प्रश्नकर्ता: सिर, कभी-कभी मैं सोचता हूँ, और मैंने सुना भी है कि हमें अपनी सीमाओं को चुनौती देनी चाहिए, अपनी शारीरिक और मानसिक सीमाओं के पार निकलने के प्रयास करना चाहिए। मैं दो-तीन घंटे पढ़ने बैठा और ऊब गया, फिर मैंने सोचा कि तीन-चार घंटे पढ़कर देखता हूँ। फिर मैं जिम गया और दो घंटे में थक गया। मैं अपनेआप को चुनौती देना चाहता था, तो मैंने पाँच घंटे व्यायाम किया।
क्या ये सिर्फ मन को मज़बूत बना रहा है या ये मुझे किसी तरीक़े से मदद कर रहा है मन के पार जाने में?
आचार्य प्रशांत: दोनों बातें हो सकती हैं। कहा जाता कि अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करो, चुनौतियों को स्वीकार करो। 'जिन ढर्रो पर चल रहे हो, जरा उनसे बाहर निकलो, तोड़कर के देखो।'
उसमें दोनों बातें हो सकती हैं। ये भी हो सकता है कि तुम जितना ज़्यादा अपने ढर्रो को तोड़ते जा रहे हो, उतना ज़्यादा तुम अपनी इस भावना को पुष्ट करते जा रहे हो कि मैं इतना बली हूँ कि अपने ढर्रो को तोड़ सकता हूँ और ये एक नया ढर्रा है।
समझ रहे हो बात को?
ढर्रे तोड़े नहीं जाते, ढर्रो को टूटने दिया जाता है। जब टूटने दिया जाता है तो फिर दूसरी स्थिति आती है। जब तुम जानते हो कि कुछ महत्व है, वास्तव में जानते हो, तब तुम उस स्थिति या काम के रास्ते में अपने विचारों को, अपने ढर्रो को, अपने डरों को नहीं आने देते।
अब ढर्रा टूट रहा है और वो तुम्हारे करे नहीं टूट रहा है। तुम्हें पता है कि कुछ बिलकुल ठीक है पर उस दिशा में जब भी चल रहे हो तो भीतर से एक प्रतिवाद उठ रहा है। तुम उसकी ओर ध्यान नहीं दे रहे हो। ढर्रा अब टूटा पर तुम्हारे करे नहीं टूटा, तुम्हारे न करे टूटा।
तुम करते तो क्या करते? तुम ये करते कि तुम्हारे भीतर से जो प्रतिक्रिया उठ रही है, तुम उसको समर्थन दे देते। तुमने समर्थन नहीं दिया, यही तुमने बहुत किया। तुम्हारा अकर्म ही तुम्हारा उचित कर्म है। जहाँ तुम कर्ता बने, जहाँ तुम करने लग गए, वहाँ कर्म दूषित हो गया।
तुम जानने वाले हो, बोध स्वभाव है तुम्हारा। तुम जानो कि क्या सही है। और ये जानना मुश्किल नहीं है क्योंकि जानना भी स्वभाव है तुम्हारा। तो जानते तो हो ही। जानो और उस जानने के विरुद्ध तुम्हारे भीतर से जितने तर्क उठते हों, उन तर्कों को बल मत दो। ये अकर्म ही तुम्हारा सम्यक् कर्म है।
असल में, कोई ऐसा होता नहीं, जो जानता न हो। पता सबको है। पता सबको ऐसे है कि जो कुछ तुम्हें दुख देता है, वो उचित हो तो सकता नहीं। जीवन न दुख है, न स्वभाव दुख है पर दुख में हम जीते हैं। तो दुख का, क्लेश का और ग्लानि का अनुभव ही तुमको बता देता है कि क्या है जो उचित नहीं है, क्या है जिसे जाना चाहिए।
पर दुख को जीवन में बनाए रखने के लिए हम हज़ार तरीक़े के तर्क गढ़ लेते हैं। तो मुक्ति का क्या अर्थ हुआ? मुक्ति का अर्थ इतना ही हुआ कि दुख के समर्थन में तुम्हारे भीतर से जो तर्क उठते हों, तुम उन तर्कों को ताक़त मत दो। तुम्हें कोई बाहर से बता नहीं सकता कि तुम्हारे लिए उचित क्या है।
अपना जीवन तुम जी रहे हो, आपसे बेहतर कौन जानता है कि आप किस स्थिति में हैं। कोई गुरु, कोई वक्ता, कोई ज्ञानी आपको कौनसी बहुत बड़ी बात बता सकता है? पता आपको है पर ज़रा यक़ीन की कमी है, श्रद्धाहीनता है। मान ही नहीं पाते कि जो सही है, वो करके आपका हित हो जाएगा। बड़ा डर लगता है, लगता है कि ये करा तो आफ़त आ जाएगी।
