प्रश्नकर्ता: जय हिंद आचार्य जी, मेरा सवाल ये है कि जैसे आपके एक विषय पर कई-कई वीडियोज हैं। तो कभी-कभी ऐसा होता है कि दो बातों में, एक ही विषय है, लेकिन विरोधाभास सा प्रतीत होता है। जैसे कि भय पर आपने बोला है तो भय पर कहते हैं कि हर उस आवाज़ को नकार दो जो तुम्हें भयभीत करती हो, वह आवाज़ तुम्हारी हितैषी नहीं हो सकती। लेकिन फिर एक दूसरे वीडियो में ये भी कहते हैं कि इंसान को कभी निर्भय होना नहीं चाहिए क्योंकि अगर वो निर्भय होता है तो ये झूठी निर्भयता है, ऐसा आत्मविश्वास आपको ही ले डूबेगा।
तो इसको हम अगर ऐसे देख सकते हैं कि सत्य इतना बड़ा है कि द्वैत के दोनों सिरे उसमें समाहित हैं या फिर हम इसको ऐसे देखें कि सत्य का जो मार्ग है वो स्थिति सापेक्ष है, उसमें कोई एक सिद्धान्त हमेशा के लिए लागू नहीं हो सकता।
आचार्य प्रशांत: दूसरी बात।
प्र: दूसरी बात?
आचार्य: तुम जो कुछ भी हो, वही तुम्हारा बन्धन है न। तुम छोटे हो तो तुमसे कहा जाएगा, छोटे मत रहो। तुम बहुत बड़े बने बैठे हो, तुमसे कहा जाएगा कि इतने बड़े मत बनो। तुम जो कुछ भी बने बैठे हो, वही समस्या है। जो भय वाली बात तुमने कही, ठीक है, पहली बात ये कि भयभीत मत हो जाना। और जो दूसरी बात कही कि भयभीत तो तुम हो ही और उसके ऊपर तुम निर्भयता का स्वाँग ओढ़े हुए हो, ये तुम्हारे भय को और सुरक्षित कर देता है। तुम्हारे भय के ऊपर निर्भयता का कवच चढ़ा हुआ है, झूठा कवच। भीतर भय है और उसने क्या अपने ऊपर डाल रखा है? निर्भयता का स्वाँग। मैं इस झूठी निर्भयता के ख़िलाफ़ बोलता हूँ।
क्यों भय के ख़िलाफ़ इतना बोलना पड़ता है, समझना। जितने लोग भयभीत हैं, अगर उनके आचरण में, उनके चेहरों में, उनकी आवाज़ में, व्यवहार में, साफ़-साफ़ भय झलक ही रहा होता तो मुझे क्यों बोलना पड़ता कि देखो, तुम कितने डरे हुए हो? क्योंकि तब तो स्पष्ट ही होता कि वो डरे हुए हैं न। हम लेकिन बड़े हुनरमन्द लोग हैं, हम हैं डरे हुए और ऊपर-ऊपर से निर्भयता का, आत्मविश्वास का ढोंग करते हैं। ऐसों को मैं बोलता हूँ कि ये निर्भयता किसी और को दिखाना, ये निर्भयता बहुत घातक है।
डर हटेगा तो तब न, जब पहले तुम स्वीकारोगे कि तुम कितने ज़्यादा डरे हुए हो। हम हैं डरे हुए ही लेकिन ऊपर से ऐसे, ‘हाँ-हाँ, मस्त हैं, बहुत बढ़िया चल रहा, सब ठीक है।’ और सतह को थोड़ा सा कुरेदो तो भीतर से खून बहने लगता है। समझ में आ रही है बात? भय का खुला उद्घाटन कहीं ज़्यादा शुभ है, झूठी निर्भयता के प्रदर्शन से। अब यहाँ पर भी वही जो आजकल प्रचलित सिद्धान्त है वही बाधा है। प्रचलित सिद्धान्त क्या है? अपियर कॉन्फिडेंट (आत्मविश्वास से परिपूर्ण दिखना), अपियर कॉन्फिडेंट।
