संसार की नश्वरता समझ नहीं आती? || आचार्य प्रशांत, हंस गीता पर (2020)

Acharya Prashant

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संसार की नश्वरता समझ नहीं आती? || आचार्य प्रशांत, हंस गीता पर (2020)

ईक्षेत विभ्रममिदं मनसो विलासं दृष्टं विनष्टमतिलोलमलातचक्रम्। विज्ञानमकामुरुधेव विभाति माया स्वप्नस्त्रिधा गुणविसर्गकृतो विकल्प:।।“

यह जगत् मन का विलास है, दीखने पर भी नष्टप्राय है, अलातचक्र (लुकारियों की बनेठी)– के समान अत्यन्त चंचल है और भ्रम मात्र है— ऐसा समझे। ज्ञाता और ज्ञेय के भेद से रहित एक ज्ञानस्वरूप आत्मा ही अनेक-सा प्रतीत हो रहा है। यह स्थूल शरीर इन्द्रिय और अन्त:करणरूप तीन प्रकार का विकल्प गुणों के परिणाम की रचना है और स्वप्न के समान माया का खेल है, अज्ञान से कल्पित है।“ ~ हंस गीता (श्लोक-34)

आचार्य प्रशांत: तो कह रहें हैं कि संसार मन का विलास है। स्थूल शरीर, इन्द्रिय और अंत:करण रूप तीन प्रकार का विकल्प गुणों के परिणाम की रचना है और स्वप्न के समान माया का खेल है, ये कैसे जानें? मैं तो देख पा रहा हूँ कि संसार के दृश्य का प्रतिबिम्ब मन में बनता है। परन्तु संसार, शरीर, इन्द्रिय और अंत:करण स्वप्न हैं ऐसा नहीं जान पा रहा। कृपया मदद करें।

संसार गुणों की रचना है, मन का विलास है। इन्द्रिय अंत:करण के संकल्प-विकल्प का खेल है और स्वप्न के समान माया की क्रीड़ा है। कह रहे हैं— ‘कैसे जानें।‘

रोज़ ही देख रहे हैं, उसके बाद भी अगर कह रहे हैं कि जान नहीं पाते तो ये आश्चर्य है। जो चीज़ आपको जैसी चाहिए थी वैसी कभी मिली क्या? जो चीज़ आपको लगी थी वैसी कभी निकली क्या और माया किसको कहते हैं? मुझे बताइयेगा, ‘कि कभी कोई चीज़ वैसी निकली है, जैसी आपको लगी है?’

आप कहेंगे कि हुआ है दो-चार बार हुआ है। ठीक है। वह जब दो-चार बार ऐसा हुआ है कि जो चीज़ आपको लगी थी, लगभग वैसी ही निकली है तो उसका आप पर असर क्या हुआ है। आपने उसी तरह की चीज़ों पर और ज़्यादा भरोसा कर डाला है और फिर चीज़ें वैसी नहीं निकली हैं जैसी वो लगी थीं। यही तो माया है।

दूर की चीज़ों को छोड़ दीजिये, दुकान की चीज़ों को भी छोड़ दीजिये, घर की चीज़ें भी वैसी हैं क्या जैसी आपको लगी थी। अरे, दूसरों को भी छोड़ दीजिए, आप खुद भी वैसे हैं क्या जैसे आप स्वयं को लगते हैं।

पहलवानी में ही कोई मुकाबला होने जा रहा हो। वहाँ अकसर मुकाबला से पहले दोनों पहलवानों से पूछा जाता है, ‘हाँ भाई, अपना-अपना हाल बताओ, अपने जज़्बात बताओ।‘ दोनों बोलते हैं, ‘झंडा गाढ़ दूँगा, छाती फाड़ दूँगा, मुझसे आगे कोई हो सकता है और ये, ये कोई चीज़ है मेरे सामने! दो मिनट नहीं लगेंगे इसको पछाड़ने में।‘

और थोड़ी देर में हम पाते हैं कि दोनों में से एक लुंज-पुंज, जर्जर, पिटी हुई हालत में सिर झुकाए खड़ा हुआ है। कई बार तो खड़ा होने की भी उसकी हैसियत नहीं रह जाती, वह गिरा हुआ है। है न?

