प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम।, मैं आपको करीब डेढ़ साल से सुन रहा हूँ। पहले खाली समय में आपको ही सुनता रहता था, आपकी ही संगति करता था, आदतें भी सुधर गईगयी थीं। लेकिन अब मैं पा रहा हूँ कि मैं अपनी पुरानी आदतों (खाने, नशे वगैरह) में वापिस खिसकता चला जा रहा हूँ। तो सुनने के बावजूद भी मैं अपनेआप को अपनी पुरानी आदतों से रोक नहीं पा रहा हूँ?’
आचार्य प्रशांत: हम निचाइयों पर होते हैं। सच्चाई एक ऊँचाई है। हम कहाँ होते हैं?
श्रोता: निचाइयों में।
आचार्य: और सच्चाई क्या है?
श्रोता: ऊँचाई।
आचार्य: ऊँचाई। ठीक। तो हम यहाँ से जब बाहर निकलते हैं, यहाँ जो आवास है हमारा, वहाँ से सड़क तक जाने के लिए हमें ज़रा ऐसी (पंजे की सहायता से समझाते हुए) ढलान का सामना करना पड़ता है। चढ़ाई है। क्या है? चढ़ाई।
उस चढ़ाई पर मैं तुम्हें क्या बोला करता हूँ, गाड़ी कैसे चलानी है? मैं बोलता हूँ , 'पहले गियर पर लो और सीधे ऊपर चढ़ा दो। चलते ही जाना। बीच में क्या नहीं करना है? बीच में रुक मत जाना। रुक गए तो पीछे को ढुलक आओगे, आगे बढ़ना मुश्किल हो जाएगा।' सच्चाई ऊँचाई है। गुरु की तरफ़ जाना चढ़ाई चढ़ने जैसा है। एक बार चढ़ाई शुरू कर दी तो फिर सीधे चढ़ते ही जाना है, बीच में जो रुक गया तो वो वापस गिर जाएगा। उत्तर मिल गया?
या तो सीधे ऊपर को चढ़ जाओ बिना रुके।; और ये अगर करा कि चढ़ रहे थे, चढ़ रहे थे बीच में अगर रुक गए हैं, तो पीछे आ जाओगे, तुम्हारा हैंडब्रेक (हाथ से लगाया जाने वाला गतिरोधक) भी काम नहीं आए, इतनी खड़ी चढ़ाई है। तुम लगा लो हैंडब्रेक भी तो भी गाड़ी पीछे को ही आएगी। आयेगी। पीछे को नहीं भी आईआयी तो रुकने के बाद जब तुम दोबारा चाहोगे कि ऊपर जाए, तुम्हारे लिए बहुत मुश्किल हो जाएगा; उठेगी नहीं गाड़ी अब।
जो सच्चाई की राह चल रहे हों, उनके पास एक ही विकल्प है –― चलते जाना, ऊपर को और बढ़ते जाना, मंज़िल के, चोटी के और निकट आते जाना। बीच में अगर तुम थम गए तो थमना, थमना नहीं होता, थमने का मतलब होता है वापस नीचे लुढ़कना। आप अपनेआप को ये बताते हो कि मैं तो बस अभी थमा हूँ;, तुम थमे नहीं हो, तुम लुढ़कोगे। और एक बात और जोड़ूँगा –— ऊपर को भी जब जाना है, बहुत कम गति से अगर तुम्हारी गाड़ी चढ़ेगी तो बंद हो जाएगी। चढ़ाई पर अगर बहुत कम गति से ऊपर को चढ़ाओगे तो गाड़ी बंद हो जाएगी। अनुभव किया है कभी?
सच्चाई की ओर एक बार तुम अपनी यात्रा शुरू कर दो, अपनी चढ़ाई शुरू कर दो, तो गति भी पूरी रखनी पड़ती है, नहीं तो गाड़ी बंद हो जाएगी। तुमने गति कम करी होगी, तुम कितनी तेज़ी से बढ़े सच्चाई की ओर? डेढ़ साल हो गए, कितने शिविरों में आएआये? डेढ़ साल हो गए, कितनी बार मेरे सामने बैठे?
मैं एक ऊँचाई पर बैठा हूँ, मेरी ओर आ रहे हो तो तेज़ी से आना पड़ेगा, बीच में अगर रुकोगे या गति कम करोगे तो वापस गिरोगे। और फिर कहोगे, 'मैं आपकी ओर डेढ़ साल से चल तो रहा हूँ, वापस क्यों गिर गया?' क्योंकि तुम्हारी गति पर्याप्त नहीं है, तुम रुक गए थे। और उनका मैं क्या कहूँ जो कहते हैं कि 'अभी ऊपर जा रहा था, थोड़ी देर के लिए पीछे चला जाता हूँ, फिर घूम-फिर के ऊपर आ जाऊँगा।'
तुम समझ क्या रहे हो?
