दूसरों की मदद का भ्रम || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

Acharya Prashant

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दूसरों की मदद का भ्रम || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

प्रश्न: सर, दूसरों को समझाना बड़ा आसान होता है लेकिन जब खुद पर बात आती है तो इन्सान अमल नहीं का पाता। ऐसा क्यूँ?

वक्ता: मज़ा आता है न। दूसरे को समझाना बड़े मज़े की चीज़ है। हम दूसरे को समझा-समझा के खुद को ये दिलासा दिए रहते हैं कि हम समझदार हैं। दुनिया को देखो, तो कितने लोग हैं जो मदद करने के लिए उत्सुक हैं? कुछ दे दें दूसरे को, समझा दें, अक्ल दे दें, नसीहत दे दें। अहंकार इससे खूब बढ़ता है। मन कहता है, ‘’वाह! तू खूब बड़ा, तूने किसी को कुछ दे दिया’’ और इस दूसरे को समझ देने में, दिशा देने में, ज्ञान देने में मन को एक सहूलियत हो जाती है। क्या सहूलियत हो जाती है? कि उसे अपनी ओर नहीं देखना पड़ता। पर हम मन से कभो ये नहीं पूछते कि, ‘’क्या तुझे अपने अच्छे-बुरे का पता है? क्या तुझे पता कि है तेरे लिए क्या उचित है? और जब तुझे अपने अच्छे-बुरे का नहीं पता, जब तू ये नहीं जानता कि तेरे लिए क्या उचित है तो तू दूसरे को नसीहत कैसे दे सकता है? जब तू आज तक अपनी ही मदद नहीं कर पाया तो तू दूसरे की मदद कैसे कर सकता है?’’

पर तुम दुनिया को देखो, हर कोई दूसरे की मदद करने को तैयार बैठा है। दुनिया भरी हुई है ऐसे लोगों से जो सिर्फ़ मदद और मदद ही करते रहते हैं। उनका एक सूत्रीय कार्यक्रम है: मदद करना। अपने जीवन को देखने में, वो या हम, कोई उत्सुकता नहीं दिखाते क्यूँकी अपने जीवन को देखेंगे तो कुछ वास्तविक करना पड़ेगा। वहाँ अहंकार, टूटेगा, वहाँ सत्य के संपर्क में आना पड़ेगा, वहाँ चोट लगेगी। वहाँ हमारे ढांचों को टूटना पड़ेगा, हमारी कल्पनाओं को टूटना पड़ेगा। तो वो कौन करे? अपनी मदद कौन करे?

गौरवान्वित कर दो इस बात को कि दूसरों की मदद करनी चाहिए और हमें लगातार सिखाया भी यही गया है कि दूसरों के काम आओ! ये तो हमसे कभी कहा ही नहीं गया कि पहले अपने तो काम आओ और हमने कभी ये बुला कर पूछा भी नहीं कि, ‘’यदि मैं अपने काम नहीं आ सकता तो दूसरों के काम कैसे आऊंगा?’’ जो खुद सड़क नहीं पार कर सकता वो दूसरों को कैसे पार कराएगा? जो खुद अँधा है वो दूसरों को कैसे राह दिखाएगा? संत कबीर ने कहा है, ‘अँधा –अंधे ठेलिया’। कबीर ने दुनिया को ऐसे ही देखा कि अँधा अंधे को रास्ता दिखा रहा है। वही हमारा हाल है।

जिन लोगों ने आज तक तुम्हें रास्ता दिखाया है, नसीहत दिखाया है, सलाह दी है उनके जीवन की ओर ध्यान से देखो। क्या तुम्हें उनके जीवन में रौशनी दिखाई देती है? और जब वो अपने जीवन में रौशनी नहीं ला पाए, जब उनका जीवन लगातार सशंकित रहता है, दुविधाओं में रहता है, डर से भरा रहता है, हिंसा से भरा रहता है तो वो तुम्हें क्या दे सकते हैं? पर ये बड़ी मज़ेदार बात है कि जो आदमी जितने अंधकार में रहता है उसे उतनी ही रुचि रहती है दूसरों को प्रकाश देने में। मात्र रुचि ही नहीं होती, उसके लिए आवश्यक हो जाता है कि ऐसे लोग बने रहें, जो उसकी मदद मांगें।