विज्ञापन चल रहे हैं कि छः-छः, आठ-आठ साल के बच्चों को कॉन्फिडेंट पब्लिक स्पीकिंग (आत्मविश्वासी सार्वजनिक भाषण) सिखाएँगे हम। वहाँ क्या किया जा रहा है? वो बच्ची है छः साल की, उसको मंच पर माइक लेकर खड़ा कर दिया जा रहा है और उसको बस एक चीज़ बार-बार बोली जा रही है, 'अपीयर कॉन्फिडेंट' (आत्मविश्वासी दिखो) और माँ-बाप एकदम खुश हो रहे हैं कि देखो, एकदम डर नहीं रही, कुछ भी बोल रही है। वो डरी हुई है, तुमने ऊपर-ऊपर से उसको निडरता का नक़ाब पहना दिया है। अब उसका डर कभी नहीं हटेगा, तुमने उसके भीतर के डर को सुरक्षित कर दिया, जैसे ममी में लाश सुरक्षित हो जाती है। मरी हुई चीज़ है लेकिन बहुत सुरक्षित है, उसी को ममी कहते हैं न।
और हममें से ज़्यादातर लोग ऐसे ही हैं। आप जब सन्देह में होते हैं कभी, आप सन्देह को अपने चेहरे पर झलकने देते हैं? नहीं झलकने देते, क्योंकि आपको लगता है अगर मैंने दिखा दिया कि मैं अभी सन्देह में हूँ, डाउट (सन्देह) में हूँ, संशय, कंफ्यूजन (भ्रम) में हूँ तो कोई मेरा फ़ायदा उठा लेगा। तो आप चेहरे पर ऐसे दिखाते हैं, 'या, या, आई सी, आई सी (हाँ-हाँ, समझ रहा हूँ)।' आई सी?
हम जो हैं भीतर से, अगर वो प्रकट होने लग जाए हमारे जीवन में, आचरण में, व्यवहार में तो हम बहुत जल्दी सुधर जाएँगे, सबकुछ ठीक हो जाएगा। लेकिन हमारी झूठी शिक्षा और मन्दबुद्धि व्यवस्था ने हमें बता दिया है, 'भीतर क्या है, कोई फ़र्क नहीं पड़ता, तुम ऊपर-ऊपर से ठीक रहो बस। बस ऊपर-ऊपर से ठीक रहो।'
जैसे आपको कोई त्वचा रोग हो गया हो। त्वचा रोग है, कोई बहुत गम्भीर चीज़ नहीं। लेकिन असाध्य हो सकता है, बहुत सारे त्वचा रोग होते हैं जो असाध्य होते हैं, वो ठीक नहीं हो सकते, जेनेटिक (आनुवांशिक) होते हैं। आप गये हैं चिकित्सक के पास और वो आपको एक दवाई दे रहा है। वो दवाई ऐसी है कि जो आपकी इम्युनिटी (रोग प्रतिरोधक क्षमता) को ही सप्रेस (दबा देती है) कर देती है। वो आपके शरीर की पूरी व्यवस्था को ही बदल देती है ताकि आपका त्वचा रोग जो है वो ठीक हो जाए। अब बीमारी सिर्फ़ त्वचा की थी लेकिन उसने भीतर सब गड़बड़ कर दिया, लिवर, किडनी सब।
और ये आँखों देखी बता रहा हूँ, चिकित्सक से पूछा गया, ‘ये भीतर क्या करेगी दवाई? क्योंकि हमने पढ़ा है कि भीतर ये कई तरीक़े के दुष्प्रभाव डालती है।’ तो बोल रहा है, ‘आपको क्या फ़र्क पड़ता है भीतर क्या कर रही है?’ ये हमारी व्यवस्था है। ‘आपको क्या फ़र्क पड़ता है भीतर क्या है? ऊपर-ऊपर से खाल चमक रही है न। भीतर क्या है, फ़र्क क्या पड़ता है।’ भीतर क्या है, फ़र्क नहीं पड़ता? तुम्हें खाल के साथ जीना है? तुम्हारा लिवर ख़राब होगा, तुम्हारी किडनी ख़राब होगी, तुम खाल के साथ जी लोगे? लेकिन हम जी लेते हैं (मुस्कुराते हुए), हम अद्भुत हैं! हम सब ऐसे ही जीते हैं। भीतर से एकदम सड़े हुए हैं, खाल चमक रही है।
डरे हो तो प्रकट होने दो कि डरे हो, कोई अपमान नहीं हो गया।
मैं बताता हूँ, अपमान क्यों नहीं हो गया। जानते हो न कि डर तो झूठ है, वो प्रकट हो भी गया तो ये बात तो फिर भी अपनी जगह क़ायम है कि तुम सर्वशक्तिमान आत्मा हो। डरना अभी एक आती-जाती बात है, स्थिति का संयोग है। अभी हम डरे हुए हैं, इसका अर्थ ये थोड़े ही है कि हममें कोई मूल खोट आ गयी। तो इसीलिए हमें अपना डर प्रकट करने में कोई लज्जा नहीं। समझ में आ रही है बात?