ये आठ लेन का एक्सप्रेस-वे है? ये हिमालय की खड़ी चढ़ाई है। यहाँ पत्थरों पर सीधे ऊपर को चढ़ना है। सोचो कोई ऐसे चढ़ रहा है ऊपर माउन्टेनियर , पर्वतारोही, और वो क्या बोले, ‘ज़रा पीछे जाता हूँ, चाय पी के आता हूँ’।, यहाँ, यहाँ (पहाड़ पर चढ़ने का अभिनय करते हुए) लटका हुआ है ऊपर रस्सी के सहारे, बोल रहा है, ‘नेटवर्क नहीं आ रहा यहाँ, नीचे नेटवर्क आ रहा है, थोड़ा जाता हूँ, चैट-वैट करके फिर ऊपर आऊँगा।’ न वो नीचे जाएगा, न ऊपर जाएगा; वो सीधे ऊपर जाएगा।
आप लोग अध्यात्म को मज़ाक समझ लेते हैं क्या? ‘मैं, आचार्य जी, मैं आपको डेढ़ साल से सुन रहा हूँ।’ तुम सुनते ही कैसे रह गए मुझे, मेरे सामने कैसे नहीं पड़े? तुम सुनते ही कैसे रह गए मुझे, तुम मेरे काम में आज तक सहभागी कैसे नहीं हुए? मेरा काम है तुम्हें कहानियाँ सुनाना, लोरी सुनाना? मैं कौन हूँ? मैं कथावाचक हूँ? मैं योद्धा हूँ, मैं लड़ाई लड़ रहा हूँ। तुम वहाँ कोने में हाशिये पर बैठकर के मेरी तलवार की झंकार सुन रहे हो? या मुझे जब चोट लगती है, ज़ख्म पड़ता है, और चीख निकलती है, तो तुम वहाँ कोने में बैठे हो मेरी चीखें सुनने के लिए? तुम कैसे सुन रहे हो मुझे डेढ़ साल से अगर तुम आज तक मेरे साथ आएआये नहीं, मेरे काम में सहभागी नहीं हुए, सम्मिलित नहीं हुए? बताओ मुझे।
ये बात कैसी है? और सब की बात ऐसी रहती है, ‘आचार्य जी, मैं आपको दो साल से सुन रहा हूँ’, क्यों सुन रहे हो? क्या सुन रहे हो? सुने ही जा रहे हो? काम कब करोगे? मैं तो तुम्हें अगर सुनाता भी हूँ, तो वो मेरा काम है। मैं काम ही कर रहा हूँ लगातार, तुम अपना काम कब करोगे? मेरा धर्म है तुमको सुनाना, तुम्हारा धर्म है बस सुने जाना? मैं तुम्हें सुना रहा हूँ ताकि ये ही सच्चाई दुनिया में एक-एक आदमी तक पहुँचे। तुम्हारा क्या काम है कि तुम अपना कोने में बैठ जाओगे और अपना मोबाइल पर मेरी बात सुनते रहोगे कि ‘आज सीआइआर (उपनिषदों पर चलने वाला एक कोर्स) है, मैं सुन रहा हूँ, उपनिषद् समागम।’
मेरे माध्यम से ये बात कुछ नहीं तो दो-चार करोड़ लोगों तक पहुँच चुकी है, मेरी ये बात तुम्हारे माध्यम से कितने लोगों तक पहुँची? बताओ मुझे। तो तुम क्या कर रहे हो मुझे सुनकर के? और फिर कहते हो, ‘सुन रहा हूँ लेकिन अब लाभ होना कम हो गया है।’ होगा ही कम! सुनने का जो मूल्य है, वो तुमने चुकाया नहीं, तो लाभ होना जारी कैसे रहेगा?
"मुझे श्रोता नहीं चाहिए, मुझे योद्धा चाहिए।"
तुम श्रोता बने बैठे हो! मैं वक्ता हूँ कोई? नहीं, मैं एक लड़ाई में हूँ, मैं एक काम कर रहा हूँ। मेरा बोलना भी मेरे काम का हिस्सा है, मेरा बोलना ऐसे ही है जैसे कोई अपने दल को, अपनी सेना को प्रेरित करने के लिए बोले। बोलना आख़िरी बात नहीं है, बोलने के बाद आता है युद्ध, बोलने के बाद आती है एक समर्पित लड़ाई, वो कब करोगे भाई? बस सुने ही जाओगे?
सिर्फ़ कोई सुनता रहे, और कुछ करे न, जानते हो तुम्हें कैसा लगेगा? जाना किसी चिकित्सक के पास, और तुम हो बहुत दर्द में, कराह रहे हो और तुम उसको अपनी व्यथा सुना रहे हो, और वो तुम्हें सुनता ही जाए। तुम कह रहे हो, (हुँकार भरते हुए) ‘अरे! डॉक्टर साहब मर गया, यहाँ (पेट पकड़ते हुए) बड़ा दर्द हो रहा है’, वो कह रहा है, ‘हम्म। देखिए हफ़्ते में एक बार, महीने में तीन बार, दो घंटे आप मुझे सुनाएँगे। और जितना आप मुझे सुनाएँगे, मैं कहूँगा, हम्म। क्योंकि मेरा क्या काम है? —सुनना।’
तब कहोगे, ‘अरे तू सुनता ही रहेगा या कुछ करेगा भी? मैं तकलीफ़ में हूँ।’ मैं भी तकलीफ़ में हूँ, तुम बस सुनते ही रहोगे या कुछ करोगे भी?
‘हम्म। हम्म।’
‘डॉ साहब, खून की उल्टियाँ हो रही हैं’, ‘हम्म, और बताओ, और बताओ। अगला श्लोक बताओ।’ तब कहोगे, ‘आग लगे ऐसे डॉक्टर को, ये तो श्रोता ही बस है। मैं रोता हूँ, ये श्रोता है। ये क्या बात है?’
‘हम्म।’
ये कोई ग़ज़ल-गायकी चल रही है? बज़्म सजी है? कवि सम्मेलन हो रहा है? ये क्या हो रहा है?
प्र २: आचार्य जी, प्रणाम। आपने अभी कहा कि डरते होते हुए भी आगे बढ़ते रहो। लेकिन मैं पाता हूँ कि जिन लोगों का साथ मुझको डर से भरता है या भयभीत करता है, उनसे मुझे दूर रहना, मेरे लिए उचित है, या फिर जैसा कबीर साहब ने कहा है कि 'निंदक नियरे राखिए',’ उसका अनुसरण करना उचित है?
आचार्य: कबीर साहब ने 'निंदक नियरे राखिए' कहा है, पीड़क नियरे राखिए थोड़े ही कहा है। निंदक और पीड़क में कुछ अंतर होता है न? और कौन से निंदक को उन्होंने पास रखने की बात कही है? जो तुम्हारी कमज़ोरियों को, तुम्हारे विकारों को उजागर करे इस नियत के साथ कि तुम निर्विकार हो सको; दुर्बल की जगह सबल हो सको।
क्या कह रहे हैं –— 'निर्मल करे सुहाय', ऐसा निंदक चाहिए जो तुमको साबुन और पानी के बिना निर्मल कर दे। उसकी निन्दा निन्दा तुम्हें इसलिए सुननी है ताकि तुम निर्मल हो जाओ। उसकी निन्दा तुम्हें इसलिए थोड़े ही सुननी है कि वो तुम्हें दुख देता रहे और तुम दुख झेलते रहो।
मैं बताता हूँ बात असली क्या है –— तुम्हारा स्वार्थ अटका हुआ है। पूरा खेल ये है कि है कोई जिससे तुम्हारा कोई-न-कोई स्वार्थ है और चूँकि उससे तुम्हारा स्वार्थ पूरा होता है, तो वो तुमको जी भर के दुःख भी देता है, तरह-तरह से देता होगा, निन्दा भी करता होगा, खूब सुनाता होगा, तुमने उसको अधिकार दे दिया न भाई। क्योंकि उससे कुछ-न कुछ तुम मुनाफ़ा भी पा रहे होगे, स्वार्थ कमा रहे होगे। अब वो खूब तुमको सुनाता है और सताता है लेकिन तुम उसका न विरोध कर सकते हो, न उसको छोड़ सकते हो क्योंकि उसको छोड़ने का मतलब होगा कि तुम्हारा स्वार्थ, सुविधा छूटेगी। तो तुमने अपनेआप को समझाने के लिए बड़ा बढ़िया तर्क गढ़ा।
तुमने कहा, 'अरे! ये मुझे सताता थोड़े ही है, ये मुझ से गाली-गलौज थोड़ी करता है। ये तो वही कर रहा है जिसकी संस्तुति कबीर साहब ने करी है कि 'निंदक नियरे राखिए'। क्या बहाना गढ़ा है! 'निंदक नियरे राखिए।' संतों को उद्धृत करने से पहले ये देख तो लिया करो कि संत जो कुछ बोलते हैं, इस दृष्टि से बोलते हैं कि तुम्हें राम की ओर भेजा जा सके। ये जो तुम्हारी निन्दा हो रही है, ये तुम्हें राम की ओर भेज रही है क्या? निन्दा बहुत अच्छी चीज़ है अगर उससे तुम राम की ओर चले जाओ। मैं भी सौ बार निन्दा करता हूँ।
जिनको तुम उद्धृत कर रहे हो वो भी खूब निन्दा करते थे। कभी बोलते थे, 'पाथर पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहाड़।' कभी बोलते थे, 'कांकड़ पाथर जोड़ के, मस्जिद लई चुनाय। तापे मुल्ला बांग दे, बहरा भया खुदाय॥' बोलो और कितनी बड़ी निन्दा चाहिए?