यदि मेरा काम ही यही है कि मैं दूसरों की मदद करता रहूँ, मुझे अपने आप से नज़र चुरानी है और लगातार दूसरों की ओर ही देखते रहना है, एक झूठ में जीना है मुझे, तो मेरे लिए ज़रूरी हो जाता है कि मेरे आस पास ऐसे लोग बने रहें जो मेरी मदद के आकांक्षी हों। और मुझे बहुत अच्छा लगेगा जब लोग मुझसे मदद मांगने आएँगे। कई लोग बिलकुल प्रसन्न हो जाते हैं जब तुम उनके पास मदद मांगने जाओ। जो तुम्हारी मदद मांगने से खुश होता हो, जिसको इस बात में ख़ुशी मिलती हो कि कोई मेरे पास माद मांगने आया, उसको इस बात से दुःख भी होगा कि लोग अब मेरे पास मदद मांगने नहीं आ रहे।

ये बात कितनी खतरनाक है इसको समझना। अगर मुझे इस बात से दुःख होने लगे कि तुम मेरे पास मदद मांगने क्यूँ नहीं आ रहे, तो मेरी हमेशा यही कोशिश बनी रहेगी कि तुम हमेशा ऐसे बने रहो जिसको मेरी मदद की ज़रूरत है। ‘’मैं ये कभी नहीं चाहूँगा कि तुम अपने पाँव पर खड़े हो जाओ और अपनी समझ से जीवन जियो क्यूँकी अगर तुम अपनी समझ से जीवन जीने लग गए, तो तुम्हारे जीवन में मेरी उपयोगिता ही नहीं रहेगी। अगर तुम अपने पाँव पे खड़े हो गए तो तुम मेरी बैसाखियाँ मांगोगे ही नहीं। तो मैं लगातार यही चाहता रहूँगा कि तुम अपाहिज बने रहो, मैं लगातार यही चाहता रहूँगा कि तुम मूर्ख बने रहो। मूर्ख बने रहो और समझ लेने मेरे पास आओ। मेरे अहंकार को उससे बड़ा मज़ा आएगा; बड़ी तृप्ति मिलेगी, बड़ा बल मिलेगा उसे।’’

और ये खेल बड़ा गन्दा है, बड़ा ख़तरनाक है। तुमको लगातार यही लगता रहेगा कि कोई हमारा फ़ायदा करा रहा है, हमें लाभ मिल रहा है। तुम जानोगे भी नहीं कि लाभ नहीं है, ये साज़िश है। ये तुमको अपंग बनाए रखने की साज़िश चल रही है और लगातार यही किया गया है। समाज द्वारा, शिक्षा द्वारा, धर्म द्वारा लगातार यही तो कोशिश की गई है कि तुम निर्भर बने रहो किसी और पर। तुम्हारा प्रकाश तुम्हारे भीतर उठे, ये कहने वाले, ये करने वाले लोग ही मुट्ठी भर हुए हैं। बाकियों की तो कोशिश ही यही है कि तुम्हारे प्रकाश का स्रोत लगातार तुमसे बाहर रहे और तुम उस पर निर्भर रहो। रिश्ते नातों पर, किसी किताब पर, किसी धारणा पर, किसी धर्म पर तुम निर्भर बने रहो, सबकी यही कोशिश है। और जो तुमको निर्भर बनाए रखने में उत्सुक हो, वो तुम्हारा हितैषी नहीं हो सकता। जिसकी उत्सुकता यह है कि तुम लगातार निर्भर बने रहो, जिसकी उत्सुकता ये है कि तुम समझ के लिए उसके पास आओ, वो तुम्हारा हितैषी नहीं रह सकता।

जानते हो असली मदद क्या है?