आप बहुत अमीर आदमी हैं, बहुत अमीर आदमी हैं, आप जाते हैं किसी ढाबे में कुछ खा लेते हैं और अब वहाँ पर आपको जब भुगतान करना है तो वो कहता है, ‘मैं तो सिर्फ़ कैश (नकद) लेता हूँ।’ बहुत बार ऐसा होता है, छोटी दुकानें होती हैं, कहते हैं, ‘सिर्फ़ कैश लेता हूँ।’ आप कहते हैं 'कार्ड ले लो', कहता है, 'मशीन नहीं है।' आप कहते हैं, ‘यूपीआई ले लो’, वो बोलता है, ‘मेरे पास ये भी नहीं।’ आपको लज्जा आने लगती है कि आप कितने ग़रीब हैं कि एक ढाबे पर भी पैसे नहीं दे पा रहे? आप शर्म के मारे मर जाते हैं? आत्महत्या कर लेते हैं? क्या करते हैं?
ये इस स्थिति की बात है कि मैं दो रोटी का भी भुगतान नहीं कर पा रहा लेकिन मुझे मालूम है कि मेरे पास प्रचुर सम्पदा है। तो लाज कैसी? वैसे ही डर है, ये इस स्थिति की बात है कि मैं डर गया। संयोग की बात है कि मैं डर गया। सच्चाई मेरी दूसरी है, मेरी सच्चाई में कोई डर नहीं। तो इसीलिए अगर मैं डर गया हूँ तो मैं उसको प्रकट करने में हिचकिचाऊँगा नहीं। मैं उस ढाबे वाले से साफ़ बोल दूँगा, ‘भाई, देखो कैश नहीं है। कार्ड है, भीम है, पेटीएम है, तुम एक काम करो, किसी और के मोबाइल में करवा लो, उससे तुम अपना हिसाब कर लेना।’ कर लेते हो न ऐसा ही कुछ? कुछ प्रबन्ध कर लेते हैं कि नहीं? या डरने लग जाते हैं कि अब तो ये मुझसे अपने बर्तन मँजवाएगा, हाय! हाय! अब मेरा क्या होगा, ऐसा होता है?
डर भी वैसी ही चीज़ है, डर अभी आ गया है, मुझे डर लग रहा है, मैं इसमें लजाऊँ क्यों? डर अभी आया है, मेरा नाम थोड़े ही है डरपोक? अभी आया है, अभी चला भी जाएगा, स्थिति की बात है, मेरी प्राकृतिक संरचना की बात है कि डर आ गया। इतना क्या शर्माना कि डर को छुपा कर ऊपर से कॉन्फिडेंट बनें। क्यों छुपाये, साफ़-साफ़ बोलेंगे, ‘हाँ डरे हुए हैं।’
जैसे वो ढाबे वाले से साफ़ बोलते हो कि अभी हमारे पास कैश नहीं है। साफ़ बोलते हो, नहीं बोलते हो? या ऐसे बोलते हो कि अभी कैश छप रहा है, आ रहा है, आ रहा है, आएगा। मेरे कपड़ों में सत्रह पॉकेट्स (जेबें) हैं, एक-एक करके खोज रहा हूँ, कहीं से तो निकलेगा ही। कहीं और नहीं निकला तो मोज़े के अन्दर होगा, ऐसे करते हो? साफ़ बोलते हो न, 'नहीं है।'
वैसे ही जब डर आये, सन्देह आये, कुछ भी और आये जीवन में, मन में, जो चीज़ तुम जानते हो कि व्यर्थ की है, साफ़ प्रकट कर दो, ‘हाँ है, अभी है।’ वो प्रकट करने के लिए पहले ये श्रद्धा चाहिए कि ये अभी है, पर ये मेरी सच्चाई नहीं है। मेरी सच्चाई दूसरी है, तो मैं लजाऊँ क्यों? लाज की बात तब है जब तुम डर को ही अपनी सच्चाई मान लो और व्यर्थ ही आत्मविश्वास का ढोंग करो, फ़ालतू कॉन्फिडेंट बनकर घूमो। समझ में आ रही है बात?
