दृष्ट्वा मां त उपव्रज्य कृत्वा पादाभिवन्दनम्। ब्रह्माणमग्रत: कृत्वा पप्रच्छ: को भवानिति।।
“मुझे देखकर सनकादि ब्रह्माजी को आगे करके मेरे पास आये और उन्होंने मेरे चरणों की वन्दना करके मुझसे पूछा कि आप कौन हैं?”
~ हंस गीता, श्लोक २०
इत्यहयं मुनिभि: पुष्टस्तत्त्वजिज्ञासुभिस्तदा। यदवोचमहं तेभ्यस्तदुद्धव निबोध मे।
प्रिय उद्धव! सनकादि परमार्थतत्त्व के जिज्ञासु थे; इसलिए उनके पूछने पर उस समय मैंने जो कुछ कहा, वह तुम मुझे सुनो। ~ हंस गीता, श्लोक २१
वस्तुनो यदानानात्वमात्मन: प्रश्न ईदृश:। कथं घटेत वो विप्रा वक्तुर्वा मे क आश्रय:।।
ब्राह्मणों यदि परमार्थरूप वस्तु नानात्व से सर्वथा रहित है, तब आत्मा के संबंध में आप लोगों का ऐसा प्रश्न कैसे युक्ति संगत हो सकता है? ~ हंस गीता, श्लोक २२
आचार्य प्रशांत: हंस गीता, श्लोक क्रमांक- बीस, इक्कीस और बाईस।
श्लोक क्रमांक बीस: “मुझे देखकर सनकादि ब्रह्माजी को आगे करके मेरे पास आये और उन्होंने मेरे चरणों की वन्दना करके मुझसे पूछा कि आप कौन हैं?”
श्लोक क्रमांक इक्कीस: “प्रिय उद्धव! सनकादि परमार्थतत्त्व के जिज्ञासु थे; इसलिए उनके पूछने पर उस समय मैंने जो कुछ कहा वो तुम मुझसे सुनो।“
श्लोक क्रमांक बाईस: मैंने कहा, “ब्राह्मणो! यदि परमार्थरूप वस्तु नानात्व से सर्वथा रहित है तब आत्मा के सम्बन्ध में आप लोगों का ऐसा प्रश्न कैसे युक्तिसंगत हो सकता है? अथवा मैं यदि उत्तर देने के लिए बोलूँ भी तो किस जाति, गुण, क्रिया और सम्बन्ध आदि का आश्रय लेकर बोलूँ?”
तो जो कुल बात है वो समझाए देता हूँ, श्लोक में। तो कहा जा रहा है कि कृष्ण प्रकट होते हैं और जो सनकादि ब्रह्माजी के मानसपुत्र हैं वो उनको देखते हैं और उनका परिचय पाने के लिए उनसे पूछते हैं, ‘आप कौन हैं?’ कुल इतनी सी बात, बाकी सब विवरण में जाने की विशेष ज़रूरत नहीं।
श्रीकृष्ण प्रकट हो रहे हैं और उनसे कोई है जो प्रश्न कर रहा है, ‘आप कौन हैं?’ तो कैसा जवाब दे रहे हैं श्रीकृष्ण, कह रहे हैं, ‘अगर अगर परमार्थरूप वस्तु नानात्व से रहित है तो आत्मा के सम्बन्ध में आप लोगों का ये प्रश्न कैसे सही हो सकता है? और अगर मैं उत्तर देने के लिए बोलूँ तो किस जाति, गुण, क्रिया, सम्बन्ध आदि का आश्रय लेकर उत्तर दूँ?’ फिर थोड़ा और भी बोला है वो भी बता देता हूँ। तो ये जो उत्तर है वास्तव में इसमें सीख निहित है, ये प्रश्न का ही नकार है। वेदान्त में ‘कोऽहम्’ प्रश्न बड़े केन्द्रीय महत्व का है, आजकल भी बहुत प्रचलित है, मैं कौन हूँ, ‘कोऽहम्’।
उसका बड़ा सुन्दर यहाँ पर विस्तार किया गया है। तो पूछा जा रहा है श्रीकृष्ण से, “आप कौन हैं?”
