कबीरा खड़ा बाज़ार में लिए लुकाठी हाथ। जो घर जारे आपना चले हमारे साथ।। ~ कबीर साहब
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कबीर दास जी घर को जला कर कहाँ चलने को कह रहे हैं? वो जगह हमारे इस घर से कैसे भिन्न है? हम तो जहाँ जाते हैं, वहीं अपना घर बना लेते हैं। कृपया, समझाने की कृपा करें।
आचार्य प्रशांत: इस पर ख़ूब बोला है। इस पर कुछ नहीं तो आधा दर्जन वीडियो होंगे मेरे, पर दोहराए देता हूँ।
संतजन जो कुछ भी बोलते हैं, भले ही वो स्थूल तल पर बोला गया है, पर वो एक इशारा होता है, एक प्रतीक होता है जो आपको किसी सूक्ष्म चीज़ की याद दिलाने के लिए बोला होता है।
हम जब कहते हैं 'घर', तो जैसी हम स्थूल ज़िंदगी जीते हैं, वैसे ही स्थूल आशय होते हैं हमारे 'घर' से। तो हम जब कहते हैं 'घर', तो हमारा मतलब होता है ये ईंट-पत्थर इत्यादि-इत्यादि, ये सब मोटी बातें।
जब संत कहें 'घर', तो उनका मतलब है वो जगह जहाँ तुम रह रहे हो। और उनके लिए इस ‘तुम’ शब्द का अर्थ थोड़ा अलग होता है। वो तुम्हारी वास्तविक पहचान की बात कर रहे हैं। तुम कहाँ रहते हो, तुम्हारे मन की बात कर रहे हैं। उनसे पूछोगे तो वो कहेंगे कि तुम ये ईंट-पत्थर में थोड़े ही रहते हो, तुम अपने मन में रहते हो।
अगर ईंट-पत्थर में ही तुम रहते होते तो जितने लोग ईंट-पत्थर के भीतर थे, उन सब का घर एक होना चाहिए था, उन सबको एक-ही जगह मौजूद होना चाहिए था। पर अगर एक ही कमरे में दस लोग हैं, तो ईमानदारी की बात ये है कि उन सबकी मौजूदगी अलग-अलग जगह होती है। होती है कि नहीं? एक ही कमरे में दस लोग मौजूद हों भले शारीरिक रूप से, लेकिन वो सब होते अलग-अलग जगह हैं।
जब संत कहते हैं 'घर', तो उससे आशय होता है वो जगह, वो लोक, जहाँ तुम विचर रहे हो। तुम्हारा मनोलोक, तुम्हारा कल्पना लोक। ये जो मन का आकाश है, उसकी बात कर रहे हैं। कह रहे हैं कि भाई! जो उससे मुक्त होने को तैयार हो, वो हमारे पास आए। जो घर जारे आपना, चले हमारे साथ।
समझ में आ रही है बात?
पर हम बिलकुल ख़ौफ़ज़दा हो जाते हैं। कहते हैं, ‘अरे! क्या बोल दिया, घर जलाकर हमारे पास आना है! क्या कर रहे हैं ये!’ मन को ही मुक्ति चाहिए होती है न! तो मन जिस जगह पर क़ैद हो, वो मन का घर है। मन आमतौर पर इन चार-पाँच दीवारों की परवाह करता ही नहीं, क्योंकि ये दीवारें उसे क़ैद कर सकती ही नहीं हैं।
यहाँ कोई बैठा है जिसे इन चार दीवारों ने क़ैद कर दिया हो? ये चार दीवारें किसको क़ैद कर सकती हैं अधिक-से-अधिक? आपके शरीर को क़ैद कर सकती हैं। यहाँ जितने खिड़की-दरवाज़े हैं, सब बंद कर दिए जाएँ तो भी अधिक-से-अधिक कौन क़ैद हो जाएगा? — आपका शरीर; आपका मन तो विचरता ही रहेगा न!
इसी तरीक़े से ये बताइए कि मुक्ति कौन माँगता है? आपका घुटना? आपकी नाक? आपका कान? या मन? मन माँगता है न! तो इसीलिए मन की मुक्ति आवश्यक है। और मन का इन दीवारों वाले घर से कोई सम्बन्ध नहीं होता, मन को मुक्ति चाहिए अपने कल्पना घर से।
जो मन का अपना गुड़ियाघर है, जो मन का अपना खिलौनाघर है, मन को उससे मुक्ति चाहिए, क्योंकि इस घर में तो मन क़ैद है ही नहीं। इसमें कौन क़ैद है? शरीर। मन तो उस गुड़ियाघर में क़ैद है। तो साहब उस गुड़ियाघर को जलाने की बात कर रहे हैं। वो जो खिलौनाघर बना रखा है न तुमको, उसको जलाने की बात कर रहे हैं, उसको जलाओ।
और उसको जलाना क्यों ज़रूरी है? क्योंकि वो क़ैद है। तुम्हीं परेशान हो न! तुम्हीं परेशान हो न! तो इसलिए कह रहे हैं, ‘जला दो।’ तुम उस क़ैद से अगर प्रसन्न हो, तो बिलकुल मत जलाओ। हम ही परेशान रहते हैं न कि मन ऐसा होता है; ‘आचार्य जी, मन बड़ा व्यथित रहता है।’ ‘आचार्य जी, मन नहीं लगता।’ ‘आचार्य जी, बड़ा खिन्न है मन।’ — ऐसी बातें हम ही करते हैं न! तो मन परेशान है।
मन इसीलिए परेशान है क्योंकि मन अपने काँच के घर में, अपने खिलौनाघर में क़ैद है। उस क़ैद का मतलब क्या है? उस क़ैद का मतलब ये है कि मन वही देख रहा है जो कुछ उस घर के अन्दर है, उसके बाहर कुछ देख ही नहीं पाता।
जो घर है मन का, उसको गूंजघर भी बोलते हैं, ईको चैम्बर (गूंज कक्ष)। वहाँ उसको वही दिखायी देता है, जो वो देखना चाहता है। वहाँ उसको वही सुनाई देता है, जो वो कहता है। मिरर हाउस (दर्पण घर) या ईको चैम्बर है। परेशान रहता है, वो कहता है, ‘अरे! दुनिया बड़ी ख़राब है, दुनिया बड़ी ख़राब है।’
पागल! दुनिया में और है क्या तुम्हारी अनुगूंज के अलावा? दुनिया में और है क्या तुम्हारी परछाई के अलावा? तो अगर तुम परेशान भी हो दुनिया से, तो वास्तव में तुम किससे परेशान हो? अपनेआप से परेशान हो तुम। तो इसलिए संतजन कहते हैं कि जिस चौखटे में क़ैद हो तुम, उस चौखटे को तोड़ना बहुत ज़रूरी है। वही चौखट दर्द-दुख है तुम्हारा। ‘जो घर जारे आपना।’
माने ये जो तुमने अपना ही कारागार बना रखा है, बाहर क्यों नहीं आते इससे!