अरे! वो निन्दा इसलिए करते थे कि हिंदू राम की ओर जाए, मुसलमान ख़ुदा की ओर जाए। वो निन्दा इसलिए नहीं करते थे कि उन्हें तुम्हें दुःख देना था या पीड़ा देना थी, या उन्हें तुमसे हिसाब चुकता करना था कि बेटा, तू मुझसे इतना सुख-सुविधा लेता है, इतने मज़े लेता है, तो तूने मुझे अधिकार दे दिया है न कि अब मैं तुझे ख़ूब खरी-खोटी सुनाऊँ। वो खरी-खोटी इसलिए नहीं सुनाते थे।
हमें आमतौर पर जो खरी-खोटी सुनने को मिलती है, वो इसलिए नहीं मिलती कि हमारे जीवन में कोई निस्वार्थ प्रेमी आ गया है, जो हमें खरी-खोटी सुनाकर राम की ओर भेजना चाहता है। हमें खरी-खोटी खूब सुनने को मिलती है, हमें बुली (धमकाया) किया जाता है रोज़। वो इसलिए क्योंकि तुमने इतने मज़े मारे हैं किसी से कि अब वो हिसाब तो बराबर करेगा न! वो कहता है कि ‘तुम जब मुझसे इतनी सुविधाएँ ले रहे हो, इतने सुख ले रहे हो तो बेटा अब फिर मुझसे गाली भी खाओ।’
ये संतो वाली निन्दा नहीं है, ये दूसरी चीज़ है। संतों को बीच में मत लाओ। वो बड़ी स्वच्छ जगहों पर बैठते हैं, बड़ी ऊँची जगहों पर। और अगर जो कुछ मैंने कहा उसमें कोई त्रुटि हो गईगयी हो, तुम्हारी स्थिति का मैंने ग़लत आंकलन कर दिया हो, तो मेरी बाक़ी सारी बातें भूल जाना, मैं क्षमा माँग लूँगा। बस इतनी सी बात याद रख लेना कि वही निन्दा भली है जो तुम्हें राम की ओर भेजती हो। तो जो भी कोई तुम्हारी निन्दा कर रहा हो, उस निन्दा में ये बात परख लेना कि ये निन्दा तुम्हें राम की ओर ले जा रही है या राम से दूर ले जा रही है। ठीक है? सौ बातों की एक बात।
प्र ३: प्रणाम, आचार्य जी।, जब मन दुःख धर्मा हो जाए तब दुःख बुरा नहीं लगता और मैं और ज़्यादा माया में उलझ जाता हूँ। ऐसे समय में मुझे क्या करना चाहिए? जब दुःख में ही मज़ा आना शुरू हो जाए?
आचार्य: किसी ऐसे की संगत कर लो, जिसके पास ऊँचे मज़े हो। देखो, हमें कुछ बताए जाने की ज़रूरत नहीं होती, हमें कुछ याद दिलाए जाने की ज़रूरत होती है — इन दोनों बातों का अंतर समझना। कोई ज्ञान ऐसा नहीं है जो तुम्हारे भीतर पहले से मौजूद न हो। स्वबोध स्वभाव है; प्रज्ञान ब्रह्म है। अगर आत्मा ही हो तुम वास्तव में तो आत्मा को कौन पढ़ाएगा भाई? या आत्मा के सामने भी मास्टर जी खड़े होंगे?
आत्मा को सर्वज्ञ कहा जाता है इसलिए नहीं कि वो सब जानती है, इसलिए कि उसे कुछ जनाया नहीं जा सकता। पूर्ण है, उसे किसी ज्ञान की आवश्यकता नहीं है। ज्ञान एक द्वैतात्मक सिद्धांत है। आत्मा में कोई द्वैत नहीं, वहाँ ज्ञान जैसा कुछ नहीं। तो आप भी सब कुछ जानते हैं। ये बात आप मेरी अभी सुन रहे हैं, मैं आपके चेहरों पर आश्चर्य देख रहा हूँ, कहें ‘हम सब कुछ जानते हैं?’ जी, आप सब कुछ जानते हैं। कुछ भी ऐसा नहीं है, जो आप नहीं जानते। कुछ भी ऐसा नहीं है।
उपनिषदों का काम आप को ज्ञान देना नहीं है। उपनिषदों का काम है आपके भीतर बैठी किसी बहुत पुरानी स्मृति को जागृत करना। वो जो आपका है लेकिन सो गया है, खो गया है आपके भीतर, उसे पुनः आपको उपलब्ध कराना।
तो यदि दुःख धर्मा बन गए हैं आप, तो जाइए और हाथ पकड़ लीजिए, पाँव पकड़ लीजिए किसी ऐसे का जो दुःखधर्मा न हो। उसकी आँखें, उसका जीवन, उसका व्यवहार, उसके इरादे, उसकी हँसी, उसके आँसू, सब आपके भीतर कुछ बहुत पुराना, कुछ बहुत असली फिर से जगा देंगे, आपको सब याद आ जाएगा।
दुःखधर्मा आप हो ही नहीं सकते, कुछ ऊपर-ऊपर की बात है नकली-सी, कम्बल ओढ़ लिया है आपने। और कम्बल के भीतर आपने कोई लगा ली है स्क्रीन, उस पर कुछ प्रोजेक्शन (प्रक्षेपण) चल रहा है, वो आपको लग रहा है कि आपका संसार है। दिख आपको कुछ नहीं रहा है, घिरे आप एक कम्बल से हुए हैं, लेकिन कम्बल से भी आप घिरे रह सकें इसके लिए आवश्यक होता है कि कम्बल के भीतर आपको ऐसा आभास कराया जाए, ऐसा धोखा दिया जाए जैसे आपको दिख रहा है। देखना स्वभाव है; न देख पाना, न जान पाना स्वभाव नहीं है। जानना ही आनंद है।
दुःखधर्मा आप हो नहीं सकते, दुःखधर्मा होना बड़ी क्षणभंगुर बात है। दुःख का नाश होना तो तय होता है, तभी तो दुःख इतना डरा हुआ रहता है; तभी तो दुःख अपनेआप को बचाने की इतनी कोशिशें करता है। इसीलिए जो अपनेआप को बचाने की कोशिश करे वही दुःख है। इसीलिए हमारे सारे दुःख सुख जैसे प्रतीत होते हैं। कभी देखा है, सुख अपनेआप को बचाने की कितनी कोशिश करता है। जिसे हम सुख कहते हैं, वो वास्तव में दुःख ही है।
समझ में आ रही है बात?