श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘देखो, अगर में आत्मा हूँ तो आत्मा में नानात्व तो होता नहीं। ‘नानात्व’ माने? विविधता, विस्तार या अन्तर्विरोध या खंड, टुकड़े। आत्मा में किसी तरह का द्वैत तो होता नहीं, कई तरीके की तो आत्माएँ होती नहीं, आत्मा ही एक सत्य है। तो मैं तुम्हें क्या बताऊँ कि मैं कौन सी आत्मा हूँ? यदि मैं आत्मा हूँ और तुम मुझसे पूछ रहे हो, ‘आप कौन हैं?’ तो मैं जवाब क्या दूँ?
और अगर मैं ये भौतिक शरीर मात्र हूँ तो जिन पँचभूतों से ये शरीर बना है उन्हीं से तुम्हारा भी बना है, मैं अलग कैसे हो गया भाई? मैं क्या जवाब दूँ, मैं कौन हूँ?
या तो मैं आत्मा हूँ या मैं प्रकृति हूँ तीसरा कुछ होता नहीं। आत्मा हूँ तो भी मेरी कोई अलग पहचान नहीं है, जो तुम वही मैं, न तुम कुछ न मैं कुछ, तुम भी सबकुछ मैं भी सबकुछ। मैं अपने बारे में तुम्हें क्या बताऊँ? तो तुम्हारा ये सवाल बड़ा गड़बड़ है, मैं कौन हूँ?
और अगर आत्मा है ही नहीं, सब कुछ प्राकृतिक मात्र है तो भी तुम्हारे सवाल में कोई दम नहीं क्योंकि सबकुछ अगर पार्थिव और प्राकृतिक ही है तो सबकुछ मिट्टी से ही उठा है, सबकुछ हवा, पानी, पत्थर है, जल, अग्नि, वायु, आकाश इत्यादि, तो मैं तुम्हें अपना विशिष्ट, खास, अलग, पृथक परिचय क्या दूँ?
तो इस जवाब के माध्यम से जो पार्थक्य है, जो हमारे मन में भेदभाव होता है, जो वैविध्य होता है, जो भावना होती है कि ये इस चीज़ से अलग, ये इस चीज़ से अलग, ये इस चीज़ से अलग और मैं इन सबसे अलग, उस पर प्रहार किया जा रहा है, उसका नकार किया जा रहा है। कहा जा रहा है ये प्रश्न ही गलत है, मैं कौन हूँ? क्योंकि तुम हो ही नहीं, तुम कुछ होते तब तो जवाब दिया जाता न कि तुम कुछ हो।
‘मैं कौन हूँ?’ इस प्रश्न में मान्यता क्या छुपी हुई है? कि मैं कुछ तो हूँ ही। पूछने वाले ने यूँ पूछा है जैसे बड़ा अनाड़ी, बड़ा अज्ञानी हो लेकिन इसके पीछे उसका अहंकार छुपा हुआ है, उसने एक बात तो पक्के तौर पर मान रखी है और उस बात पर वो बिलकुल अडिग, कायम है। क्या बात उसने मान रखी है? ‘मैं हूँ’, मैं निश्चित रूपेण हूँ। तुम तो मुझे बस ये बता दो, मैं कौन हूँ?
श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘तू है ही नहीं। तुम पूछ क्या रहे हो कि तुम कुछ हो?’ यदि आत्मा हो तो भी तुम्हारा कोई विशिष्ट परिचय नहीं हो सकता क्योंकि आत्मा व्यक्तिगत या विशिष्ट तो होती नहीं, निजी तो नहीं होती आत्मा, इसकी आत्मा तुम्हारी आत्मा से अलग तो है नहीं। हालांकि आत्मा शब्द को भी हमने खूब बिगाड़ रखा है, खूब इस तरह की बातें करते हैं, मेरी आत्मा रो रही है, मेरी आत्मा पर चोट पड़ गयी, जैसे आत्मा तुम्हारा निजी जूता हो कि गन्दा हो गया अब तुम उसे साफ़ कर लोगे, खुद खरीदकर लाये थे फिर एक दिन बदल भी लोगे।
हमारी अकड़ की और हमारे अज्ञान की कोई सीमा नहीं है, हम आत्मा को भी अपनी चपेट में ले लेते हैं। मेरी आत्मा तुम्हारी से प्यार करती है, ये तो गज़ब हो गया। हरकतें दोनों अभी तुम्हारे जिस्म करेंगे और प्यार आत्मा कर रही थी। अगर आत्मा वाला प्यार है तो आगे का काम भी आत्मा को करने दो न। लेकिन आत्मा तो दो होती ही नहीं तो इधर की आत्मा उधर की आत्मा से कैसे प्यार कर लेगी? लेकिन ये बोलना ज़रूरी है ताकि सामने वाले को ये न लगे कि तुम्हारा प्यार पूरी तरह से पाशविक है, दैहिक है, शारीरिक है और जंगली है। तुम छुपाना चाहते हो अपने भीतर के जंगल की उठी हुई आग को तो तुम उससे कह रहे हो कि मेरी आत्मा या मेरी रूह तुझसे इश्क करती है।
लेकिन ज़रा सा अगर अध्यात्म की ओर आओगे, ग्रन्थों को पढ़ोगे तो आत्मा शब्द का कम-से-कम दुरुपयोग बन्द कर दोगे। आत्मा दो नहीं होतीं, आत्मा कुछ करती नहीं और आत्मा अनुपम होती है, आत्मा को कोई उपाधि नहीं दी जा सकती है, आत्मा को लेकर किसी तरह का कोई वक्तव्य या कल्पना नहीं की जा सकती।
आत्मा शब्द का उपयोग ही नहीं किया जाना चाहिए, बहुत रुक-रुककर, बहुत सावधानी से, बहुत विशिष्टता और बड़े सम्मान के साथ इस शब्द का उपयोग करो अन्यथा मौन रह जाओ।
बात समझ में आ रही है?
