जिसने असत्ता जानी शरीर और मन की, वही करेगा खोज अब स्वयं की || संत कबीर पर (2014)

Acharya Prashant

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जिसने असत्ता जानी शरीर और मन की, वही करेगा खोज अब स्वयं की || संत कबीर पर (2014)

“एक दिन ऐसा होयगा, कोय काहू का नाही, घर की नारी को कहै, तन की नारी जाहि”।।

– संत कबीर

आचार्य प्रशांत: कबीर ये नहीं कह रहे हैं कि एक विशेष दिन ऐसा होगा, ऐसा है ही। ना घर की नारी तुम्हारी है और ना शरीर की नाड़ी तुम्हारी है। तुम्हारे चलाने से शरीर की नाड़ी चल रही है क्या? और तुम किस भ्रम में हो कि तुम्हारे घर की नारी तुम्हारी है! उसके अपने अहंकार हैं, उसके अपने उद्देश्य हैं, वो अपने उद्देश्यों पर तुम्हें चलाने को तत्पर है, वो तुम्हारी कहाँ से हो गई! लेकिन ये बात बहुत साफ-साफ शायद मौत के दिन ही दिखाई देती है कि, ‘मैं जा रहा हूँ पर कोई साथ आने वाला नहीं है।’ वही जो वाल्मीकि क्षण था। इतना ही किया था वाल्मीकि ने कि पूछ लिया था अपनी पत्नी से, क्या पूछा था?

प्रश्नकर्ता: "मैं तुम्हारे लिए जो चोरी-डकैती करता हूँ तो अगर मैं नरक जाऊँगा तो क्या तुम साथ आओगे?"

आचार्य: बस इतना ही पूछा था उसने कि, ‘साथ आओगे?’ बीवी ने कहा 'ना'; बच्चे ने कहा 'ना'। बीवी थोड़ी ईमानदार रही होगी, आजकल की होती तो कह भी देती कि, ‘हाँ जानू ज़रूर आऊँगी, तुम्हारा एटीएम कार्ड किधर है?’

‘एक दिन ऐसा होयगा, कोय काहू का नाही’।

तुम जो इतनी धारणाएँ पाल कर बैठे हो कि, "मेरा ये है और मेरा वो है", नहीं कुछ है ही नहीं तुम्हारा, सिर्फ प्रतीत भर हो रहा है तुमको। मौत के दिन वो प्रतीत होना भी बंद हो जाएगा। लेकिन कबीर ने भी अपेक्षाएँ ज़्यादा कर ली हैं। तथ्य यह है कि मौत के दिन भी सौ में से नब्बे अभागों को कुछ नहीं पता चलता। वो दूसरे दिन रहे होंगे जब मौत आकर सारे राज़ खोल देती थी। अब तो पहली बात मौत आती ही मुश्किल से है क्योंकि हज़ार किस्म की दवाइयाँ बन गई हैं और अगर आती भी है तो अहंकार इतना सघन हो चुका है कि कुछ नहीं खुलता।

इन्हीं दो पर हमारा अहंकार केंद्रित रहता है – शरीर और मन, और क्या कह रहे हैं कबीर कि ‘ना मन तुम्हारा है और ना शरीर तुम्हारा है।’ मन का द्योतक क्या है? घर की नारी मन का द्योतक है। क्या सोचे बैठे हो कि ये सब लोग जो तुम्हारे मन पर छाए बैठे हैं, कबीर ने कहा है न कि, 'जो मन से न उतरे माया कहिये सोए', यही सब तो मन पर छाए रहते हैं, घण्टों-घण्टों विचार करते हो कि पति क्या कर रहा होगा या पत्नी क्या कर रही होगी, और क्या है माथे का भार!

दिन भर और क्या सर पर चलता रहता है? रिश्तेदार, काम, सम्बन्ध, पति, पत्नी, बच्चे, माता, पिता — यही मन है, इसी को कबीर घर की नारी कह रहे हैं; इनको तुम मन पर लादे हो; यह मन तुम्हारा नहीं है, और दूसरा जो तुम्हारी आसक्ति रहती है, तादात्म्य रहता है शरीर से, वो भी नहीं रहने वाला है। और जो याद रख सके कि नहीं रहने वाला है उसका जीवन बिलकुल बदल जाएगा, बिलकुल दूसरे तरीकों से चलेगा।

संतों ने बार-बार हमें मृत्यु का स्मरण कराया है। कबीर तो कबीर हैं, कबीर से ज़्यादा फ़रीद; फ़रीद लगातार-लगातार बुढ़ापे की ही बात करते हैं। क्यों कराते हैं बार-बार मौत का स्मरण?

जिसे मौत लगातार याद है सिर्फ वही जीवन में धोखा नहीं खाएगा। जिसे मौत लगातार याद है सिर्फ वही जी सकता है, और कोई नहीं।

हम अपनी दैनिक क्रियाएँ ऐसे करते हैं जैसे कि यह शरीर अमर हो। हम लोभ और नफरत ऐसे पालते हैं जैसे कि हम हमेशा यहाँ रहने वाले हैं। ऐसा नहीं है कि पता नहीं है कि नहीं रहेंगे, पालते ही इसी लिए हैं कि अभी डर है कि नहीं रहेंगे।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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