आनंद स्वभाव है, दुःखधर्मा आप रह नहीं सकते। बहुत समय नहीं लगता है, ये जानने में कि आप जो कुछ बने बैठे हैं, जो पकड़े हुए हैं, वो व्यर्थ है, झूठा है। सही विचारों को मन में आने दें, सही पुस्तकें पढ़ें, ग्रंथों का पाठ करें, सही संगति करें। रात कितनी भयावाह, डरावनी लगती है। लगती है न? भूत-ही-भूत चारों तरफ नाच रहे हैं। आप किसी पहाड़ी इलाके में है, पहाड़ी इलाकों में भूत का ख़ास तौर पर दबदबा होता है।
कोई आया था, मुझसे बोल रहा था, ‘जानते हैं न, उत्तराखंड को देवभूमि क्यों बोलते हैं?’ क्यों? बोल रहे हैं, ‘यहाँ इतने सब भूत-प्रेत पाये जाते हैं।’ तो मैंने बोला फिर भूतभूमि बोलना चाहिए। तुम पागल हो गए हो? हमारा ऐसा ही है। हमने भूतों को ही देवता बना लिया है। और यही सब भूत नाच रहे हैं, हमारे चारों ओर अंधेरा है। कहीं कोई पेड़ है, वो पेड़ लग रहा है प्रेत बैठा हुआ है। चाँद की थोड़ी बहुत रोशनी है और उसमें कहीं कोई शाख हिल रही है, कोई जानवर आवाज़ कर रहा है, हमें लग रहा है, ‘ये देखो, फलानी चुड़ैल नाच रही है।’
और फिर ज़रा-सी रोशनी होती है, ये सारे भूत-प्रेत कहाँ गए? ज्ञान ऐसा ही होता है। ज्ञान ऐसा ही होता है। आप सौ भूतों से घिरे बैठे हों, थोड़ी-सी रोशनी चाहिए होती है, सब एक साथ मिट जाते हैं। ये सब फ़िज़ूल बातें हैं, सब दिमाग से हट जाएँगी।
प्र ४: ये चुनौती पर ऊपर चढ़ना तो काफ़ी स्पष्ट है मुझे लेकिन बार-बार मुझे साहस की कमी प्रतीत होती है। बार-बार मुझे ऐसा लगता है कि मैं, मेरी जगह एक माँ और एक गृहिणी की है और ये सब कुछ ऊपर चढ़ना?
आचार्य: माँ और गृहिणी होना झूठ नहीं है, घर भी आपका है, बच्चे भी आपके हैं। घर है तो गृहिणी हैं, बच्चे हैं तो माँ हैं। बात ये है कि आप कैसी माँ होंगी और कैसी गृहिणी होंगी अगर जीवन में आत्मा का प्रकाश नहीं है। आत्मा का प्रकाश माने सीधी-सी बात –— सच्चाई। सच अगर पता ही नहीं तो कैसी माँ और कैसी गृहिणी होंगी आप? इसलिए माँ के लिए, गृहिणी के लिए अध्यात्म इतना ज़रूरी है।
एक छोटी-सी भौतिक सच्चाई ले लीजिए, आपको ये पता होना चाहिए न आप अपने बच्चों को जो पोषण दे रहीं हैं — खाना-पीना, फल-फूल, सब्ज़ी — उसमें कौन-से तरह के पोषक तत्व हैं या नहीं हैं, पता होना चाहिए न? तो ये साधारण-सी भौतिक सच्चाई भी अगर माँ को न पता हो, तो वो अच्छी माँ नहीं बन पायेएगी, बच्चों की सेहत ख़राब हो जायेएगी। और अगर बहुत बड़ी वाली सच्चाई ही माँ को नहीं पता है तो बच्चों की सेहत कितनी ख़राब होगी?
ये छोटी-मोटी जो साधारण, सांसारिक भौतिक सच्चाइयाँ होती हैं, वो ही न पता हों माँ को तो भी बच्चों के लिए अच्छा नहीं होता। और अगर परम सच्चाई ही न पता हो माँ को तो बच्चों के लिए या परिवार के लिए, घर के लिए अच्छा कैसे हो सकता है? अध्यात्म आपको नहीं कहता कि आप माँ मत रहिए या गृहिणी मत रहिए; आध्यात्म चाहता है आप एक अच्छी, सच्ची माँ बनें, आप एक अच्छी, सच्ची गृहिणी बनें। आप जो कुछ भी करें, उसमें आपकी उन्नति और आपके आसपास वालों का कल्याण निहित हो।
इतने घर हैं, इतनी माँएँ हैं, इतने बच्चे, इतने परिवार; आपको वो अच्छे लगते हैं क्या? कलह और क्लेश भरे हुए हैं। भरे हैं या नहीं भरे हैं? बच्चे नशे कर रहे हैं, ड्रग्स ले रहे हैं। माँ-बाप दोनों एक दूसरे से विमुख हैं। बाप न जाने जा के कहाँ मुँह मार रहा है; माँ सास-ससुर का सर फोड़ने को तैयार बैठी हुई है; ननंद-भाभी में जूतम-पैजार हो रहा है, नुकीली सैंडल ले के उसकी खोपड़ी में डाल दी। आध्यात्मिक नहीं है घर, और कोई बात नहीं है।
पति, पत्नी के ऊपर चढ़ा हुआ है कि तू तो मेरी शारीरिक भूख मिटाने के लिए ही है। पत्नी, पति से पूरा मुआवज़ा ऐंठ रही है, ‘चल महीने के दो लाख मुझे दिया कर। दफ़्तर में और घुस खाया कर।’ ये सब क्यों होता है? —घर आध्यात्मिक नहीं है।
अध्यात्म घर को रहने लायक जगह बनाता है। जैसे हमारे घर होते हैं, उनसे बेहतर चिड़ियाघर होते हैं। कम-से-कम चिड़ियाघरों में जानवर ये तो नहीं बोलते ढोंग करके कि हम इंसान हैं। वहाँ पशु, पशु होता है। चिड़ियाघर बड़ी ईमानदार जगह है; पशु माने पशु। वहाँ अगर गोरिल्ला बैठा है तो लिखा होगा 'गोरिल्ला'। घरों में गोरिल्ला बैठा है, वहाँ लिखा होता है ― ताऊजी। चिड़ियाघर में साँप बैठा होगा, वहाँ लिखा होता है, 'सॉंप'। घरों में साँप बैठा होता है, वहाँ लिखा होता है ― मँझली भाभी। ये क्यों हैं? क्यों है? आध्यात्मिक नहीं है न घर।
घर अगर आध्यात्मिक नहीं होगा तो, मैं कह रहा हूँ, चिड़ियाघर से भी घटिया हो जाएगा। और वही घर आप आध्यात्मिक कर लीजिए, फिर देखिए। फिर पता चलेगा आनंद किसको कहते हैं, प्रेम किसको कहते हैं, कल्याण किसको कहते हैं।
बात आ रही है समझ में?