तो तुम आत्मा हो अगर तो तुम कुछ नहीं हो और आत्मा तो सर्वज्ञ होती है, सब जानती है। आत्मा होते तुम तो ये सवाल पूछते, ‘मैं कौन हूँ?’ आत्मा जाएगी सवाल पूछने? और आत्मा सर्वज्ञ होने के साथ-साथ अद्वैत होती है, आत्मा किससे पूछेगी, ‘मैं कौन हूँ?’ सामने कौन खड़ा है आत्मा के? आत्मा के अलावा कोई दूसरा नहीं, तो आत्मा तो अगर तुम हो तो ये सवाल ही बेवकूफ़ी भरा है, ‘मैं कौन हूँ?’
और अगर तुम आत्मा नहीं हो तो ले-देकर बचे तुम बस ‘पंचभौतिक शरीर’।
अगर आत्मा नहीं हो तुम तो फिर तो तुम प्रकृति की ही कोई पैदाइश हो गये, घास हो गये, फूस हो गये, मिट्टी हो गये, नदी हो गये, बादल हो गये, जानवर हो गये, ऐसे ही कुछ हो तुम? चलो तुम बहुत बड़े आदमी हो गये भाई, तुम बृहस्पति ग्रह हो गये। ठीक है? तुम घास बोल दिया तो अपमान लगा होगा कि मैं भले ही प्राकृतिक हूँ पर घास मत बोल देना, धेला मत बोल देना। ठीक है धेला नहीं बोल रहा तुमको, तुम सौरमण्डल का सबसे बड़ा ग्रह हो। क्या हो? तुम जुपिटर हो भाई, ठीक है तुम जुपिटर हो। कोई बात नहीं।
लेकिन वो जुपिटर भी क्या है? अगर पुरानी शैली में बात करें तो पँचभूतों से अलग जुपिटर पर भी कुछ नहीं पाओगे और आधुनिक भाषा में बात करें तो पीरियोडिक टेबल के जो एलिमेंट्स हैं उससे अलग तो तुम्हें जुपिटर पर भी कुछ नहीं मिलना और अगर जुपिटर पर तुम्हें कोई नया एलीमेंट मिल गया तो उसको तुम पीरियोडिक टेबल में शामिल कर लोगे तुरन्त, कर लोगे कि नहीं?
तो ले-देकर के जो तत्त्व हैं उनसे अलग तो नहीं जुपिटर। अभी भी तुम्हारी हम अलग पहचान कैसे बता दें? भाई मिट्टी का एक ढ़ेला और मिट्टी का दूसरा ढ़ेला, दोनों आकार में अलग हो सकते हैं, रंग भी अलग हो सकता है लेकिन क्या वो वास्तव में अलग हैं? तो अगर मिट्टी ही हो तुम तो हम तुमको तुम्हारी ख़ास पहचान क्या बता दें? तुम भी ढ़ेला, हम भी ढ़ेला, रेलम पेल पेला ही पेला। क्या तुमको बताएँ क्या खेला?