कभी किसी को जैसा लगा है वो खुद भी है? इसको क्या लग रहा था कि मुझसे बड़ा कोई सूरमा हो सकता है और देख लो क्या, अंजाम क्या आया। अरे, तुम बेडमिंटन ही खेल रहे होते हो आज तक तुम्हारा मारा हुआ शॉट वहाँ जाकर-के गिरा है जहाँ तुमने चाहा है। तुम कहोगे, ‘एक बार हुआ था।‘ उस एक बार होने का परिणाम क्या हुआ, तुमने पाँच बार फिर वहीं मारने की कोशिश की। और वो इधर-उधर, दाएँ-बाएँ पचास जगह निकल गया।

और ये अभी जो मैं दे रहा हूँ, यह हल्के उदाहरण हैं। क्योंकि हमारा जीवन ही हल्का है और मैं गहरे उदाहरण क्या बताऊँ तुम्हें। हम तो बस काम चला लेते हैं किसी तरीके से समझौता, समायोजन करके कि चलो भाई मामला तो वैसा निकला नहीं जैसा चाहिए था और कोई बात नहीं चला लो, चला लो।

दूसरों से भी धोखा मिलता है, खुद से भी धोखा मिलता है खेल चलता रहता है, यही तो माया है। स्वप्न के समान माया का खेल है। जो चीज़ स्वप्न में इस समय बड़ी असली लगती है वही जगो, तो फिर पता चलता है झूठी थी, खेल थी, उसको भूलकर आगे बढ़ जाते हो। यही हम करते हैं न। रूकते नहीं, आगे बढ़ जाते हैं दोबारा नये सपने लेने के लिए। सोचते नहीं हैं कि आगे भी तो सपने-ही-सपने हैं।

अभी एक सपना आया वो टूटा, आगे और सपने लेकर क्या करूँगा। मूलत: क्रिया तो वही चल रही होगी न। अलग क्या हो जाना है।

जीवन ठहरने का कुछ अवकाश नहीं देता, कुछ ठहरने की हमारी नीयत नहीं होती क्योंकि नीयत हो गयी ठहरने की तो मुक्त हो जाएँगे न। मोह बहुत है अभी, लालसा बहुत है, आसक्ति है कि दुनिया से अभी और सुख लें। और वो सुख मिलता भी रहता है, सपने में भी कई बार सुख मिल जाता है। वही सुख हमको फिर चिपकाये रहता है दुनिया से।

कह रहे हैं, ‘संसार के दृश्य का प्रतिबिम्ब मन में बनता है। लेकिन संसार और सबकुछ स्वप्न ही है ऐसा नहीं पता चलता।‘

अरे बाबा! संसार के दृश्य का प्रतिबिम्ब मन में बनता है, ये तो बाद की बात है। संसार है भी, ये तुम्हें कैसे पता?

कभी इस बात पर बारीकी से गौर करना, तुम्हें कैसे पता संसार है? तुम्हारे अलावा कोई है जो संसार के होने को प्रमाणित कर सके? तुम कहोगे, ‘है।‘ कौन है? कहोगे, ‘मेरा पत्नी है’, और कौन है, ‘मेरा पड़ोसी है, सड़क पर चलता हर आदमी यही बोल रहा है संसार है’, तो संसार होगा न। पागल, ये सब जिनको तुम प्रमाण के तौर पर लेकर आये, इनका होना कौन प्रमाणित करेगा? तुम्हें कैसे पता, तुम्हारी बीवी है? कहोगे, ‘वो तो मुझे लगता है न।‘

मैंने पूछा, ‘तुम्हें कैसे पता, संसार है।‘ तुम कहोगे, ‘संसार इसलिए है क्योंकि मुझे ही नहीं लगता कि दुनिया का होना, मेरी बीवी को भी ऐसा ही प्रतीत होता है कि दुनिया है।‘ अच्छा!