असली मदद है :उसको कुछ ऐसा दे देना कि अब वो मदद मांगे ही नहीं।

तुम वास्तव में अगर प्रेम करते हो किसी से तो तुम ये नहीं चाहोगे कि वो तुम्हारी मदद लेने आए। तुम कहोगे कि, ‘’तू काबिल है और उठ, जग जा। तुझे किसी की मदद की आवश्यकता ही नहीं है।’’ और ये उसकी आखिरी मदद होगी। अब इसके बाद उसे कोई और मदद नहीं चाहिए। बिलकुल कोई मदद नहीं चाहिए उसको, यही एक मात्र मदद है जो तुम कर सकते हो कि, ‘’जा, आज के बाद तुझे मदद की आवश्यकता ही नहीं रही। अपने पंखों से उड़,’’ पर जीवन में हम उल्टा देखते हैं। हम देखते हैं कि जिन लोगों का दावा है हमसे प्रेम करने का वो परेशान हो जाते हैं, तिलमिला उठते हैं अगर तुम उनकी मदद अस्वीकार कर दो और उन्हें बड़ा अच्छा लगता है अगर तुम उनसे जा कर कहो कि, ‘’अगर आप न हों, तो मेरा क्या होगा।’’ उन्हें बहुत अच्छा लगता है कि अगर तुम उनसे कहो कि, ’’मैं तो बात-बात के लिए आपका ही मुँह देखता हूँ।’’ मन बिलकुल प्रसन्न हो जाता है और ये अपराध है। ये कहना भी अपराध है, और इस बात पर प्रसन्न हो जाना भी अपराध है।

अपनी मदद खुद करो और जो तुमसे मदद मांगने आए, उसकी भी बस इतनी सी मदद कर दो कि उसको जगा दो ताकि वो भी अपनी मदद खुद कर सके। यही मदद है, इसके अलावा और कोई मदद नहीं होती। तुमने समझ कहा न, नसीहत कहा न? यही एक मात्र नसीहत है जो दी जा सकती है कि, ‘’तू उठ’’; इसके अलावा और कोई नसीहत दी नहीं जा सकती। एक दीपक दूसरे दीपक को भी प्रकाशित कर सकती है और प्रकाशित करके दूर हट जाती है, फिर उसका काम ख़त्म। अब दूसरे दीपक के पास अपना प्रकाश है, वो दूसरे से उधार नहीं माँग रही। पहली गई, उसके संपर्क में आई और अब उसकी भी रौशनी जली। और उसके पास अपनी रौशनी है। अब दूसरी पहले पर निर्भर नहीं है और न दूसरी पहले के प्रति बहुत धन्यवाद व्यक्त करने आएगी। दीये का काम है रौशनी देना, उसका स्वभाव है।

श्रोता: सर, पर किसी-किसी का स्वभाव भी तो होता है न मदद करना।

वक्ता: मैं वही तो कह रहा हूँ न कि जो दूसरों की मदद कर रहा है वो दूसरों पर आश्रित हो गया। तुम अगर ये सोच रहे हो कि तुम किसी से मदद मांगने गए, तुम किसी पर आश्रित हो, तो तुम सिर्फ़ आधी ही कहानी देख पा रहे हो। तुम जिससे मदद माँग रहे हो, वो भी तुम पर आश्रित है। उसका जो पूरा अहंकार है वो इसी बात पर टिका हुआ है कि, ‘’मैं कौन हूँ? मैं मददगार हूँ।’’ तुम अगर उससे मदद न लो, तो वो बहुत दुखी हो जाएगा। वो गिड़गिड़ाएगा कि, ‘’कोई तो आओ, मुझसे मदद मांगने।’’ उसका पूरा व्यक्तित्व बिखर जाएगा अगर उससे कोई मदद न मांगे और वो बहुत प्रसन्न हो जाएगा जब लोग उसके पास मदद मांगने जाएँगे। तो यही मत समझना कि तुम आश्रित हो अगर तुम मदद मांगने जा रहे हो, वो भी तुम पर उतना ही आश्रित है कि तुम मदद मांगो।

एक कहावत है: ‘माछी चाहे खता’। माछी मतलब मक्खी। मक्खी को घाव की बड़ी सख्त ज़रूरत होती है। घाव न हों तो मक्खी करेगी क्या? इसी तरीके से ये जो मदद देने वाले लोग होते हैं, अगर लोग परेशान न हों और लोग दुखी न हों तो इनका तो धंदा चौपट हो जाएगा। ये करेंगे क्या? तो इनके लिए बड़ा आवश्यक है कि दुनिया में कष्ट रहे, परेशानी रहे, पीड़ा रहे, संशय रहे ताकि इनकी दुकान चलती रहे। अगर लोग उठ-बैठे, अपनी आँखों से देखने लगे, आत्म-निर्भर हो गए तो तुम्हारी मदद कौन मांगेगा?

शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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