जो भयभीत है उसके लिए भय ही विधि है || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2015)

Acharya Prashant

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जो भयभीत है उसके लिए भय ही विधि है || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2015)

डर करनी डर परम गुरु *,** डर पारस डर सार। *

डरत रहै सो ऊबरे *,** गाफिल खाई मार॥ *

~संत कबीर

वक्ता : डर करनी डर परम गुरु, डर पारस डर सार। डरत रहै सो ऊबरे, गाफिल खाई मार॥

एक और वचन उद्रत कर रहे हैं कि

भय बिन भाव न उपजे , भय बिन होई न प्रीत।

जब हृदये से भय गया, मिटी सकल जग रीत॥

वक्ता : तो कह रहे हैं कि ‘भय’ को लाभदायक क्यों कहते हैं कबीर? क्यों कह रहे हैं ‘भय’ को कबीर, लाभदायक?

श्रोता: सर, अभी हम लेक्चर के लिए तैयारी भी कर रहे होते हैं, तो उससे हम काफ़ी डर गए थे कि कैसा होगा, किस तरह से होगा। जो विचार काफ़ी समय से परेशान कर रहे थे, वो उस समय पर स्पष्ट नहीं हुए। तब उस समय पर यह चीज़ लगी कि थोड़ा बहुत भय था कि मेरा वो सेशन खराब न हो जाए। उस चक्कर में विचार से निकलने की कोशिश कर रहा था। तब यह लगा कि डर के आने की वजह से वो विचार चले गए, तो यह डर उस तरह बहुत फ़ायदेमंद हुआ।

वक्ता: डर क्या है? मिट्टी है? पत्थर है? सब्ज़ी है? इंसान है? चीज़ है? पकवान है? क्या है? डर क्या है?

श्रोता: एक विचार है।

वक्ता: ठीक है। डर एक मानसिक स्थिति है, ठीक है ना? डर एक मन है। यही है ना? और अगर मन वैसा हो ही तो? यदि मन वैसा हो ही जिसमें डर पलता हो, तो?

श्रोता: सर, तब डर ही का प्रयोग करना पड़ता है।

वक्ता: अब मन जैसा है, सो है। मन की हो ही गई ऐसी संरचना। मन का बन गया ऐसा ढर्रा कि चलता ही डर पर है। उसे ऊर्जा ही डर से मिलती है। डर के अलावा और किसी चीज़ से चलता ही नहीं। तो उसे तुम्हें चलाना है। तो कैसे चलाओगे?

एक मरीज़ ऐसा है, जिसे एक बीमारी लगी हुई है कि वो सिर्फ़ डर से चलता है। डर के अलावा किसी और ताकत को मानता ही नहीं। उसे तुम्हें एक कदम भी चलवाना है, तो डराना होगा। पर याद रखना, जो भी मन केंद्र से वियुक्त होगा, वो ऐसा ही हो जाएगा। डर कोई ख़ास बीमारी नहीं है। आपकी जितनी भी बीमारियाँ हैं, उन सबमें डर मौजूद है।

जो भी व्यक्ति पूर्णतया आध्यात्मिक नहीं है, वो डरा-डरा तो घूमेगा ही घूमेगा। हाँ, डर के विषय अलग-अलग हो सकते हैं, मौके अलग-अलग हो सकते हैं, जब आप डरे। हो सकता है एक माहौल में एक आदमी डरे, उसमें दूसरा न डरे। पर दूसरा कभी और डरेगा, डरेगा ज़रूर। जो भी मन आत्मा से वियुक्त है, वो डरेगा; तो ऐसा ही है, हमारा मरीज़। वो मात्र डर की उर्जा से ही चलता है। उस मरीज़ की बीमारी हटाने के लिए, उसे किसी डॉक्टर के पास आप ले जाना चाहते हो। कैसे ले जाओगे? कैसे ले जाओगे? बात ज़रा अजीब सी और थोड़ी अपमानजनक भी मालूम होती है कि मरीज़ को डॉक्टर के पास डरा कर लेकर जाना पडेगा? पर और क्या करोगे? यह बता दो। यह मन ऐसा है, जो डर के आलावा कुछ जानता नहीं।

हाँ, यदि मन स्वस्थ हो और फिर यदि डराने की कोशिश करो तो गड़बड़ होगी बात। अब जो स्वस्थ मन होगा, वो आपके डराने से डर जाएगा क्या? डर जाएगा? वो डरेगा नहीं।

वक्ता :(एक श्रोता की ओर इशारा करते हुए) अब अमृत यहाँ आज बैठा हुआ है। कोई अपने बोध के पांव से चल कर आया है!?