प्र ५: जब श्रीमद्भगवद्गीता का पाठ कर रहे थे तो उसमें कृष्ण साहब ने कहा कि ‘हमारे जो सारे कर्म हैं, वो प्रकृति के तीन गुणों द्वारा नियंत्रित हैं।’ तो मन में ये सवाल उठ रहा है कि जब सब कुछ ही प्रकृति द्वारा नियंत्रित है, तो फिर हमारा चुनाव इसमें क्या हुआ?
आचार्य: आप झूठ हैं, आप चुनाव कहाँ से करेंगे? आप हैं ही नहीं, आप चुनाव कहाँ से करेंगे? आप, ये जो जनतंत्र में भी जो चुनाव होते हैं, वहाँ भी तब न अपना वोट, अपना मत डाल पाते हैं, जब आप हों। आपका नाम होना चाहिए न वहाँ मतदाता सूची में, वोटर लिस्ट में? तब तो आपका चुनाव मायने रखेगा। आप हों ही न तो? हम सब फर्ज़ी मतदाता हैं, हम हैं ही नहीं पर हम चुनाव में वोट डालते रहते हैं। ऐसा होता है, बोगस मतदाता होते हैं न? वो है नहीं पर उसका वोट चल रहा है। हम ऐसे ही हैं। इसको बोलते हैं झूठा कर्ताभाव; हैं नहीं पर चुनाव कर रहे हैं।
संपूर्ण अध्यात्म अहंकार के शमन के लिए है क्योंकि अहंकार एक झूठ है। वो है नहीं पर उसे लगता है वो है। ये जो टाँगें हैं, ये बस मिट्टी ही है, जो खड़ी हो गईगयी है। आप जब चल रहे हो न मिट्टी पर तो ये मत कहिएगा, ‘मैं टाँगों से मिट्टी पर चल रहा हूँ।’ वो मिट्टी ही है, जो मिट्टी पर चल रही है खड़े होकर। हम नहीं हैं, भाई। अध्यात्म स्वयं को मिटाने के लिए है। मिटाने के लिए भी नहीं है, आप हैं ही नहीं; जो है ही नहीं, उसे क्या मिटाओगे। बस इस झूठे ज्ञान से मुक्त होना है कि तुम हो।; हम नहीं हैं।
आपको लगता है आपने चुनाव करा, आपने नहीं करा; वो बात प्राकृतिक थी। आप बाज़ार में निकल रहे हों, इसको ऐसे मत देखिए कि वो लोग हैं। वो लोग नहीं हैं, वो प्रकृति के खिलौने हैं। वो कुछ भी नहीं कर रहे, वो वही कर रहे हैं जो प्रकृति के गुण उनसे करवा रहे हैं। किसी को किसी चुनाव की ज़रूरत नहीं है। आप कोई चुनाव न करिए, चुनाव तो हुए जा रहे हैं। हॉं, बस आप अपनेआप को एक ढकोसले में रख लेते हैं, एक झूठी सांत्वना में रख लेते हैं, एक बड़बोले अहंकार में रख लेते हैं, ‘मैंने किया।’ आपने क्या किया? आपके पास कोई विकल्प था? करके दिखाइए।
भूख लगे, न खाने का विकल्प है आपके पास? और जब नहीं भी खाते हैं, तो वो भी कोई आपका चुनाव नहीं होता, उसमें भी प्रकृति की ही कोई चाल होती है। एक उम्र आती है, आपके भीतर वासना उठनी शुरू हो जाती है, आपने क्या किया? फिर आप बोलते हैं, ‘मैंने प्यार किया।’ चार साल की उम्र में काहे नहीं किया? और चौरासी की उम्र में काहे नहीं किया? चौबीस में ही काहे किया? क्योंकि तुमने नहीं किया। पर तुम बोलते हो, ‘मैंने प्यार किया।’ तुमने नहीं किया।
समझ में आ रही है बात?
प्रकृति ने तुम से चार साल में नहीं करवाया, तुमने नहीं किया। चौरासी में भी नहीं करवाएगी, तुम नहीं करोगे। चौबीस में ज़रूर करवाएगी, तुम ज़रूर करोगे। तुमने किया नहीं, हुआ। सब के साथ होता है। कोई अलग नहीं है, सब एक हैं।
‘तो आचार्य जी, सब एक ही हैं?’ हाँ।
‘तो फिर एक आदमी को दूसरे से अलग क्या बनाता है?’