तुम बीवी को गवाह की तरह लेकर आये हो, तुम्हें कैसे पता कि तुम्हारी बावी भी है? तुम कहोगे, ‘वो तो मुझे दिखती है न, इसीलिए है।‘ तो माने ले-देकर पूरी दुनिया का तुम्हारे पास एक ही प्रमाण है, क्या? तुम्हारी आँखें।

तुम्हें कैसे पता दुनिया है भी? तुम्हें कैसे पता ये सब लोग जो चल-फिर रहे हैं तुम्हारी तरह और तुम्हारी ही तरह ये कह रहे हैं कि दुनिया है, दुनिया है, दुनिया में हम हैं, हमारे होने से दुनिया है। इस तरह की बातें कर रहे हैं। तुम्हें कैसे पता उनमें से कोई है भी?

मैं बहुत मूल, अस्तित्वगत सवाल पूछ रहा हूँ तुमसे। ले-देकर के तुम्हीं हो और तुमने बाकी जितना रायता फैला रखा हो तुम जानो कि तुम्हें लगता है मेरी बीवी है, चाँद-सितारे भी हैं और सबकुछ है, रेलगाड़ी है, और वो सामने वाले वर्मा जी हैं। ये सबकुछ तुम्हारा उत्पाद है। ये तुम्हीं ने सब छूमन्तर, जादू कर रखा है।

यही बात, यही सवाल पूछने के लिए अध्यात्म तुम्हें बार-बार प्रेरित करता है, विज्ञान ये सवाल नहीं पूछता। विज्ञान कहता है, कुछ दिख रहा है तो है। अब ये पता करते हैं कि वो क्या है, कैसा है पर अगर दिख रहा है, तो है। विज्ञान ये नहीं कहता कि जो दिख रहा है वो मुझे ही तो दिख रहा है, मुझे कैसे पता मैं भी हूँ।

अध्यात्म कहता है कि भैया, जो कुछ भी दिख रहा है वो तुम्हें ही दिख रहा है और तुम खुद कितने भरोसे के आदमी हो, तुम्हें तो न जाने क्या-क्या दिख जाता है। कल ही तुमको खम्भे में आदमी दिख गया था, कभी आदमी में खम्भा दिख जाता है। कभी तुम बाज़ार में पुतला खड़ा होता है उसको औरत समझ लेते हो।

ये तो तुम्हारे देखने का हाल है। कभी तुम सो ही जाते हो तब तुम्हें कुछ दिख ही नहीं रहा होता है और कई बार तुम सो जाते हो, न जाने सपना में तुम्हें क्या-क्या दिख जाता है। ये तो तुम्हारे देखने का हाल है।

तो तुम्हें अपने देखे हुए पर इतना भरोसा क्यों है। तुम पता नहीं करना चाहोगे अगर सिर्फ़ तुम प्रमाण हो, इस दृश्यमान ज़गत का तो तुम्हारी दृष्टि में सच कितना है। पता नहीं करना चाहोगे?

अब यहाँ से आत्म-जिज्ञासा शुरू होती है। भैया जब ये सबकुछ मेरे ही देखे है तो अपनेआप को तो देख लूँ, ‘मैं कौन हूँ।‘

अपनेआप को देखने निकलते हो तो बंटाधार। सब गड़बड़ ही गड़बड़ निकलता है। तब जाकर-के जगत से आसक्ति उठती है। तब तुम कहते हो, ‘ये दुनिया से मैं क्या चिपकूँ, ये दुनिया तो मेरे ही देखे हुए है और मुझे साफ़ कुछ दिख नहीं रहा। तो मैं क्या इन चीज़ों को पकड़ूँ।