(सब श्रोता हंसते हैं)

वक्ता: कोई प्रेम के पंखों से उड़कर आया है? इस मरीज़ को मैंने जिस एम्बुलेंस में बुलवाया है, वो एम्बुलेंस किससे चलती है?

सब श्रोता (एक साथ): डर से।

वक्ता: क्या करें? बस इतनी सी है बात कह रहे हैं कबीर।

वक्ता: इसीलिए इतने आयोजन करने पड़े हैं। इतनी कहानियाँ सुनानी पड़ी हैं। इतने मिथ्य रचने पड़े हैं। स्वर्ग होता है, नर्क होता है। अरे! पता है भैया कि ‘नहीं करोगे तो नर्क में सड़ोगे’?

सही बात तो यह है कि नर्क में सड़ोगे नहीं; नरक में सड़ रहे हो। लेकिन तुम अंधे; तुम बीमार। तुम्हें समझ में ही नहीं आता कि जहाँ तुम हो इससे गहरा नर्क कोई हो ही नहीं सकता। तो तुम से कहना पड़ता है कि ‘नर्क में सड़ोगे’, तो तुम डर के भजन कर लेते हो। स्वर्ग-नर्क कोई जगह नहीं हैं, विधियाँ हैं।

आदमी के मूर्ख मन को ढर्रे पर लाने की विधियों का नाम है, यह ज़न्नत और जहन्नुम क्योंकी तुम्हारा मन तो भागता तो भविष्य की ओर ही है कि कल क्या होगा? कल क्या होगा? बीमार है। अपनी कुर्सी पर, अपने आसन पर बैठता ही नहीं। वो लगातार कहाँ को भागे रहता है? भविष्य को।

तो जब भविष्य की तरफ ही भागा रहता है तो ज़रा भविष्य की ही बात करते हैं। मरोगे ना, भविष्य में? हाँ। तुम्हे पता है, कि कुछ होता है भविष्य में? भविष्य की ही बात कर रहे हैं। मरने के बाद कुछ होता है। क्या होता है? दो विकल्प होते हैं। अब लम्पट तो तुम हो, कामुक हो गहरे! वासना तो भरी हुई है। तो उसका इस्तेमाल किया जाता है। कहा जाता हैं तुमसे कि देखो एक जगह होती है जहाँ हूरें, अप्सराएं, षोडशी कन्यायें, आधी नंगी नाच रही होती हैं और वो सदा यौवना हैं। उनकी उम्र नहीं बढ़ती। दूध की नदियाँ बहती हैं। वहां प्राक्रतिक एयर कंडीशनर चलता है। बिल ? नहीं देना होता!

(सब श्रोता हंसते हैं)

वक्ता: तो तुम्हारे लालची मन को जितनी बातें लुभा सकती है, वो सब बता दी जाती है, कि वहां मिलेंगी। बोले “ठीक है। क्या करना होगा वहां जाने के लिए?”

‘पासवर्ड’ है? क्या? ‘आर’, ‘ए’, ‘म’।

(सब श्रोता हंसते हैं)

वक्ता: और तुम कहते हो ठीक है। यह पासवर्ड तो याद रखेंगे। *‘आर’, ‘ए’, ‘म’*।

कुछ नहीं। बेहूदा मन, तो फिर उसको ऐसे ही विधि की दवाई देनी ही पड़ती है। दवाई बेहूदी है, पर इसने काम करा है। सदियों से इस दवाई ने काम करा ज़रूर है। इस स्वर्ग-नर्क के चक्कर में बहुत सुधर गए हैं। ‘ख़ुदा का खौफ़’, बड़ी तगड़ी दवा है। लोग डर के मारे सीधे हो जाते हैं। बस यही है।

(व्यंग करते हुए) समझ में आ रहा है, राहुल जी!?

(सब श्रोता हंसते हैं)

श्रोता : अभी एक डॉक्टर के पास गया। उसने एक दवाई प्रेसकराइब करी। उसे पता है कि मैं दवाई नहीं खाता हूँ तो उसने कहा कि *“सी फॉलो थिस रीलिजियसली ”*। (रीलिजियसली पर जोर देते हुए)

(सब श्रोता हंसते हैं)

श्रोता: सर, मैंने सुना था ‘*फ़ीयर इज द की’*।

वक्ता: फॉर? ‘एन अफ्रेड माइंड, फीयरफूल माइंड।’ उसको पूरा ज़रूर कर लेना। जहाँ ‘फीयरफूल माइंड ‘न हो, वहां ज़बरदस्ती फ़ीयर न लगा देना और तुममें यह विवेक होना चाहिए की कब वो मौक़ा आ गया है कि जब डर का प्रयोग नहीं भी करना है। वो भी विवेक होना चाहिए।

शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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