कुछ समझ जाते हैं कि वो नहीं हैं, कुछ सोचते हैं, वो हैं। जो सोचते हैं कि वो हैं, वो नहीं हैं। जो समझ जाते हैं कि वो नहीं हैं, उन्हें ज़रूर थोड़ा चैन मिल जाता है।
अहंकार झूठ तो है, पर बड़ा उबलता, उफनता हुआ झूठ है; वो स्वयं को ही जलाता रहता है। तो अपनी अगर जलन कम करना चाहते हो, तो अच्छे से देख लो कि तुम नहीं हो। कुछ नहीं कर रहे हो। जो कुछ कर रहे हो, वो कराने वाली प्रकृति है। जैसे नदी बह रही है, नदी बोले, ‘मैं बही।’ उसने चुना थोड़ी है बहना, वो तो बस बह रही है। ‘पर हम तो चैतन्य जीव हैं न?’ अपने जीवन में झाँककर देखो कितने चैतन्य हो तुम। अगर वाक़कई चैतन्य हो, तो तुम्हें ये कहने का अधिकार मिल जाता है कि कर्ता हो।
कृष्ण कहते हैं, ‘मैं कर्ता हूँ।’ कृष्ण हैं कर्ता। पंजाबी में परमात्मा को 'करतार' बोलते हैं, वो करता है। हम कहाँ करते हैं? इसका मतलब ये नहीं है कि हम कठपुतली हैं, हमारी डोर किसी ओर के हाथ में है। इसका मतलब ये है कि अपनेआप को कर्ता बोलने का अधिकार बस उसको है जो चैतन्य हो गया हो, जो जागृत हो गया हो। वो करता है चुनाव, बाक़ी सब तो बेहोशी में बहे जा रहे हैं।
जैसे एक आदमी बेहोश हो गया है और पानी में बहा जा रहा है। तुम कहोगे, ‘पानी में बहेगा नहीं डूब जाएगा, आचार्य जी।’ चलो उदाहरण बदल देता हूँ। एक आदमी बेहोश होकर अपनी नाव में पड़ा हुआ है, अब ठीक है? कुतर्क पर कुतर्क।
एक आदमी बेहोश होकर अपनी नाव में पड़ा हुआ है, नाव बही जा रही है, तुम ये कहोगे कि उसने चयन किया है बहने का? ऐसा हमारा जीवन है, हम बेहोश नावों में पड़े हुए हैं, और जीवन की धारा हमें कहीं को भी बहाए लिए जा रही है। और अपनी बेहोशी में हम बड़बड़ाए जा रहे हैं, ‘अब मैं इधर को जा रहा हूँ, अब मैं उधर को जा रहा हूँ। अब मैं ये कर रहा हूँ।’ तुम कुछ नहीं कर रहे, तुम बह रहे हो।
बचपन आया, तुम्हें खिलौनों की ओर बहा ले गया; जवानी आईआयी, तुम्हें पैसे की ओर, वासना की ओर बहा ले गईगयी; प्रौढ़ता आएआयेगी, तुम्हें चिंता की ओर बाह ले जाएगी; बुढ़ापा आए, तुम्हें मौत की ओर बहा ले जाएगा। तुम कुछ नहीं कर रहे हो। तुम हो ही नहीं कुछ करने के लिए।
जो जग गया हो, जो जान गया हो कि वो है नहीं, मात्र वो चुनाव कर पाता है। और जानते हो उसके सारे चुनाव किस दिशा में होते हैं? —न होने की दिशा में। मात्र वो कह सकता है, ‘मैं हूँ।’ ये विरोधाभासी बात है, जो नहीं है, सिर्फ़ वो कह सकता है, ‘मैं हूँ।’ जो नहीं है उसे अधिकार मिल जाता है कहने का, ‘मैं हूँ।’ वो है, वो 'करतार' हो गया। वो है। हम नहीं हैं।
एक तरह से अध्यात्म हमें पैदा करता है, हम हैं नहीं। हम मर जाते हैं बिना पैदा हुए। ‘विरोधाभासी बात फिर से! पैदा नहीं हुए तो मर कैसे जाते हैं?’ ऐसा ही है। शरीर पैदा होता है, शरीर मर भी जाता है; हम पैदा ही नहीं होते। शरीर का पैदा होना सिर्फ़ एक अवसर होता है, हमारे पैदा होने के लिए। शरीर पैदा होता है, शरीर पैदा होकर मर भी जाता है, और इस पूरे अंतराल में हम पैदा ही नहीं होने पाते।
शरीर का जन्म हमारे लिए अवसर होता है कि हमारा भी जन्म हो सके, पर हम उस अवसर कोगँवा देते हैं। शरीर जन्म लेता है, पचास, सत्तर, अस्सी साल जीकर मृत्यु तक पहुँच जाता है, और ये सारे अस्सी80 साल हम गँवागंवा देते हैं, इसमें हमारा जन्म नहीं होने पाता। हम होते ही नहीं हैं, हम चुनाव क्या करेंगे?
समझ में आ रही है बात कुछ?
सिर्फ़ वही है, ठीक है, इशारा दिए दे रहा हूँ, जो अपने खिलाफ़ जा सके। अगर आप जानना चाहते हैं आप हैं या नहीं, तो ये देख लीजिएगा यदि आप अपने विरुद्ध जा सकते हैं, तो आप हैं। दो दशाएँ ऐसी हैं, जिसमें आप जान जाओगे कि वो जो सो रहा था नाव में, नाविक, वो अब सो नहीं रहा है। वो हो गया, वो जग गया, वो पैदा हो गया। कैसे?
दो दशाएँ – ― पहली, नाव धारा के विपरीत बहने लगे, पक्की बात है वो जग गया है। तो मैंने कहा जो अपने खिलाफ़ जा सके वो है। किसी नाव को आप धारा के विरुद्ध बहता देखें, प्रकृति की धारा के विरुद्ध बहने लग गईगयी है किसी की नाव, किसी का जीवन अब प्रकृति के खिलाफ़ जाने लग गया है, वो है। वो है।
और दूसरी दशा ये हो सकती है कि वो तट पर उतर जाए, साक्षी हो जाए; इसको भी जान लेना ये है। बेहोश आदमी तट पर उतर नहीं सकता था, बेहोश आदमी तट पर बैठकर नदी के बहाव का दृष्टा नहीं हो सकता था; अब ये जग गया है। ये दोनों ही स्तिथियाँ इशारा करती हैं जागरण की ओर, यही दोनों स्तिथियाँ सिर्फ़।
किसी की नाव को जीवन के बहाव के विरुद्ध जाते देखना, कहना ये आदमी जगा। और किसी को जीवन का तटस्थ दृष्टा हो जाते देखना तो कहना, ‘ये आदमी जगा।’ इसके अलावा कोई तरीक़ा नहीं। लाखों में कोई एक होता है जो, जगा होता है, बाक़ीबाकी सब की तो बेहोश नावें बस बही जा रही हैं।
प्र ७: प्रणाम, आचार्य जी। आपकी हर बात तो स्पष्ट होती लगती है लेकिन मैं दूसरों की स्वीकृति का बहुत बड़ा ग़ुलाम हूँ, बहुत महत्व रखती है दूसरों की स्वीकृति। तो चढ़ाई देखने के बाद भी आगे नहीं बढ़ पाता तो उसमें कैसे आगे बढ़ूँ?