मान लो तुम्हारी आँखें खराब हो पहले तो और दूसरे, तुमने उधारी का नकली चश्मा पहन रखा हो, वो भी आधा फ़ूटा हुआ। ठीक है? आँखें ऐसे खराब और उधारी के चश्मे चढ़ा रखे हैं उसके बाद तुमको दिख रहे हैं सामने गुलाबजामुन तैरते हुए हवा में। तो तुम कूद पड़ोगे उनके ऊपर, मुँह तुड़वाओगे? तुम कहोगे न, मुझे ही तो दिख रहे हैं और मेरी तो लालटेन कब की बुझ गयी। मैं क्या कूद रहा हूँ।

मैं ये क्या कर रहा हूँ अपने साथ। पर हमें अपनेआप पर भरोसा बहुत होता है। तो हम कूदे पड़े हैं हवाई गुलाबजामुनों पर और मुँह टूट गया है, नाक से खून बह रहा है, दाँत हाथ में। अपने ही दाँत चबा रहे हैं। ये हमारी हालत है। आम संसारी की यही हालत है। उसे जगत पर बहुत भरोसा है क्योंकि उसे अपनेआप पर बहुत भरोसा है क्योंकि उसने आत्म-जिज्ञासा कभी करी नहीं। बाहर-ही-बाहर को देखता रहता है जो प्रकृति हमको सिखाती है, जो चाहती है कि आँखें मिली है कि देखो भैया, बाहर-ही-बाहर देखते रहो।

बात समझ में आ रही है?

ये पूरा शरीर ही इस तरह से निर्मित है कि यह सबकुछ ऐसे ही, ऐसे ही, ऐसे ही चलता रहे। खाना तक तो बाहर से आता है और बाहर देखना तो मजबूरी हो गयी। नहीं, बाहर नहीं देखोगे तो खाओगे क्या? तो शरीर चलाने के लिए ही ज़रूरी हो जाता है कि बाहर देखो।

जिनमें देह भाव जितना ज़्यादा है उनके लिए उतना ज़रूरी हो जाएगा कि बाहर देखें। खाना कहाँ है, बाहर है। तो बाहर नहीं देखोगे, तो शरीर शिकायत करेगा।

समझ में आ रही है बात?

अन्दर देखोगे ही नहीं देखने वाले को। तो फिर क्यों तुमको पता चलेगा कि ये सबकुछ स्वप्न है, नहीं पता चलेगा बाबा। ये सबकुछ स्वप्न भी नहीं है। स्वप्न भी स्वप्न के समय झूठा है क्योंकि देखने वाले उसे भी तुम्हीं हो।

आ रही है कुछ बात समझ में?

इस तरह से देखना किसी सच्चे साधक के लिए ही सम्भव है क्योंकि ये कुल बात बड़ी ईमानदारी की है और बड़े एकान्त और अकेलेपन की है, इसमें कोई तुम्हारा साथ वगैरह नहीं दे सकता।

विज्ञान में तो तुम कुछ करते हो तो उसका पीयर रिव्यू हो जाता है, कोई और आकर के प्रमाणित कर जाता है कि तुमने जो किया वह बिलकुल ठीक है। अध्यात्म में तो तुम्हारे अलावा कोई होता ही नहीं। पीयर कौन-सा। पियर है, इसका भी प्रमाण कौन देगा, तुम्हीं तो दोगे।

तो अध्यात्म में तुम जो जानते हो, समझते हो उसको तो कोई प्रमाणित करने आ ही नहीं सकता, दूसरा। बहुत अकेलापन है, अपने ही भीतर जाना है, पूरी दुनिया वहीं बैठी हुई है।

बाहर कोई है ही नहीं, किसकी संगति लें। ये जो व्यक्ति है जो फिर अन्तर्गमन करने लगता है। ये ऐसी जगहों पर पहुँचने लगता है, जहाँ बड़ी शान्ति है, जहाँ सच्चाई है। यही ‘अध्यात्म’ है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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