तो फिर जानते-बूझते ऐसे काम कर जाते हो जो दुख को और बढ़ा देते हैं। मैं अभी आपके सामने बैठा हूँ, मैं भी अधिक-से-अधिक आपसे यही कह सकता हूँ कि अपने ही दुश्मन मत बनिए। और शायद एक दोस्त की और कोई सलाह हो भी नहीं सकती। दोस्ती इसी में निहित है कि आपने जो अपनेआप से दुश्मनी पाल रखी है, मैं दिखा दूँ कि वो ग़ैर-ज़रूरी है।
सब जानते हैं, सब समझते हैं; आँखों देखी मक्खी निगले जाते हैं। जब दुख किसी का स्वभाव नहीं तो आदमी ही क्यों अकेला है जो उसे झेले जाता है? निश्चित रूप से उसके पास दुख के समर्थन में तर्क हैं। होंगे तर्क बहुत बड़े-बड़े, इतना समझ लीजिए कि कोई भी तर्क यदि दुख के समर्थन में है तो ठीक नहीं हो सकता। और तर्क जब भी उठेगा दुख के समर्थन में ही उठेगा। आनन्द के समर्थन में तो मौन होता है।
कोई तर्क नहीं आएगा आनन्द का समर्थन करने के लिए। दुख-सुख का समर्थन करने के लिए तर्क आएँगे। मज़ेदार बात यही है न? आपके तर्क आते हैं, वो सीधे-सीधे ये नहीं कहते दुख अच्छा है। वो कहते हैं दुख झेल लो ताकि आगे सुख मिले।
तो ऊपर-ऊपर से ऐसा लगेगा जैसे तर्क आपको सुख देना चाहता है पर जो सुख वो देना चाहता है, वो सदा आगे की बात होती है। भविष्य में मिलेगा, कहीं और मिलेगा फिलहाल तो तुम दुख झेल लो, फिलहाल ज़रा कुर्बानी दे दो। आगे सुख मिलेगा।
प्र: "दुख तो अपना साथी है।"
आचार्य: "दुख तो अपना साथी है।" और ये जब आप कहते हो या गाते हो तो कोशिश यही करते हो कि ये गाकर सुख मिल जाएगा। (सभी हँसते हैं)
दुख को आदमी पोषण देता ही सिर्फ़ सुख की चाहत में है। जिसने दुख पकड़ा, समझ लो सुख बहुत चाहता है। जिसको रोता देखो, समझ लो कि बड़ी इच्छा है इसे हँसने की।
प्र: सर, आपने कहा कि जो तर्क है, दुख और सुख के समर्थन में आते हैं, आनन्द के समर्थन में नहीं आते हैं। तो आनन्द और सुख में क्या फ़र्क है?
आचार्य: आनन्द के साथ कोई दुख नहीं होता। आनन्द कोई आती-जाती स्थिति नहीं होती। आनन्द कुछ ऐसा नहीं है जो तुम्हें कुछ करके या कहीं बाहर से प्राप्त हो जाएगा। आनन्द वो स्थिति है कि समझ लो जिसमें, सुख भी बड़ा छोटा लगे, अनावश्यक लगे, चाहिए ही नही।
आनन्द-मग्न कौन नहीं है, ये तय करना है तो बस एक छोटा सा नुस्खा है, जो सुख तलाश रहा है वो आनन्द से छिटका हुआ है। जो आनन्द में है उसके लिए सुख ओछी चीज़ हो जाती है। वो कहता है, 'सुख चाहिए किसको? उससे कुछ बहुत बड़ा है जिसमें हम पहले ही स्थित हैं। अब सुख चाहिए किसको?' ऐसा नहीं है उसे सुख से कोई आपत्ति है, चाहिए नहीं। बात समझ रहे हो?
चाहत का मतलब होता है कि कमी महसूस हो रही है। सुख की कमी नहीं महसूस हो रही है; आएगा मौज कर लेंगे। ठीक उसी तरीक़े से, दुख भी यदि आएगा तो उससे गुज़र लेंगे। और दुख से भी जब गुज़र रहे होंगे तो रहेंगे आनन्द-मग्न ही। दुख का प्रतिरोध यही बताता है कि दुख तुम्हारे लिए एक हौआ हो गया है।
अरे! रोको दुख को, कहीं घुस आया तो छा जाएगा हमारे ऊपर। जो आनन्द में जी रहा होता है, वो दुख का सहज स्वीकार करता है। दुख आ रहा है आने दो, रोएँगे, खूब रोएँगे। आज रोने का दिन है, आज फूट-फूटकर रोना है। दिक्कत क्या है रोने से? हमें डर ही नहीं लगता रोने से। हमें दुख से नहीं डर लगता। दो, कितना दुख दोगे?