आचार्य: नहीं, दूसरों की स्वीकृति देखने में कोई दिक्क़त नहीं है, पर ये देख लो कि किसकी स्वीकृति देख रहे हो। मैं बिलकुल नहीं कहता हूँ कि दूसरों की बात या दूसरों के मत की परवाह की ही न जाए। पर किसकी बात सुननी है थोड़ा विचार कर लिया करो, उसमें कुछ विवेक रखना ठीक होता है या नहीं होता है?
खाना बना रहे हो घर में, गृहिहणियाँ खाना बनाती हैं तो कई बार वो जो पक रहा होता है, तो थोड़ा -सा एक छोटी कटोरी में लेकर आती हैं, कहती हैं, ‘चखना, बताना कैसा बन रहा है?’ वो तुम्हारे पास लेकर के आती हैं, बाहर जो गाय घूम रही है, उसको थोड़ी चखा के पूछती हैं। तो राय ली जाती है, पर किसकी? जो राय देने लायक हो। सम्मति, स्वीकृति माँगी जाती है उससे जो बात को समझता हो, नहीं? गाय से पूछोगे, ‘मसाला तेज़ तो नहीं?’ ऐसा है? नहीं न?
हम अपने आसपास लोग ही ऐसे रखते नहीं कि जिनकी राय हमारे काम आ सके। नहीं तो राय लेना बहुत अच्छी बात है। अपना ज्ञान तो सीमित होता है, अपनी दृष्टि भी बहुत बार दूर तक नहीं जाती। तो किसी और से पूछ लिया हर्ज़ा क्या? पर किससे पूछ लिया?
अब सुनो, शुभ समाचार। जो इस लायक हैं कि उनसे पूछा जाए, वो अपनी राय तुम्हारे लिए व्यक्त कर गए हैं, लिखित में छोड़ गए हैं। उन्हें पता था कि उनकी राय तुम्हारे काम आएआयेगी, तो तुम्हारे लिए वो अपनी राय वसीयत में छोड़ गए हैं। एक तरह से वो जो राय है, वो बपौती है हमारी, विरासत में मिली है, उसका फायदा उठाओ।
कभी समझ में न आ रहा हो कि जो कर रहे हैं, वो ठीक है या नहीं? यूँ ही साखी ग्रंथ खोल लो, कोई दोहा देख लो। मैं बता रहा हूँ, अचंभित रह जाओगे। तुम्हारे जीवन में जो मुद्दा चल रहा होगा, बिलकुल उसी मुद्दे से संबंधित दोहा सामने आ जाएगा, ऐसे उँगली रखो बस। कोई पन्ना खोल लो, ऐसे खोलो, ऐसे उँगली रख दो। (हाथों की सहायता से समझाते हुए) जो दोहा सामने आए, उसी दोहे में तुम्हारी ज़िंदगी की समस्या का समाधान।
‘ये कैसे हो गया? ये कैसे हो गया?’ कोई जादू नहीं है। बात ये है कि वहाँ हर दोहा ऐसा है जो जीवन के हर पहलू पर रोशनी डालता है। तो तुम्हारी ज़िंदगी में कुछ भी चल रहा हो। वह चीज़ काम ही आएआयेगी।
हमारी ऐप है, उसमें कोट्स जाती हैं, उक्तियाँ; उनके नोटिफिकेशन् (अधिसूचना) जाते हैं। कितनी बार बल्कि शायद रोज़ ही, लगातार, लोगों के कॉमेंट्स (टिप्पणियाँ) आते रहते हैं, ऐप पर ही वो कॉमेंट्स हैं, आप देख लीजिएगा उन कॉमेंट्स को। कि ‘आचार्य जी, आप हमारे मन को कैसे पढ़ लेते हैं? हमारी ज़िंदगी में कुछ चल रहा होता है, हम परेशान होते हैं और ठीक उसी समय नोटिफिकेशन् आ जाता है, आवाज़ होती है, टन्! और खोलते हैं और उसमें जो लिखा होता है, उसमें हमारी समस्या का समाधान होता है। ये आप कैसे कर लेते हैं? और बार-बार करते हैं।’
अरे! मैं कुछ नहीं करता, मुझे तो पता भी नहीं क्या गया है वहाँ पर। मैंने क्या किया? बात बस इतनी -सी है कि सच वो दवाई है कि जो हर रोग में काम आती है। तो रोग तुम्हारा कोई भी हो, जो बात मैंने भेजी है तुम्हें, अगर वो सच है तो वो तुम्हारे काम आ जाएगी। फ़र्क ही नहीं पड़ता कि तुम्हारा रोग क्या है।? क्या फ़र्क पड़ता है? होगा कोई रोग! काम आ जाएगी। ऐसों की राय सुना करो।
मैं अपनी बात नहीं कह रहा हूँ, अपने मुँह मियाँ मिट्ठू नहीं बन रहा हूँ। उपनिषदों को पढ़ो, वेदान्त को पढ़ो, साखी ग्रंथ को पढ़ो, संतों के पास जाओ। भगवद्गीता किसलिए है? इनकी राय लिया करो। अच्छा-बुरा ये बताएँगे। ये शर्मा जी और वर्मा जी के चक्कर से बाहर आओ। इनके मुँह देखो, ठीक से कभी इनका मुँह देखना, उसके बाद इनकी राय नहीं लोगे।
कभी हुआ है ऐसा कि करेला फ़्रिज में रखकर के भूल गए हो? नहीं हुआ तो अब करना ऐसा, प्रयोग करना। करेला रख दो फ़्रिज में और भूल जाओ;, पंद्रह दिन बाद उसको देखना, वो शर्मा जी हैं। कभी प्याज़ खुल्ले में रख के भूल जाना। हमारे यहाँ रखी हुई है इधर (प्याज़ को इशारा करते हुए) उसमें ऐसे, ऐसे, ऐसे, ऐसे (हाथों की सहायता से अंकुरण बताते हुए) अंकुर फूट आते हैं, वो वर्मा जी का मुँह है। वो बाल हैं वर्मा जी के, इतने से बचे हैं मुट्ठीभर, बाक़ी बीवी ने नोच लिए।
इनसे तुम राय लेने ले जाते हो! और तुम चने के झाड़ पर चढ़ जाते हो जब तुम्हें ये अनुमोदित कर देते हैं कि बड़ा अच्छा किया आपने, ‘सहाय साहब! बड़ा अच्छा किया!’ सहाय साहब ऐसे फूल गए। और तुम्हें बड़ा बुरा लग जाता है, जब ये कह देते हैं, ‘अरे नहीं, देखो अभी तुम ठीक नहीं कर रहे हो।’ सूखा करेला! तुम इसकी तुलना कृष्ण से कर रहे हो? घर में गीता रखी हुई है, कृष्ण से पूछने की जगह तुम ये शर्मा और वर्मा से पूछ रहे हो? ये हैं कौन?
