने कई-कई शताब्दियों से अरबों-करोड़ों लोगों को रोक रखा है, खींच रखा है। तुमने उनको कैसे मान लिया कि वो किताबें व्यर्थ हैं? या उन किताबों में अपना कोई गुरुत्वाकर्षण नहीं। उन किताबों में बड़ा खिंचाव है। जाओ तो! फिर बाकी सब विषय भूल जाओगे। यही तरीका है, बाकी विषयों को भूलने का।
सन्त के पास बैठोगे, ज्ञानी के पास बैठोगे; दुनिया के बाकी लोग फीके लगने लगेंगे। फिर तुम्हारा रस ही नहीं रह जाएगा, बेवकूफी भरी बातों में। एक घंटा तुमने सुसंगति कर ली, ऊँचे वचनों का पान कर लिया, उसके बाद तुम कैसे फूहड बातों को वजन दे पाओेगे? वो मूल्यहीन लगेंगी, उबाऊ लगेंगी, बल्कि घिनौनी लगेंगी। तुम उठकर चल दिया करोगे। तुम कहोगे, ‘ये क्या बातें हो रही हैं? इस सभा में मेरा क्या काम?’ जिस जगह पर, जिस बैठक में इस तरह की बेकार की और बेहूदी, बेवक़ूफ़ी भरी बातें होती हों, मैं वहाँ बैठकर क्या करूँगा? तुम उन जगहों से चल दिया करोगे, नीरस हो जाओेगे बिलकुल। इसी तरह से जिसने स्वाध्याय कर लिया, अब उसका नहीं मन लगेगा, दुनियाभर की इधर-उधर की वेबसाइट्स पर जाना, बेकार की बातें पढ़ना, व्यर्थ चर्चा, इधर-उधर की अफवाहें, अंधविश्वास, गॉसिप! कहेगा, ‘ये सब हमें रुचता ही नहीं है, अच्छा ही नहीं लगता! मन ही नहीं लगता इनमें!’
आत्मा क्या है? सत्य क्या है? वो! जो मन की पहली पसन्द है। वो! जो मन की आखिरी पसन्द है। वो! जिसके वियोग में मन विकल है। वो! मन जिसका आशिक है। तो भाई ज़ाहिर सी बात है कि मन को जब सत्य चाहिए ही, तो जब सत्य तुम मन को उपलब्ध कराओगे तो मन उससे रूठेगा क्यों, भागेगा क्यों? वही तो चाहिए था मन को। और तुमने दे दिया वो मन को, मन नहीं भागेगा उससे अब। देकर तो देखो, प्रयोग तो करो।
अपने पर भी प्रयोग करो, औरों पर भी करो। और कृपा करके सबसे ज़्यादा अपने बच्चों पर करो। जितनी जल्दी हो सके, जितनी कम उम्र में हो सके, अध्यात्म से, सत्य से, आत्मज्ञान से, उनका परिचय करा दो। यही एकमात्र चीज़ है जो ज़िन्दगी में उन्हें सुरक्षित रख सकती है। बाकी सब सुरक्षा की चीज़ें आने-जाने वाली हैं, असफल हो जानी हैं, परिस्थितियों के सामने। आत्मज्ञान वो अकेला धन है जो कभी विफल नहीं जाता। जीवनभर भी रहता है, मृत्यु में भी वो साथ रहता है। अपने बच्चों को धनी बनाओ। उन्हें आत्मज्ञान दो!