सब एक है। अब बोलो पूछना है, मैं कौन हूँ? क्या बताएँ तुम कौन हो। तो ये उत्तर नहीं है, आध्यात्मिक व्यक्ति की यही पहचान होती है। ये श्रीकृष्ण हैं, इनसे मर्म जिज्ञासा की जा रही है। इसका जो सन्दर्भ है, वो ये है कि ब्रह्मा जी भी अटक गये थे, उन्हें भी समझ नहीं आ रहा था कि क्या जवाब दें। ये सब जो सनकादि, ये सब ऋषि हैं, ये ब्रह्मा जी के कहलाते हैं मानस पुत्र, उन्हीं के बेटे।
तो इन्होंने पूछ लिया, ब्रह्मा जी भी और क्या है? तो फिर श्रीकृष्ण आये बताने के लिए और यही सवाल है, ‘मैं कौन हूँ?’ सवाल यही चल रहा था, यही चर्चा चल रही थी कि भाई हम हैं कौन? तो फिर उसके लिए श्रीकृष्ण को आना पड़ा। और उन्होंने आकर के जवाब नहीं दिया, मैं कौन हूँ, उन्होंने यही कह दिया कि आपका सवाल कुछ ठीक नहीं लग रहा। ये मुक्त पुरुषों की ये उच्च और शुद्ध चेतना की पहचान रही है, वो तुम्हें जवाब नहीं देती, वो तुम्हारा सवाल काट देती है।
तुम्हारा सवाल क्योंकि सवाल नहीं होता, तुम्हारे सवाल के पीछे अहम्, अकड़ और मान्यता होती है, मैं कुछ हूँ तो ज़रूर, तभी तो पूछ रहा हूँ, ‘मैं कौन हूँ’। तुम्हारे सवाल के पीछे जो मान्यता है वही गड़बड़ है, इसका प्रमाण ये है कि उससे सवाल निकल रहा है समाधान नहीं। तुम्हारे सवाल के पीछे सत्य होता तो सत्य से सवाल निकलता या समाधान निकलता?
सत्य से तो समाधि निकलती है और आनन्द निकलता है। अगर सवाल किसी बिन्दु से आ रहा है तो उस बिन्दु पर सत्य तो नहीं हो सकता न? उस बिन्दु पर निश्चित रूप से झूठ बैठा है, माने तुम्हारे सवाल के पीछे झूठ बैठ है, अध्यात्म तुम्हारे पीछे के झूठ को काटता है और आध्यात्मिक व्यक्ति की पहचान यही होगी कि वो तुम्हारे सवाल का जवाब देने में रुचि नहीं रखेगा, वो सवाल के पीछे घुस जाएगा। वो तुम्हारे सवाल को फाड़कर सवाल के अन्दर घुस जाएगा।
हाँ, इस बात से बहुत लोगों को ऐतराज़ हो जाएगा, क्रोध आएगा कि सवाल का जवाब नहीं देते, ये तो सवाल में ही घुस गये। अरे! तभी तो सवाल का जवाब देने की हैसियत रखते हैं न, तुम्हारे सवाल का जवाब दे दिया होता तो हमारा जवाब दो कौड़ी का होता। हमारी हैसियत है तुम्हारे जवाब देने की इसीलिए तो जवाब नहीं दिया, सवाल फाड़ दिया।
यही काम है आध्यात्मिक आदमी का और भारत में प्रथा भी यही रही है। बहुत सारे ग्रन्थ हैं जिनमें जो विधि है, जो तरीका है ब्रह्मज्ञान का, वो यही है, प्रश्नोत्तर कई बार उसे आप शास्त्रार्थ भी बोल देते हो। लेकिन अगर आप अगर उस प्रश्नोत्तरी को ध्यान से गुनोगे तो आपको पता चलेगा कि इसमें उत्तर बहुधा सीधे है ही नहीं, प्रश्न को ही पलट दे दिया जा रहा है।
अगर कोई सीधा-सादा सवाल है जिसमें कि यही पूछ दिया कि अच्छा बताइए प्रकृति के तीन गुण कौन से हैं? तो वहाँ तो बता दिया जाएगा क्योंकि वो सवाल क्या है, वो तो सीधी-सीधी जानकारी, सूचना माँगी जा रही है वो दे दी जाएगी। उसकी नहीं बात कर रहा मैं।
लेकिन जहाँ कहीं भी गहरी जिज्ञासा करी जाएगी वहाँ प्रश्न में ही प्रवेश किया जाएगा। वहाँ उत्तर नहीं दिया जाएगा, वहाँ प्रश्न और प्रश्नकर्ता का अनुसन्धान किया जाएगा। बात समझ में आ रही है।