सच का अनादर ऐसे ही नहीं किया जाता कि सच को गाली-गलौज दी। वो तुम करोगे नहीं। इतनी तुममें नैतिकता है कि राम को और कृष्ण को गाली तो दोगे नहीं। सच का अनादर ऐसे किया जाता है कि शर्मा और वर्मा को तुम कृष्ण का स्थान दे दो, ये होता है सच का अनादर। तुम कभी ये नहीं बोलोगे कि कृष्ण बेकार आदमी थे, डर लगेगा कि पता नहीं क्यों, क्यों बोलें? फालतू में पंगे-राड़े कौन करे? तो बोलोगे नहीं कभी। कृष्ण का अनादर तुम परोक्ष रूप से करते हो, कैसे? तुम शर्मा और वर्मा की बात सुनते हो, कृष्ण की बात नहीं सुनते –— ये है कृष्ण का अनादर। और इस अनादर का फिर दंड मिलता है। तुम्हारा मुँह भी सूखे करेले जैसा हो जाता है।
इससे पहले जो मेरा पसंदीदा उदाहरण था, वो एक दूसरे फल से था, अभी सब्ज़ियों पर आ गया हूँ। कौन-सा था मेरा पसंदीदा फल? चुसा हुआ आम। वो मैं छात्रों से बोला करता था, बोलता था, ‘मुँह देख, चुसे हुए आम!’ इतनी बड़ी-बड़ी बातें! कभी आम लेना, उसको — चूसने वाला, काटने वाला नहीं — उसको ऐसे चूसना पूरा, एकदम चूस लेना, सारा रस निकाल लेना और फिर देखना वो जो बस गुठली और छिलका; ऐसे तो हमारे मुँह होते हैं।
मेरा मुँह से मतलब तुम्हारी दैहिक सुंदरता से नहीं है, बात को समझो। फेस इज़ द इंडेक्स ऑफ द माइंड। जो चेहरा होता है न, ये मन का आइना होता है। चेहरा बताता है कि मन में क्या चल रहा है। चुसा हुआ चेहरा, चुसे हुए मन का द्योतक है।
मैं प्यारे, ख़ूबसूरत, कमसिन चेहरों की नहीं बात कर रहा हूँ कि वो देखो इतना मेकअप करा के आ गया है, और उसके प्यारे-प्यारे गाल हैं और कोमल-कोमल ये सब हैं, और भौंहें नुचवा के नई लगवा ली हैं। अब ये चेहरा आचार्य जी को पसंद आए, इसमें कुछ चुसा हुआ हुआ नहीं है। सड़ी हुई गोभी को लिपस्टिक लगा दो तो वो बड़ी आकर्षक हो जाएगी?
जाओ धम्मपद के पास, आदि ग्रंथ किसलिए हैं? दस गुरुओं और तमाम संतों की बात वहाँ पर है। ये डेढ़ सौ उपनिषद् किसलिए रखे हुए हैं? एक-दो नहीं, सैकड़ों में। आचार्य शंकर अपना जीवन यूँ ही व्यर्थ कर गए? अष्टावक्र ने वो इतने अध्याय किस के लिए खड़े करे थे? पर नहीं, इनसे बात ही नहीं करनी है। मर्ज़ी!
प्र ८: जब चढ़ाई की बात आती है, तो मुझे दिख रहा है कि मेरी गति मंद है।, लेकिन तब बढ़ाने की बात आती है, तो मुझे आकर्षण पकड़ लेते हैं। और ये बार-बार हो रहा है, तो आपका मार्गदर्शन चाहते हैं चाहिए इस स्थिति पर।
आचार्य: नहीं, आकर्षण तो रहेंगे ही। आकर्षण के विरुद्ध जाने का ही नाम तो चढ़ाई होता है न। नीचे तुम्हें क्या चीज़ खींच रही होती है? गुरुत्वाकर्षण। आकर्षण के खिलाफ़ जाने को ही तो चढ़ाई बोलते हैं। तो आप कहो कि चढ़ाई हो पर आकर्षण न हो, तो फिर वो चढ़ाई ही नहीं कहलाएगी। ऐसी चढ़ाई जो आकर्षणों के खिलाफ़ न हो रही हो, उसे चढ़ाई ही नहीं कह सकते न भाई, फिर वो तो समतल ज़मीन हो गईगयी, उसमें चढ़ाई कहाँ है? आपको समतल ज़मीन पर सरपट दौड़ना है, दौड़िए, पर फिर ये मत कहिएगा कि आप किसी ऊँचाई की ओर जा रहे हैं। फिर कोई चढ़ाई नहीं रहेगी जीवन में। फिर कोई ऊँचाई, कोई उपलब्धि नहीं हासिल होने वाली।
देखिए, बार-बार मैं बोल रहा हूँ, अपने खिलाफ़ आप नहीं जा सकते तो आप अपना नाश करेंगे। विचित्र -सी बात है, जिसे अपना कल्याण करना हो, उसे अपने विरुद्ध जाना होगा; जिसे अपना नाश करना हो, उसे अपना साथ देना होगा। जो अपने विरुद्ध जा सकता है, वो अपना उद्धार कर ले जाएगा। आकर्षण दिखाई देने वाली चीज़ों में नहीं होता, आकर्षण आपके अंदर होता है, उसी के खिलाफ़ जाना है।
बाहर कौन-सी चीज़ में क्या आकर्षण है? आप सो रहे हैं, आपके पास कुछ बहुत आकर्षक चीज़ पड़ी है। दो करोड़ रुपए आपके बिस्तर पर बिछा है, आप सो रहे हैं, कौन-सा आकर्षण है? है कोई आकर्षण? आकर्षण रुपये में था? पर आपके गले में लोहे की ज़ंजीर हो और बगल में चुम्बक हो तो आप सो भी रहे हों तो भी वो जो ज़ंजीर है, वो चुम्बक की ओर खिंचेगी, यहाँ पर आकर्षण बाहर है। यहाँ पर जो प्रक्रिया है, वो भौतिक है। लेकिन आपके जीवन में जो हो रहा होता है, वो चुम्बक और लोहे जैसी चीज़ नहीं है। वो बाहर की चीज़ को दोष देने से कोई फ़ायदा नहीं; आकर्षण आपके भीतर है, उसी के विरुद्ध जाना होता है, वही चढ़ाई है।
बात समझ रहे हो?
और अपने विरुद्ध जाने का तो एक ही औचित्य हो सकता है — ‘मैं अपनी भलाई चाहता हूँ, मैं अपना दुश्मन नहीं हूँ।’