फ़ालतू का कॉन्फिडेंस नहीं चाहिए। ग़लती हो गयी है, मान लिया, सिर झुका दिया। अपनी अच्छाई प्रकट करें चाहे न करें, बुराई तो बिलकुल नहीं छुपाएँगे। और दूसरों पर बाद में ज़ाहिर करेंगे, सबसे पहले स्वयं से प्रकट करेंगे कि हाँ, अभी-अभी ये कमज़ोरी दिखायी, अभी-अभी ये दोष दिखाया। स्वैग (गर्व) कॉन्फिडेंट बनकर घूमने में नहीं है, स्वैग सच्चाई में है, आत्मा का स्वैग , ठीक?
'आपने जो, आचार्य जी, फ़लानी किताब लिखी है, उसमें चार ग़लतियाँ अभी-अभी मैंने पकड़ीं।’ ठीक है, हो सकती हैं। क्या उम्मीद करके आये थे, मैं रोने लगूँ अभी कि ग़लती हो गयी? हाँ, हो सकती हैं। अब मेरा काम है कि मैं उन ग़लतियों को ठीक कर दूँ, लजाऊँगा-शर्माऊँगा नहीं। क्यों? बदनीयती तो नहीं है। वो ग़लतियाँ हैं, मेरी सच्चाई तो नहीं हैं।
बहुत घबराओगे ग़लती करने से तो ग़लतियाँ कम नहीं करोगे, ग़ौर करना, ग़लतियों पर पर्दा डाल दोगे। अगर ग़लतियाँ ज़्यादा बुरी लगने लगेंगी न, तो कम नहीं हो जाएँगी, तुम उन पर पर्दा डालना शुरू कर दोगे। जब ग़लती हो, तुरन्त स्वीकार करना है, ‘हो गयी।’ और साधारण सी प्राकृतिक बात है कि हो गयी, मैं पैदा ही ऐसा हुआ हूँ, सब ऐसे पैदा होते हैं, हम ग़लती ही करने के लिए पैदा होते हैं। ये तो ग़लती ही है कि हम पैदा ही होते हैं। ग़लती तो करेंगे, हुई।
अब काम क्या है हमारा? सुधारना। सुधारता चलूँगा, सुधारता चलूँगा, कहीं नहीं रुकूँगा। अपने दोष ढूँढ-ढूँढकर प्रकट करूँगा। लड़ूँँगा, सुधारूँगा, छुपाऊँगा नहीं, ढोंग नहीं करूँगा। सॉर्टेड (सन्देहमुक्त, आश्वस्त) बनने की कोशिश नहीं करूँगा, कि सॉर्टेड हूँ। कौन सॉर्टेड है यहाँ पर?
गीता अस्तित्व में ही नहीं आती अगर अर्जुन बोल देता, ‘मेरा तो सब सॉर्टेड है, भाई।’ शुरुआत ही होती है विषाद योग से। पहाड़ जैसा अर्जुन, उनकी क्षमता देखिए, बहादुरी देखिए, धनुष के साथ कौशल देखिए और क्या बोल रहे हैं? बोल रहे हैं, ‘मेरे पाँव काँप रहे हैं, धनुष उठाया नहीं जा रहा, पूरे शरीर में रोएँ खड़े हो रहे हैं, ऐसा लग रहा है जैसे खाल जल रही है ज्वर में।’ साफ़-साफ़ प्रकट किया न कि मेरी हालत ख़राब है इस वक़्त, केशव, बहुत ख़राब हालत है मेरी। तब गीता अस्तित्व में आयी।
अगर आप अपनी ख़राब हालत प्रकट ही नहीं करेंगे तो कोई कृष्ण आपके सामने नहीं आएँगे गीता लेकर। वो भी वहाँ पर स्वैग लेकर घूम रहा होता, ‘मैं तो अर्जुन हूँ! गाण्डीवधारी धनुर्धर हूँ मैं, मुझे क्या समस्या हो सकती है? यो मैन दुर्योधन।’ भीतर-ही-भीतर सब अर्जुन जैसे हैं, काँप रहे हैं, हिल रहे हैं, थर-थर-थर-थर। नहीं?