जिसे सुख की अभिलाषा ख़त्म हो गयी, उसे दुख का डर भी ख़त्म हो जाता है। या इसका मतलब फिर कह रहा हूँ, ये नहीं है कि वो सुख और दुख दोनों के प्रति निर्जीव हो जाता है। इसका अर्थ ये है कि अब वो सुख और दुख दोनों का पूर्ण भोक्ता बन जाता है। इसका मतलब ये नहीं कि सुख-दुख दोनों के प्रति इनडिफरेंट (उदासीन) हो जाता है।
प्र: उदासीन नहीं हो जाता है।
आचार्य: हाँ, उदासीन नहीं हो जाता है। डेडनेस नहीं आ जाती उसमें कि न हँस सकता है, न रो सकता है। न प्लेज़र (सुख) अनुभव कर पाता है, न पेन (दर्द)। ऐसी भाषा बोल दूँ तो थोड़ी तकलीफ़ होती है।
(सभी हँसते हैं)
प्र: रिलेट करता है इस चीज़ से।
आचार्य: रिलेट ही नहीं करता, पूरा अनुभव करता है, पूरा अनुभव। हम अगर अपनी ज़िन्दगी देखें तो हम कुछ भी पूरा अनुभव नहीं कर पाते क्योंकि पूरा अनुभव करने के लिए अनुभव को अपने भीतर गहराई से प्रवेश करने देना होता है। न हम पूरी तरह से सुख में प्रविष्ट हो पाते हैं, न हम दुख में अपनेआप को डूबने देते हैं।
जब आपको सुख मिल रहा होता है, कभी देखा है आपने कैसे भागते हैं सुख से! 'थोड़ा सा ले लो, थोड़ा सा। बाक़ी कल के लिए बचाकर रखो।' और कोई ज़्यादा मिल जाए सुख में तिरोहित होता हुआ तो कहेंगे, 'तुम बड़े सुखवादी हो रहे हो, अब दुख मिलेगा।'
दुख के डर के कारण हम सुख भी कहाँ भोग पाते हैं। और बल्कि जो दिखे सुख में डूबता हुआ उसे हम ओछा और करार दे देते हैं। हम कहते हैं, 'इनको देखो, ये भोगवादी हैं, पदार्थवादी हैं।‘ अब सुख तो पदार्थ से ही आएगा, सुख और कहीं से आ नहीं सकता।
आत्मा को सुख चाहिए नहीं, सुख जिन्हें चाहिए वो तो पदार्थ से ही पाएँगे। तो कह रहे हैं कि नहीं, नहीं, ये देखो, ये सब कंज्यूमरिस्ट हैं, भोगवादी हैं। न हम पूरे दुखी हो पाते हैं, दुखी भी एक सीमा तक होते हैं, उसके बाद भाग लेते हैं दुख से। 'दो दिन से दुख में पड़े हैं, चलो शॉपिंग करेंगे।'
(सभी हँसते हैं)
आनन्द का मतलब है, दुख-सुख दोनों पूरा। आनन्द का स्वभाव है पूरा, आनन्द आत्मा है। आनन्द, ‘हृदय’ है आपका, बिलकुल केन्द्र बिन्दु। जो पूर्णता में स्थापित होता है उसका जीवन भी पूर्णता से भरा होता है।
जीवन के पूर्णता से भरे होने का अर्थ ही यही होता है कि जीवन के आपको जो भी अनुभव होंगे, पूरे होंगे। उथले-उथले नहीं होंगे, थोड़े-बहुत नहीं होंगे। किसी से हाथ मिलाओगे तो पूरा मिलाओगे। और फिर यदि किसी से लड़ोगे भी तो पूरा लड़ोगे। ये नहीं कि दो आमने-सामने खड़े हैं और कह रहे हैं, 'पहले तू छूकर दिखा।'
(सभी हँसते हैं)
अब तुम्हारी लड़ाई वो होगी जो कृष्ण चाहते थे कि अर्जुन लड़ें; ‘लड़! पूरा लड़! अब सामने तेरे भाई-बन्धु हों तो भी लड़, पूरा लड़।‘ हमारे जीवन में कुछ भी पूरा नहीं है क्योंकि जीवन की पूर्णता, केन्द्र की पूर्णता से आती है। जो पूर्ण केन्द्र है हमारा, हम उससे संतृप्त नहीं हैं, कनेक्टेड (जुड़ा हुआ) नहीं हैं।
तो जब उससे आप जुड़े हुए नहीं होते तो ज़िन्दगी में जो कुछ भी आनन्दप्रद हो सकता है, आप उससे भी जुड़े हुए नहीं रहते। न पूरे तरीक़े से चुनौतियों का मुकाबला कर पाते हैं, न पूरे तरीक़े से अनजानी जगहों पर, अनजानी स्थितियों पर, अनजाने लोगों से मिल पाते हैं। सब कुछ थोड़ा-थोड़ा रहता है। मध्यम-मार्गी रहते हैं।